Tuesday, December 17, 2019

भूपेश बघेल सरकार के एक सालः ईमान की बात---- जीवेश चौबे

15 साल तक एक ही पार्टी, एक ही सरकार, एक ही चेहरा जिस नवगठित प्रदेश की पहचान सा बन गया था उसे लगभग रौंदते हुए भूपेश बघेल के नेतृत्व में कॉंग्रेस ने छत्तीसगढ़ में विजय हासिल कर सरकार बनाई । एक साल हो गया देखते देखते छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल के नेतृत्व में सत्तारुढ़ कॉंग्रेस की सरकार को । अमर शायर साहिर लुधियानवी की नज़्म है “ नया सफर है पुराने चराग़ गुल कर दो”, भूपेश सरकार इसी तर्ज़ पर आगे बढ़ती प्रतीत हो रही है ।  छत्तीसगढ़ में भूपेश सरकार के 1 साल पूरा होने पर पत्रकार,मीडया- सोशल मीडिया पर व्यस्त रहने वाले ,राजनैतिक , सामाजिक, साहित्यिक, कला  संस्कृति से जुड़े लोगों ने अपनी भावनाएं व्यक्त की हैं , कर रहे हैं और आगे भी करेंगे । जाहिर है इस एक साल के दरम्यान सभी ने अपनी सहूलियतें ,सुविधाएं और अपने निजि अनुभव  के आधार पर आकलन समाकलन कर इस एक साल की समीक्षा की होगी , आगे भी करेंगे । क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं करोगे , सुप्रसिद्ध साहित्यकार प्रेमचंद का यह कालजयी वाक्य सबको हमेशा ध्यान में रखना चाहिए । ऐसा नहीं है कि भूपेश बघेल के 1 साल में कुछ हुआ ही नहीं या इतना हुआ जितना पहले कभी नहीं हुआ । इन दोनो अतिशयोक्तियों के बीच संतुलन की एक बारीक लाइन है जिस पर चलकर ही कॉंग्रेस सरकार के एक साल की समीक्षा की जानी चाहिए । 
सबसे महत्वपूर्ण और धमाकेदार तो इस सरकार की  शुरुवात ही रही जिसके मास्टरस्ट्रोक होने से इनकार नहीं किया जा सकता कि शपथ ग्रहण के महज़ 2 घंटे की कालावधि में किसानों का कर्ज़ा माफ कर भूपेश बघेल ने अपने इरादे जाहिर कर दिए थे और इसे पूरा करनें में भी कोई कोताही भी नहीं की। कर्ज़माफी के साथ ही शहरों में बिजली बिल पर भारी छूट और अन्य जनहितकारी घोषणाओं के साथ गत वर्ष किसानों को 2500 रु के हिसाब से फसल मूल्य भी दे दिया । इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि भूपेश बघेल की इस ताबड़तोड़ क्रियान्वयन वाली कार्यप्रणाली से घबराकर केन्द्र सरकार ने इस बरस धान खरीदी में अड़ंगे लगा दिए जिससे राज्य सरकार को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है , एन निकाय चुनावों के दौर में, भूपेश बघेल के लिए यह एक बहुत बड़ी चुनौती है । भूपेश सरकार ने फिर भी वादा व दावा किया है कि वह किसानों को अपने वादे के मुताबिक धान के लिए 2500 रु पूरे देगी मगर इस वादे के दावे की विश्वसनीयता से जनता और विशेषकर किसानो को  सहमत करवा पाना भी एक बड़ी चुनौती है । केन्द्र सरकार की शह पर प्रदेश में विपक्ष इसे भुनाने के प्रयास में है मगर विपक्ष के तमाम प्रोपेगेंडा के मुकाबिल भूपेश बघेल की एक साल में अर्जित व स्थापित वादापरस्ती की विश्वसनीयता ज्यादा वजनदार कही जा सकती है ।
 15 बरस से एक विशेष ढर्रे पर चलती हुई नौकरशाही निश्चित ही एक बरस में पटरी पर नहीं आ सकी है हालांकि कुछ कुछ बदली सी नज़र आती है, और न ही सरकारी महकमा भ्रष्टाचार से बाहर  हो पाया है । इन सबसे इतर आमजन से जुड़े मुद्दों पर भूपेश सरकार तेजी से काम करने की नीति पर अमल कर रही है । शहरी क्षेत्रों में बिजली बिल,  छोटे भूखंडों की रजिस्ट्री, ग्रामीण क्षेत्रों में नरुवा घुरुवा की सफलता हो या आदिवासियों को ज़मीने वापस करवाने और उन पर दायर फर्जी मुकदमों से राहत देने के वादे व योजनाएं हों । इन सबको लेकर भूपेश बघेल वादों और दावों के त्वरित क्रियान्वयन में उल्लेखनीय रूप से खरे उतरे हैं । आदिवासी क्षेत्रों में जहां एक ओर  उन्होनें नंदराज पर्वत पर खनन की रोक तो जरूर लगाई मगर दूसरी ओर हसदेव अरण्य क्षेत्र में खनन को  लेकर छत्तीसगढ़ में  अडानी को रोक पाने में अब तक सफल नहीं हो पाए हैं जिससे कुछ तल्खी और नाराजी भी फैली है मगर उम्मीद कायम है कि वे जनपक्षधरता की कसौटी पर निश्चित रूप से खरे उतरेंगे ।
हालांकि नक्सली वारदातों और गतिविधियों में आशातीत सफलता नहीं मिली है मगर इसके बावजूद आम आदिवासी के रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर लिए गए निर्णयों के चलते अपने वादों पर खरा उतरकर भूपेश बघेल ने आदिवासी क्षेत्रों में भी विश्वसनीयता अर्जित की है । भूपेश बघेल द्वारा कॉर्पोरेट समूह द्वारा अधिग्रहित आदिवासियों की जमीने वापस दिलवाने से लेकर बस्तर में आदिवासियों पर लगे फर्जी मामले वापस लेने जैसे महत्वपूर्ण फैसले और इसके त्वरित क्रियान्वयन ने आदिवासी क्षेत्रों में एक विश्वास का वातावरण निर्मित किया है जिसके चलते कॉंग्रेस पार्टी को निश्चित रूप से पायदा हुआ है ।  इसका सबूत है  इस 1 बरस के दौरान आदिवासी क्षेत्र बस्तर में हुए आम चुनाव व विधान सभा के उपचुनाव में मिली अपार सफलता, जो उनकी नीतियों और  आदिवासियों के हित में लिए गए निर्णयों की आदिवासियों के बीच स्वीकार्यता को स्थापित करता है ।
  निश्चित रूप से भूपेश बघेल के नेतृत्व में विशाल बहुमत से सत्ता में आई कॉंग्रेस सरकार ने इस एक साल के दौरान आमजन के बीच उम्मीदों व संभावनाओं को नए आयाम दिए हैं । कभी गेड़ी चढकर, कभी भौंरा चलाकर तो कभी लोक जीवन से जुड़े त्योहारों के माध्यम जैसे लोकप्रियता के तमाम उपक्रम के जरिए आम मतदाता के बीच जहां एक ओर  अपनी लोकलुभावन छवि निर्मित करने व मजबूत करने में सफल रहे हैं वहीं दूसरी ओर इन्हीं उपक्रमों के बल पर अभिजात्य के मुकाबले सहज लोकेल या ग्रामीण छवि को सफलतापूर्वक स्तापित कर 15 साल तक सत्ता में रही भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व व संगठनात्मक ढांचे को बिखराने में भी कामयाब रहे हैं । गौरतलब है कि इस एक वर्ष के कार्यकाल के दरम्यान अपनी कार्यप्रणाली से आमजन में अपनी विशेष छवि स्थापित करने में  कामयाब रहने के साथ ही  भूपेश बघेल अपनी पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व की निगाहों में भी संभावनाशील नेता के रूप में एक सम्मानित नेता की छवि स्थापित कर पाने में पूरी तरह कामयाब रहे हैं ।
अब इस लोकप्रिय छवि की अग्निपरीक्षा निश्चित रूप से निकाय व पंचायत चुनावों में होगी । जहां तक इस एक साल में चुनावी उपलब्धि का सवाल है तो यह नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि लोकसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ में कॉंग्रेस को बहुत बुरी हार का मुंह देखना पड़ा था मगर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि तब भूपेश बघेल को पद संभाले जुम्मा जुम्मा 1 माह भी नहीं हुए थे । वैसे भी लोकसभा के मुद्दे काफी अलग तो होते ही हैं । भूपेश सरकार की असल परीक्षा छत्तीसगढ़ में हुए उप चुनावों में थी जिसमें वे शत प्रतिशत सफल साबित हुए । आज पूरे बस्तर से भारतीय जनता पार्टी का सफाया हो चुका है । अतः उम्मीद कर सकते हैं कि जनता निकाय व पंचायत चुनाव में अपना समर्थन देकर इस एक साल में उनकी  कार्यप्रणाली पर अपनी मुहर लगाएगी ।
दरअसल यही भूपेश बघेल की एक साल में हासिल महत्वपूर्ण उपलब्धि है कि वे अपने वादे व दावों पर खरे उतर पाए हैं और इसी के चलते शहरी व ग्रामीण जनता का विश्वास जीत पाने में कामयाब रहे हैं । बेलगाम नौकरशाही के असहयोग व अनियंत्रित भ्रष्टाचार के बावजूद जनता के बीच उनकी बातों का वजन स्थापित हुआ है , लोगों का भरोसा सरकार और मुख्यमंत्री पर शनैः शनैः जमने लगा है । इस बात को लेकर विपक्ष में बेचैनी भी है । किसी भी राजनेता व विशेष रूप से मुख्यमंत्री के लिए यह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि कही जा सकती है । उम्मीद करते हैं इस पहले बरस में सत्तामद से काफी हद तक बचे रह पाए भूपेश बघेल आने वाले बरस में भी  इसे कायम रख पाने में कामयाब रह पायेंगे।
जीवेश चौबे

