वरिष्ठ साहित्यकार स्व. श्री प्रभाकर चौबे का लेख
जब अंग्रेज यहां आए तो अपने बंगले में काम
करने के लिए हिन्दुस्तानियों को रखा। उन्हें काम चलाऊ अंग्रेजी सिखाई और समय के
साथ वे सीखते भी चले। इनकी अंग्रेजी को ‘बटलर अंग्रेजी’ कहा जाने लगा। बटलर का
मतलब आक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार ‘द चीफ मेल सावेंट ऑफ द हाउस’ है।
अंग्रेजी हिंदी डिक्शनरी में बटलर का अर्थ है प्रधान सेवक या अनुचर जिसके अधिकार
में शराब की पेटियां और चांदी के बर्तन रहते हैं। बहरहाल इन बटलरों को कुछ शब्द
सिखाए गए। वे अपने साहब से कहते ‘लंच टेकिंग या नॉट।’ टुडे
कहां डिनर…‘ वाईन फिनिस्ड,
ब्रिंग डिनर ’। ‘मदर आफ यू कालिंग।’ ‘वाटर
इज हाट, गो बाथ।’ इसी तरह से और साहब भी समझ जाते कि यह बंदा बताना क्या चाह रहा है।
बहरहाल आज से 50-60 साल पहले कालेजों में वे
छात्र जिनकी अंग्रेजी अच्छी होती, अच्छी अंग्रेजी बोलते-लिखते वे कमजोर
अंग्रेजी वाले की अंग्रेजी को ‘बटलर अंग्रेजी’ कहते…बटलर
अंग्रेजी बोलता है। बटलर अंग्रेजी चिढ़ाने के लिए कहा जाता और यह हीनता का भाव भी
भरता। उन दिनों हमारे शहर में ऐसा बटलर अंग्रेजी को लेकर एक चुटकुला चला था इस तरह
का। काफी हाउस में प्रथम वर्ष के दो छात्र बैठे बातें कर रहे थे।
एक ने पूछा- ‘सिगरेट इज।’
दूसरे ने कहा-‘यस इज।’
पहले ने पूछा- ‘वेअर?’
दूसले ने जवाब दिया-‘इन
पाकेट?’
पहले ने कहा-‘डू इट आऊट आफ पाकेट।’
पहले ने कहा-‘यस’
दूसरे ने कहा-‘गिव मी वन।’
फिर पूछा-‘माचिस इज।’
दूसरे ने कहा-‘यस इज।’ फिर
पहले ने कहा-‘बर्न द सिगरेट।’
उससे भी पहले बटलर अंग्रेजी पर मजाक स्कूलों
में भी शुरू हो चुका था।
सर ने छात्र से पूछा-‘वाय
डिड यू कम लेट?’
छात्र ने जवाब दिया-‘सर, इट
वाज रेनिंग झम-झम-झम।
बगल में बस्ता लिए दो-दो हम।
लोग फिसल गए
गिर गए हम।
सो माई डियर सर
आई कुड नाट काय…।’
इसे बटलर अंग्रेजी कहते। फादर ने आज यार बहुत
एडवाइस दिया। मदर यार बाहर गई तो सिगरेट बर्न किया। इतने में वह आ गई…।
जिसे भी कहा जाता,
जिस पर भी फब्ती कसी जाती कि बटलर अंग्रेजी बोलता है वह
शर्म से गड़ जाता। पानी-पानी हो जाता।
बटलर अंग्रेजी का किस्सा इसलिए कि आज हमारे
कुछ हिन्दी भाषा के अखबार ‘बटलर हिन्दी’ लिखे जा रहे हैं और कहते
हैं कि यही आज की भाषा है। लगता है मैनेजमेंट उन्हें जनता की भाषा भ्रष्ट करने के
लिए ही रखती है। आज का हिन्दी अखबार किसी भी तिथि का उठा लीजिए। आपको मजेदार बटलर
हिन्दी के ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे… पूरा पृष्ठ ही बटलर हिन्दी से भरा मिलेगा- आज
स्टूडेंट ने फेस्टीवल मनाया। स्टूडेंट एक्जाम फार्म भरने की तैयारी में लगे। टाउन
