Wednesday, February 26, 2014

नसीम आलम नारवी ग़जल संग्रह- " देखो देखो वो आफताब रहा" पर प्रभाकर चौबे की समीक्षा

ये तेवर ग़ज़ल के देख ज़रा--- प्रभाकर चौबे
अगर साहित्यकार एक्टिविस्ट भी है तो समाज में उसके साहित्य पर कम उसकी सामाजिक सक्रियता पर यादा चर्चा होती है । समाज का ध्यान उसके एक्टिविम की ओर रहता है और साहित्य या कहें उसका लेखन दब-सा रहता है । हमारे मित्र, ट्रेडयूनियन लीडर, शायर नसीम आलम नारवी के साथ यही हुआ । हुआ क्या खुद लेखक (नारवी जी) ने लेखन के स्थान पर सामाजिक सरोकार को वरीयता दी । उन्हें लगा कि मैं दो कविता कम लिखू तो चलेगा, मैं नहीं कोई और लिख लेगा लेकिन इस समय मजदूरों के साथ खड़ा होना यादा जरूरी है । और नारवी जी शायद कई मर्तबा ंगज् ाल लिखना स्थगित कर मजदूर आंदोलन का नेतृत्व करने चल पड़े हों, मजदूरों की लड़ाई स्थगित नहीं की जा सकती । इस तरह विचारों के प्रति प्रतिबद्ध और समर्पित व्यक्ति लेखन को ही स्थगित नहीं करता, उसके प्रकाशन को भी स्थगित करते चलता है । उसके साहित्य से, कविताओं, ंगज् ालों से वह वर्ग तो परिचित होता है जिनके साथ वह संघर्ष करता है लेकिन प्रकाश में न आने के कारण जिसे साहित्य समाज अथवा विद्वत समाज कहते हैं, जो ओपीनियन मेकर होते हैं और समीक्षकों को प्रभावित करते हैं, राय बनाने को प्रभावित करते हैं, राय बनाने में सिद्ध हस्त होते हैं, वह विशिष्ट समाज ऐसे साहित्यकारों के लेखन से अपरिचित-सा होता है और ऐसे एक्टिविस्ट साहित्यकार के लेखन को साहित्य के पन्नों पर स्थान देने में बेहद संकोची होता है । यहाँ तक कि उसे साहित्यकार के रूप में मान्यता देने की तो बात अलग साहित्य में उसकी चर्चा करने तक से परहेज किया जाता है । ऐसे समीक्षकों को लगता है कि इनकी चर्चा करने से पवित्र साहित्य बिटल जाएगा । अपनी धुन के पक्के, विचारों के प्रतिबद्ध नसीम आलम नारवी ने लेखन को गम्भीरता से लिया उतनी ही गम्भीरता से जितनी गम्भीरता से मजदूर आंदोलन को लिया । वे लिखते रहे । छत्तीसगढ़ अंचल में ट्रेड यूनियन मूव्हमेंट में नसीम आलम नारवी प्रेरणादायी नाम है और लेखक बिरादरी तथा मजदूर वर्ग, मजदूर नेताओं के बीच उनके लेखन को पूरा सम्मान प्राप्त है । नसीम आलम नारवी की ंगज् ालों में नारेबाजी नहीं है । मजदूर आंदोलन से जुड़े रहे इसलिये नारे ही लेखन बनें, ऐसा नहीं सोचना चाहिये । समाज की समीक्षा है ंगज् ालों में प्यार हैं, रिश्तों की गर्माहट पर भाव-अभिव्यक्ति है, दोस्ती की ख्वाहिश और अकेलेपन का दर्द भी है । सामूहिकता की ताकत का विश्वास है तो संघर्ष के प्रति सम्मान भाव है - 'रहेगा क्या कोई मैआर अपनी इत का भरेंगे पेट जो माँगे की रोटियाँ लेकर ॥', संघर्ष और संघर्ष - इसी रास्ते पर चलना है - 'नसीम' निचले न बैठो ंकदम बढ़ाये चलो तुम्हें तो आना है इक सुब्हे कामरां लेकर प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठियों, रचना शिविरों में इसे लेकर चर्चा चलती कि नसीम भाई का संग्रह आना चाहिये । विचारों के प्रति प्रतिबद्ध लेखक संगठनों में, विशेषकर प्रलेस में लेखक बिरादरी के प्रति एक सामूहिक चेतना का उदय और विकास लेखक गोष्ठियां और शिविरों में एक प्रक्रिया के तहत होने लगता है । छत्तीसगढ़ प्रगतिशील लेखक संघ ने इसी चेतना के तहत जनकवि स्व. भगवती सेन (धमतरी) का संग्रह प्रकाशित किया । भिलाई इकाई ने साथियों का कहानी संग्रह 'फौलाद ढालते हाथों के दिन' तथा काव्य संग्रह 'हाथों के दिन' का प्रकाशन किया । राजनांदगांव इकाई ने जनकवि चंदूलाल चोरिया की । कविताएं प्रकाशित की बिलासपुर में 2012 में प्रलेस का राय सम्मेलन हुआ । सम्मेलन में नसीम आलम नारवी की सबने याद की । उनके संग्रह की बात भी उठी और तय किया गया कि उनका संग्रह छत्तीसगढ़ प्रलेस प्रकाशित करे । इसी निर्णय का परिणाम यह संग्रह है । एक और बात, नसीम आलम नारवी भाषा के सवाल पर दृढ़ता से मत रखते रहे हैं और इस प्रश्न पर हरिशंकर परसाई के साथ उनका पत्र-व्यवहार हुआ जो चर्चित रहा, भाषा के सवाल पर वे परसाई से भिड़ गए थे । नसीम आलम नारवी को संग्रह प्रकाशन पर बधाई ।

Wednesday, February 5, 2014

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"पुनर्वास बस्तियों में लिखी जा रही साहित्य की नई इबारत.."


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अकार 37 
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जीवेश प्रभाकर
(उप संपादक)