jeeveshprabhakar@gmail.com

Wednesday, November 13, 2019

मुक्तिबोधः पत्रकारिता के प्रगतिशील प्रतिमान ----जीवेश प्रभाकर

पिछली आधी सदी से हिन्दी साहित्य मे मुक्तिबोध की गंभीर उपस्थिति एक  गहन बौद्धिक आवरण की तरह छाई हुई है । वर्ष 2017 उनका जन्म शताब्दी वर्ष रहा। पूरे देश में मुक्तिबोध पर केन्द्रित अनेक आयोजन हैं।एक बात ग़ौरतलब है कि अधिकांश आयोजन मुक्तिबोध की कविताओं पर ही ज्यादा केन्द्रित रहे । जाहिर है कि मुक्तिबोध की मुख्य पहचान एक संवेदनशील लम्बी कविताएं लिखने वाले के रूप में ही ज्यादा है । मुक्तिबोध एक चिंतनशील व जागरूक रचनाधर्मी के रूप में जाने जाते हैं । वे  गहन मानवीय संवेदना के कवि तथा कल्पनाशील कथाकार तो हैं ही साथ ही स्पष्टवादी समीक्षक के रूप में भी जाने जाते हैं । कविता कहानी व समीक्षा के अलावा इतिहास व अन्य विषयों पर भी उनका प्रचुर लेखन रहा है ।
एक बात जो उनके संदर्भ में ज्यादा प्रकाश में नहीं लाई जाती वो है उनका पत्रकार के रूप में लिखा गया महत्वपूर्ण गद्य,कहा जा सकता है ये उनका अल्प पठित गद्यांश है जिस पर हिन्दी जगत में कभी भी ज्यादा तवज्जो नहीं दी, या यह कहें कि जानबूझकर नहीं दी तो अतिशयोक्ति नहीं होगी ।इसका एक कारण तो यह भी रहा कि उस दौर में एक वर्ग द्वारा हिन्दी साहित्य में अखबारों में लिखने वालों का उपहास उड़ाया जाता रहा, हालांकि आज सभी अखबारों में नियमित कॉलम लिखने बेताब रहते हैं ।  मुक्तिबोध ने अपनी दीगर रचनाओं के मुकाबले अखबारी लेखन कम ही किया है मगर एक छोटे अंतराल में ही सही उन्होंने अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाते हुए जो लिखा वो उन्हें बेबाक, अध्ययनशील व जागरूक पत्रकार के रूप में स्थापित करता है साथ ही उच्चस्तरीय व प्रगतिशील पत्रकारिता की एक मिसाल कायम करता है जिसे आज भी छू पाना काफी बहुत मुश्किल है।
इस तरह साहित्य व पत्रकारिता दोनो के शीर्ष प्रतिमानो का एक साथ मिल पाना दुर्लभ संयोग ही कहा जा सकता है । यह बात गौरतलब है कि जो मुक्तिबोध अपनी रचनाओं में दुरूह व क्लिष्ट समझे जाते हैं वहीं जब वे  अखबारों में लिखते हैं तो बहुत ही सीधी व सरल  भाषा में अपनी बात कहते हैं जो आसानी से संप्रेषित होती है । अक्सर बुद्धिजीवी उनके साहित्यिक गूढ़ता के आलोक में उनकी इस सीधी सरल भाषा एवं जानकारीपूर्ण  व तथ्यात्मक आलेखों को नज़रअंदाज़ कर जाते हैं । ‘’मुक्तिबोध रचनावली’’ के छठे खंड  में  मुक्तिबोध के अखबारी लेखन को शामिल किया गया है । इसके अलावा उनके पुत्र  रमेश मुक्तिबोध ने अपने पिता की सामग्री खोज कर  उसे ‘’जब प्रश्नचिन्ह बौखला उठे’’ शीर्षक से ‘’रचनावली’’ के काफी वर्षों बाद एक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवाया है ।
मुक्तिबोध की पत्रकारिता आज़ादी के बाद और मुख्य रूप से पहले आम चुनाव 1952 के आसपास ही शुरू होती है । इसके पूर्व वे एक पत्रकार के रूप मे कम ही सक्रिय रहे। मुक्तिबोध नागपुर से प्रकाशित होने वाले  नया खूनके सम्पादक रहे । नया खूननागपुर के कद्दावर कांग्रेसी नेता स्वामी कृष्णानंद सोख्ता का साप्ताहिक अखबार था ।इस अखबार को उस दौर में साहसी पत्रकारिता का दरजा हासिल था । ऐसे अखबार में मुक्तिबोध को अपनी स्पष्ट व साहसिक संपादकीय व लेखों के लिए प्रोत्साहन के साथ साथ संबल भी मिला जिसके कारण वे पूरे साहस व निश्तिंतता के साथ अपने निष्पक्ष व धारदार विचार रख सके । नया खूनके अलावा  वे नागपुर से ही प्रकाशित सारथीके साथ भी जुड़े रहे ।पूर्व में अपनी नौकरी के कारण व बाद में कुछ अन्य कारणों से भी ऐसा माना जाता है कि मुक्तिबोध ने छद्म नामो से भी अनेक लेख लिखे ।
आजादी के पश्चात देश अनेक कठिनाइयों से गुज़र रहा था । एक ओर विभाजन की त्रासदी थी तो दूसरी ओर देश आर्थिक मोर्चे पर भी अनेक कठिनाइयों से जूझ रहा था । ऐसी परिस्थितियों के बावजूद नव स्वतंत्र देश के स्वप्न भी आकांक्षाओं के पंख फैलाए नए फलक पर छा जाने को आतुर थे । राष्ट्रीय नेताओं में तब सबसे युवा, लोकप्रिय व ऊर्जावान नेता पं. जवाहर लाल नेहरू देश की बागडोर संभाल चुके थे । आजादी की मध्य रात्रि को दिए गए उनके ओजस्वी भाषण से देश में एक नई ऊर्जा व उत्साह का संचार हुआ, विशेष रूप से युवाओं को पं. नेहरू से काफी उम्मीदें जगी थीं । देश के युवा वर्ग में पं. नेहरू के करिश्माई व्यक्तितव का जादू चरम पर था और इससे मुक्तिबोध भी अछूते नहीं रह पाए थे । संभवतः पं. नेहरू के समाजवादी रुझान एवं नास्तिकता की हद तक धर्मनिरपेक्ष रुख प्रमुख कारण रहा हो , यहां तक कि पं. नेहरू की मुत्यु पर तो मुक्तिबोध ने स्पष्ट रूप से यह घोषित कर दिया था कि अब फासिज्म को देश में पैर पसारने से कोई रोक नहीं सकता और आज हम उनकी आशंकाओं को फलीभूत होते देख ही रहे हैं । यह बात भी गौरतलब है कि नेहरू के अवसान, 27 मई 1964, के बमुश्किल 6 महीने के अंतराल में, 13 सितंबर 1964, मुक्तिबोध का भी निधन हो गया।
 अपने अखबारी लेखन के छोटे मगर महत्वपूर्ण कालखंड में मुक्तिबोध नवस्वतंत्र भारत के पुनर्रुत्थान में  नेहरू की भूमिका को लेकर काफी उत्साहित व आशान्वित थे ऐसा उनके लेखों में साफ झलकता है । पं. नेहरू के नेतृत्व में आजाद भारत के विकास को लेकर भी मुक्तिबोध को पं. नेहरू से काफी आशाएं थी । हालांकि  आज़ादी के कुछ वर्षों बाद ही पूरे देश में स्वप्नभंग व निराशा का दौर शुरु हो चुका था, जो  मुक्तिबोध की कविताओं व दीगर रचनाओं में भी झलकने लगा था, मगर इसके बावजूद उनके मन के एक कोने में नेहरू के प्रति अंत तक एक नरम व आशावादी रुख बना रहा। दून घाटी में नेहरू, नेहरू की जर्मन यात्रा का महत्व, तटत्थ देशों को ज़बरदस्त मौका, जैसे लेखों में मुक्तिबोध की पं. नेहरू के प्रति आसक्ति को स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता है । उनका लेखन मुख्यतः नेहरू-युग के उतार चढ़ाव के दौर में विश्व-राजनीति में भारत की भूमिका ,तटस्थ देशों एवं साम्यवादी देशों की भूमिका, अमेरिकी-सोवियत शीत-युद्ध और इन सब के बीच नव-स्वतंत्र भारत की विकासशील छवि को लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्थिति एवं इसमें पं. नेहरू की सूझबूझ भरी दूरदृष्टि पर केन्द्रित  कही जा सकती है । इन लेखों में मुक्तिबोध के साम्यवादी प्रगतिशील विचारों की स्पष्टता एक महत्वपूर्ण पहलू है जिसे आज भी पढ़ा जाना चाहिए ।  
अंतर्राष्ट्रीय  हालात और संबंधों की जो समझ मुक्तिबोध में तब थी आज भी वैसी समझ व दृष्टिकोण  का कोई पत्रकार नज़र नहीं आता है । प्रगतिशील साहित्यकारों में भी इस तरह साहित्य से इतर मसलों व परिस्थितियों पर जागरुकता का घोर अभाव रहा है । आजादी के पश्चात प्रगतिशील रचनाकारों में  मुक्तिबोध के अलावा हरिशंकर परसाई ऐसे रचनाकार रहे जिन्होने मुक्तिबोध की तरह स्वतंत्र भारत की परिस्थितियों का गहन अधययन मनन कर लगातार लेखन किया । यह बात गौरतलब है कि जहां मुक्तिबोध तमाम विषयों पर गंभीर लेखन करते रहे वहीं परसाई ने व्यंग्य के माध्यम से लगभग आधी सदी तक  लोक शिक्षण का काम किया मगर दोनो के ही लेखन में प्रचुर अध्ययन, सूक्ष्म अवलोकन व स्पष्ट रूप से साम्यवादी प्रगतिशील मानवीय दृष्टिकोण समान रूप से मौजूद रहा है । इस संदर्भ में एक बात और गौर करने लायक है कि जहां परसाई प्रारंभ से ही नेहरू की नीतियों की निष्पक्ष समीक्षा धरातल पर आकर करते रहे वहीं मुक्तिबोध की नेहरू के प्रति आसक्ति को उनके लेखन से समझा जा सकता है ।
