सभी कलाप्रेमियों को यह
समझना भी जरुरी है कि केवल लोक रंगमंच या लोक संस्कृति ही सर्वोपरी नहीं है, आधुनिक रंगमंच भी एक उच्च स्तरीय
कलाकर्म है, जो भाषा को गढ़ने और उसकी
प्रौन्नति में अपनी महती भूमिका निभाता है| समकालीनता, प्रस्तुतीकरण
का ढंग, नयी व्याख्या, खोज, रूप एवं कथ्य का समकालीन प्रयोग, विद्यमान मूल्य, एवं बदलते मूल्यों के प्रति
प्रश्नाकुलता या प्रश्न वाचकता, सजगता, नए विषय, नई शैली आदि का समावेश हो उसे ही
आधुनिक रंगमंच कहा जा सकता है| आधुनिक
रंगमंच में टेकनॉलाजी का सृजनात्मक एवं कल्पनाशील उपयोग भी किया जा रहा है लेकिन
केवल टेकनॉलाजी के बल पर कोई रंगमंच आधुनिक नहीं हो जाता| टेकनॉलाजी या नेपथ्य कला नाटक का
अलंकरण नहीं बल्कि नाटक का अंग या कहें उपांग ही है| उपरोक्त विचार प्रदेश ही नहीं देश
के वरिष्ठ रंगकर्मी राजकमल नायक ने प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा 28 जून रविवार को वृन्दावन सभागृह में
“छत्तीसगढ़ी में आधुनिक
रंगकर्म : चुनौतियां और संभावनाएं” विषय पर आयोजित विचार गोष्ठी में प्रकट किये| गोष्ठी के प्रारम्भ में मुख्य
वक्ता श्री राजकमल नायक का प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष संजय साम एवं
कोषाध्यक्ष नंद कुमार कंसारी ने पुष्प गुच्छ से स्वागत किया । तत्पश्चात
प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर के सचिव जीवेश प्रभाकर ने आज के विषय पर प्रकाश डालते
हुए कहा कि आज अमूमन हर विधा में छत्तीसगढ़ी का दखल हो गया है। मगर यह दुख की
बात है कि छत्तीसगढ़ी में आधुनिक नाटकों के क्षेत्र में कुछ खास उपलब्धि नहीं हो
सकी है । हालांकि नाचा गम्मत और अन्य लोक मंच में काफी हासिल है और इसे हबीब
तनवीर ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित प्रसारित करने में अमूल्य योगदान दिया
मगर जिस तरह मराठी,
बंगाली , तमिल , कन्नड़ गुजराती आदि अन्य क्षेत्रीय
या दूसरी जनपदीय भाषाओं में आधुनिक रंगमंच हो रहा है उस तरह छत्तीसगढ़ी में नहीं
हो पा रहा है । इन्हीं चिंताओं को लेकर प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर छत्तीसगढ़ी
भाषा के विकास में एक नई पहल कर रहा है ताकि रंगमंच जैसी महत्वपू्र्ण विधा में
भी छत्तीसगढ़ी भाषा का दखल हो । श्री राजकमल नायक ने अपने सारगर्भित व्याख्यान
में आगे कहा कि अनेक संस्कृत नाटकों में संस्कृत के अलावा प्राकृत का भी प्रयोग
किया गया है, भले ही वह निम्न वर्ग के
पात्रों के लिए प्रयोग की गयी है| शनैः शनैः संस्कृत के रंगमंच का ह्रास होने के बाद जब
संस्कृत शैली के अनेक तत्व विच्छिन होकर लोक रंगमंच में गए तब प्राकृत का स्थान
अन्य बोलियों को ले लेना था, पर
दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया| उन्होंने
कहा कि रंगमंच कोई ठहरी हुई विधा नहीं है| समय काल परिस्थिति के अनुसार इसमें भी परिवर्तन होते रहते
हैं| लेकिन किसी भी कला में
त्वरित बदलाव नहीं होता या नहीं होना भी चाहिए| कलाएं धीरे धीरे अपना आकार गढ़ती हैं| रंगमंच ने समय-समय पर यथार्थवादी, प्रकृतवादी, रीतिबद्ध, लोकशैली, एब्सर्ड, मनोशारीरिक, प्रयोगात्मक रंगमंच आदि शैलियों का
सहारा लिया और इससे थियेटर रिच हुआ| छत्तीसगढ़ में आधुनिक रंगमंच के एकमात्र उदाहरण प्रख्यात
रंगकर्मी हबीब तनवीर रहे हैं| उनके
नाटक ‘लोक की आधुनिकता’ और ‘आधुनिकता के लोक’ के उत्कृष्ट उदाहरण कहे जा सकते हैं| उन्होंने अपना एक व्यक्तिगत अनुभव
सुनाते हुए बताया कि जब वे भारत भवन में थे तब हमारी एक परीक्षा हुई थी और उसमें
