पिछली
आधी सदी से हिन्दी साहित्य मे मुक्तिबोध की गंभीर उपस्थिति एक गहन
बौद्धिक आवरण की तरह छाई हुई है । वर्ष 2017 उनका जन्म शताब्दी वर्ष रहा। पूरे देश
में मुक्तिबोध पर केन्द्रित अनेक आयोजन हैं।एक बात ग़ौरतलब है कि अधिकांश आयोजन
मुक्तिबोध की कविताओं पर ही ज्यादा केन्द्रित रहे । जाहिर है कि मुक्तिबोध की
मुख्य पहचान एक संवेदनशील लम्बी कविताएं लिखने वाले के रूप में ही ज्यादा है ।
मुक्तिबोध एक चिंतनशील व जागरूक रचनाधर्मी के रूप में जाने जाते हैं । वे गहन मानवीय संवेदना के कवि तथा कल्पनाशील कथाकार
तो हैं ही साथ ही स्पष्टवादी समीक्षक के रूप में भी जाने जाते हैं । कविता कहानी व
समीक्षा के अलावा इतिहास व अन्य विषयों पर भी उनका प्रचुर लेखन रहा है ।
एक
बात जो उनके संदर्भ में ज्यादा प्रकाश में नहीं लाई जाती वो है उनका पत्रकार के
रूप में लिखा गया महत्वपूर्ण गद्य,कहा जा सकता है ये उनका अल्प पठित गद्यांश है
जिस पर हिन्दी जगत में कभी भी ज्यादा तवज्जो नहीं दी, या यह कहें कि जानबूझकर नहीं
दी तो अतिशयोक्ति नहीं होगी ।इसका एक कारण तो यह भी रहा कि उस दौर में एक वर्ग
द्वारा हिन्दी साहित्य में अखबारों में लिखने वालों का उपहास उड़ाया जाता रहा,
हालांकि आज सभी अखबारों में नियमित कॉलम लिखने बेताब रहते हैं । मुक्तिबोध ने अपनी दीगर रचनाओं के मुकाबले अखबारी
लेखन कम ही किया है मगर एक छोटे अंतराल में ही सही उन्होंने अभिव्यक्ति के सारे
खतरे उठाते हुए जो लिखा वो उन्हें बेबाक, अध्ययनशील व जागरूक पत्रकार के रूप में
स्थापित करता है साथ ही उच्चस्तरीय व प्रगतिशील पत्रकारिता की एक मिसाल कायम करता
है जिसे आज भी छू पाना काफी बहुत मुश्किल है।
इस
तरह साहित्य व पत्रकारिता दोनो के शीर्ष प्रतिमानो का एक साथ मिल पाना दुर्लभ
संयोग ही कहा जा सकता है । यह बात गौरतलब है कि जो मुक्तिबोध अपनी रचनाओं में दुरूह
व क्लिष्ट समझे जाते हैं वहीं जब वे अखबारों में लिखते हैं तो बहुत ही सीधी व
सरल भाषा में अपनी बात कहते हैं जो आसानी
से संप्रेषित होती है । अक्सर बुद्धिजीवी उनके साहित्यिक गूढ़ता के आलोक में उनकी
इस सीधी सरल भाषा एवं जानकारीपूर्ण व तथ्यात्मक आलेखों को
नज़रअंदाज़ कर जाते हैं । ‘’मुक्तिबोध रचनावली’’ के छठे खंड में मुक्तिबोध के अखबारी लेखन को शामिल किया गया है
। इसके अलावा उनके पुत्र रमेश मुक्तिबोध
ने अपने पिता की सामग्री खोज कर उसे ‘’जब प्रश्नचिन्ह बौखला उठे’’ शीर्षक से ‘’रचनावली’’ के काफी वर्षों बाद एक स्वतंत्र पुस्तक के
रूप में प्रकाशित करवाया है ।
मुक्तिबोध
की पत्रकारिता आज़ादी के बाद और मुख्य रूप से पहले आम चुनाव 1952 के आसपास ही शुरू
होती है । इसके पूर्व वे एक पत्रकार के रूप मे कम ही सक्रिय रहे। मुक्तिबोध नागपुर
से प्रकाशित होने वाले ‘नया खून’
के सम्पादक रहे । ‘नया खून’ नागपुर के कद्दावर कांग्रेसी नेता स्वामी कृष्णानंद सोख्ता का साप्ताहिक
अखबार था ।इस अखबार को उस दौर में साहसी पत्रकारिता का दरजा हासिल था । ऐसे अखबार
