बेगूसराय का चुनाव संपन्न हो गया । कई लोगों में अब तक इस
ऐतिहासिक चुनाव का खुमार
छाया हुआ है, मगर खुमार से उबरना जरूरी है । 23 मई को नतीजे कुछ भी हो मगर इस बात से
इंकार नहीं किया जा सकता कि इस चुनाव में सबसे ज्यादा चर्चा में बेगूसराय और
कन्हैया कुमार ही रहे । पिछले 2-3 बरसों से कन्हैया विमर्श के केन्द्र में रहे हैं। आज वो पूरे वामपंथ और प्रगतिशील सोच का प्रतिनिधित्व
कर रहा है । कन्हैया को लेकर न सिर्फ प्रगतिशील जनवादियों की उम्मीदें कुलांचे भर रही हैं बल्कि पूरे देश के बडे तबके में उत्सुकता व उत्तेजना का माहौल बना है । एक तमन्ना , एक ख्वाइश ,एक रुमानियत भरी खुशफहमी का एहसास फिजां में तैरता रहा है । एक ख्वाब
न जाने कितने बरसों से सोते जागते उन आंखों में जिंदा बचा हुआ है जो कुछ को सोने नहीं
देता। कन्हैया उस ख्वाब की ताबीर बनकर उभरे हैं । कन्हैया को लेकर रवीश की रिपोर्ट
में ऐसी कितनी बूढ़ी आंखों में झांकता मिला वो ख्वाब , आप जरा भी संवेदनशील हैं तो
देख सकते महसूस कर सकते हैं । कन्हैया को हार पहनाते उन बूढ़ी होती हड्डियों में मानो
फिर जान सी आ गई । ये ख्वाब आंखों में लिए कुछ हमेशा के लिए सो गए । पीढ़ियां गुजर
गई उस ख्वाब को हकीकत बनाने में , लाल किले पे लाल निशान…. बहुत बचपने में सुना था
ये नारा, अब तो खैर कोई नहीं लगाता । उम्मीदों
की भी शायद उम्र हो गई सी लगने लगा था, मगर कन्हैया ने मानो इसे फिर जान भर दी और बेगूसराय में जनसैलाब
उमड़ पड़ा। इस सैलाब में देश के कोने कोने से नामधारी, अनामधारी नए पुराने सभी प्रगतिशील जनवादी ….. एक अनाम संघर्ष में अपना सब कुछ दांव पर लगाकर रोज लड़ रहे , कई लड़ते लड़ते गुमनामी के अंधेरों में समा चुके या लड़ाई के अधबीच इक नाउम्मीदी में छिटक गए ऐसे कई , जिनके दिमाग के किसी कोने में पहली इच्छा की तरह बची रही वो अंतिम इच्छा, वो ख्वाब कि जिसके लिए वो निकले थे अपनी जवानी में , ऐसे भी कई लोग... सभी एक उम्मीद के साथ कन्हैया के लिए निकल पड़े थे । तमाम लोगों की सेल्फी सोशल मीडिया पर छाई हुई है । कहीं मेरा नाम छूट न जाए, कहीं मेरी तसवीर न रह जाए ताकि सनद रहे और वक्त ज़रूरत पे काम आए ।
रुमानियत और खुमारी से इतर तल्ख हकीकत ये है कि बेगूसराय में उमड़ा जनसैलाब पूरी तरह साम्यवादी विचारधारा के पक्ष में नहीं बल्कि कन्हैया के लिए आया ।
इस सैलाब में कई ऐसे लोग भी बेगूसराय कूच
किए जो वामपंथ या वाम विचारधारा
से प्रभावित होकर नहीं बल्कि कन्हैया के लिए ही गए । जबकि कन्हैया निर्विवाद रूप से इसी विचारधारा के साथ दृढ़ता से
खड़ा है ।
आज सातवां वेतनमान, खुले बाज़ार की घर पहुंच सेवा
की गुलामी में
जीता, अपनी सुविधाभोगी ज़िंदगी से कोई समझौता नहीं कर पाने
को प्रतिबद्ध एक
बड़ा समृद्ध यथास्थितिवादी वर्ग खड़ा हो
गया है जो लोकल या सोशल मीडिया पर बेहद सक्रिय है । यह वर्ग
इस लड़ाई में शोषकों के पक्ष में पूरी सक्रियता व मजबूती से खड़ा हुआ है । आवारा
पूंजी का भरपूर लाभ उठाता यह वर्ग अपने एशोआराम व लूट में कोई दखल बर्दाश्त नहीं करता। यह
वर्ग ही फासीवाद व दक्षिणपंथ का बहुत बड़ा व कट्टर समर्थक है और कन्हैया अपनी
