Tuesday, March 26, 2019

नाटककार और रंगमंच’---मोहन राकेश



आज विश्व रंगमंच पर पढ़ते हैं मोहन राकेश का यह प्रसिद्ध लेख नाटककार और रंगमंच’ जिसमें उन्होंने रंगमंच को नाट्यकार  के नजरिये से  देखने समझने का प्रयत्न किया  है.  आज भी उनके सवाल शंकाएं कितनी प्रासंगिक हैं-  
जीवेश प्रभाकर, संपादक
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            और लोगों की बात मैं नहीं जानता, केवल अपने लिए कह सकता हूँ कि आज की रंगमंचीय गतिविधि में गहरी दिलचस्पी रखते हुए भी मैं अब तक अपने को उसका एक हिस्सा महसूस नहीं करता। कारण अपने मन की कोई बाधा नहीं, अपने से बाहर की परिस्थितियाँ हैं। एक तो अपने यहाँ, विशेष रूप से हिन्दी में, उस तरह का संगठित रंगमंच है ही नहीं जिसमें नाटककार के एक निश्चित अवयव होने की कल्पना की जा सके, दूसरे उस तरह की कल्पना के लिए मानसिक पृष्ठभूमि भी अब तक बहुत कम तैयार हो पायी है।
          रंगमंच का जो स्वरूप हमारे सामने है, उसकी पूरी कल्पना परिचालक और उसकी अपेक्षाओं पर निर्भर करती है। नाटककार का प्रतिनिधित्व होता है एक मुद्रित या अमुद्रित पांडुलिपि द्वारा, जिसकी अपनी रचना-प्रक्रिया मंचीकरण की प्रक्रिया से अलग नाटककार के अकेले कक्ष और अकेले व्यक्तित्व तक सीमित रहती है। इसीलिए मंचीकरण की प्रक्रिया में परिचालक को कई तरह की असुविधा का सामना करना पड़ता हैनाटककार से उसे कई तरह की शिकायत भी रहती है। ऐसे में यदि नाटककार समझौता करने के लिए तैयार हो, तो उसकी पांडुलिपि की मनमानी शल्य-चिकित्सा की जाने लगती हैसंवाद बदल दिये जाते हैं, स्थितियों में कुछ हेर-फेर कर दिया जाता है और चरित्रों तक में हस्तक्षेप किया जाने लगता है। पर यदि नाटककार का अहं इसमें आड़े आता हो, तो उस पर रंगमंच के सीमित ज्ञानका अभियोग लगाते हुए जैसे मजबूरी में नाटक को ज्यों का त्योंभी प्रस्तुत कर दिया जाता है।
नाटककार की स्थिति एक ऐसे अजनबीकी रहती है जो केवल इसलिए कि पांडुलिपि उसकी है, एक नाटक के सफल अभिनय के रास्ते में खामखाह अड़ंगा लगा रहा हो। वैसे यह असुविधा भी तभी होती है जब नाटककार दुर्भाग्यवश उसी शहर में रहता हो जहाँ पर कि नाटक खेला जा रहा हो। अन्यथा नाटक को चाहे जिस रूप में खेलकर केवल उसे सूचना-भर दे देने से काम चल जाता है।
कुछ वर्ष पहले मेरा नाटक आषाढ़ का एक दिनइलाहाबाद में खेला गया था, तो उसमें से अम्बिका की भूमिका हटाकर उसकी जगह बाबा की भूमिका रख दी गयी थी। मुझे इसकी सूचना मिली थी नाटक के अभिनय के दो महीने बाद। कुछ परिचालकों की दृष्टि में एक नाटककार को अपने नाटक के साथ इतना ही सम्बन्ध रखना चाहिए कि वह अभिनय की जो थोड़ी-बहुत रायल्टी दी जाए, उसे लेकर सन्तुष्ट हो रहे। कुछ-एक तो नाटककर के इतने अधिकार को भी स्वीकार नहीं करना चाहते।
          इस सिलसिले में मुझे डेढ़-दो साल पहले बम्बई में सत्यदेव दुबे से हुई बातचीत का ध्यान आता है। दुबे की रंग-निष्ठा का मैं प्रशंसक हूँ, परन्तु आद्य रंगचार्य का सुनो जनमेजयखेलने के बाद इस प्रश्न को लेकर उन्होंने नाटककार के साथ जो रुख अपनाया, वह नि:सन्देह प्रशंसनीय नहीं था। मेरी बात उनसे सुनो जमनेजयके सन्दर्भ में ही हुई थीउससे पहले जब उन्होंने मेरा नाटक खेला था, तो मैंने यह प्रश्न उनके साथ नहीं उठाया था। तब कारण था दुबे की लगन और उनके कार्य के प्रति मेरा व्यक्तिगत स्नेह। सुनो जनमेजयके सन्दर्भ में भी बात रायल्टी को लेकर उतनी नहीं थी, जितनी आज की रंग-सम्भावना में नाटककार के स्थान और उसके अधिकारों को लेकर। वह बातचीत मेरे लिए दुखदायी इसलिए थी कि नाटककार और परिचालक के बीच जिस सम्बन्ध-सूत्र के उत्तरोत्तर दृढ़ होने पर ही हमारी निजी रंगमंच की खोज निर्भर करती है, उसमें उसी को झटक देने की दृष्टि लक्षित होती थी।
           रंगमंच की पूरी प्रयोग-प्रक्रिया में नाटककार केवल एक अभ्यागत, सम्मानित दर्शक या बाहर की इकाई बना रहे, यह स्थिति मुझे स्वीकार्य नहीं लगती। न ही यह कि नाटककार की प्रयोगशीलता उसकी अपनी अलग चारदीवारी तक सीमित रहे और क्रियात्मक रंगमंच की प्रयोगशीलता उससे दूर अपनी अलग चारदीवारी तक। इन दोनों को एक धरातल पर लाने के लिए अपेक्षित है कि नाटककार पूरी रंग-प्रक्रिया का एक अनिवार्य अंग बन सके। साथ यह भी कि वह उस प्रक्रिया को अपनी प्रयोगशीलता के ही अगले चरण के रूप में देख सके।
