रायपुर शहर एक छोटे से कस्बे से धीरे धीरे आज छत्तीसगढ़ की
राजधानी के रूप में लगातार विकसित हो रहा है । इत्तेफाक ये भी है कि इस वर्ष हम
अपने नगर की पालिका का150 वॉ वर्ष भी मना रहे हैं ।
हमारी पीढ़ी अपने शहर के पुराने दौर के बारे में लगभग
अनभिज्ञ से हैं । वो दौर वो ज़माना जानने की उत्सुकता और या कहें नॉस्टेलजिया सा
सभी को है । कुछ कुछ इधर उधर पढ़ने को मिल जाता है। सबसे दुखद यह है कि
कुछ भी मुकम्मल तौर पर नहीं मिलता।
बड़े बुज़ुर्गों की यादों में एक अलग सा सुकूनभरा वो कस्बा
ए रायपुर अभी भी जिंदा है । ज़रा सा छेड़ो तो यादों के झरोखे खुल जाते हैं और वे
उन झरोखों से अपनी बीते हुए दिनों में घूमने निकल पड़ते हैं। इस यात्रा में हम आप
भी उनके सहयात्री बनकर उस गुज़रे जमाने की सैर कर सकते हैं।
इसी बात को ध्यान
में रखकर हम अपने शहर रायपुर को अपने बुज़ुर्गों की यादों के झरोखे से जानने का
प्रयास कर रहे हैं । इस महती काम के लिए छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार श्री
प्रभाकर चौबे अपनी यादों को हमारे साथ साझा करने राजी हुए हैं । वे रायपुर
से जुड़ी अपनी स्मृतियों को साझा कर रहे हैं । एक बात स्पष्ट
करना जरूरी है कि ये कोई रायपुर का अकादमिक इतिहास नहीं है , ये स्मृतियां हैं । जैसा श्री प्रभाकर चौबे जी ने रायपुर को
जिया । एक जिंदा शहर में गुज़रे वो दिन और उन दिनों से जुड़े कुछ लोग, घटनाएं, भूगोल, समाज व कुछ कुछ राजनीति की यादें । और इस तरह गुजश्ता
ज़माने की यादगार तस्वीरें जो शायद हमें हमारे अतीत का अहसास कराए और वर्तमान को
बेहतर बनाने में कुछ मदद कर सके।
आपकी प्रतिक्रियाओं और सुझावों का भी स्वागत रहेगा।
जीवेश प्रभाकर
अपनी बात
मन हुआ रायपुर पर
लिखा जाए - बहुत पहले देशबन्धु का साप्ताहिक संस्करण भोपाल से प्रकाशित हो रहा था
तब 12 कड़ियों में
रायपुर पर लिखा था, खो गया । पुन: कोशिश कर रहा हूँ - इसमें कुछ छूट रहा हो तो
पाठक जोड़ने का काम कर सकते हैं । रायपुर के बारे में एक जगह जानकारी देने का
मन है - अपना रायपुर पहले क्या कैसा रहा ...।
-प्रभाकर चौबे
रायपुर स्मृतियों
के झरोखे से- 7
वे दिन स्वप्न की तरह लगते है । बूढ़ापारा ढाल से पहले एक तेलगू सान के बाड़े
में हम किराये के मकान में रहने आए - वहाँ
और भी परिवार थे । घर से आगे सड़क पर बाड़े में हम साथी
होली जलाने लकड़ी चुराकर लाते
- पीछे एक लकड़ी टाल भी वहाँ से रात को चोरी करते - उन दिनों लकड़ी चुराना होली-धर्म-सा
था - जो बैलगाड़ियाँ सड़क से निकलती उनके पाटे तोड़ कर ले भागते, बैलगाड़ी वाला बैल हकालने
के कोड़ो से हमें मारकर भगाने की कोशिश करता लेकिन उस झुंड से कितना पार पाते । हमारे एक शिक्षक थे - शुक्ला सर, वे फुल ड्रेस्ड स्कूल आया करते थे - फुल ड्रेस्डमतलब... फुलपेंट, कोट टाई.... । बाहर भी
वे हमे इसी ड्रेस में दिखते । बहुत कड़क टीचर माने जाते थे - उन्हें ग्रामर का कीड़ा कहा जाता - अंग्रेजी के दूसरे पश्न पत्र में व्याकारण सम्बन्धी कठिन प्रश्न पूछते रहे
। लेकिन स्कूल व क्लास के बाहर बहुत सहज व कोमल थे - निर्धन जरुरतमंद विद्यार्थी की परीक्षा फीस भर देते थे । एक शिक्षक श्री बी.सिंह