एक पत्रकार के रूप में उन्होने राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों एवं तात्कालीन वैश्विक परिदृष्य पर पूरे अध्ययन व गंभीर चिंतन के साथ तर्कपूर्ण आलेख लिखे। इससे उनकी वैश्विक समझ व प्रगतिशील दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता है । छठवें दशक में वे एक सजग व जागरूक पत्रकार के रूप में न सिर्फ देश के अंदरूनी हालातों पर वरन यूरोप व अमेरिका सहित पूरे विश्व से संबंधित समस्त मसलों पर अपने आलेखों के माध्यम से वे लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे । यह बात ग़ौरतलब है कि आज एक बार फिर यूरोप व अमरीका जबरदस्त अंतर्विरोध व संक्रमण के दौर से गुजर रहा है और दक्षिणपंथी ताकतें फिर सर उठा रही हैं। कम से कम हमारे देश के अखबारों या मीडिया में इसे लेकर महज सूचनाओं के और  कोई गंभीर आलेख पढ़ने को नहीं मिल रहे हैं । विगत दिनों संपन्न फ्रांस के चुनावों पर पूरे विश्व की निगाहें थी । गौरतलब है कि लगभग साठ वर्ष पूर्व फ्रांस किस ओर आलेख में मुक्तिबोध ने द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात फ्रांस के बहाने पूरे यूरोप की तत्कालीन परिस्थितियों पर अमरीकी पूंजी निवेश के दुष्परिणामों का उल्लेख करते हुए भविष्य के खतरों की ओर इशारा किया था । आज ऐसे विश्लेषणात्मक लेख का सख्त अभाव पूरे पत्रकारिता जगत में देखा जा सकता है । लगभग 60 वर्ष पूर्व वे विश्व में तेजी से बढ़ती अमरीका के दखल व पूंजीवादी ताकतों के साम्राज्यवादी मंसूबों पर वे लगातार सचेत होकर लिखते रहे । अंग्रेज गए मगर इतनी अंग्रेजी पूंजी क्यों, समाजवादी समाज या अमरीकी ब्रिटिश पूंजी की बाढ़, तथा अन्य लेखों में वैश्विक स्तर पर बढ़ते पूंजीवादी खतरों व अमरीकी प्रभाव के प्रति लगातार इशारा करते रहे ।
 हालांकि मुक्तिबोध कभी राजनैतिक एक्टिविस्ट नहीं रहे और न किसी आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग ही लिया मगर मुक्तिबोध के पास एक गहरी राजनैतिक व सामाजिक दृष्टि के साथ ही आर्थिक मामलों की समझ, सूक्ष्म व चौकस अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि तथा गहन व विस्तृत अध्ययन था। ऐसा विलक्षण संयोग आज भी मिल पाना कठिन है । उन्होने दिग्विजय कॉलेज के कार्यकाल के दौरान एक आयोजन में अपने उद्बोधन में कहा था कि कोई भी घटना क्यों घटती है पत्रकार को उसके मूल कारणों को समझना जरूरी है, आधुनिक राजनीति में जनमत का महत्वपूर्ण स्थान है तथा जनमत के मूलाधार के बिना किसी भी देश में न तानाशाही कायम रह सकती है न लोकतंत्र ।  एक बात स्पष्ट तौर पर कही जा सकती है कि मुक्तिबोध साम्यवाद के प्रति पूरी तरह समर्पित थे । देश व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर  साम्यवाद व साम्यवादी देशों की मुश्किलों के प्रति उनकी चिंता उनके अनेक लेखों में देखी जा सकती है । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पूंजी व पूंजीवादी देश अमरीका के बढ़ते प्रभाव तथा तत्कालीन साम्यवादी ताकतवर देश सोवियत संघ के बीच शीतयुद्ध के वैश्विक परिणामों व हलचलों पर वे पैनी दृष्टि रखते थे । पश्चिम एशिया में अमरीका की दिलचस्पी, साम्यवादी राष्ट्रों की नई समस्या, साम्यवादी समाज या अमरीका, कम्युनिज्म का संक्रमणकाल,समाजवाद का निर्माण जैसे आलेखों के माध्यम से वे लगातार अपनी चिंता जाहिर करते रहे ।
राजनैतिक लेखों के अलावा मुक्तिबोध सामाजिक व सांस्कृतिक फलक पर भी लगातार सक्रिय रहे ।उल्लेखनीय है कि उन्होंने बहुत ही शुरुवाती दिनों से बल्कि पहले लेख अतीत से ही इन मुद्दों पर लिखना प्रारंभ कर दिया था । उनका पहला लेख अतीत कर्मवीर में 1937 में छपा था जिसके संपादक माखन लाल चतुर्वेदी थे और तब मुक्तिबोध पूरे बीस बरस के भी नहीं हुए थे ।  वे देश की सांस्कृतिक विरासत के  सजग प्रहरी के रूप में संस्कृति पर बढ़ते फासिस्ट खतरों से अनजान नहीं थे बल्कि लगातार उस पर लिख रहे थे । सांस्कृतिक आध्यात्मिक जीवन पर संकट, दीपमलिका,हुएनसांग की डायरी,भारतीय जीवन के कुछ विशेष पहलू आदि लेख आज भी अपनी उपयोगिता पर खरे उतरते हैं । संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के दौरान उनके द्वारा लिखित संयुक्त महाराष्ट्र का निर्माण एकदम ज़रूरी’’  सम्पादकीय में मुक्तिबोध स्वायत्त महाराष्ट्र राज्य की  पैरवी करते हैं और इसे एक ऐतिहासिक व सांस्कृतिक दस्तावेज़ बना देते  हैं वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हैं कि महाराष्ट्र प्रांत के लिए आन्दोलन अलगाववादी नहीं  बल्कि वह भारतीय संस्कृति और महत्वाकांक्षा का ही एक वेगवान रूप है। अपने संपादकीय में वे एकीकृत संयुक्त महाराष्ट्र के पक्ष में आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक आदि सभी पहलू शामिल करते हैं । इस तरह के संपादकीय की कल्पना आज कर पाना संभव नहीं है और पूर्व में भी कहीं नजर में नहीं आता है । इसके साथ साथ वे आधुनिक भारतीय समाज, युवा वर्ग, धर्म अवं अन्य संसामयिक विषयों पर भी लगातार अपने विचार व्यक्त करते रहे । आधुनिक समाज का धर्म, भारतीय जीवन के कुछ विशेष पहलू,नौजवान का रास्ता,ज़िन्दगी के नए तकाजे और सामाजिक त्यौहार जैसे आलेखों में उनकी चिंताओं पर उनके प्रगतिशील विचारों को समझा जा सकता है । भाषा को लेकर वे अत्यंत संवेदनशील थे ये उनकी हर रचना में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, मगर हिन्दी के सरकारीकरण की विडंबनाओं पर उनका लेख अंग्रेजी जूते में हिन्दी को फिट करने वाले भाषाई रहनुमा बहुत महत्वपूर्ण व व्यवहारिक है ।
मुक्तिबोध द्वारा अपने रचनाकाल के छोटे कालखंड में की गई पत्रकारिता के दौरान अखबारों में किए गए लेखन को बाद में लगातार हाशिए पर ही रखा गया । इसका एक कारण संभवतः ये हो सकता है कि मुक्तिबोध का सारा लेखन  उनकी मृत्यु पश्चात ही प्रकाशित हो पाया और उन्हें मृत्यु पश्चात ही ज्यादा लोकप्रियता मिली। उस दौर में ग़ैरसाहित्यिक लेखन को हल्का, निम्नस्तरीय समझा जाता रहा और अखबारी लेखन कहकर उपहास भी उड़ाया जाता रहा । इसका दुष्परिणाम ये हुआ कि साहित्य जगत में उनकी कविताओं व गद्य पर ही सारा ध्यान केन्द्रित कर दिया गया,हालांकि बदलते परिवेश में आज सभी अखबार व अन्य मीडिया की ताकत के सामने नतमस्तक हैं और इनमें छपने लालायित रहते हैं । मुक्तिबोध के अनुसार बहुत से कवियों के अन्तःकरण में जो बेचैनी , जो ग्लानि, जो अवसाद, जो विरक्ति है, उसका एक कारण उनमें एक ऐसी विश्व दृष्टि का अभाव है जो उन्हें आभ्यन्तर आत्मिक शक्ति प्रदान कर सके, उन्हें मनोबल दे सके, और उनकी पीड़ाग्रस्त अगतिकता को दूर कर सके । कवियों से ऐसी विश्वदृष्टि अपेक्षित है जो भावदृष्टि का, भावना का, भावात्मक जीवन का अनुशासन कर सके ...। आज उनकी इस बात पर गौर करना ज़रूरी है । रचनाकारों को , विशेष रूप से प्रगतिशील जनवादी रचनाकारों को, इस ओर ध्यान देना चाहिए । मुक्तिबोध के अखबारी लेखन के प्रचार प्रसार एवं  पुनर्पाठ की सख़्त ज़रूरत है । उनके अखबारी लेखन में भी उनकी विचारधारा कहीं समझौते नहीं करती बल्कि पत्रकारिता को नए आयाम देती है और पत्रकारिता के प्रगतिशील प्रतिमान स्थापित करती है । मुक्तिबोध की सुप्रसिद्ध कविता अंधेरे में के अंश  है-
इसलिए मैं हर गली मे
और हर सड़क पर
झांक झांक देखता हूं हर एक चेहरा
प्रत्येक गतिविधि
प्रत्येक चरित्र
व हर एक आत्मा  का इतिहास
हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति
प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया क्रियागत परिणति
खोजता हूं पठार...पहाड़...समुंदर
जहां मिल सके मुझे
मेरी वह खोई हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म- संभव ।