           यहाँ इतना और स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मैं इस बात की वकालत नहीं करना चाह रहा कि बिना नाटककार की उपस्थिति के उसके किसी नाटक की परिचालना की ही न जाएऐसी स्थिति की कल्पना अपने में असम्भव ही नहीं, हास्यास्पद भी होगी। न ही मैं यहाँ उस स्थिति पर टिप्पणी करना चाहता हूँ जहाँ नाटककार स्वयं परिचालना का भी दायित्व अपने ऊपर ले लेता है। नाटककार-परिचालन या परिचालन-नाटककार की स्थिति अपने में एक स्वतन्त्र विषय है जिसकी पूर्तियों और अपूर्तियों की चर्चा अलग से की जा सकती है। यद्यपि हमारे यहाँ गम्भीर स्तर पर इस तरह के प्रयोगों से अधिक उदाहरण नहीं हैं, फिर भी मराठों में पु.ल. देशपांडे और बँगला में उत्पल दत्त के नाट्य-प्रयोग इन दोनों श्रेणियों के अन्तर्गत विचार करने की पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत कर सकते हैं। यहाँ मेरा अभिप्राय नाटक की रचना-प्रक्रिया के रंगमंच की प्रयोगशीलता के साथ जुड़ सकने की सम्भावनाओं से है। एक नाटक की रचना यदि रंग-प्रक्रिया के अन्तर्गत होती है, तो बाद में उसे कहाँ-कहाँ और किस-किस रूप में खेला जाता है, इसमें नाटककार की भागिता का प्रश्न नहीं रह जाता, रह जाता है केवल उसके अधिकारों का प्रश्न।
         रंगमंच के प्रश्न को लेकर पिछले कुछ वर्षों से बहुत गम्भीर स्तर पर विचार किया जाने लगा हैउसकी सम्भावनाओं की दृष्टि से भी और उन ख़तरों की दृष्टि से भी जो उसके अस्तित्व के लिए चुनौती बनते जा रहे हैं। बड़े-बड़े परिसंवादों में हम बड़े-बड़े प्रश्नों पर विचार करने के लिए जमा होते हैं। रंगमंच को दर्शक तक ले जाने या दर्शक को रंगमंच तक लाने के हमें क्या उपाय करने चाहिए? प्रयोगशील रंगमंच को आर्थिक आधार पर किस तरह जीवित रखा जा सकता है? किन तकनीकी या दूसरे चमत्कारों से रंगमंच को सामान्य दर्शक के लिए अधिक आकर्षक बनाया जा सकता है? सर्वांग (टोटल) रंगमंच की सम्भावनाएँ क्या हैं? विसंगत रंगमंच के बाद की दिशा क्या होगी? घटना-विस्फोट के प्रयोग हमें किस रूप में करने चाहिए? इन सब परिसंवादों में जाकर लगता है कि ये सब बड़ी-बड़ी बातें केवल बात करने के लिए ही की जाती हैंअपने यहाँ की वास्तविकता के साथ इनका बहुत कम सम्बन्ध रहता है।
         यूँ उन देशों में भी जहाँ के लिए ये प्रश्न अधिक संगत हैं, अब तक आकर वास्तविकता का साक्षात्कार कुछ दूसरे ही रूप में होने लगा है। बहुत गम्भीर स्तर पर विचार-विमर्श होने के बावजूद रंगमंच (अर्थात् नाटक से सम्बद्ध रंगमंच का अस्तित्व वहाँ भी उत्तरोत्तर अधिक असुरक्षित होता जान पड़ता है। परन्तु हमें उधर के प्रश्नों पर विचार करने का मोह इतना है कि हम शायद तब तक अपनी वास्तविकता के साक्षात्कार से बचे रहना चाहेंगे जब तक कि विश्व-मंच पर अर्द्ध-विकसित देशों में रंगमंच की स्थितिजैसा कोई विषय नहीं उठा दिया जाता और तब भी बात शायद कुछ आँकड़ों के आदान-प्रदान तक ही सीमित रह जाएगी।
हमारे यहाँ या हमारी स्थिति के हर देश में रंगमंच का विकास-क्रम वही होगा जो अन्य विकसित देशों में रहा है, यह भी एक तरह की भ्रान्त धारणा है। शीघ्र से शीघ्र उस विकास-क्रम में से गुज़र सकने के प्रयत्न में हम प्रयोगशीलता के नाम पर अनुकरणात्मक प्रयोग करते हुए किन्हीं वास्तविक उपलब्धियों तक नहीं पहुँच सकते, केवल उपलब्धियों के आभास से अपने को अपनी अग्रगामिता का झूठा विश्वास दिला सकते हैं। यह दृष्टि बाहर से रंगमंच को एक नयाऔर आधुनिकरूप देने की है, अपने निजी जीवन और परिवेश के अन्दर से रंगमंच की खोज की नहीं। उस खोज के लिए आवश्यक है अपने जीवन और परिवेश की गहरी पहचानआज के अपने घात-प्रतिघातों की रंगमंचीय सम्भावनाओं पर दृष्टिपात। यह खोज ही हमें वास्तविक नए प्रयोगों की दिशा में ले जा सकती है और उस रंगशिल्प को आकार दे सकती है जिससे हम स्वयं अब तक परिचित नहीं हैं।
