छत्तीसगढ़ की एक विधानसभा सीट दंतेवाड़ा पर उप चुनाव की घोषणा हुई है, दूसरी
विधान सभा सीट चित्रकोट को क्यों छोड़ दिया गया कोई
नहीं जानता । दंतेवाड़ा
विधानसभा सीट के भाजपा विधायक भीमा मंडावी की नक्सली हमले में मौत हो गई थी, जिसकी
वजह से यह सीट खाली हुई थी। दूसरी ओर चित्रकोट विधानसभा के विधायक दीपक बैज द्वारा
लोकसभा चुनाव के मद्देनजर इस्तीफा देने के बाद वह सीट भी खाली हो चुकी है । गौरतलब
है कि यह दोनो सीटें बस्तर संभाग की है। नियमानुसार
किसी कारण कोई विधानसभा सीट खाली हो जाए तो सीट खाली होने के छह महीने के अंदर उप
चुनाव करवाना होता है अतः नवम्बर तक चित्रकोट में भी उप चुनाव संपन्न हो जाने
चाहिए। अब यह चुनाव आयोग की खुली दादागिरी है जो दूसरी सीट पर चुनाव न करवाए जाने
का कोई कारण नहीं बता रही । तो इसका मतलब छत्तीसगढ़ में अगले 2 माह
में एक और उप चुनाव होगा । यह विडंबना ही है कि एक देश एक चुनाव की बात करने वाले
छत्तीसगढ़ के दो उप चुनाव दो अलग अलग तारीखों
में करवा रहे हैं । फिर उसके पश्चात निकाय चुनाव, यानि अगले 6 माह प्रदेश की जनता
चुनाव की सुनामी से जूझती रहेगी । एक तो आयोग
के खिलाफ कोई पार्टी सख्त कदम उठाती नहीं और दूसरे जनता तो कभी ऐसे किसी मुद्दे पर कभी कोई प्रतिक्रिया देती नहीं बल्कि ऐसे मुद्दे विपक्षी दलों के लिए छोड़ देती है और सत्ता के साथ हो लेती है । लोकतंत्र में जनता की भूमिका क्या सिर्फ वोट देने तक ही है ? या इसे जानबूझकर वोट देने तक सीमित कर देने की कोशिशें की जा रही हैं
, इस पर भी विस्तार से सोचने की जरूरत है ।
देश
के सर्वाधिक नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में से एक दंतेवाड़ा
विधानसभा सीट अनुसूचित जनजाति के लिए
आरक्षित सीट है । दंतेवाड़ा में 23 सितंबर को वोट डाले जाएंगे और 27 सितंबर
को परिणाम घोषित किए जाएंगे । उप चुनाव
की घोषणा के साथ ही राजनीतिक दलों ने अपनी बिसात बिछानी शुरू कर दी
है । दंतेवाड़ा सीट पर उपचुनाव में प्रदेश में सत्तारूढ़
कॉग्रेस, विपक्षी दल भाजपा के साथ ही जोगी
कॉंग्रेस,आप , भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ अन्य पार्टियों ने अपने प्रत्याशी की घोषणा कर दी है । विडंबना
देखिए कि प्रमुख राष्ट्रीय दलों नें पूर्व राजनैतिक परिवार के सदस्यों को ही अपना उम्मीदवार
बनाया है । सत्तारूढ़
कॉंग्रेस ने पूर्व नेता स्वर्गीय महेन्द्र कर्मा की पत्नी देवती कर्मा को उम्मीदवार बनाया गया है । हद तो ये है कि परिवारवाद, वंशवाद के नाम पर हाय तौबा मचाने वाली भाजपा ने भी दिवंगत
विधायक भीमा मंडावी की पत्नी ओजस्वी मंडावी को ही उम्मीदवार बनाया है । पूर्व
मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने भी इसी
राह पर चलते हुए अपनी पार्टी से स्वर्गीय महेन्द्र कर्मा के भतीजे सुमित कर्मा को दंतेवाड़ा उपचुनाव में जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ का प्रत्याशी
घोषित किया है।
दोनों ही प्रमुख दलों ने अपने अपने शहीदों की पत्नियों
को टिकट दिया है । परिवार के प्रभाव व अपने नेताओं की शहादत का लाभ लेने की मंशा के
अलावा इसकी एक वजह यह भी
है कि यहां महिला मतदाताओं की संख्या अधिक है। ऐसा नहीं है कि यहां पहली बार महिला
मतदाताओं की संख्या अधिक है। दंतेवाड़ा
विधानसभा सीट के अस्तित्व में आने के बाद से ही यहां महिला मतदाताओं की संख्या अधिक रही है। यह बात भी गौरतलब है कि दंतेवाड़ा
विधानसभा सीट पर महिला मतदाताओं की संख्या भले ही अधिक है, लेकिन
वो मतदान करने बहुत कम निकलती रही हैं