-जीवेश प्रभाकर-
(उप संपादक- अकार)
 Email: jeeveshprabhakar@gmail.com

Saturday, October 19, 2019

क्यों ज़रूरी हो गया है सबके लिए गांधी विमर्श----जीवेश चौबे

एक दौर था जब गांधी की आलोचना वामपंथी या क्रान्तिकारी रुझान  होने का प्रथम प्रमाण माना जाता था और गांधी से घृणा करना दक्षिणपंथी होने की ज़रूरी शर्त। लम्बे समय तक गांधी व उनके विचारों को लेकर जहां लेफ्ट पार्टियों में वैचारिक असहमति का वातावरण बना रहा और दक्षिणपंथियों के बीच गांधी हमेशा से घृणा और द्वेष के पर्याय माने जाते रहे। गांधी के अहिंसक व सत्याग्रही सिद्धांतों को लेकर वामपंथियों का घोर विरोध रहा। मार्क्स, लेनिन, माओ और देश में भगत सिंह को अपना आदर्श मानने वाले गांधी के अहिंसक आंदोलन की प्रासंगिकता और उनके विचारों की लगातार आलोचना करते रहे।
आजादी के पूर्व से ही सामाजिक बदलाव और समाजवाद के लिए हिंसक क्रांति के पैरोकार रहे वाम दल व मार्क्सवादी वर्ग ने गांधी के सिद्धांतों और आज़ादी के लिए अपनाए जा रहे अहिंसक आंदोलन को कभी अहमियत या मान्यता  नहीं दी। आज भी वाम दल अपने दलीय संगठनात्मक स्तर पर घोषित तौर से गांधी पर केन्द्रित कोई आयोजन नहीं कर रहे हैं। मगर आज ऐसा क्या हुआ कि तमाम वाम रुझान वाले बुद्धिजीवी और संबद्ध संगठन गांधी को सर आंखों पर बिठा रहे हैं और वाम दलों पर दबाव भी बना रहे हैं ।
यही बात उन दक्षिणपंथियों और फासीवादियों पर भी लागू होती है । आजादी के पहले बल्कि अपनी स्थापना के समय से ही गांधी से निजी विद्वेष व घृणा रखने वाले और देश का दुश्मन बताने वाले आज क्यों गांधी को स्वीकार करने को मजबूर हो रहे हैं। हालांकि यहां भी यही देखा जा सकता है कि आरएसएस खुले व घोषित तौर पर गांधी पर कोई आयोजन नहीं कर रहा मगर इससे संबद्ध और पोषित दल भाजपा व अन्य संगठन गांधी जयंती पर कई आयोजन कर रहे हैं। निश्चित रूप से दक्षिणपंथी मन से इसे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि एक कट्टरपंथी वर्ग ऐसा भी है जो गांधी के बरक्स गोड़से के महिमामंडन में लगातार पूरी ताकत से लगा हुआ है ।
इसी के चलते गांधी जयंती के अवसर पर सोशल मीडिया में गोड़से वंदना के असंख्य उद्धरण सामने आए जिसे न तो संघ और न ही भाजपा नीत केन्द्र सरकार ने रोकने या कार्यवाही करने का कोई प्रयास किया जो साफ-साफ इनकी मंशा स्पष्ट करता है। यह बात भी गौरतलब है कि गांधी के जीवित रहते और आजादी के काफी बाद तक कॉंग्रेस के भीतर भी वाम रुझान का एक वर्ग रहा जो लगातार उनकी सत्य, अहिंसा और सहिष्णुता की नीतियों पर आक्रामक रुख अपनाए रहा। गौरतलब है कि आजादी के पूर्व दौर में लोहिया और बहुत से समाजवादी रुझान के कॉंग्रेसी गांधी की नीतियों व विचारों का समर्थन करते रहे ।
इस बात पर भी ग़ौर किया जाना चाहिए कि दो राष्ट्रों की अवधारणा के उन्नयन के पश्चात न सिर्फ कट्टरपंथी हिन्दू बल्कि मुसलमानों का एक कट्टरपंथी जिन्ना समर्थक वर्ग भी पाकिस्तान बनने की राह में गांधी को बड़ा रोड़ा मानता रहा, मगर इस कट्टर वैचारिक विरोध के बावजूद इतिहास में ऐसी कोई घटना या वाक्या नहीं मिलता कि गांधी पर कभी भी किसी कट्टरपंथी मुसलमान ने कोई हमला किया हो। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है। दूसरी ओर बंटवारे को लेकर कट्टरपंथी हिंदुओं की सोच व धारणा बहुत अलग थी। मुसलमानों का पक्ष लेने और मुसलमानों को तरजीह देने से नाराज दक्षिणपंथी कट्टर हिंदू समाज वैचारिक मतभेद की बजाय समाज में गांधी के प्रति घृणा फेलाने में लगा रहा।

