Thursday, March 26, 2020

फैलती महामारी,जूझता पूंजीवाद और जीवनदायी समाजवादी खुराक--जीवेश चौबे


कोरोना संकट ने पूरे विश्व में सिर्फ और सिर्फ लाभ अर्जन की प्राथमिकता वाले पूंजीवादी ढांचे को बुरे तरीके से हिला दिया है इसमें कोई शक शुबा नहीं रह गया है। इस विश्वव्यापी अभूतपूर्व संकट के सामने पूंजीवादी देश पूरी तरह असहाय नज़र आ रहे हैं। आज पूंजीवाद अपने चरम पर आ चुका है । भारत भी विगत दशकों में पूंजीवादी नीतियों को पूरी तरह आत्मसात कर विकास की छद्म आकांक्षा करता रहा है । दूसरी ओर संकट के भीषण दौर में यह बात मानने को सभी मजबूर हो गए हैं कि इस आपदा से सबसे पहले जूझने व प्रभावित होने के बावजूद इस महामारी को नियंत्रित करने व निपटने में चीन जैसे साम्यवादी देश बेहतर रूप से कामयाब रहे हैं, जहां राज्य के संसाधन व तमाम संस्थान सरकारी नियंत्रण में हैं और मजबूत हैं और यही व्यवस्था इस महामारी के नियंत्रण में सबसे ज्यादा कारगर साबित हुई है ।
इसी के मद्दे नज़र कोरोना संकट के दौर में संसाधनों के उत्पादन' व वितरण  पर सरकार के माध्यम से समाज का आधिपत्य जैसे समाजवादी व्यवस्था का मॉडल अपनाने पर लगातार जोर दिया जा रहा है, हालांकि चीन जैसे साम्यवादी देशों को पूंजीवाद के प्रवर्तक, पोषक व अनुसरण करने वाले तमाम देशों व बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेट्, द्वारा षड़यंत्रपू्र्वक तानाशाही का तमगा देकर ख़ारिज कर दिया जाता है। । सीमित आवश्यकता , संसाधनो पर सभी का समान हक और सबको समान व आवश्कतानुसार वितरण , ये सब समाजवादी मॉडल के ही घटक हैं । पूंजीवाद की विजय और समाजवाद के नेस्तनाबूद हो जाने का दावा करने वाले आज इन्हीं सिद्धांतों का सहारा लेकर आपदा से निपटने की राह तलाश रहे हैं।  विश्व के तमाम संकटग्रस्त पूंजीवादी देशों में आपातकाल का हवाला देकर संसाधनो पर सरकार का नियंत्रण किया जाने लगा है । मगर पूंजीवाद आसानी से हार नहीं मानता ऐज एस कठिन दौर में भी पूंजीवाद के पोषक वो सारे कॉर्पोरेट्स छोटे मोटे अनुदान जैसे बुर्जुवाई तरीकों के जरिए पूंजीवाद की गिरती साख को बचाए रखने के प्रयास में लगे हुए हैं साथ ही इन परिस्थितियों में भी लाभ अर्जन के नए मौके तलाशने में जुटे हुए हैं ।
 हाल के दशकों में भारत सहित दुनिया भर में पूंजीवादी देशों में ज्यादातर सुरक्षा व विदेश नीति को छोड़कर सभी सरकारी संस्थानों को उपेक्षित कर ध्वस्त करने की कोशिश की जाती रही हैं। पूंजीवादी देशों में जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों द्वारा मुख्य रूप से शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार जैसे बुनियादी क्षेत्रों को पूंजीवाद  के नए सिपहासालार