          अपने रंग-शिल्प पर बाहरी दृष्टि से विचार करने के कारण ही हम अपने को न्यूनतम उपकरणों की अपेक्षा से बँधा हुआ महसूस करते हैं और यह अपेक्षा तकनीकी विकास के साथ-साथ उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। साथ ही हमारी निर्भरता भी बढ़ती जा रही है और हम अपने को एक ऐसी बन्द गली में रुके हुए पा रहे हैं जिसकी सामने की दीवार को इस या उस ओर से बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता पाकर ही तोड़ा जा सकता है। परन्तु मुझे लगता है कि हम इस गली में इसलिए पहुँच गये हैं कि हमने दूसरी किसी गली में मुड़ने की बात सोची ही नहींकिसी ऐसी गली में जो उतनी हमवार न होते हुए भी कम-से-कम आगे बढ़ते रहने का मार्ग तो दिये रहती।
          तकनीकी रूप से समृद्ध और संश्लिष्ट रंगमंच भी अपने मन में विकास की एक दिशा है, परन्तु उससे हटकर एक दूसरी दिशा भी है और मुझे लगता है कि हमारे प्रयोगशील रंगमंच की वही दिशा हो सकती है। वह दिशा रंगमंच के शब्द और मानव-पक्ष को समृद्ध बनाने की हैअर्थात् न्यूनतम उपकरणों के साथ संश्लिष्ट से संश्लिष्ट प्रयोग कर सकने की। यहीं रंगमंच में शब्दकार का स्थान महत्त्वपूर्ण हो उठता हैउससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण जितना कि हम अब तक समझते आये हैं।
          पिछले दिनों दो-एक परिचर्चाओं में मैंने नाटककार के रंगमंच की बात इसी सन्दर्भ में उठायी थी। मैंने पहले ही कहा है कि इसका अर्थ नाटककार को परिचालक की भूमिका देना नहीं हैबल्कि परिचालना-पक्ष पर दिया जानेवाला अतिरिक्त बल हमें अनिवार्यत: जिस गतिरोध की ओर लिये जा रहा है, रंगमंच को उससे मुक्त करना है। शब्दों का रंगमंच केवल शब्दकार का रंगमंच नहीं हो सकताशब्दकार, परिचालक और अभिनेता, इनके सहयोगी प्रयास से ही उसके स्वरूप का अन्वेषण और परिसंस्कार किया जा सकता है। इसका स्वीकृति-पक्ष है शब्दकार को अपनी रंग-परिकल्पना का आधार-बिन्दु मानकर चलना और अस्वीकृति-पक्ष उन सब आग्रहों से मुक्ति जिनके कारण रंग-परिचालना का मानवेतर पक्ष उत्तरोत्तर अधिक बल पकड़ता दिखाई देता है।
          इसके लिए अपेक्षित है शब्दकार का पूरी रंग-प्रक्रिया के बीच उसका एक अनिवार्य अंग बनकर जीनाअपने विचार को उस प्रक्रिया के अन्तर्गत ही शब्द देनाउसी तरह अपने आज के लिखे हर शब्द को कल तक के लिए अनिश्चित और अस्थायी मानकर चलना अर्थात परिचालक और अभिनेता की तरह ही शब्दों के स्तर पर बार-बार रिहर्सल करते हुए आगे बढऩा। परन्तु यह सम्भव हो सके, इसके लिए परिचालक की दृष्टि में भी एक आमूल परिवर्तन अपेक्षित हैउसे इस मानसिक ग्रन्थि से मुक्त होना होगा कि पूरी रंग-प्रक्रिया का नियामक वह अकेला है। उस स्थिति में वह अकेला नियामक होगा जब इस तरह की रंग-प्रक्रिया के अन्तर्गत एक नाटक का निर्माण हो चुकने के बाद वह उसे प्रस्तुत करने जा रहा होअर्थात् जब अन्तत: नाटक एक निश्चित पांडुलिपि या मुद्रित पुस्तक का रूप ले चुका हो। परन्तु जिस रंग-प्रक्रिया के अन्तर्गत वह पांडुलिपि निर्मित हो रही हो, उसमें मूल नियामक नाटककार ही हो सकता है और परिचालक वह मुख्य सहयोगी जो उसके हर अमूर्त विचार को एक मूर्त आकार देकरया न दे सकने की विवशता सामने लाकर स्वयं भी लेखन-प्रक्रिया में उसी तरह हिस्सेदार हो सकता है जैसे प्रस्तुतीकरण की प्रक्रिया में नाटककार।
          इसका कुछ अनुभव मुझे उन दिनों का है जिन दिनों कलकत्ते में रहकर मैंने लहरों के राजहंसका तीसरा अंक फिर से लिखा था। मुझे यह स्वीकार करने में संकोच नहीं है कि बिना रात-दिन श्यामानन्द के साथ नाटक के वातावरण में जिये, आधी-आधी रात तक उससे बहस-मुबाहिसे किये, और नाटक की पूरी अन्विति में एक-एक शब्द को परखे वह अंश अपने वर्तमान रूप में कदापि नहीं लिखा जा सकता था। परन्तु साथ यह भी कहना चाहूँगा कि श्यामानन्द के प्रस्तुतीकरण में नाटक का उतना अंश जो शेष अंश से बहुत अलग पड़ गया था, उसके पीछे भी यह सहयोगी प्रयास ही मुख्य कारण था। कम-से-कम हिन्दी नाटक के सन्दर्भ में शायद पहली बार लेखन और प्रस्तुतीकरण की प्रक्रिया को उस रूप में साथ जोड़ा जा सका था। इसे सम्भव बनाने के लिए जो अनुकूल वातावरण मुझे वहाँ मिला था, मैं समझता हूँ कि उसी तरह के वातावरण में रंगमंच की वास्तविक खोज की जा सकती हैलेखन के स्तर पर भी और परिचालना के स्तर पर भी।