भूगोल के थे वे ब्लेकबोर्ड पर पूरा का नक्शा हाथ से खींच देते - कहते प्रश्न के उत्तर
के साथ स्केच व नक्शा जरुर देना चाहिए । वे भूगोल के अच्छे शिक्षक रूप में जाने जाते । दूसरे भूगोल
शिक्षक सोहन लाल की किताब खरीदने कहते । बी.सिंह सर ने भी भूगोल की एक किताब लिखी थी। वे शिक्षकों के संगठन के नेता भी थे । 1945-46 में एक दिन एक एक शिक्षक कक्षा में आते रहे, अपने-अपने
पीरिएड के अनुसार, लेकिन पढ़ाया नहीं और न ब्लेक बोर्ड पर कुछ लिखा - पूछने पर कहा आज हमारी चाक डाऊन स्ट्राइक है ।
बहुत बाद में क्लर्कों की पेन डाऊन स्ट्राइक सुनने में आई और मजदूरों की टूल्स डाउन
स्ट्राइक । शहर में उन दिनों अच्छे पुस्तकालय हुआ करते थे । सदर बाजार में जैन मंदिर के बाजू की गली में मदन पुस्तकालय, बाल समाज लाइब्रेरी, आनन्द समाज लाइब्रेरी, पुष्टिकर पुस्तकालय, बूढ़ेश्वर मंदिर के प्रांगण में ऊपर कमरे में, पुरानी बस्ती में किशोर पुस्तकालय आदि कुछ प्रमुख पुस्तकालय रहे । प्राय: हर स्कूल में अपने पुस्तकालय हुआ करते थे - इनमें उन दिनों सरस्वती पत्रिका मंगाई जाती थी ।
वैसे उन दिनों शहर में अखाड़े भी काफी प्रसिद्ध थे, जैसे दूधाधारी मठ का
अखाड़ा, अम्बादेवी मंदिर का अखाड़ा,
बैजनाथ पारा का अखाड़ा गंजपारा का अखाड़ा । इनमें कोई शुल्क लगता नहीं था । सिखाने
के लिये कुछ पहलवान भी हाजिर रहते ।
गणेश उत्सव में उन दिनों स्थानीय कवियों का कवि सम्मेलन होता । उन दिनों इन कवि सम्मेलनों में घनश्याम प्रसाद , स्वराज
प्रसाद त्रिवेदी, नंद किशोर पटेरिया, कृष्ण कुमार चौबे (नयापारा) तथा और भी कवि भाग लेते। नयापारा स्थित रामचन्द्र
संस्कृत पाठशाला में संस्कृत काव्य पाठ का आयोजन किया जाता । उन दिनो बिजली से नहीं , गैस बत्ती से उजाला हुआ करता था । शहर में जगह जगह म्युनिसिपल
के स्ट्रीट लैम्प लगे थे - शाम को एक व्यक्ति सीढ़ी लेकर आता और लैम्प में मिट्टी तेल
भरता तथा जलाकर आगे बढ़ लेता। गर्मी के दिनों में सड़को पर मोटर से पानी का छिड़काव किया
जाता । फिर गणेश उत्सव की बात एक बार और, लोहार चौक में काँच से
सजे गणेश की सजावट होती । पहले पुरानी बस्ती खो खो पारा में खो खो तालाब में गणेश ठंडे किए
जाते - पुरानी बस्ती से लोहार चौक से मुड़कर गणेश का जुलूस पुरानी बस्ती की टूरी हटरी
से होकर खोखो तालाब जाता - बाद में लाखे नगर
के आगे का लेन से मुड़कर खोखो तालाब
जाने लगा । बहुत बाद में काफी साल तक फिर बुढातालाब में गणेश विसर्जन होता रहा और अब तो खारून नदी में हो रहा है। उन दिनों विसर्जन के दूसरे दिन खो खो तालाब मे ही भोजली का मेला लगता । शाम को घर घर जा कर
भोजली देते कुछ लोग भोजली भी बदते । यह छत्तीसगढ़ की विशेषता है । स्कूलों में भोजली
की आधे दिन की छुट्टी दी जाती थी । उन दिनों हिन्द स्पोर्टिंग फुटबाल फाइनल देखने भी स्कूलो में आधे दिन की
छुट्टी भी दी जाती थी । पहले हिन्द स्पोर्टिंग फुटबाल प्रतियोगिता के लिये कोई शुल्क
नहीं लगता था ।....
जारी....
घनश्याम प्रसाद श्याम। शायद श्याम उपनाम था!
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