और पोषक बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेट्स के हाथ तेजी से सौंप दिए जा रहे हैं । पूंजीवाद की एक बड़ी उपलब्धि राज्य संस्थानों के विचार को पूरी तरह नेस्तनाबूद कर देना है। अपने लाभ के लिए निजि क्षेत्रों के तमाम निवेशक लगातार लोक कल्याणकारी शासकीय संस्थानों को कमजोर कर कब्जा कर लेना चाहते हैं । पूंजीवाद की मूल अवधारणा में जनता द्वारा ही लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार को भी विकास विरोधी मानकर, उस पर हमला करना एक आम शगल हो गया है। आज इस संकट की घड़ी में ये तमाम निजि कंपनियां पंगु साबित हो रही हैं। आज विश्वव्यापी संकट की इस कठिन परिस्तितियों में ये निजि बहुराष्ट्रीय कंपनियां और  कॉर्पोरेट सारी जिम्मेदारी सरकार के मत्थे डाल लाभ हानि की कसौटी पर अपनी प्राथमिकताएं तय कर रही हैं 
यह बात खुलकर सामने आ गई है कि पूंजीवादी नीतियां अपनाने वाली तमाम सरकारें इस महामारी के संकट से निपटने में बहुत मुश्किलों का सामना कर रही है। इन देशों में ज़्यादातर जनस्वास्थ्य और शिक्षा का बड़ा हिस्सा निजीकरण की भेंट चढ़ चुका है। भारत सहित और कई विकासशील देशों में जहां हाल के दशकों में निजि क्षेत्रों व बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेट्स को बढावा देने की नीतियों के अंतर्गत षड़यंत्रपूर्वक सरकारी व सार्वजनिक क्षेत्रों के शिक्षण व स्वास्थ्य संस्थानो को कमजोर किया गया वहां सार्वजनिक और सरकारी क्षेत्रों की जन स्वास्थ्य, चिकित्सा व शिक्षा संस्थाओं के आधारभूत ढांचे की दम तोड़ती अधोसंरचना और क्षमता सामने आ चुकी है। इसी के चलते सरकार को  आज ऐसी चुनौती से निपटने अत्यंत मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है जबकि वर्षों से लाभ अर्जित करते निजि क्षेत्रों से कोई वांछनीय सहयोग नहीं मिल पा रहा है ।
जनविरोधी पूंजीवादी नीतियों की असफलता का ही नतीज़ा है कि हाल के दिनों में जरूरतमंदों और बेरोज़गारों को जीविकोपार्जन के लायक निश्चित आय के प्रावधानों पर विचार किया जाने लगा है और अब ये विचार तमाम दलों के मुख्य एजेंडे पर आ गए हैं, जबकि कुछ अरसे पहले तक इन विचारों पर कोई सोचता भी नहीं था। उम्मीद है इस महामारी में पूंजीवादी व्यवस्था के दुष्परिणमों असफलताओं से सबक लेकर भारत निजिकरण की बजाए संसाधनो के राष्ट्रीयकरण को प्राथमिकता देगा एवं क्रूर अमानवीय  पूंजीवादी व्यवस्था के अंधानुकरण के स्थान पर समाजवाद की दिशा में विचार करेगा मगर आज के दौर में शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कॉर्पोरेटपोषित लोकतंत्र से मुक्ति की राह इतनी आसान भी नहीं है । हम  तो बस थोडी बहुत उम्मीद ही कर सकते हैं