Monday, March 25, 2019

विचारधाराओं की रणभूमि बना बेगूसराय---- जीवेश चौबे

लोकसभा चुनाव 2019 में पिछले कई महीनों से यह अटकलें लगाई जा रही थीं कि युवाओं के बीच अपनी
पहचान बनाने वाले जेएनयू के छात्र नेता रह चुके कन्हैया कुमार बिहार में महागठबंधन के उम्मीदवार होंगे। भाकपा के भी केंद्रीय नेताओं से लेकर राज्य नेतृत्व तक यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि राजद कन्हैया कुमार को महागठबंधन का उम्मीदवार बनाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राजद के नए नेतृत्व तेजस्वी यादव ने महागठबंधन से कन्हैया को अपना उम्मीदवार नहीं स्वीकारा। बिहार में राजग व महागठबंधन के इस स्टैंड के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने फैसला किया कि महागठबंधन के समर्थन न मिलने के बावजूद पार्टी इस सीट पर चुनाव लड़ेगी और कन्हैया कुमार बेगूसराय सीट से ही अब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी  (भाकपा) की टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने तय किया है कि पार्टी अपने कैडर व जन संगठनों की ताकत के बल पर चुनाव में उतरेगी। एक अच्छी व सकारात्मक बात ये हुई कि कन्हैया की उम्मीदवारी को अन्य वामपंथी दल भी अपना समर्थन दे रहे हैं और वह संयुक्त वाम दलों के उम्मीदवार होंगे।
बहरहाल कन्हैया कुमार की दावेदारी के बाद अब बेगूसराय लोकसभा सीट का मुकाबला काफी दिलचस्प हो गया है, क्योंकि यहां अब त्रिकोणीय वैचारिक संघर्ष देखने को मिलेगा। लम्बे अरसे के पश्चात एक बार फिर देश में तीन प्रमुख विचारधाराओं के बीच सीधे संघर्ष की स्थिति बनी है। बेगूसराय में वामपंथ के युवा उभरते कन्हैया कुमार के मुकाबले बीजेपी के कट्टर व घोर दक्षिणपंथी नेता गिरिराज सिंह होंगे वहीं समाजवादी व लोहियावादी विचारधारा को मानने वाली लालू यादव की पार्टी  राष्ट्रीय जनता दल से तनवीर हसन हैं। निश्चित रूप से बेगूसराय में विचारधाराओं का ये संघर्ष अनूठा व निर्णायक सिद्ध होगा जो देश की राजनीति को एक नई दिशा देगा।
बिहार के बेगूसराय को एक जमाने में वाम पार्टियों विशेष रूप से सीपीआई का गढ़ माना जाता था। यहां तक कि इसे भारत का लेनिनग्राड कहा जाता था। इस संसदीय सीट पर कई बार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवारों ने जीत का परचम भी लहराया है। 1990 के बाद धीरे-धीरे सीपीआई बिहार में कमजोर होने लगी थी और वाम दलों की जीत लालू यादव की पार्टी राजद के समर्थन पर निर्भर होते चली गई। धीरे-धीरे वाम दल न सिर्फ बिहार बल्कि पूरे देश में सहयोगियों के समर्थन पर आश्रित होते चले गए। 
पहले लालू यादव ने काफी लम्बे समय तक वाम पार्टियों का साथ दिया। अब राजद का नेतृत्व लालू यादव के युवा पुत्र तेजस्वी के हाथों में है तो पार्टी के रुख व रणनीति में बदलाव स्पष्ट रूप से दिखने लगा है। यह भी संभव है कि बूढ़े होते लालू यादव को शायद पुत्र मोह में तेजस्वी के मुकाबले कन्हैया कुमार या किसी अन्य युवा की लोकप्रियता व सफलता खटक रही हो। यह भी हो सकता है कि अब सारे निर्णय तेजस्वी ले रहे हैं तो वे नए दौर की नई रणनीति पर काम कर रहे हों जहां उनकी प्राथमिकताएं अलग होना स्वाभाविक है। हाल के महागठबंधन में सीटों के बंटवारे से यह तो स्पष्ट है कि चुनाव में जीत ही तेजस्वी की पहली प्राथमिकता है।  इसी के चलते तेजस्वी ने जातिगत समीकरण को तवज्जो देते हुए वाम दलों की बजाय हम व वीआईपी जैसी नई पार्टियों को तहरीज दी। संभव है कि राजद के वर्तमान कर्ता-धर्ता तेजस्वी यादव को यह लग रहा हो कि बेगूसराय में उनके उम्मीदवार तनवीर हसन जो पिछले चुनाव में मोदी लहर के बावजूद करीब 60 हजार वोटों के करीबी अंतर से हार गए थे इस बार शायद जीत सकते हैं।