में मुक्तिबोध को अपनी स्पष्ट व साहसिक संपादकीय व लेखों के लिए प्रोत्साहन के साथ
साथ संबल भी मिला जिसके कारण वे पूरे साहस व निश्तिंतता के साथ अपने निष्पक्ष व
धारदार विचार रख सके । ‘नया खून’के
अलावा वे नागपुर से ही प्रकाशित ‘सारथी’ के साथ भी जुड़े रहे ।पूर्व में अपनी नौकरी
के कारण व बाद में कुछ अन्य कारणों से भी ऐसा माना जाता है कि मुक्तिबोध ने छद्म
नामो से भी अनेक लेख लिखे ।
आजादी
के पश्चात देश अनेक कठिनाइयों से गुज़र रहा था । एक ओर विभाजन की त्रासदी थी तो
दूसरी ओर देश आर्थिक मोर्चे पर भी अनेक कठिनाइयों से जूझ रहा था । ऐसी
परिस्थितियों के बावजूद नव स्वतंत्र देश के स्वप्न भी आकांक्षाओं के पंख फैलाए नए
फलक पर छा जाने को आतुर थे । राष्ट्रीय नेताओं में तब सबसे युवा, लोकप्रिय व
ऊर्जावान नेता पं. जवाहर लाल नेहरू देश की बागडोर संभाल चुके थे । आजादी की मध्य
रात्रि को दिए गए उनके ओजस्वी भाषण से देश में एक नई ऊर्जा व उत्साह का संचार हुआ,
विशेष रूप से युवाओं को पं. नेहरू से काफी उम्मीदें जगी थीं । देश के युवा वर्ग
में पं. नेहरू के करिश्माई व्यक्तितव का जादू चरम पर था और इससे मुक्तिबोध भी
अछूते नहीं रह पाए थे । संभवतः पं. नेहरू के समाजवादी रुझान एवं नास्तिकता की हद
तक धर्मनिरपेक्ष रुख प्रमुख कारण रहा हो , यहां तक कि पं. नेहरू की मुत्यु पर तो
मुक्तिबोध ने स्पष्ट रूप से यह घोषित कर दिया था कि अब फासिज्म को देश में पैर
पसारने से कोई रोक नहीं सकता और आज हम उनकी आशंकाओं को फलीभूत होते देख ही रहे हैं
। यह बात भी गौरतलब है कि नेहरू के अवसान, 27 मई 1964, के बमुश्किल 6 महीने के
अंतराल में, 13 सितंबर 1964, मुक्तिबोध का भी निधन हो गया।
अपने अखबारी लेखन के छोटे मगर महत्वपूर्ण कालखंड
में मुक्तिबोध नवस्वतंत्र भारत के पुनर्रुत्थान में नेहरू की भूमिका को लेकर काफी उत्साहित व
आशान्वित थे ऐसा उनके लेखों में साफ झलकता है । पं. नेहरू के नेतृत्व में आजाद
भारत के विकास को लेकर भी मुक्तिबोध को पं. नेहरू से काफी आशाएं थी । हालांकि आज़ादी के कुछ वर्षों बाद ही पूरे देश में
स्वप्नभंग व निराशा का दौर शुरु हो चुका था, जो मुक्तिबोध की कविताओं व दीगर रचनाओं में भी
झलकने लगा था, मगर इसके बावजूद उनके मन के एक कोने में नेहरू के प्रति अंत तक एक
नरम व आशावादी रुख बना रहा। दून घाटी में नेहरू, नेहरू की जर्मन यात्रा का महत्व,
तटत्थ देशों को ज़बरदस्त मौका, जैसे लेखों में मुक्तिबोध की पं. नेहरू के प्रति आसक्ति
को स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता है । उनका लेखन मुख्यतः नेहरू-युग के उतार
चढ़ाव के दौर में विश्व-राजनीति में भारत की भूमिका ,तटस्थ
देशों एवं साम्यवादी देशों की भूमिका, अमेरिकी-सोवियत शीत-युद्ध और इन सब के बीच नव-स्वतंत्र
भारत की विकासशील छवि को लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्थिति एवं इसमें पं. नेहरू की
सूझबूझ भरी दूरदृष्टि पर केन्द्रित कही जा