Wednesday, March 25, 2020

राज्यों को आर्थिक मदद मुहैया कराई जाय-- जीवेश चौबे

मशहूर गीतकार शैलेन्द्र की बड़ी कालजयी पंक्तियां हैं-
तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत पर यकीन कर.....
हज़ार भेस धर के आई मौत तेरे द्वार पर
मगर तुझे न छल सकी चली गई वो हार कर
(शैलेन्द्र)
जीने की जबरदस्त जीजीविषा और अदम्य आकांक्षा से भरा मनुष्य तमाम मुश्किलों और विषम परिस्थितियों के बावजूद हमेशा ज़िंदगी की जंग जीतने में कामयाब होता रहा है । आज पूरा विश्व कोरोना वायरस की चपेट में है और भयंकर संक्रमण की आशंकाओं से आक्रांत है । तमाम देशों की सरकारें और राष्ट्र प्रमुख वायरस के साथ साथ इससे आने वाली रोज़मर्रा की कठिनाइयों को लेकर चिंतित हैं । आज जब सामाजिक अलगाव ही बचाव का एकमात्र उपचार माना जा रहा है, तमाम देश निकट भविष्य में इससे छोटे , गरीब तबके को होने वाली आर्थिक दिक्कतों को लेकर चिंतित हैं ।
कई देशों में आम लोगों के लिए आर्थिक पैकेज की घोषणा की गई है, हमारे देश में भी राज्य सरकारों ने अपने स्तर पर अपनी क्षमता से कहीं ज्यादा राहत देने की घोषणा की है । केन्द्र सरकार ने 15 हजार करोड़ का प्रावधान किया है मगर वो मेडिकल सुविधाओं व प्रशिक्षण के लिए किया गया है उसमें आम आदमी को सीधे तौर पर कोई आर्थिक मदद नहीं मिलेगी । केन्द्र सरकार ने आम आदमी के लिए राज्य सरकारों को पहल करने का आव्हान किया है । मुश्किल ये है कि राज्य सरकारों के पास सीमित फंड होता है और लॉक डाउन जैसी स्थिति में जब व्यवसाय बुरी तरह प्रभावित रहता है राज्य सरकारों के आय के स्त्रोत भी सीमित हो जाते हैं ।
आपात स्थिति में केन्द्र से ही राहत व मदद की उम्मीद की जाती है जिस पर केन्द्र सरकार खरी नहीं उतर सकी है । मध्य व उच्च वर्ग को आयकर, जीएसटी व उद्योग जगत को तमाम टैक्स रियायतों की घोषणा तो ठीक है मगर, मध्यम , छोटे, फुटपाथ पर  व्यवसाय करने वाले लाखों लोगों के लिए कोई राहत पैकेज नहीं बताए गए हैं ।  अब तक न तो केन्द्र और न ही अधिकांश राज्य सरकार ने निराश्रितों, बेघरों और असंगठित क्षेत्रों के मजदूरों के लिए कोई ठोस कदम उठाए हैं ।
लाखों की तादात में महानगरों से गांव कस्बों को वापस लौटते श्रमिक व कामगार भी आने वाले दिनो में एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आ सकते हैं । एक तो इनका मेडिकल चैकअप ही नहीं हुआ जिससे उनके गृह स्थानो पर संक्रमण की आशंका तो बढाता ही है साथ ही आर्थिक सूनामी के इस दौर में इन्हें वापस रोजगार हासिल करवा पाना भी एक गंभीर चुनौती होगी । हालांकि अब तक कुछ राज्य सरकारों ने आगामी 1-2 माह तक गरीबी रेखा के नीचे तबके के लिए मुफ्त राशन प्रदान करने की घोषणा की है मगर ये राहत केन्द्र सरकार की मदद के बिना लम्बे समय तक जारी रख पाना संभव नहीं लगता।
अब तक प्रधान मंत्री जी दो बार राष्ट्र को संबोधित कर कोरोना के खतरे व एहतियात बरतने के नाम पर ताली, थाली और घंटा बजाने से लेकर आध्यात्मिक उद्बबोधन ही किया है । यह बात गौरतलब है कि कोरे भाषणो के सिवाय जमीनी स्तर पर राज्य सरकारों एवं आम जनता के लिए कोई ठोस आर्थिक सहयोग की योजना अब तक नहीं बताई है जो आज सबसे ज़रूरी है । राज्य सरकारों की जिम्मेदारी तो अपनी जगह है जिसे ज्यादातर राज्यों में अपनी क्षमतानुसार निभा भी रहे हैं  मगर संघीय संरचना में केन्द्र सरकार राज्यों को आर्थिक सहायता मुहैया कराने की अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती । केरल जैसे छोटे राज्य ने 20000 करोड़ का प्रावधान किया है साथ ही तमाम बच्चों को मिड डे मील की आपूर्ति के साथ ही गरीब व मजदूर वर्ग को निःशुल्क राशन उपलब्ध कराने की घोषणा भी की है।  केरल के अलावा छत्तीसगढ, दिल्ली . उत्तर प्रदेश सहित कुछ और राज्यों ने भी इस आपातकाल में जनता की मद  केलिए अपनी क्षमता से कहीं ज्यादा मदद करने का साहस दिखाया है । मगर ये समझना होगा कि राज्य सरकारों की अपनी सीमाएं हैं और संसाधन सीमित हैं । आर्थिक रूप से राज्य सरकारें बहुत मजबूत नहीं हैं । इन तमाम बातों को ध्यान में रखते हुए केन्द्र सरकार को अपने खजाने जल्द से जल्द खोलने ही होंगे । संकट की इस घड़ी में पूर्वाग्रह व दुराग्रहों से ऊपर उठकर और तमाम मतभेदों को भुलाकर सभी को एक साथ एकजुट होकर मुसीबत का सामना करना होगा ।

जीवेश चौबे

jeeveshprabhakar@gmail.com