कन्हैया कुमार को गठबंधन का समर्थन न दिए जाने से न सिर्फ वामदल, बल्कि देश का बहुत बड़ा बौद्धिक वर्ग भी हैरान है। पूरा बौद्धिक समाज इस बात को बड़ी शिद्दत से सोचने पर मजबूर हुआ है कि जब कांग्रेस, राजद व अन्य भाजपा-विरोधी गठबंधन के तमाम सहयोगी दल साम्प्रदायिक व फासीवादी ताकतों के खिलाफ राजनैतिक संघर्ष में जहां वामपंथी पार्टियों का समर्थन चाहते हैं, एकजुटता का राग अलापते हैं साथ ही देश के फासीवाद व सांप्रदायिक ताकतों से खतरा बता कर प्रगतिशील व जनवादी साहित्यिक व संस्कृतिकर्मियों का भी समर्थन हर बार लेते रहते हैं तो सांप्रदायिक व फासीवादी ताकतों से लगातार चुनौती देने वाले व संघर्ष करने वाले कन्हैया कुमार जैसे युवा नेता जब चुनाव में खड़े होते हैं तो ये दल उन्हें समर्थन देने की बजाय अपने दलगत स्वार्थों के चलते ऐसे जुझारू नेताओं से क्यों किनारा कर लेते हैं।
गैरराजनैतिक रूप से देश का बुद्धिजीवी वर्ग हमेशा से सांप्रदायिक व फासीवादी ताकतों के खिलाफ रहा आया है। जब भी देश पर ऐसे संकट आए हैं बौद्धिक वर्ग ने इन ताकतों के खिलाफ खुलकर उन दलों और व्यक्तियों को समर्थन दिया है जो फासीवादी सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ संघर्ष करते महसूस किए गए। देश में इस पैमाने पर लालू यादव अब तक निर्विवाद रूप से बुद्धिजीवियों सहित सभी की नजर में सबसे अहम भूमिका में खरे उतरते रहे। मगर इस बार लालू यादव के बेटे व राजद के युवा नेतृत्व तेजस्वी यादव ने प्राथमिकताएं बदलते हुए जीत के लिए जातिगत समीकरण को प्राथमिकता दी और गठबंधन में उन्हें ही शामिल किया व समर्थन दिया। सांप्रदायिकता के पैमाने पर जातिवादी राजनीति को अपनाने का उनका जीत का फार्मूले से क्या नफा या नुकसान होता है ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा मगर अब समाजवादियों की नई पीढ़ी के इस नए फैसले व रुख पर वाम दलों के साथ-साथ प्रगतिशील जनवादी बौद्धिक मानस को भी गंभीरता से विचार करना होगा।
हमेशा हिमालयी भूलें करने वाले वाम दलों ने दूसरों पर आश्रित होते चले जाने की अपनी सबसे बड़ी भूल पर कभी विचार ही नहीं किया। वाम दलों को अपनी ताकत बढ़ाने की बजाय पराश्रित होते जाने का खामियाजा आज भुगतना पड़ रहा है। इस पर भरोसे की आदत ने पूरे वाम आंदोलन को संगठनात्मक स्तर पर कैडर व जमीनी स्तर पर जनता से दूर सा कर दिया है। जनता से दूर होते जाने से वाम दलों की ताकत लगातार कमजोर होती गई जिसके चलते सिर्फ बिहार ही नहीं, पूरे देश में कांग्रेस सहित दूसरी पार्टियां भी वाम दलों से दूरी बनाती जा रही हैं। आज वाम दलों के पास जनता से बढ़ती अपनी इस दूरी को पाटना चुनाव जीतने से कहीं ज्यादा बड़ी चुनौती है। इस चुनाव में उभरते युवा वाम आईकॉन कन्हैया कुमार से वाम आंदोलन क्या एक नए जोश के साथ फिर उभर सकेगा? सभी इसका इंतजार उत्सुकता से कर रहे हैं।
jeeveshprabhakar@gmail.com
(देशबन्धु 26 मार्च 2019)