गांधी के प्रति लगातार द्वेष, घृणा फैलाने की सुनियोजित मुहिम के चलते यह कट्टरपंथी वर्ग लगातार गांधी पर आक्रामक रहा और अंततः उनकी हत्या भी एक कट्टरपंथी हिन्दू ने ही की। कट्टरपंथियों की इस करतूत का अंजाम हालांकि उन्हें आजादी के बाद लगभग आधी सदी तक भुगतना पड़ा मगर अन्ततः वे अपने मकसद में कामयाब रहे और आज गांधी पिछली सदी की तरह पूजनीय और मान्य नहीं रहे हैं। मगर फिर भी यह कटु सत्य है कि आज भी उनकी उपेक्षा संभव नहीं है इसीलिए गांधी को लेकर चलने की मजबूरी अभी भी बनी हुई है मगर अब भी उन पर पीछे से लगातार हमले जारी हैं ।
आज पूरा विश्व इस बात को स्वीकार रहा है कि ऐसे समय में जब न सिर्फ भारत बल्कि पूरे विश्व में हिंसा का बोलबाला है, फासीवादी ताकतें लगातार सर उठा रही हैं। एक ओर जहां कई राष्ट्र दक्षिणपंथी फासीवाद और अधिनायकवाद की गिरफ्त में हैं और आपस में उलझ रहे हैं वहीं पूंजीवाद और नवउदारवाद अपनी असफलता के चरम पर आवारा पूंजी की गिरफ्त में इस कदर क्रूर और अनियंत्रित हो गया है कि पूरी मानवता खतरे में पड़ गई है। गरीबी, भुखमरी और कुपोषण लोगों को लील रहा है। ऐसे निर्मम और खतरनाक दौर में गांधी के विचार बरबस प्रासंगिक हो जाते हैं। गांधी के विचार इसलिए भी प्रासंगिक हो जाते हैं क्योंकि उन्होंने स्वयं इन विचारों को अपने आचरण में ढालकर प्रयोग किया, उन विचारों को सत्य और अहिंसा की कसौटी पर जांचा-परखा और इनकी प्रामाणिकता सिद्ध करके दिखाई।
अब विश्व महसूस भी करने लगा है कि गांधी के बताए रास्ते पर चलकर ही विश्व
को नैराश्य, द्वेष और प्रतिहिंसा से बचाया जा सकता है। हाल के वर्षों में गांधी के शाश्वत मूल्यों सत्य अहिंसा और सहिष्णुता की प्रासंगिकता बढ़ी है। गांधी के इन मूल्यों को पूरे विश्व ने उनके जन्मदिवस 2 अक्तूबर को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में घोषित कर गांधी विचार के प्रति अपनी सहमति, सम्मान और विश्वास प्रकट किया है। गांधी सत्य, अहिंसा व सहिष्णुता के केवल प्रतीक भर नहीं हैं बल्कि मुकम्मल मापदण्ड भी हैं जिन्हें पूरे विश्व ने स्वीकारा है और विश्व भर में उनके विचारों को जीवन में उतारने की कोशिश हो रही है ।

तो क्या अब गांधी के वैचारिक व धुर विरोधियों को भी लगने लगा है कि गांधी के बारे में उनकी अवधारणा संकुचित थी? क्या उन्हें विश्वास होने लगा है कि गांधी के नैतिक नियम पहले से कहीं और अधिक प्रासंगिक और प्रभावी हैं और उनका अनुपालन होना चाहिए?
प्रश्न यह उठता है कि तमाम असहमतियों और विद्वेष के बावजूद आखिर क्यों गांधी सबके लिए विमर्श का अनिवार्य विषय हो गए हैं? गांधी की अनिवार्यता के प्रश्न पर यह समझना भी जरूरी है कि विभिन्न राजनैतिक दलों और संगठनों के अपने हित ही सर्वोपरि हैं अतः दोनों ही पक्ष गांधी के उन्हीं विचारों और सिद्धांतों से सहमत होते दिखाई देंगे जो उनकी विचारधारा और उनकी सहूलियतों के मुताबिक सुविधाजनक होंगे, अन्य सिद्धांतों से दोनों ही आंखें मूंदे रहेंगे। इससे पहले यह समझना होगा कि गांधी जी राजनीतिक आजादी के साथ सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक आजादी के लिए भी चिंतित थे।
गांधी की ये प्रमुख चिंता रही कि समावेशी समाज की संरचना को कैसे मजबूत किया जाए। गांधी जहां एक ओर साम्यवाद के मामले में संघर्ष की बजाय समन्वय के हिमायती थे वहीं धर्म के मामले में भी वे कट्टरता व पाखंडरहित पीर पराई जाणे रे के पक्षधर थे। ये दोनों ही बातें देश के बहुसंख्यक समाज की स्थाई मानसिकता कही जा सकती हैं। जो इसे बदलने में लगे हैं वो संभव है भविष्य में सफल हो जएं मगर फिलहाल इस विशाल जन के स्थाईभाव के खिलाफ जाने का कोई भी राजनैतिक दल साहस नहीं कर पा रहा है। यही वजह है कि आज गांधी सभी के लिए अनिवार्य विमर्श बने हुए हैं ।
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Thursday, October 3, 2019

गांधी 150 वीं जयंती पर प्रभाकर चौबे स्मृति व्याख्यान व सम्वाद में असद ज़ैदी व गौहर रज़ा के व्याख्यान

गांधी की बचाने की ज़िम्मेदारी नई नस्ल पर है : गौहर रज़ा

  20 वी सदी में भारत  ने विश्व को दो महान हस्तियां दीं , एक गांधी और एक नेहरू शायर, विचारक एवं वैज्ञानिक गौहर रजा ने उक्त बात प्रभाकर चौबे फाउंडेशन व पत्रकारिता विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में गांधी की 150 वीं जयंती के अवसर पर आयोजित प्रभाकर चौबे स्मृति व्याख्यान एवम सम्वाद में कहीं । कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वरिष्ठ सम्पादक ललित सुरजन थे । कार्यक्रम का संचालन ने करते हुए प्रभाकर चौबे फाउंडेशन के अध्यक्ष श्री जीवेश चौबे ने फाउंडेशन के उद्देश्यों से अवगत कराया।
        गांधी, स्वतंत्रता संग्राम और आजाद भारत की कल्पना विषय पर अपने विचारोतजक उदबोधन में गौहर रज़ा ने कहा कि आज हम इतिहास पर नजर डालें तो पाएंगे कि अशोक, बिस्मार्क, सिकंदर, नेपोलियन , अकबर या हिटलर इन सभी की जो भी भूमिका रही समाज ने उन्हें उसी रूप में स्वीकार किया न कि किसी बदलाव के साथ. गांधी जी ने बराबरी की बात की समाज के सभी वर्गों को समान अधिकार देने की बात की लेकिन आज के समाज में हम बराबरी की बात करते तो हैं लेकिन बराबरी को स्वीकार नहीं कर पातेउन्होंने कहा गांधी जी की बुनियादी दृष्टि में  राजनीति  व समाज था न कि आध्यात्म, उन पर हिंदू, इस्लाम, जैन, बौद्ध आदि सभी धर्मों के दर्शन का प्रभाव था. गरीब हो या अमीर सबके लिए उनके वचन एक जैसे ही होते थे.तमाम लोग उन्हें समझौता परस्त कह सकते हैं लेकिन मैं इसे बीच का रास्ता निकालने वाले रणनीतिकार के रूप में देखता हूं, ताकि किसी  प्रकार के वैमनस्य को टाला जा सके.वैज्ञानिक गौहर  रजा ने कहा कि  हम बड़ी- बड़ी बातें बोलते हैं लेकिन दलितों और निचले तबके के लोगों और महिलाओं के प्रति हमारा क्या नजरिया है ये सोचने का विषय है. हमारा स्वतंत्रता आंदोलन इन सभी ढांचों को तोडने का प्रयास था, उन्होंने कहा कि आज गांधी  को बचाने की जिम्मेदारी हमारी अगली नस्ल यानि आप युवाओं की है. गांधी के ख्वाबों के हिंदुस्तान में सब बराबर हैं जिन्हें उनके ख्वाबों का हिंदुस्तान पसंद नहीं वही गांधी के विचारों पर हमला कर उन्हें नए रूप में पेश करना चाहते हैं.
    इस अवसर पर  वरिष्ठ कवि असद जैदी  ने  गांधी जी की नई तालीम व भाषा पर उनके विचार  विषय पर कहा कि गांधी मजबूरी नहीं मजबूरों और मजदूरों के नायक थे,समाज के सबसे निचले तबके के मजबूर, मजलूम लोग गांधी की चिंताओं में प्रमुख थे.    उन्होंने कहा कि गांधी जी ने दलितों वंचितों किसानों की लड़ाई का बीड़ा उठाया, वे समाज के उच्च वर्गों के हितों के लिए नहीं बल्कि अंतिम व्यक्ति के लिए लड़े,उन्हें किसी ने राष्ट्रपिता की पदवी प्रदान नहीं की बल्कि उन्होंने इसे कमाया,ये किसी सरकार की देन नहीं थी बल्कि राष्ट्रपिता के तौर पर समाज के हर वर्ग में उनकी स्वीकार्यता रही.  बापू को राष्ट्रपिता की पदवी दी नहीं गई उन्होंने इसे कमाया ।

