कोरोना संकट ने पूरे
विश्व में सिर्फ और सिर्फ लाभ अर्जन की प्राथमिकता वाले पूंजीवादी ढांचे को बुरे
तरीके से हिला दिया है इसमें कोई शक शुबा नहीं रह गया है। इस विश्वव्यापी
अभूतपूर्व संकट के सामने पूंजीवादी देश पूरी तरह असहाय नज़र आ रहे हैं। आज पूंजीवाद अपने चरम पर आ चुका है । भारत
भी विगत दशकों में पूंजीवादी नीतियों को पूरी तरह आत्मसात कर विकास की छद्म
आकांक्षा करता रहा है । दूसरी ओर संकट के भीषण दौर
में यह बात मानने को सभी मजबूर हो गए हैं कि इस आपदा से सबसे पहले जूझने व
प्रभावित होने के बावजूद इस महामारी को नियंत्रित करने व निपटने में चीन
जैसे साम्यवादी देश बेहतर रूप से कामयाब रहे हैं, जहां राज्य
के संसाधन व तमाम संस्थान सरकारी नियंत्रण में हैं और मजबूत हैं और यही व्यवस्था
इस महामारी के नियंत्रण में सबसे ज्यादा कारगर साबित हुई है ।
इसी के
मद्दे नज़र कोरोना संकट के दौर में संसाधनों के उत्पादन' व वितरण पर सरकार के माध्यम से समाज का आधिपत्य जैसे समाजवादी व्यवस्था का मॉडल अपनाने पर
लगातार जोर दिया जा रहा है, हालांकि चीन जैसे साम्यवादी देशों को पूंजीवाद के
प्रवर्तक, पोषक व अनुसरण करने वाले तमाम देशों व बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेट्, द्वारा
षड़यंत्रपू्र्वक तानाशाही का तमगा देकर ख़ारिज कर दिया जाता है। । सीमित आवश्यकता
, संसाधनो पर सभी का समान हक और सबको समान व आवश्कतानुसार वितरण , ये सब समाजवादी
मॉडल के ही घटक हैं । पूंजीवाद की विजय और समाजवाद के नेस्तनाबूद हो जाने का दावा
करने वाले आज इन्हीं सिद्धांतों का सहारा लेकर आपदा से निपटने की राह तलाश रहे
हैं। विश्व के तमाम संकटग्रस्त पूंजीवादी
देशों में आपातकाल का हवाला देकर संसाधनो पर सरकार का नियंत्रण किया जाने लगा है ।
मगर पूंजीवाद आसानी से हार नहीं मानता ऐज एस कठिन दौर में भी पूंजीवाद के पोषक वो
सारे कॉर्पोरेट्स छोटे मोटे अनुदान जैसे बुर्जुवाई तरीकों के जरिए पूंजीवाद की
गिरती साख को बचाए रखने के प्रयास में लगे हुए हैं साथ ही इन परिस्थितियों में भी
लाभ अर्जन के नए मौके तलाशने में जुटे हुए हैं ।
हाल के दशकों में भारत सहित दुनिया भर में
पूंजीवादी देशों में ज्यादातर सुरक्षा व विदेश नीति को छोड़कर सभी सरकारी
संस्थानों को उपेक्षित कर ध्वस्त करने की कोशिश की जाती रही हैं। पूंजीवादी देशों
में जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों द्वारा मुख्य रूप से शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार
जैसे बुनियादी क्षेत्रों को पूंजीवाद के
नए सिपहासालार और पोषक बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेट्स के हाथ तेजी से सौंप दिए जा रहे
हैं । पूंजीवाद की एक बड़ी उपलब्धि राज्य संस्थानों के विचार को पूरी तरह
नेस्तनाबूद कर देना है। अपने लाभ के लिए निजि क्षेत्रों के तमाम निवेशक लगातार लोक
कल्याणकारी शासकीय संस्थानों को कमजोर कर कब्जा कर लेना चाहते हैं । पूंजीवाद की
मूल अवधारणा में जनता द्वारा ही लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार को भी विकास
विरोधी मानकर, उस पर हमला करना एक आम शगल हो गया है। आज
इस संकट की घड़ी में ये तमाम निजि कंपनियां पंगु साबित हो रही हैं। आज विश्वव्यापी
संकट की इस कठिन परिस्तितियों में ये निजि बहुराष्ट्रीय कंपनियां और कॉर्पोरेट सारी जिम्मेदारी सरकार के मत्थे डाल
लाभ हानि की कसौटी पर अपनी प्राथमिकताएं तय कर रही हैं
यह बात
खुलकर सामने आ गई है कि पूंजीवादी नीतियां अपनाने वाली तमाम सरकारें इस महामारी के
संकट से निपटने में बहुत मुश्किलों का सामना कर रही है। इन देशों में ज़्यादातर जनस्वास्थ्य
और शिक्षा का बड़ा हिस्सा निजीकरण की भेंट चढ़ चुका है। भारत सहित और कई विकासशील
देशों में जहां हाल के दशकों में निजि क्षेत्रों व बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेट्स को
बढावा देने की नीतियों के अंतर्गत षड़यंत्रपूर्वक सरकारी व सार्वजनिक क्षेत्रों के
शिक्षण व स्वास्थ्य संस्थानो को कमजोर किया गया वहां सार्वजनिक और सरकारी
क्षेत्रों की जन स्वास्थ्य, चिकित्सा व शिक्षा संस्थाओं के आधारभूत ढांचे की दम
तोड़ती अधोसंरचना और क्षमता सामने आ चुकी है। इसी के चलते सरकार को आज ऐसी चुनौती से निपटने अत्यंत मुश्किलों का
सामना करना पड़ रहा है जबकि वर्षों से लाभ अर्जित करते निजि क्षेत्रों से कोई
वांछनीय सहयोग नहीं मिल पा रहा है ।
जनविरोधी पूंजीवादी नीतियों
की असफलता का ही नतीज़ा है कि हाल के दिनों में जरूरतमंदों और बेरोज़गारों को जीविकोपार्जन
के लायक निश्चित आय के प्रावधानों पर विचार किया जाने लगा है और अब ये विचार तमाम
दलों के मुख्य एजेंडे पर आ गए हैं, जबकि कुछ अरसे पहले तक इन विचारों पर कोई सोचता
भी नहीं था। उम्मीद है इस महामारी में पूंजीवादी व्यवस्था के दुष्परिणमों व असफलताओं से सबक लेकर भारत निजिकरण की बजाए संसाधनो के
राष्ट्रीयकरण को प्राथमिकता देगा एवं क्रूर अमानवीय पूंजीवादी व्यवस्था के अंधानुकरण के स्थान पर
समाजवाद की दिशा में विचार करेगा मगर आज के दौर में शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कॉर्पोरेटपोषित
लोकतंत्र से मुक्ति की राह इतनी आसान भी नहीं है । हम तो बस थोडी बहुत उम्मीद ही कर सकते हैं ।
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