Friday, March 22, 2019

23 मार्च मशहूर कवि पाश का भी शहादत दिवस है –––– जीवेश प्रभाकर



 अवतार सिंह संधु पाश  
(9 सितम्बर 1950- 23 मार्च 1988)

     अवतार सिंह संधु पाश  पंजाबी के प्रख्‍यात शायर हैं। पाश भी उसी दिन यानी 23 मार्च को  शहीद हो गये जिस दिन भगत सिंह शहीद हुए थेसिर्फ सन् अलग- अलग थे। वे वामपंथी आंदोलन में सक्रिय रहे आजाद मुल्‍क़ के लिए जैसे समाज का ख्वाब भगत‍ सिंह देख रहे थे, पाश वैसे ही समाज बनाने की जद्दोजहद में लगे थे।  पंजाब में जब अलगाववादी आंदोलन चरम पर था, पाश ने इसका खुलकर विरोध किया। वे इसके ख़तरे से अच्‍छी तरह वाकि़फ़ भी थे औरक अंततः वे इसी का शिकार भी हुए।
पाश महज़ 38 साल की उम्र में 23 मार्च 1988को शहीद हो गये थे।
     पंजाबी में उनके चार कविता संग्रह.. लौह कथा, उड्डदे बाजां मगर, साडे समियां विच और लडांगे साथी प्रकाशित हुए हैं। हिन्दी में इनके काव्य संग्रह बीच का रास्ता नहीं होता और समय ओ भाई समय के नाम से अनूदित हुए हैं। उनकी मृत्यु के बाद लड़ेगें साथीशीषर्क से संग्रह आया जिसमें प्रकाशित व अप्रकाशित कविताएं संकलित हैं ।
   पाश ने भगत सिंह पर भी कविता लिखी । आज पढ़ते हैं एक क्रांतिकारी कवि की अपने आदर्श क्रांतिकारी पर लिखी कविताएँ -

-शहीद भगत सिंह-
-पाश

पहला चिंतक था पंजाब का
सामाजिक संरचना पर जिसने
वैज्ञानिक नज़रिये से विचार किया था