           इस मौके पर  मुख्य अतिथि वरिष्ठ पत्रकार श्री ललित सुरजन ने भी गांधी जी के आदर्शों पर व्याख्यान दिया व युवाओं से गांधी जी के जीवन से प्रेरणा लेने की अपील की, कार्यक्रम की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति जी आर चुरेंद्र ने की तथा स्वागत भाषण कुलसचिव डॉ. आनंद शंकर बहादुर ने दिया।अंत मे प्रभाकर चौबे फाउंडेशन के अध्यक्ष जीवेश चौबे ने आभार व्यक्त किया। इस अवसर पर आमन्त्रित अतिथियों का शाल श्रीफल व स्मृति चिन्ह से सम्मान भी किया गया । संयोजन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. नरेंद्र त्रिपाठी थे. कार्यक्रम के उपरांत प्रसिद्ध गौहर रजा, असद जैदी व कवि महेश वर्मा का काव्यपाठ का आयोजन भी किया गया.

Friday, September 27, 2019

दंतेवाड़ा की जीत भूपेश बघेल की नीतियों पर जनता की मुहर है --जीवेश चौबे

दन्तेवाड़ा की  जीत निश्चित रूप से मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की नीतियों और जनोन्मुखी योजनाओं की सफलता
की जीत है । एक बात पर ग़ौर किया जाना ज़रूरी है कि इस उपचुनाव के पूर्व लोकसभा चुनाव में कॉंग्रेस को प्रदेश में करारी हार का सामना करना पड़ा हालांकि कॉंग्रेस ने बस्तर में जीत हासिल की मगर लोकसभा चुनाव में मिली करारी शिकस्त का मनोवैज्ञानिक दबाव निश्चित रूप से पूरी पार्टी पर हावी था । लोकसभा चुनाव में हालांकि राष्ट्रीय मुद्दे प्रमुख होते हैं और मतदाता की मानसिकता अलग होती है । अतः इस उप चुनाव में भूपेश सरकार का लगभग 10 माह का कार्यकाल  निश्चित रूप से कसौटी पर था ।  
आदिवासियों को जमीन वापसी का निर्णय हो या वन उत्पादों के समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी या फिर खदानो , प्रकृतिक संसाधनो पर मुख्य मंत्री भूपेश बघेल का रुख , इस जीत के बाद यह मानना ही होगा कि तमाम किन्तु परन्तु से इतर बस्तर की जनता ने  भूपेश बघेल सरकार द्वारा आदिवासी अंचल और आदिवासियों के लिए विगत लगभग 10 माह में किए गए कार्यों पर अपनी मुहर लगाई है । यहां इस बात पर गौर करना जरूरी है कि इन 10 माह के दौरान लगभग 3 माह आचार संहिता के कारण तमाम कल्याणकारी योजनाओं पर अमल नहीं किया जा सका ।
            उल्लेखनीय है कि स्व. महेन्द्र कर्मा के रहते दंतेवाड़ा सीट पर कॉंग्रेस का लगातार दबदबा बना रहा । महेन्द्र कर्मा की नृशंस हत्या के पश्चात 2013 में उनकी पत्नी देवती कर्मा चुनाव जीतीं थीं मगर  पिछली बार 2018 में हुए विधान सभा चुनाव में कर्मा परिवार के अंदरूनी पारिवारिक कलह व असंतोष के कारण भाजपा को लाभ मिला और भाजपा के भीमा मंडावी चुनाव जीत गए थे । इसके बावजूद मुख्य मंत्री ने एक बार फिर देवती कर्मा पर ही भरोसा किया और व्यक्तिगत रुचि लेकर कर्मा परिवार के आपसी मतभेद दूर करवाने में सफलता हासिल की । इसके साथ ही पार्टी संगठन को विश्वास में लेकर मुख्यमंत्री के नेतृत्व में सुनियोजित रणनीति व पूरी ताकत के साथ चुनाव लड़ा गया जिसके परिणामस्वरूप कॉंग्रेस ने भाजपा से अपनी सीट वापस हासिल करने में कामयाबी हासिल की ।

इस जीत का फायदा निश्चित रूप से अगले माह होने वाले चित्रकोट उप चुनाव में मिलेगा । इस जीत से जहां केन्द्रीय नेतृत्व व संगठन में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का कद बढ़ेगा, उनकी साख बढ़ेगी और उन पर विश्वास बढ़ेगा वहीं उनका खुद का आत्मविश्वास भी मजबूत होगा  ।     