व विलेज में महिलाओं ने दिवाली पर काऊ की पूजा की। सावन में ग्रीन दृश्य के लिए
लोग तरस रहे। होली पर कलर की सेल में बढ़ोतरी। टीचर को भी हॉली डे चाहिए। टीचर को
प्रापर ट्रेनिंग नहीं…।
समझ नहीं आता कि हम हिन्दी अखबार पढ़ रहे हैं
या अंग्रेजी? दरअसल यह न हिन्दी अखबार है न हिन्दी। यह बटलर अखबार है। यह सही है कि भाषा
में नये-नये शब्द जुड़ते हैं तो भाषा समृद्ध होती है। हिन्दी में भी लोकभाषा सहित
दिगर भाषा के कई शब्द हैं जो हिन्दी के ही होकर रह गए हैं। उन्हें अन्य भाषा का
नहीं कहा जाता। कुछ शब्दों का अनुवाद भी नहीं करना चाहिए- जैसे मोबाईल, टेलीफोन, अब ‘मिस
काल’ का क्या हिन्दी या क्या मराठी… मिस काल पूरा अर्थ देता है। अत: यह
सर्वव्यापी बन गया है और सहज स्वीकार्य हो गया है। काम वाली बाई भी साथी से कहती
है ‘एक ठन मिस काल मार देबे।’ हिन्दी में भी कहते हैं- मिस काल कर देना…।
अंग्रेजी के ढेरों शब्द हैं। हिन्दी की तासीर के हो गए हैं। इन पर किसी को आपत्ति
नहीं होती। लेकिन शब्द ग्रहण करना और किसी भाषा का पूरा व्याकरण ही भ्रष्ट करने पर
तुल जाना… दोनों में फर्क है।
आज कुछ अखबार हिन्दी व्याकरण की ही कमर तोडऩे
पर उतारू हो गए हैं। न क्रिया न सर्वनाम न कर्ता न कर्म… सकर्मक
अकर्मक क्रिया का भेद ही मिटा रहे। पहचानना कठिन कर रहे। ये अखबार या कहें पत्रकार
ऐसी भाषा क्यों लिख रहे हैं। किसके दबाव में लिख रहे हैं। इसमें कहीं न कहीं कोई न
कोई षडय़ंत्र है। हिन्दी को भ्रष्ट करने की मुहिम चला दी गई है। और यह अनुवाद भी
नहीं है। मजेदार बात यह कि टी.वी. के न्यूज चैनल्स के लोग तो शुद्ध हिन्दी बोल रहे
हैं- वे हिन्दी-अंग्रेजी का घालमेल नहीं करते उल्टे आश्चर्य है कि पूरे कार्यक्रम
संचालन के समय वे हिन्दी का शुद्ध उच्चारण करते हैं। एक भी एंकर अंग्रेजी भाषा का
कोई शब्द नहीं बोलता और वह ध्यान रखता है कि हिन्दी में ही बात की जाए।
क्या बात है कि हिन्दी अखबार ही हिन्दी को
भ्रष्ट करने में पिल पड़े हैं या कहें हिन्दी को भ्रष्ट करने की सुपारी इन अखबारों
ने ले रखी हो। इनकी भाषा से अत्यन्त दुख होता है लेकिन धड़ल्ले से अखबार चल रहे
हैं। समय के अनुसार भाषा बदलती है। नया रूप ग्रहण करते चलती है- 18वीं-19वीं
शताब्दी की हिन्दी आज नहीं चल सकती न एकदम संस्कृतनिष्ट हिन्दी ही चल सकती। आज तो
आज की जरूरत के अनुसार भाषा का रूप बनेगा। लेकिन इसका यह अर्थ तो नहीं कि वाक्य
विन्यास की आत्मा को ही मार दिया जाए। ये क्या खेल चल रहा है? अजब
भाषा पैदा की जा रही है। इस तरह की भाषा कोई बोलता नहीं। अंग्रेजी मीडियम में पढऩे