सकती है । इन लेखों में मुक्तिबोध के साम्यवादी प्रगतिशील विचारों की स्पष्टता एक
महत्वपूर्ण पहलू है जिसे आज भी पढ़ा जाना चाहिए ।
अंतर्राष्ट्रीय
हालात और संबंधों की जो
समझ मुक्तिबोध में तब थी आज भी वैसी समझ व दृष्टिकोण का कोई पत्रकार नज़र नहीं आता है । प्रगतिशील
साहित्यकारों में भी इस तरह साहित्य से इतर मसलों व परिस्थितियों पर जागरुकता का
घोर अभाव रहा है । आजादी के पश्चात प्रगतिशील रचनाकारों में मुक्तिबोध के अलावा हरिशंकर परसाई ऐसे रचनाकार
रहे जिन्होने मुक्तिबोध की तरह स्वतंत्र भारत की परिस्थितियों का गहन अधययन मनन कर
लगातार लेखन किया । यह बात गौरतलब है कि जहां मुक्तिबोध तमाम विषयों पर गंभीर लेखन
करते रहे वहीं परसाई ने व्यंग्य के माध्यम से लगभग आधी सदी तक लोक शिक्षण का काम किया मगर दोनो के ही लेखन
में प्रचुर अध्ययन, सूक्ष्म अवलोकन व स्पष्ट रूप से साम्यवादी प्रगतिशील मानवीय
दृष्टिकोण समान रूप से मौजूद रहा है । इस संदर्भ में एक बात और गौर करने लायक है
कि जहां परसाई प्रारंभ से ही नेहरू की नीतियों की निष्पक्ष समीक्षा धरातल पर आकर
करते रहे वहीं मुक्तिबोध की नेहरू के प्रति आसक्ति को उनके लेखन से समझा जा सकता
है ।
एक
पत्रकार के रूप में उन्होने राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों एवं तात्कालीन
वैश्विक परिदृष्य पर पूरे अध्ययन व गंभीर चिंतन के साथ तर्कपूर्ण आलेख लिखे। इससे
उनकी वैश्विक समझ व प्रगतिशील दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता है । छठवें
दशक में वे एक सजग व जागरूक पत्रकार के रूप में न सिर्फ देश के अंदरूनी हालातों पर
वरन यूरोप व अमेरिका सहित पूरे विश्व से संबंधित समस्त मसलों पर अपने आलेखों के
माध्यम से वे लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे । यह बात ग़ौरतलब है कि आज एक
बार फिर यूरोप व अमरीका जबरदस्त अंतर्विरोध व संक्रमण के दौर से गुजर रहा है और दक्षिणपंथी
ताकतें फिर सर उठा रही हैं। कम से कम हमारे देश के अखबारों या मीडिया में इसे लेकर
महज सूचनाओं के और कोई गंभीर आलेख पढ़ने
को नहीं मिल रहे हैं । विगत दिनों संपन्न फ्रांस के चुनावों पर पूरे विश्व की
निगाहें थी । गौरतलब है कि लगभग साठ वर्ष पूर्व ‘फ्रांस किस ओर’ आलेख में मुक्तिबोध ने द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात फ्रांस के बहाने
पूरे यूरोप की तत्कालीन परिस्थितियों पर अमरीकी पूंजी निवेश के दुष्परिणामों का
उल्लेख करते हुए भविष्य के खतरों की ओर इशारा किया था । आज ऐसे विश्लेषणात्मक लेख
का सख्त अभाव पूरे पत्रकारिता जगत में देखा जा सकता है । लगभग 60 वर्ष पूर्व वे
विश्व में तेजी से बढ़ती अमरीका के दखल व पूंजीवादी ताकतों के साम्राज्यवादी
मंसूबों पर वे लगातार सचेत होकर लिखते रहे । अंग्रेज गए मगर इतनी अंग्रेजी पूंजी
क्यों, समाजवादी समाज या अमरीकी – ब्रिटिश पूंजी की बाढ़, तथा
अन्य लेखों में वैश्विक स्तर पर बढ़ते पूंजीवादी खतरों व अमरीकी प्रभाव के प्रति
लगातार इशारा करते रहे ।