एक प्रश्न पूछा गया था कि हबीब तनवीर का थियेटर फ़ोक थियेटर है या मार्डन थियेटर| ज्यादातर कलाकारों ने इसका जबाब
दिया था फ़ोक थियेटर| जबकि
यह गलत उत्तर था|
हबीब तनवीर
का थियेटर मार्डन थियेटर है| हबीब
तनवीर के इस काम को उन्हीं की परिपाटी या उनके बाद के रंगकर्मियों को उसी या
उनसे भिन्न तर्ज पर आगे बढ़ाना था, पर दुर्भाग्य से यह हो नहीं पाया| बहुत देखना, गहराई से देखना, खोजना, खंगालना, तराशना, पढ़ना हमेशा नए सृजन को जन्म और धार
देता है| हबीब तनवीर इसमें लिप्त
रहे| विडंबना है, हबीब तनवीर को छोड़कर छत्तीसगढ़ी में
आधुनिक रंगलेखन के विषय में कभी सोचा ही नहीं गया| हिन्दी नाटककार शंकर शेष या विभु कुमार ने राष्ट्रीय स्तर
पर तो बहुत ख्याति अर्जित की लेकिन छत्तीसगढ़ी भाषा का कोइ नाटक राष्ट्रीय स्तर
तो छोड़िये राज्य स्तर पर भी प्रतिष्ठा अर्जित नहीं कर पाया| उन्होंने बताया कि छत्तीसगढ़ी में
नाट्य लेखन की प्रक्रिया विच्छिन रही है उसमें निरंतरता कभी नहीं रही| खूबचंद बघेल, डॉ. प्यारेलाल गुप्त, डॉ. नरेंद्र देव वर्मा, शुकलाल पांडे और अनेक लोगों ने
छत्तीसगढ़ी में नाटक लिखे लेकिन निरंतर नाट्य लेखन या कालजयी रचना के अभाव में
छत्तीसगढ़ी आधुनिक रंगमंच पनप नहीं पाया| स्वतन्त्र नाटककार जिनका आधुनिक रंगमंच से नाता रहा हो तथा
जो छत्तीसगढ़ी में निरंतर नाट्य लेखन में संलिप्त रहे हों, ऐसा कोई नाम सामने नहीं आता| उन्होंने कहा कि इसके बावजूद हमें
आशावादी होना चाहिये| संभावनाओं
के द्वार हमेशा खुले रहते हैं| छत्तीसगढ़
के संस्कृति विभाग,
अन्य कला
संगठनों, लेखक संगठनों को छत्तीसगढ़ी
में आधुनिक रंगमंच को प्रश्रय देने, बढ़ावा देने का प्रयास करना चाहिए| उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ी में
आधुनिक रंगमंच को बढ़ावा देने के लिए सभी कलाप्रेमियों को यह समझना भी जरुरी है
कि केवल लोक रंगमंच या लोक संस्कृति ही सर्वोपरी नहीं है, आधुनिक रंगमंच भी एक उच्च स्तरीय
कलाकर्म है, जो भाषा को गढ़ने और उसकी
प्रौन्नति में अपनी महती भूमिका निभाता है| गोष्ठी में प्रलेस रायपुर के उपाध्यक्ष अरुण कान्त शुक्ला
ने कहा कि छत्तीसगढ़ी में लिखा रचा गया रंगकर्म साहित्य पांच दशक के लगभग पुराना
है| छत्तीसगढ़ी में आधुनिक का
प्रश्न छत्तीसगढ़ी भाषा में आधुनिक साहित्य की रचना से भी जुड़ा है, जिसमें आज की, आज के समाज की समस्याओं और उनके
समाधानों का समावेश हो| वरिष्ठ
साहित्यकार प्रभाकर चौबे ने कहा कि आधुनिकता से मतलब आधुनिक बोध से है| पांच छै दशक पूर्व लिखे गए नाटक आज
की समस्याओं से मेल नहीं खाते और आज की पीढ़ी की समस्याओं के हल नहीं हैं| उन्हें आज के अनुरूप रूपांतरित
करना होगा| उन्होंने भारत की
स्वतंत्रता के समय की साम्प्रदायिकता का उल्लेख करते हुए कहा कि आज
साम्प्रदायिकता का रूप काफी बदला हुआ है और यदि इस पर नाटक खेलना है तो उसका
कलेवर अलग होगा|
गोष्ठी में
वरिष्ठ साहित्यकार श्री तेजेन्दर ने भी अपने विचार व्यक्त करते हुए भाषा पर हो
रहे सुनियोजित हमले को अंग्रेजी भाषा लादने का षड्यंत्र करार देते हुए लोकभाषा
को समृद्ध करने की आवश्यकता पर बल दिया। गोष्ठी में रंगकर्मी निसार अली एवं
योगेंद्र चौबे ने भी अपने विचार रखे । इस अवसर पर बड़ी संख्या में साहित्यकार
रंगकर्मी एवं बुद्धिजीवी उपस्थित थे । सभी ने आयोजन के विषय की सराहना करते हुए
इसे आगे जारी रखने की आवश्यकता महसूस की । गोष्ठी का संचालन प्रगतिशील लेखक संघ
के सचिव जीवेश प्रभाकर ने किया एवं अंत में प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष संजय
शाम ने आभार प्रदर्शन किया ।
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