एक सशक्त विपक्ष किसी भी लोकतंत्र की जीवंतता और मूल्यों की रक्षा के लिए बहुत जरूरी है।
भारत में मोदी सरकार की वापसी के पश्चात विपक्ष एकदम बिखर सा गया है और देश में विकल्पहीनता की स्थिति सी पैदा हो गई है। देखा जाए तो आजादी के पश्चात से ही देश में सशक्त विपक्ष का घोर अभाव रहा। शुरुआती दौर में पं. नेहरू के व्यक्तित्व के सामने पूरा देश नतमस्तक था और युवा वर्ग पं. नेहरू के करिश्माई नेतृत्व से जबरदस्त उम्मीदें बांधे हुए था। ऐसे दौर में ऐसे नेतृत्व के सामने विपक्ष की हैसियत या अस्तित्व क्या हो सकता था।
फिर भी उस दौर में वैचारिक मतभिन्नता को पं. नेहरू द्वारा सम्मान दिया जाता था। उस दौर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी लोकतंत्र में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी थी। यहां तक कि कांग्रेस से अलग हुए समाजवादी कांग्रेस को भी काफी तवज्जो मिलती रही। कहा जाता है लोहिया और नेहरू की संसदीय बहसें तब आमजन में चर्चा का विषय हुआ करती थीं। बाद में अटल बिहारी वाजपेयी ने भी अपने ओजस्वी व्याख्यानों से संसदीय बहस की उत्कृष्ट परंपरा में अविस्मरणीय योगदान दिया जिसे पं. नेहरू ने भी प्रोत्साहित किया।
भारतीय लोकतंत्र की शुरुआत कमजोर विपक्ष से हुई और दशकों ये परंपरा बनी रही। देखा जाए तो कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़कर समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ही थे जिन्होंने भारतीय लोकतंत्र में संयुक्त विपक्ष की कल्पना को साकार किया और सिखाया कि संयुक्त विपक्ष क्या होता है और उसे क्या करना चाहिए। लोहिया शुरू-शुरू में गांधी की तुलना में नेहरू से ज्यादा प्रभावित थे मगर बाद में नेहरू से उनका मोहभंग होता गया और गांधी के सिद्धांतों और कार्यनीतियों पर उनका भरोसा बढ़ता गया। उन्होंने आजादी के बाद एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस के खिलाफ खुलकर कांग्रेस हटाओ देश बचाओ का नारा बुलंद किया। हालांकि पं. जवाहर लाल नेहरू के जीते जी वे अपनी मुहिम में कामयाब नहीं हो सके मगर उनके लगातार संघर्ष के परिणामस्वरूप आजादी के लगभग दो दशक बाद पहली बार कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी और कई राज्यों में संविद सरकारें बनीं।
पं. नेहरू के पश्चात इंदिरा गांधी के दौर में ही विपक्षविहीन निरंकुश सत्ता की परिकल्पना फलीभूत हुई जिसकी परिणीति दमनकारी आपातकाल के रूप में हुई। आपातकाल से मुक्ति के लिए देश का लगभग सारा विपक्ष जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एकजुट हुआ और लोकतांत्रिक मूल्यों व जनतंत्र के अस्तित्व की लड़ाई में विपक्ष की महत्ता को रेखांकित करते हुए देश की जनता को जागरूक किया। अंत में संयुक्त विपक्ष के साथ जुटे व्यापक जनसमर्थन के सामने निरंकुश सत्ता ने घुटने देक दिए। देश में लोकतंत्र की पुर्नस्थापना में आपातकाल के दौरान विपक्ष की भूमिका एक अतुलनीय उदाहरण है। यह बात गौरतलब है कि तमाम दलगत बुराइयों के बावजूद उस कठिन परिस्थितियों में संपूर्ण विपक्ष ने जिस जिम्मेदारी और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता का परिचय दिया वो भारतीय राजनीति व लोकतंत्र के इतिहास में एक अद्वितीय मिसाल है।
विगत लोकसभा चुनाव में कारपोरेट पूंजी के भारी समर्थन और मोदी मिथ के जबरदस्त महिमामंडन के चलते भाजपा को अपार चुनावी सफलता हासिल हुई है। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के आखिरी महीनों में लगभग पूरे देश में ऐसा माहौल बन पड़ा था कि मोदी सरकार बस अब जाने ही वाली है। मगर पुलवामा हमले ने पूरा परिदृश्य बदल दिया। शुरुआत में हालांकि कांग्रेस ने हमले के लिए जांच समिति बिठाने की बात करते हुए मोदी सरकार को घेरने का प्रयास किया मगर भाजपा की सधी-बधी मुकम्मल रणनीति के सामने कांग्रेस सहित समूचा विपक्ष दिशाहीन व अकर्मण्य सा राष्ट्रवाद की रौ में बहता चला गया।