हालांकि मुक्तिबोध कभी राजनैतिक एक्टिविस्ट नहीं
रहे और न किसी आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग ही लिया मगर मुक्तिबोध के पास एक गहरी
राजनैतिक व सामाजिक दृष्टि के साथ ही आर्थिक मामलों की समझ, सूक्ष्म व चौकस
अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि तथा गहन व विस्तृत अध्ययन था। ऐसा विलक्षण संयोग आज भी मिल
पाना कठिन है । उन्होने दिग्विजय कॉलेज के कार्यकाल के दौरान एक आयोजन में अपने उद्बोधन
में कहा था कि “कोई भी घटना क्यों घटती है पत्रकार को उसके मूल कारणों को समझना जरूरी है,
आधुनिक राजनीति में जनमत का महत्वपूर्ण स्थान है तथा जनमत के मूलाधार के बिना किसी
भी देश में न तानाशाही कायम रह सकती है न लोकतंत्र ।” एक बात स्पष्ट तौर पर कही जा सकती है कि
मुक्तिबोध साम्यवाद के प्रति पूरी तरह समर्पित थे । देश व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साम्यवाद व साम्यवादी देशों की मुश्किलों के
प्रति उनकी चिंता उनके अनेक लेखों में देखी जा सकती है । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर
पूंजी व पूंजीवादी देश अमरीका के बढ़ते प्रभाव तथा तत्कालीन साम्यवादी ताकतवर देश
सोवियत संघ के बीच शीतयुद्ध के वैश्विक परिणामों व हलचलों पर वे पैनी दृष्टि रखते
थे । पश्चिम एशिया में अमरीका की दिलचस्पी, साम्यवादी राष्ट्रों की नई समस्या, साम्यवादी
समाज या अमरीका, कम्युनिज्म का संक्रमणकाल,समाजवाद का निर्माण जैसे आलेखों के
माध्यम से वे लगातार अपनी चिंता जाहिर करते रहे ।
राजनैतिक
लेखों के अलावा मुक्तिबोध सामाजिक व सांस्कृतिक फलक पर भी लगातार सक्रिय रहे ।उल्लेखनीय
है कि उन्होंने बहुत ही शुरुवाती दिनों से बल्कि पहले लेख ‘अतीत’ से ही इन मुद्दों पर लिखना प्रारंभ कर दिया था । उनका पहला लेख ‘अतीत’ कर्मवीर में 1937 में छपा था जिसके संपादक
माखन लाल चतुर्वेदी थे और तब मुक्तिबोध पूरे बीस बरस के भी नहीं हुए थे । वे देश की सांस्कृतिक विरासत के सजग प्रहरी के रूप में संस्कृति पर बढ़ते
फासिस्ट खतरों से अनजान नहीं थे बल्कि लगातार उस पर लिख रहे थे । सांस्कृतिक
आध्यात्मिक जीवन पर संकट, दीपमलिका,हुएनसांग की डायरी,भारतीय जीवन के कुछ विशेष
पहलू आदि लेख आज भी अपनी उपयोगिता पर खरे उतरते हैं । संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन
के दौरान उनके द्वारा लिखित “संयुक्त महाराष्ट्र का निर्माण
एकदम ज़रूरी’’ सम्पादकीय में मुक्तिबोध स्वायत्त महाराष्ट्र
राज्य की पैरवी करते हैं और इसे एक
ऐतिहासिक व सांस्कृतिक दस्तावेज़ बना देते हैं वे स्पष्ट रूप से
कहते हैं कि हैं कि महाराष्ट्र प्रांत के लिए आन्दोलन अलगाववादी नहीं बल्कि वह भारतीय संस्कृति और महत्वाकांक्षा का
ही एक वेगवान रूप है। अपने संपादकीय में वे एकीकृत संयुक्त महाराष्ट्र के पक्ष में
आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक,
राजनीतिक आदि सभी पहलू शामिल करते हैं । इस तरह के संपादकीय की