वाले बच्चे भी या तो अंग्रेजी बोलते हैं अथवा अपनी मातृभाषा। एक अंग्रेजी माध्यम
में भाषा पर ध्यान दिया जाता नहीं…। उन्हें सेल्समैन गढऩा है, अत:
बोलना सिखाया जाता है। लिखो कैसा भी। व्याकरण और स्पेलिंग पर उतना ध्यान दिया जाता
नहीं।
आज बटलर हिन्दी पर बात क्यों? यह
उचित सवाल है। दो दिन बाद हिन्दी दिवस है। 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस मनाया जाता
है। उस दिन हिन्दी की प्रगति पर चिंता की जाती है। दरअसल हिन्दी दिवस का साहित्य
लेखन से कोई सम्बंध नहीं है। साहित्य लिखा जाए। हिन्दी दिवस पर यह देखा जाता है
सरकारी काम-काज में हिन्दी की कितनी प्रगति हुई? क्या स्थिति है? यह
राजभाषा क्रियान्वयन समिति देखती है। देखा जाए तो हिन्दी को चलन में रखने में
सरकारी उद्यमों का बड़ा योगदान है। बैंक, बीमा कंपनी, रेल सेवा, हवाई
सेवा, सरकारी दफ्तर,
इन संस्थानों ने हिन्दी की जबरस्त व उल्लेखनीय सेवा की है।
दक्षिण में भी रेल आने का समय हिन्दी में उद्घोषणा की जाती है। भाषा तो जोडऩे वाली
होती है और हिन्दी में जोडऩे का जबरदस्त गुण है। हिन्दी पूरी लोकतांत्रिक भाषा है।
यह किसी से ईष्र्या भी नहीं करती न कुछ मांगती… देती ही है। भारतीय
भाषाओं की प्राय: पूरी रचनाएं हिन्दी में अनूदित हैं। महाराष्ट्र का दलित साहित्य
हिन्दी में मिल जाएगा। हर प्रादेशिक भाषा का उत्तम साहित्य हिन्दी में उपलब्ध है-
न केवल भारतीय भाषाओं के अनुवाद वरन् विश्व साहित्य भी और आज का साहित्य हिन्दी
में आ जाता है। हिन्दी का यह गुण उसे सर्व स्वीकार्य बनाता है। लेकिन हिन्दी के
कुछ अखबार उसकी संरचना पर ही प्रहार कर रहे हैं।
यह ठीक है कि आज अंग्रेजी रोजी-रोजगार की
भाषा है। अंग्रेजी पढऩा चाहिए। इसका यह मतलब नहीं कि हिन्दी को भ्रष्ट किया जाए। हिन्दी में भी रोजगार है। तमाम विज्ञापन हिन्दी में आते हैं
और साफ हिन्दी में ही होते हैं। अखबारों की भाषा की तरह नहीं कि हिन्दी अंग्रेजी
का घालमेल करें। टी.वी. या समाचार पत्रों में हिन्दी में आने वाले विज्ञापन पूरे
मानदंड को पूरा करते हैं। हिन्दी के कुछ अखबार इस तरह की भाषा लिखकर
पता नहीं किसे खुश कर रहे या किसका भला कर रहे यह वे जानें लेकिन हिन्दी का नुकसान
कर रहे हैं।
हिन्दी दिवस पर इस पर अब चर्चा हो, विमर्श
हो। पहले ऐसी भाषा नहीं होती रही इसलिए यह सवाल नहीं उठा। अब जरूरी है कि 14 सितम्बर
हिन्दी दिवस पर इस विषय पर खुलकर चर्चा हो। हिन्दी में नये शब्द आएं वे तो आएंगे
ही। लेकिन उसका व्याकरण, उसकी संरचना नष्ट न हो। हिन्दी दिवस पर इस पर
सोचें।
(पूर्व प्रकाशित लेख आज भी सामयिक है)
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