पहला बौद्धि‍क
जिसने सामाजिक विषमताओं की, पीड़ा की
जड़ों तक पहचान की थी

पहला देशभक्‍त
जिसके मन में
समाज सुधार का
ए‍क निश्चित दृष्टिकोण था

पहला महान पंजाबी था वह
जिसने भावनाओं व बुद्धि‍ के सामंजस्‍य के लिए
धुँधली मान्‍यताओं का आसरा नहीं लिया था
ऐसा पहला पंजाबी
जो देशभक्ति के प्रदर्शनकारी प्रपंच से
मुक्‍त हो सका
पंजाब की विचारधारा को उसकी देन
सांडर्स की हत्‍या
असेम्‍बली में बम फेंकने और
फॉंसी के फंदे पर लटक जाने से कहीं अधिक है
भगत सिंह ने पहली बार
पंजाब को
जंगलीपन, पहलवानी व जहालत से
ब‍ुद्धि‍वाद की ओर मोड़ा था
जिस दिन फांसी दी गयी
उसकी कोठरी में
लेनिन की किताब मिली
जिसका एक पन्‍ना मोड़ा गया था
पंजाब की जवानी को
उसके आखिरी दिन से
इस मुड़े पन्‍ने से बढ़ना है आगे
चलना है आगे

पाश


 -23 मार्च 
       पाश

उसकी शहादत के बाद बाक़ी लोग 
किसी दृश्य की तरह बचे 
ताज़ा मुंदी पलकें देश में सिमटती जा रही झाँकी की 
देश सारा बच रहा बाक़ी

उसके चले जाने के बाद 
उसकी शहादत के बाद 
अपने भीतर खुलती खिडकी में 
लोगों की आवाज़ें जम गयीं 

उसकी शहादत के बाद
देश की सबसे बड़ी पार्टी के लोगों ने 
अपने चेहरे से आँसू नहीं, नाक पोंछी 
गला साफ़ कर बोलने की 
बोलते ही जाने की मशक की 

उससे सम्बन्धित अपनी उस शहादत के बाद 
लोगों के घरों में, उनके तकियों में छिपे हुए
कपड़े की महक की तरह बिखर गया 

शहीद होने की घड़ी में वह अकेला था ईश्वर की तरह
लेकिन ईश्वर की तरह वह निस्तेज न था


और एक कविता

सपने
पाश

हर किसी को नहीं आते
बेजान बारूद के कणों में
सोई आग के सपने नहीं आते
बदी के लिए उठी हुई
हथेली को पसीने नहीं आते
शेल्फ़ों में पड़े
इतिहास के ग्रंथो को सपने नहीं आते
सपनों के लिए लाज़मी है
झेलनेवाले दिलों का होना
नींद की नज़र होनी लाज़मी है
सपने इसलिए हर किसी को नहीं आते
पाश
( प्रस्तुति - जीवेश प्रभाकर)

Thursday, March 14, 2019

छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री के लिए महज जीत नहीं, ज्यादा सीट की चुनौती---- जीवेश चौबे