प्रगतिशील व जनवादी सोच के साथ इसी विचारधारा के खिलाफ मजबूती से लड़ रहा है । देशद्रोह जैसे मढ़े गए आरोपों के बावजूद जनता के एक बड़े तबके ने इस वर्ग के खिलाफ कन्हैया के संघर्ष को एक स्वर में स्वीकार किया है जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण बेगूसराय में उमड़े जन सैलाब के रूप में देखा
जा सकता है ।
सवाल ये है कि इस भीड़ या जबरदस्त समर्थन का वामपंथी पार्टी क्या फायदा उठा पायेगी ? प्रगतिशील जनवादी बौद्धिक समाज क्यों उत्साहित है
? क्यों पूरे वामपंथ के पुनरोत्थान या वापसी की संभावना व्यक्त की जा रही है? आखिर क्यों ? क्योंकि आज जब देश का बड़ा
तबका एक विकल्प की बाट जोह रहा है ऐसे
वक्त में कन्हैया फासीवादी दक्षिणपंथी विचारधारा
के खिलाफ पूरी एक मजबूत चुनौती के रूप में तेजी से उभरा है । आज
कन्हैया कुमार युवा वर्ग में एक आईकॉन की तरह छाए हुए हैं । मगर यह स्वीकार करना
होगा कि भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी कन्हैया के प्रति उमड़े सैलाब,लोकप्रियता और एक जबरदस्त जन समर्थन को पूरे देश में
भुना पाने में नाकाम रही । जिस तरह भाजपा ने मोदी, कॉंग्रेस ने राहुल व आम
आदमी पार्टी ने केजरीवाल को स्थापित कर लाभ उठाया उस तर्ज पर कम्युनिस्ट पार्टी
कन्हैया को स्थापित कर पाने में कामयाब
क्यों नहीं हो सकी ये एक यक्ष प्रश्न की तरह अब भी अनुत्तरित है ।
कन्हैया संभवतः जीत जाए, मगर यह समझना होगा कि कन्हैया की जीत से वामपंथ
को कितना फायदा हो सकता है । सोचने वाली बात ये भी है कि अकेले कन्हैया से तो होगा
नहीं । मुक्ति तो सामूहिक जतन से ही संभव होगी । बेगूसराय की जंग विचारधाराओं की जंग है इस बात को
समझना बहुत जरूरी है । इसे रुमानी तौर पर नहीं जमीनी तौर पर लडा जाना
ही जरूरी है और इस जंग में व्यक्ति गौण है । शोषक व शासक वर्ग द्वारा सदा से ही वंचितों शोषितों की दमदार आवाज को दबाने या धीमा करने के लिए षड़यंत्र रचे जाते रहे हैं । प्रतिरोध के स्वर को कोरस बनने के पहले ही
अपने दरबार में जगह देकर विलंबित राग में तब्दील
करने की कोशिशें हमेशा होती रही हैं । इस षड़यंत्र को वैचारिक
दृढ़ता और जनसमर्थन से ही हराया जा सकता है । इस ऐतिहासिक जंग में कन्हैया उस विचारधारा के प्रतिनिधि के तौर पर
चुनाव लड़ रहा है जो वंचितों शोषितों को न्याय व समानता की बात पर सदियों से
संघर्षरत है । इस जंग को आम जनता में ले जाने के लिए कन्हैया
को आगे लाकर एक मजबूत नेतृत्व के तौर पर
स्थापित करना होगा और एक व्यापक रणनीति बनाकर काम करना होगा । कम्युनिस्ट पार्टी
को एक लम्बे अंतराल के बाद कामरेड पी.सी. जोशी की तरह हिन्दी पट्टी में कन्हैया
कुमार के रूप में एक लोकप्रिय व मजबूत कम्युनिस्ट नेता मिला है जिसकी आम जन में
स्वीकार्यता लगातार बढ़ रही है । देखना ये है कि कम्युनिस्ट पार्टी हिन्दी
पट्टी की उपेक्षा के अपने परंपरागत स्थायी
भाव से उबर कर भविष्य में कन्हैया का
कितना लाभ उठा पाती है ।
jeeveshprabhakar@gmail.com
सही कहा...
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