Friday, September 20, 2019

छत्तीसगढ़ में छात्रसंघ चुनाव क्यों नहीं ---- जीवेश चौबे

विगत वर्षों में कॉलेज युनिवर्सिटी में छात्रसंघ चुनाव न कराए जाने का चलन आम हो गया है । तमाम सरकारें इससे बचती हैं और मनोनयन की प्रक्रिया पर ज्यादा जोर देती हैं । विडंबना ये है कि जो भी दल सत्ता में होता है वो चुनाव से बचना चाहता है और जो विपक्ष में होता है वो इसकी पैरवी करता है । छत्तीसगढ़ में भी इसी तर्ज पर इस साल छात्रसंघ चुनाव की बजाय मनोनयन की राह पर चलने का फरमान जारी किया गया है ।   प्रदेश में नई सरकार के गठन के पश्चात यह संभावना प्रबल हुई थी कि बरसों से कभी हां कभी ना से जूझ रहे छात्रसंघ चुनाव अब नियमित रूप से हो सकेंगे । मगर हाल ही में प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री उमेश पटेल ने इस वर्ष छात्रसंघ चुनाव न हो पाने की घोषणा कर छात्रों  में मायूसी पैदा कर दी है। मंत्री जी का कहना है कि इस वर्ष निकाय चुनावों के मद्दे नजर ये फैसला लिया गया है । ये तर्क गले नहीं उतरता
शहीदे आजम भगत सिंह ने विद्यार्थी और राजनीतिशीर्षक से आजादी के पूर्व एक  महत्वपूर्ण लेख लिखा था, जो जुलाई, 1928 में किरती में प्रकाशित हुआ था  उन्होने उस दौर में लिखा था - जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज अक़्ल के अंधे बनाने की कोशिश की जा रही है. इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें ख़ुद ही समझ लेना चाहिए. हम यह मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं जो सिर्फ़ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाए. ऐसी शिक्षा की ज़रूरत ही क्या है?  .
हमारे देश में  छात्र आंदोलनों का एक गौरवमयी इतिहास है। गौरतलब है कि स्वतंत्रता आन्दोलन में छात्रों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया।1920 में महात्मा गांधी के आह्वान पर छात्रों ने अपने कैरियर को दांव पर लगाते हुए स्कूल और कॉलेजों का बहिष्कार किया। । लाखों छात्रों ने सरकारी स्कूल छोड़ा  । 1942  के भारत छोड़ो आंदोलन में  छात्रों – युवकों ने जो भूमिका निभाई वह यादगार है। छात्रों ने हमेशा राजनैतिक और समाज-परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आजादी के बाद से ही मगर  सत्तारूढ़ दलों को छात्र संघटन खटकने लगे थे और ऐसा कहा जाने लगा कि छात्र केवल पढ़ाई पर ध्यान दें, राजनीति न करें बंदिशों की तमाम कोशिशों के बावजूद भी समय समय पर छात्रों ने न सिर्फ कैम्पस बल्कि देश की विभिन्न ज्वलंत समस्याओं को लेकर लगातार आंदोलन किए । छात्र आंदोलन की सबसे उल्लेखनीय भूमिका आपातकाल के खिलाफ सामने आई जिसने आपात काल की चुनौती का मजबूती से सामना करते हुए देश में पुनः लोकतंत्र  बहाल किया। इस आंदोलन से उबरे और छात्र राजनीति से परिपक्व हुए कई नेता आज मुख्यमंत्री सहित कई महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हैं । विडंबना ये है कि आज इनमें से ही कई नेता छात्र राजनीति से बचते हैं और छात्रों को राजनीति से दूर रहने का उपदेश देते हैं ।अक्सर जो दल विपक्ष में होते हैं वे अपनी राजनीति के लिए छात्रों का, अवसर के अनुसार भरपूर उपयोग करते हैं ।  
छात्र संघ चुनाव के विरोध में सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से यह दलील दी जाती है कि इसमें धनबल और बाहुबल का बोलबाला हो गया है तथा इससे पढ़ाई का माहौल दूषित होता है। यहां प्रश्न उठता है कि कई राज्यों में दशकों से छात्र संघ चुनाव नहीं हुए तो क्या यहां के परिसर हिंसामुक्त हो गए और दिल्ली विश्वविद्यालय तथा आज की सुर्खियों में रहा आया जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय यानि जे एनयू  जहां प्रतिवर्ष छात्र संघ चुनाव होते हैं, वहां की शिक्षा व्यवस्था क्या ध्वस्त हो गई? कॉलेजों और यूनिवर्सिटी में छात्र संघ चुनाव को लेकर  2006 में पूर्व मुख्य चुनाव  लिंग्दोह ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय को जो रिपोर्ट दी थी उसमें उम्मीदवारों की आयु, उनके शैक्षणिक रिकॉर्ड, क्लास में उपस्थिति के प्रतिशत और इनमें काफी सिफारिशें हैं मगर ये   व्यवहारिक धरातल पर खरा नहीं उतरती ।  सुप्रीम कोर्ट ने छात्र संघ चुनावों के लिए  निर्णय देते हुए कहा कि छात्र संघ चुनाव लिंग्दोह समति के सुझावों के आधार पर ही कराए जाएं अन्यथा उन पर रोक लगा दी जाए इसका देश भर में विरोध भी हुआ ।  इस वजह से तमाम राज्यों में छात्र संघ चुनाव कई साल तक बाधित रहे
 छात्रों से किसे समस्या है,यह एक गंभीर प्रश्न है ।  दरअसल जो  छात्र आंदोलन विचारों से  उपजते हैं वे समाज को शिक्षित भी करते हैं और एक देश में जनतांत्रिक समाज निर्माण में सहायक भी होते हैं। अपनी मांगों के लिए आंदोलन करने वाले छात्र आंदोलन तो होते रहते हैं, लेकिन व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन या कहें इंकलाब के लिए किए जाने वाले छात्र आंदोलन पूरी व्यवस्था में जबरदस्त परिवर्तन लाते हैं। कई बार व्यवस्था परिवर्तन एवं व्यापक उद्देश्य के लिए आंदोनल  आवश्यक भी होता है। इसमें छात्रों एवं युवाओं की ही भूमिका प्रमुख होती रही है ।  छात्र ही समाज, व्यवस्था तथा राजनीति में परिवर्तन लाने में सक्षम है। छात्रों को राजनीति न करने का उपदेश देना यथात्थितिवाद की पैरवी करना है । सत्ता मे  कब्जा जमाए लोग छात्रों के राजनीति में आने को लेकर भौंवें तान रहे हैं। दरअसल ये वो लोग हैं जिनकी दृढ़ मंशा है कि न सिर्फ छात्र बल्कि शिक्षक साहित्यकार, कलाकार, किसान, मजदूर, व्यापारी, कर्मचारी   सहित ऐसा हर वर्ग जो समाज को देश को नए बदलने की सोच रखता है , राजनीति न करेंवे ऐसे लोगों को जो लोग सत्ता नहीं व्यवस्था में परिवर्तन की बात करते हैं  राजनीति में आने से रोक देना चाहते हैं ।
कालेज एवं  यूनिवर्सिटी ही वो पहली पायदान होती है जहां छात्रों के भटके विचार एक नया  रूप ग्रहण करते हैं और परिपक्व भी होते हैं। राजनीति की राह का पहला कदम कॉलेज में ही  पड़ता है । लोकतांत्रिक प्रक्रिया और मूल्यों की प्राथमिक समझ कॉलेज से ही विकसित होती है । इस उम्र में उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक विचार करने, सोचने से बाधित करना, उनकी सोच और सकारात्मक ऊर्जा पर पानी डालना है। विचारहीन युवा विमर्शहीन समाज अराजकता की ओर अग्रसर होता है जो देश व समाज में  अव्यवस्था ही लाती है । छात्र संघ और छात्र राजनीति लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करने में सहायक होता है क्योंकि इससे छात्रों का राजनीतिक प्रशिक्षण सुनिश्चित होता है और नेतृत्व क्षमता विकसित होती है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज देश के करीब  80 फीसदी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में छात्र संघ नहीं है। अनेक राज्यों ने छात्रसंघों के चुनाव पर प्रतिबंध लगा दिए है। यह छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकार पर हमला है।  आज जब देश में लोकतंत्र के बुनियादी मूल्य, लोकतांत्रिक संस्थाएं और सामाजिक ताना बाना गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है युवाओं खासकर छात्रों को राजनीति से दूर रखने की कोशिशों के दूरगामी दुष्परिणाम होगें ।

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Saturday, September 14, 2019

हिन्दी दिवस पर ----

वरिष्ठ साहित्यकार स्व. श्री प्रभाकर चौबे का लेख

जब अंग्रेज यहां आए तो अपने बंगले में काम करने के लिए हिन्दुस्तानियों को रखा। उन्हें काम चलाऊ अंग्रेजी सिखाई और समय के साथ वे सीखते भी चले। इनकी अंग्रेजी को बटलर अंग्रेजीकहा जाने लगा। बटलर का मतलब आक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार द चीफ मेल सावेंट ऑफ द हाउसहै। अंग्रेजी हिंदी डिक्शनरी में बटलर का अर्थ है प्रधान सेवक या अनुचर जिसके अधिकार में शराब की पेटियां और चांदी के बर्तन रहते हैं। बहरहाल इन बटलरों को कुछ शब्द सिखाए गए। वे अपने साहब से कहते लंच टेकिंग या नॉट।टुडे कहां डिनर…‘ वाईन फिनिस्ड, ब्रिंग डिनर मदर आफ यू कालिंग।’ ‘वाटर इज हाट, गो बाथ।इसी तरह से और साहब भी समझ जाते कि यह बंदा बताना क्या चाह रहा है।
 बहरहाल आज से 50-60 साल पहले कालेजों में वे छात्र जिनकी अंग्रेजी अच्छी होती, अच्छी अंग्रेजी बोलते-लिखते वे कमजोर अंग्रेजी वाले की अंग्रेजी को बटलर अंग्रेजीकहतेबटलर अंग्रेजी बोलता है। बटलर अंग्रेजी चिढ़ाने के लिए कहा जाता और यह हीनता का भाव भी भरता। उन दिनों हमारे शहर में ऐसा बटलर अंग्रेजी को लेकर एक चुटकुला चला था इस तरह का। काफी हाउस में प्रथम वर्ष के दो छात्र बैठे बातें कर रहे थे।
एक ने पूछा- सिगरेट इज।
दूसरे ने कहा-यस इज।
पहले ने पूछा- वेअर?’
दूसले ने जवाब दिया-इन पाकेट?’
पहले ने कहा-डू इट आऊट आफ पाकेट।
पहले ने कहा-यस
दूसरे ने कहा-गिव मी वन।
फिर पूछा-माचिस इज।
दूसरे ने कहा-यस इज।फिर पहले ने कहा-बर्न द सिगरेट।
उससे भी पहले बटलर अंग्रेजी पर मजाक स्कूलों में भी शुरू हो चुका था।
सर ने छात्र से पूछा-वाय डिड यू कम लेट?’
छात्र ने जवाब दिया-सर, इट वाज रेनिंग झम-झम-झम।
बगल में बस्ता लिए दो-दो हम।
लोग फिसल गए
गिर गए हम।
सो माई डियर सर
आई कुड नाट काय
इसे बटलर अंग्रेजी कहते। फादर ने आज यार बहुत एडवाइस दिया। मदर यार बाहर गई तो सिगरेट बर्न किया। इतने में वह आ गई। जिसे भी कहा जाता, जिस पर भी फब्ती कसी जाती कि बटलर अंग्रेजी बोलता है वह शर्म से गड़ जाता। पानी-पानी हो जाता।
बटलर अंग्रेजी का किस्सा इसलिए कि आज हमारे कुछ हिन्दी भाषा के अखबार बटलर हिन्दीलिखे जा रहे हैं और कहते हैं कि यही आज की भाषा है। लगता है मैनेजमेंट उन्हें जनता की भाषा भ्रष्ट करने के लिए ही रखती है। आज का हिन्दी अखबार किसी भी तिथि का उठा लीजिए। आपको मजेदार बटलर हिन्दी के ढेरों उदाहरण मिल जाएंगेपूरा पृष्ठ ही बटलर हिन्दी से भरा मिलेगा- आज स्टूडेंट ने फेस्टीवल मनाया। स्टूडेंट एक्जाम फार्म भरने की तैयारी में लगे। टाउन व विलेज में महिलाओं ने दिवाली पर काऊ की पूजा की। सावन में ग्रीन दृश्य के लिए लोग तरस रहे। होली पर कलर की सेल में बढ़ोतरी। टीचर को भी हॉली डे चाहिए। टीचर को प्रापर ट्रेनिंग नहीं