इस पूरे प्रकरण में समूचे विपक्ष ने मोदी सरकार के साथ खड़े होकर अपनी राजनीतिक पहलकदमी के साथ सत्ता में आने का मौका भी खो दिया। आज भी मुख्य धारा की विपक्षी पार्टियों के पास मोदी सरकार के खिलाफ न तो कोई कार्यक्रम है और न ही सुनियोजित रणनीति। संसद के हालिया सत्र में भी विपक्ष की बहसें बेहद लचर रहीं, यहां तक कि बजट में पेट्रोल और डीजल का दाम बढ़ा दिया गया, बावजूद इसके उसका कोई भी विरोध संसद और संसद के बाहर नहीं दिखा। 370 व 35ए पर बहस के दौरान भी विपक्ष की कोई सशक्त तैयारी नजर नहीं आई। कांग्रेस सहित किसी भी विपक्षी दल से कोई ठोस तर्कपूर्ण बहस कर पाने में सक्षम नहीं दिखा।
चुनावी असफलता के पश्चात मुख्य विपक्षी दल व बड़ी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस के युवा अध्यक्ष राहुल गांधी का रवैया काफी निराशाजनक रहा। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि राहुल गांधी ने बहुत मेहनत की मगर आशातीत सफलता नहीं हासिल कर पाए। अब इस पर बहस से कोई फायदा नहीं मगर यह बहुत गंभीर सवाल है आज भी अनुत्तरित है कि कांग्रेस अपने ही शासित राज्यों की लोकसभा सीटों में से मात्र 10 फीसदी सीटें ही जीत पाई। निश्चित रूप से यह घोर निराशाजनक परिणाम था खासकर तब जबकि कुछ माह पूर्व हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी ने शानदार सफलता हासिल की हो। कमजोर विपक्ष व सशक्त विकल्प के अभाव के चलते अधिनायकवादी विचारों को फलने फूलने का मौका मिलता है। मौजूदा हालात में देश की विपक्षी पार्टियां इन्हीं कमजोरियों से ग्रसित होकर जनता में लगातार अपनी विश्वसनीयता और विकल्प दे पाने का भरोसा खोती जा रही हैं।
आज देश में विकल्पहीनता व अविश्वास के चलते बहुत तेजी से अधिनायकवाद न सिर्फ पनप रहा है बल्कि जड़ें भी जमा रहा है। जनसंघर्ष और जन आंदोलनों के अभाव में सामूहिक संघर्ष व सामूहिक चेतना लगातार कुंद होती जा रही है। एक सशक्त विपक्ष द्वारा शासक की जनविरोधी और निरंकुश नीतियों का समुचित विरोध का भय शासकों को मनमानी करने से रोक सकता है। मगर सशक्त विपक्ष के अभाव में अक्सर शासक निरंकुश व मदमस्त होने लगता है। सरकार द्वारा जनता के हितों के विपरीत लिए जा रहे निर्णयों पर विपक्ष द्वारा चुप रह जाना एक तरह से सरकार का मौन समर्थन करना होता है। जनता की अदालत में दोनों ही बराबर के गुनहगार माने जाते हैं क्योंकि जनविरोधी निर्णय का सशक्त विरोध करना उनका नैतिक कर्तव्य है।
यह बात गौरतलब है कि भारत में हमेशा से कुल मतदान का आधे से अधिक प्रतिशत मत विपक्षी दलों के पास रहा, लेकिन खण्ड-खण्ड में विभाजित होने के कारण विपक्ष की आवाज नकारी जाती रही है। हाल के दशकों में क्षेत्रीय छत्रपों के बढ़ते प्रभाव व रुतबे के चलते छोटे-छोटे दल भी बड़ा खेल करने की स्थिति में आ गए हैं। इस प्रवृत्ति के चलते राष्ट्रीय दल इन क्षेत्रीय दलों के साथ तालमेल को मजबूर होते जा रहे हैं। छोटे दायरे में सिकुड़ते चले जाने के कारण केन्द्रीकृत विपक्ष की ताकत व समग्रता में भारी कमी आने लगी है। इसके साथ ही राजनीतिक चिंतन एवं वैचारिक विचलन के कारण देश की राजनीति में एक संगठित एवं सशक्त विपक्ष आकार नहीं ले पा रहा है।
एक सशक्त विपक्ष की भूमिका के अभाव में भारतीय लोकतंत्र में विपक्ष शून्यता की स्थिति पैदा हो गई है। देश के प्रमुख विपक्षी दलों, विशेष कर कांग्रेस को भविष्य में न केवल अनेकों चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है बल्कि उन्हें मौजूदा राजनीति में इस शून्यता को भरने का समाधान भी ढूंढना होगा। एक सशक्त विपक्ष के रूप में खुद को साबित करना ही दरअसल जनता का विश्वास हासिल करने की कुंजी है। अपने पुराने ढर्रे पर सियासत करने वाली राजनैतिक पार्टियां विपक्षी दल के विकल्प के तौर पर देश की मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में बदलते हुए भारत के युवा वर्ग की आकांक्षाओं पर कितना खरा उतरेगी उसी में लोकतंत्र की मजबूती निर्भर करेगी।
(देशबन्धु में 30 अगस्त 2019 को प्रकाशित)
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