इस बात पर गौर करना जरूरी है कि पूर्व में भाजपा कांग्रेस के मतों में कम अंतर के बावजूद पूर्व के
लोक सभा चुनावों में भाजपा छत्तीसगढ़ की 11 में से 10-10 सीटें जीतने में कामयाब रही आई। अत: यह देखना होगा कि इस बार लोक सभा चुनाव में भाजपा को हुए 10 प्रतिशत मतों के नुकसान को मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कितनी सीटों में बदल पाते हैं। यह तो माना जा सकता है कि मतों के इस बड़े अंतर का मनोवैज्ञानिक लाभ तो कांग्रेस को मिल ही रहा है अत: पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की उम्मीदें रमन सिंह द्वारा भाजपा को दिलाई गई 10 सीटों से कम नहीं होंगी अत: पार्टी की इन ऊंची उम्मीदों पर खरे उतरना मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के लिए एक चुनौती है।
लोक सभा चुनावों की घोषणा के साथ ही पूरे देश में चुनावी सरगर्मियां तेजी से बढ़ गई हैं । विशेष रूप से उन राज्यों में जहां हाल ही में विधान सभा चुनाव संपन्न हुए हैं और कांग्रेस की सरकार बनी है। छत्तीसगढ़ भी उन्हीं राज्यों में से है। देखा जाए तो छत्तीसगढ़ पर तो कांग्रेस का फोकस सबसे ज्यादा है क्योंकि विधान सभा चुनाव में लगभग तीन चौथाई सीटें कांग्रेस के पाले में रही हैं और भाजपा पूर्व में जीती गई सीटों से एक तिहाई पर सिमट कर रह गई है।
गौरतलब बात यह है कि पिछले दोनों  लोकसभा चुनावों में जब रमन सिंह विधान सभा जीतकर आए थे तो उन्होंने भाजपा को लोक सभा की 11 सीटों में से 10-10 सीटें जितवाकर दीं। इस लिहाज से छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पर  सिर्फ जीत का नहीं, बल्कि ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतकर लाने का मनोवैज्ञानिक दबाव बढ़ गया है । यहां यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि पूर्व के विधान सभा चुनावों में भाजपा व कांग्रेस के प्राप्त मतों में बमुश्किल 1 प्रतिशत का ही अंतर रहा आया था, जबकि हाल के विधान सभा चुनाव में भाजपा के मत प्रतिशत में लगभग 10 प्रतिशत की कमी आई है। हालांकि यह बात सही है कि भाजपा को हुए मतों के नुकसान का पूरा फायदा कांग्रेस को नहीं मिला मगर लोक सभा चुनाव की दृष्टि से इस नुकसान का सीधा लाभ कांग्रेस को मिल सकता है। इस बात पर गौर करना जरूरी है कि पूर्व में भाजपा कांग्रेस के मतों में कम अंतर के बावजूद पूर्व के लोक सभा चुनावों में भाजपा छत्तीसगढ़ की 11 में से 10-10 सीटें जीतने में कामयाब रही आई। अत: यह देखना होगा कि इस बार लोक सभा चुनाव में भाजपा को हुए 10 प्रतिशत मतों के नुकसान को मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कितनी सीटों में बदल पाते हैं। यह तो माना जा सकता है कि मतों के इस बड़े अंतर का मनोवैज्ञानिक लाभ तो कांग्रेस को मिल ही रहा है अत: पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की उम्मीदें रमन सिंह द्वारा भाजपा को दिलाई गई 10 सीटों से कम नहीं होंगी अत: पार्टी की इन ऊंची उम्मीदों पर खरे उतरना मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के लिए एक चुनौती है।
लोक सभा चुनावों में हालांकि विधान सभा के मुकाबले मतदाताओं की अलग तरह की मानसिकता होती है जो पूर्व के चुनावों में विधान सभा व लोक सभा के नजीजों से समझा जा सकता है। अत: विधान सभा में मिली जीत व मत प्रतिशत को सिंपल मैथ्स से लोक सभा की जीत में नहीं आंका जा सकता। लोक सभा चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे व नेतृत्व का आकर्षण भी बड़ी भूमिका निभाता है। भाजपा में देखा जाए तो नरेन्द्र मोदी जी के पास सर्वमान्य नेतृत्व के साथ ही पिछले पांच वर्षों के शासन का रिपोर्ट कार्ड है जिसे वे लगातार आक्रामक रूप से जनता के सामने बखान करते चुनावी समर में निकल पड़े हैं। नेतृत्व तो पार्टी व गठबंधन का अंदरूनी मामला है मगर पांच साल के रिपोर्ट कार्ड पर जनता कितना भरोसा कर पाती है, यह गंभीर प्रश्न है।
दूसरी ओर राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस लगातार बेहतर प्रदर्शन करते जा रही है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि राहुल गांधी के नेतृत्व संभालने के बाद हुए विभिन्न चुनावों में कांग्रेस ने बहुत बेहतर प्रदर्शन करते हुए प्रमुख राज्यों में सत्ता भी हासिल की है। छत्तीसगढ़ की ऐतिहासिक जीत भी इन राज्यों में से है। अत: यह माना जा सकता है कि केन्द्रीय नेतृत्व की सफलता व जनसमर्थन का मनोवैज्ञानिक लाभ लोक सभा में भी मिल सकता है। इसके साथ ही विगत दो-तीन माह में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की नई सरकार द्वारा किसानों की कजर्माफी, धान के समर्थन मूल्य में वृद्धि, आदिवासियों की अधिकृत जमीन की वापसी, आम जन को बिजली बिल में 50 प्रतिशत की छूट व छोटे भूखंडों की रजिस्ट्री पुन: शुरु करने, शिक्षित बेरोजगारों के लिए अनेक पदों की नियुक्ति के विज्ञापन जारी करने जैसे अनेक जनहितकारी घोषणाओं के तत्काल क्रियान्वयन से आम जन में काफी उम्मीदें जागी हैं।
विधान सभा चुनावों के घोषणा पत्र के इस तरह तत्काल क्रियान्वयन की यह पहल सिर्फ छत्तीसगढ़ में ही नहीं, बल्कि कांग्रेस द्वारा हाल में जीते गए तमाम प्रदेशों में की गई है। निश्चित रूप से लोकहित में शुरु की गई इस नई कार्य संस्कृति का आमजन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इन सभी सकारात्मक व अनुकूल परिस्थितियों के आलोक में कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व को मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से बहुत ज्यादा उम्मीदें हंै जिस पर खरा उतरना मुख्यमंत्री के लिए एक चुनौती तो है ही साथ-साथ उनकी पार्टी द्वारा विगत दो माह में किए गए कार्यों व लोकहित में लिए गए निर्णयों पर जारी किए गए रिपोर्ट कार्ड के नतीजों का इम्तिहान भी होगा। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ-साथ मुख्यमंत्री भूपेश बघेल दोनों के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ में होने वाला यह पहला लोक सभा चुनाव  काफी महत्वपूर्ण व चुनौती भरा है।