प्रगतिशील
लेखक संघ रायपुर द्वारा साहित्यकार , वरिष्ठ
सम्पादक स्व. श्री प्रभाकर चौबे की स्मृति में *प्रभाकर चौबे स्मृति संवाद
श्रंखला* का पहला आयोजन आज
स्थानीय वृंदावन हॉल में सम्पन्न
हुआ ।विदित हो कि श्री प्रभाकर चौबे लगभग 55
वर्षों तक निरन्तर लेखन करते रहे
। गत वर्ष उनका 84 वर्ष की उम्र में निधन हो गया था । प्रभाकर चौबे ताउम्र प्रगतिशील लेखक
संघ से जुड़े रहे । वे
छत्तीसगढ़ प्रगतिशील लेखक संघ के
महासचिव व प्रलेस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी
मेंअध्यक्ष मंडल में भी रहे ।
उनकी स्मृति में संवाद श्रंखला के पहले आयोजन में मुख्य वक्ता भोपाल से आमंत्रित युवा विचारक व स्वतंत्र लेखक डॉ ईश्वर सिंह दोस्त थे तथा कार्यक्रम के अध्यक्ष वरिष्ठ साहित्यकार व सम्पादक श्री ललित सुरजन थे। कार्यक्रम की शुरुवात में श्री प्रभाकर चौबे को याद
करते हुए उन्हें
पुष्पांजली अर्पित की गई ।
कार्यक्रम की शुरुवात में अतिथियों का स्वागत किया गया। इज़के पश्चात श्री अरुनकान्त शुक्ला ने संवाद
के विषय लोकतंत्र की
नई चुनॉटियाँ और हमारा भविष्य पर
अपनी बात की शुरुवात करते हुए कहा कि लोकतंत्र
हमेशा संकट से घिरा होता है।
मुख्य वक्ता डॉ ईश्वर सिंह दोस्त ने पहले प्रभाकर चौबे से और
रायपुर से जुड़ी अपनी
यादों को और अपने पुराने
सम्बन्धों को याद किया । उन्होंने कार्यक्रम के मुख्य विषय पर अपने उद्बबोधन की शुरुवात करते हुए कहा
कि आज लोकतंत्र का
सबसे बड़ा संकट यह है कि संकट
क्या है, कैसा है, यह
ज्यादातर लोगों को पता
नहीं है। इस मायने में हम
आपातकाल से ज्यादा खराब स्थिति में हैं। आज क्या असल है,
क्या छवि है, इसका भेद धुंधला होता जा रहा है। पत्रकारिता, न्यायपालिका और लोकतंत्र, ये तीन संस्थाएं ऐसी हैं जो तथ्यों की जोड़-तोड़ को एक हद के बाद सह नहीं सकती, तब खतरा इनके बेअसर हो जाने का होता है लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती आज यही है, जिसका एक जनतांत्रिक सभ्यता के रूप में भारत को मुकाबला करना है।
उन्होंने
विशेष रूप से कहा कि आज दुनिया
के जनतंत्रों को बड़ी चुनौती मजबूत कहे जाने वाले अधिनायकवादी नेताओं से है, चाहे वह अमेरिका, तुर्की, ब्राजील, रूस जैसे देश हों या भारत हो। दूसरी बड़ी चुनौती
भूमंडलीकरण की असफलता के बाद कारपोरेट
पूंजीपतियों के हितों और सांप्रदायिक अस्मिता की राजनीति के गठजोड़ से है। अलग-अलग देशों में इसके रूप अलग-अलग
हैं।
बहुसंख्यकवाद लोकतंत्र को कमजोर बना देता है। दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है, जहां
धार्मिक, भाषायी, क्षेत्रीय, जातीय,
राजनीतिक अल्पसंख्यकों के अधिकार छीने गए हों, और फिर वह
लोकतांत्रिक भी रह पाया हो। भारत में उभरा नया
सांप्रदायिक बहुसंख्यकवाद लोकतंत्र को कभी भी निष्प्रभावी बना सकता है।
मत-विभाजन तो जनतंत्र के साथ जाता है, मगर मन- विभाजन
नहीं। मत-विभाजन एक जनतांत्रिक प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है, जिसके बाद
फिर मिलजुलकर काम करना है। मगर मन-विभाजन एक गहरी खाई बना लेना है। मन-विभाजन में किसी परिवार, किसी संगठन, किसी समाज
के बरबादी के सूत्र छिपे हैं। भारत में समुदायों के बीच
गलतफहमियां, शिकायतें, तकरार पहले भी थी, मगर
दुर्भाग्य से आज वैमनस्यता और रंजिश आम होती जा रही है। टीवी चैनलों तक पर बहस और विचार-विमर्श की जगह रार और
झगड़े आयोजित किए
जाते हैं। खुला और नीतिपूर्ण
संवाद आज सबसे बड़ी जरूरत है,
यही लोकतंत्र को बचा सकता है।
आज
वक्त आ गया है कि हम तय करें कि क्या
भारत को हमें संकुचित आत्माओं,
बंद दिमागों और खार खाए बैठे दिलों का देश बनाना है या फिर उदार हृदयों, खुले व रोशन दिमागों, विस्तृत
आत्माओं का देश बनाना है।
कार्यक्रम
में जीवेश चौबे ने भी संक्षिप्त मे वपनी बात रखते हुए लोकतंत्र के लिए युवाओं की आगे आने की बात कही और आयोजन के लिए
प्रलेस रायपुर का
आभार व्यक्त किया । अंत मे
कार्यक्रम के अध्यक्ष श्री ललित सुरजन ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रभाकर चौबे की स्मृतियों की
साझा करते हुए उन्हें
बड़ी शिद्दत से याद किया ।
उन्हीने अपने उदबोधन मे कहा कि नई पीढ़ी से उम्मीद है कि वे लोकतंत्र को आगे बढ़ाएगी । उन्होंने कहा कि
लोकतंत्र हैं तो
चुनौतियां भी होंगी मगर लोकतंत्र हमेशा चुनौतियीं से जूझकर विजयी होता रहा है। उन्होंने कहा कि एक अच्छे भविष्य के लिए सवाल उठाना ज़रूरी है यही लोकतंत्र को बचाये रखता है। उन्होंने इस बात पर जोर
दिया कि आज प्रगतिशील
विचारों को लोगों के बीच ले जाना
होगा ।
कार्यक्रम
का संचालन प्रगतिशील लेखक संघ के सचिव संजय शाम ने किया । अंत मे प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर के अध्यक्ष डॉ आलोक
वर्मा ने उपस्थित लोगों
का आभार व्यक्त किया ।आयोजन में
प्रदेश भर से बड़ी तादात में प्रबुद्धजन उवस्थिति थे।
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