कल्पना आज कर पाना संभव नहीं है और पूर्व में भी कहीं नजर में नहीं आता है । इसके
साथ साथ वे आधुनिक भारतीय समाज, युवा वर्ग, धर्म अवं अन्य संसामयिक विषयों पर भी
लगातार अपने विचार व्यक्त करते रहे । आधुनिक समाज का धर्म, भारतीय जीवन के कुछ
विशेष पहलू,नौजवान का रास्ता,ज़िन्दगी के नए तकाजे और सामाजिक त्यौहार जैसे आलेखों
में उनकी चिंताओं पर उनके प्रगतिशील विचारों को समझा जा सकता है । भाषा को लेकर वे
अत्यंत संवेदनशील थे ये उनकी हर रचना में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, मगर हिन्दी
के सरकारीकरण की विडंबनाओं पर उनका लेख “अंग्रेजी जूते में
हिन्दी को फिट करने वाले भाषाई रहनुमा” बहुत महत्वपूर्ण व व्यवहारिक
है ।
मुक्तिबोध
द्वारा अपने रचनाकाल के छोटे कालखंड में की गई पत्रकारिता के दौरान अखबारों में
किए गए लेखन को बाद में लगातार हाशिए पर ही रखा गया । इसका एक कारण संभवतः ये हो
सकता है कि मुक्तिबोध का सारा लेखन उनकी
मृत्यु पश्चात ही प्रकाशित हो पाया और उन्हें मृत्यु पश्चात ही ज्यादा लोकप्रियता
मिली। उस दौर में ग़ैरसाहित्यिक लेखन को हल्का, निम्नस्तरीय समझा जाता रहा और
अखबारी लेखन कहकर उपहास भी उड़ाया जाता रहा । इसका दुष्परिणाम ये हुआ कि साहित्य
जगत में उनकी कविताओं व गद्य पर ही सारा ध्यान केन्द्रित कर दिया गया,हालांकि
बदलते परिवेश में आज सभी अखबार व अन्य मीडिया की ताकत के सामने नतमस्तक हैं और
इनमें छपने लालायित रहते हैं । मुक्तिबोध के अनुसार ” बहुत से
कवियों के अन्तःकरण में जो बेचैनी , जो ग्लानि, जो अवसाद, जो विरक्ति है, उसका एक
कारण उनमें एक ऐसी विश्व दृष्टि का अभाव है जो उन्हें आभ्यन्तर आत्मिक शक्ति
प्रदान कर सके, उन्हें मनोबल दे सके, और उनकी पीड़ाग्रस्त अगतिकता को दूर कर सके ।
कवियों से ऐसी विश्वदृष्टि अपेक्षित है जो भावदृष्टि का, भावना का, भावात्मक जीवन
का अनुशासन कर सके ...। आज उनकी इस बात पर गौर करना ज़रूरी है । रचनाकारों को ,
विशेष रूप से प्रगतिशील जनवादी रचनाकारों को, इस ओर ध्यान देना चाहिए । मुक्तिबोध
के अखबारी लेखन के प्रचार प्रसार एवं
पुनर्पाठ की सख़्त ज़रूरत है । उनके अखबारी लेखन में भी उनकी विचारधारा
कहीं समझौते नहीं करती बल्कि पत्रकारिता को नए आयाम देती है और पत्रकारिता के
प्रगतिशील प्रतिमान स्थापित करती है । मुक्तिबोध की सुप्रसिद्ध कविता “अंधेरे में” के अंश
है-
इसलिए
मैं हर गली मे
और
हर सड़क पर
झांक
झांक देखता हूं हर एक चेहरा
प्रत्येक
गतिविधि
प्रत्येक
चरित्र
व
हर एक आत्मा का इतिहास
हर
एक देश व राजनैतिक परिस्थिति
प्रत्येक
मानवीय स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया
क्रियागत परिणति
खोजता
हूं पठार...पहाड़...समुंदर
जहां
मिल सके मुझे
मेरी
वह खोई हुई
परम
अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-
संभव ।
-जीवेश
प्रभाकर-
(उप
संपादक- अकार)
Email:
jeeveshprabhakar@gmail.com
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