समझ नहीं आता कि हम हिन्दी अखबार पढ़ रहे हैं या अंग्रेजी? दरअसल यह न हिन्दी अखबार है न हिन्दी। यह बटलर अखबार है। यह सही है कि भाषा में नये-नये शब्द जुड़ते हैं तो भाषा समृद्ध होती है। हिन्दी में भी लोकभाषा सहित दिगर भाषा के कई शब्द हैं जो हिन्दी के ही होकर रह गए हैं। उन्हें अन्य भाषा का नहीं कहा जाता। कुछ शब्दों का अनुवाद भी नहीं करना चाहिए- जैसे मोबाईल, टेलीफोन, अब मिस काल’  का क्या हिन्दी या क्या मराठीमिस काल पूरा अर्थ देता है। अत: यह सर्वव्यापी बन गया है और सहज स्वीकार्य हो गया है। काम वाली बाई भी साथी से कहती है एक ठन मिस काल मार देबे।हिन्दी में भी कहते हैं- मिस काल कर देना। अंग्रेजी के ढेरों शब्द हैं। हिन्दी की तासीर के हो गए हैं। इन पर किसी को आपत्ति नहीं होती। लेकिन शब्द ग्रहण करना और किसी भाषा का पूरा व्याकरण ही भ्रष्ट करने पर तुल जानादोनों में फर्क है।

 आज कुछ अखबार हिन्दी व्याकरण की ही कमर तोडऩे पर उतारू हो गए हैं। न क्रिया न सर्वनाम न कर्ता न कर्मसकर्मक अकर्मक क्रिया का भेद ही मिटा रहे। पहचानना कठिन कर रहे। ये अखबार या कहें पत्रकार ऐसी भाषा क्यों लिख रहे हैं। किसके दबाव में लिख रहे हैं। इसमें कहीं न कहीं कोई न कोई षडय़ंत्र है। हिन्दी को भ्रष्ट करने की मुहिम चला दी गई है। और यह अनुवाद भी नहीं है। मजेदार बात यह कि टी.वी. के न्यूज चैनल्स के लोग तो शुद्ध हिन्दी बोल रहे हैं- वे हिन्दी-अंग्रेजी का घालमेल नहीं करते उल्टे आश्चर्य है कि पूरे कार्यक्रम संचालन के समय वे हिन्दी का शुद्ध उच्चारण करते हैं। एक भी एंकर अंग्रेजी भाषा का कोई शब्द नहीं बोलता और वह ध्यान रखता है कि हिन्दी में ही बात की जाए।

क्या बात है कि हिन्दी अखबार ही हिन्दी को भ्रष्ट करने में पिल पड़े हैं या कहें हिन्दी को भ्रष्ट करने की सुपारी इन अखबारों ने ले रखी हो। इनकी भाषा से अत्यन्त दुख होता है लेकिन धड़ल्ले से अखबार चल रहे हैं। समय के अनुसार भाषा बदलती है। नया रूप ग्रहण करते चलती है- 18वीं-19वीं शताब्दी की हिन्दी आज नहीं चल सकती न एकदम संस्कृतनिष्ट हिन्दी ही चल सकती। आज तो आज की जरूरत के अनुसार भाषा का रूप बनेगा। लेकिन इसका यह अर्थ तो नहीं कि वाक्य विन्यास की आत्मा को ही मार दिया जाए। ये क्या खेल चल रहा है? अजब भाषा पैदा की जा रही है। इस तरह की भाषा कोई बोलता नहीं। अंग्रेजी मीडियम में पढऩे वाले बच्चे भी या तो अंग्रेजी बोलते हैं अथवा अपनी मातृभाषा। एक अंग्रेजी माध्यम में भाषा पर ध्यान दिया जाता नहीं। उन्हें सेल्समैन गढऩा है, अत: बोलना सिखाया जाता है। लिखो कैसा भी। व्याकरण और स्पेलिंग पर उतना ध्यान दिया जाता नहीं।

आज बटलर हिन्दी पर बात क्यों? यह उचित सवाल है। दो दिन बाद हिन्दी दिवस है। 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस मनाया जाता है। उस दिन हिन्दी की प्रगति पर चिंता की जाती है। दरअसल हिन्दी दिवस का साहित्य लेखन से कोई सम्बंध नहीं है। साहित्य लिखा जाए। हिन्दी दिवस पर यह देखा जाता है सरकारी काम-काज में हिन्दी की कितनी प्रगति हुई? क्या स्थिति है? यह राजभाषा क्रियान्वयन समिति देखती है। देखा जाए तो हिन्दी को चलन में रखने में सरकारी उद्यमों का बड़ा योगदान है। बैंक, बीमा कंपनी, रेल सेवा, हवाई सेवा, सरकारी दफ्तर, इन संस्थानों ने हिन्दी की जबरस्त व उल्लेखनीय सेवा की है। दक्षिण में भी रेल आने का समय हिन्दी में उद्घोषणा की जाती है। भाषा तो जोडऩे वाली होती है और हिन्दी में जोडऩे का जबरदस्त गुण है। हिन्दी पूरी लोकतांत्रिक भाषा है। यह किसी से ईष्र्या भी नहीं करती न कुछ मांगतीदेती ही है। भारतीय भाषाओं की प्राय: पूरी रचनाएं हिन्दी में अनूदित हैं। महाराष्ट्र का दलित साहित्य हिन्दी में मिल जाएगा। हर प्रादेशिक भाषा का उत्तम साहित्य हिन्दी में उपलब्ध है- न केवल भारतीय भाषाओं के अनुवाद वरन् विश्व साहित्य भी और आज का साहित्य हिन्दी में आ जाता है। हिन्दी का यह गुण उसे सर्व स्वीकार्य बनाता है। लेकिन हिन्दी के कुछ अखबार उसकी संरचना पर ही प्रहार कर रहे हैं।

यह ठीक है कि आज अंग्रेजी रोजी-रोजगार की भाषा है। अंग्रेजी पढऩा चाहिए। इसका यह मतलब नहीं कि हिन्दी को  भ्रष्ट किया जाए। हिन्दी में भी रोजगार है। तमाम विज्ञापन हिन्दी में आते हैं और साफ हिन्दी में ही होते हैं। अखबारों की भाषा की तरह नहीं कि हिन्दी अंग्रेजी का घालमेल करें। टी.वी. या समाचार पत्रों में हिन्दी में आने वाले विज्ञापन पूरे मानदंड को पूरा करते हैं।  हिन्दी के कुछ अखबार इस तरह की भाषा लिखकर पता नहीं किसे खुश कर रहे या किसका भला कर रहे यह वे जानें लेकिन हिन्दी का नुकसान कर रहे हैं।

हिन्दी दिवस पर इस पर अब चर्चा हो, विमर्श हो। पहले ऐसी भाषा नहीं होती रही इसलिए यह सवाल नहीं उठा। अब जरूरी है कि 14 सितम्बर हिन्दी दिवस पर इस विषय पर खुलकर चर्चा हो। हिन्दी में नये शब्द आएं वे तो आएंगे ही। लेकिन उसका व्याकरण, उसकी संरचना नष्ट न हो। हिन्दी दिवस पर इस पर सोचें।

(पूर्व प्रकाशित लेख आज भी सामयिक है)