। यह भी ध्यान रखना होगा कि महिला मतदाता बाहुल्य होने के बावजूद यहां
2013 से पहले कोई भी महिला विधायक चुनाव नहीं जीत पाई थी । 2013 के चुनाव में कॉंग्रेस ने झीरम कांड में दिवंगत नेता महेन्द्र कर्मा की पत्नी देवती कर्मा को टिकट
दिया था जिन्होने यह चुनाव जीतकर पहली महिला विधायक होने का गौरव हासिल किया
। गत वर्ष 2018 में हुए विधान सभा चुनाव में प्रदेश भर में बुरी
हार के बावजूद बीजेपी के भीमा मांडवी ने कांग्रेस की देवती कर्मा को हराकर पुनः यह सीट हासिल कर ली थी । गौरतलब है कि इस सीट पर सिर्फ बीजेपी या
कांग्रेस नहीं बल्कि भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी ( सीपीआई) का भी अच्छा जनाधार है । 2008 के
चुनावों में सीपीआई यहां दूसरे नंबर की पार्टी बनकर उभरी थी जब भाजपा के भीमा
मांडवी ने सीपीआई के मनीष कुंजाम को हराया था । हालांकि 2013 के
चुनाव में कांग्रेस की देवती कर्मा ने भाजपा को हराया था मगर 2018 में हुए चुनाव में फिर भाजपा ने इस सीट पर
कब्जा कर लिया था और भीमा मंडावी ने इस सीट पर जीत हासिल की थी, मगर कम्युनिस्ट
पार्टी के व्यापक जनाधार को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता ।
सत्तारूढ दल कॉंग्रेस के लिए दंतेवाड़ा उपचुनाव
प्रतिष्ठा का सवाल कहा जा सकता है । बहुमत के लिहाज से भले ही कॉंग्रेस छत्तीसगढ़ में
बहुत सुकून से है मगर विधान सभा में मिली जबरदस्त कामयाबी के बाद लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ होने के बावजूद कॉंग्रेस
को मुंह की खानी पड़ी थी । यह भी गौरतलब है कि इसके ठीक बाद प्रदेश में पंचायत व नगरीय
निकाय के चुनाव भी होने हैं । निश्चित रूप से दंतेवाड़ा उपचुनाव के परिणाम पूरे प्रदेश
पर नहीं तो कम से कम बस्तर में तो आगामी निकाय चुनावों में प्रभाव डालेंगे । संभवतः
इसीलिए चित्रकोट में अभी चुनाव न करवाए जा रहे हों जबकि नियमानुसार नवंबर तक छत्तीसगढ़
की दूसरी विधानसभा सीट चित्रकोट में भी उपचुनाव करवाना ज़रूरी है ।
विधान सभा में जबरदस्त लहर के बावजूद कॉंग्रेस को
बस्तर की एकमात्र दंतेवाड़ा सीट में ही हार का मुंह देखना पड़ा था । उल्लेखनीय है कि
दंतेवाड़ा से बस्तर का शेर कहे जाने वाले महेन्द्र कर्मा की पत्नी देवती कर्मा ही उम्मीदवार
थी । तब मगर देवती कर्मा के बेटे छबिंद्र कर्मा की बगावत के चलते
पारिवारिक फूट का फायदा भाजपा को मिला । इस बार होने जा रहे उप चुनाव में कहा जा रहा
है कि पार्टी ने
छबिंद्र कर्मा से चर्चा
करने के बाद ही उनकी मां देवती कर्मा का टिकट फाइनल किया है ताकि किसी तरह का भीतरघात या
नुकसान ना झेलना पड़े । कॉंग्रेस का दावा है कि कर्मा
परिवार के सारे मतभेद खत्म हो गए हैं और वे
एकजुट हैं।यदि ऐसा है तो निश्चित रूप से इसका
फायदा कॉंग्रेस को मिलेगा । वहीं दूसरी ओर भाजपा अपने विधायक भीमा मंडावी की नक्सलियों
द्वारा हत्या के पश्चात उनकी पत्नी ओजस्वी मंडावी को सहानुभूति का लाभ मिलने की उम्मीद
कर रही है । इसके अतिरिक्त भाजपा लोकसभा चुनाव में मिली कामयाबी को भुनाने के लिए भी
कुछ आशावान है , हालांकि बस्तर लोकसभा सीट कॉंग्रेस जीतने में कामयाब रही थी । इन परिस्थितियों
में दोनो ही प्रमुख पार्टियों के पास किसी
और उम्मीदवार का कोई विकल्प बचा नहीं रह जाता । इसी कड़ी में अजीत जोगी
ने भी अपनी पार्टी से महेन्द्र कर्मा के भतीजे को टिकिट दे दी है ।
कुल मिलाकर दंतेवाड़ा सीट परिवारवाद की भेंट चढ़
चुकी है । विकास और सामाजिक राजनैतिक उत्थान
की बाट जोहता बस्तर आज चंद परिवारों की राजनैतिक जागीर बनकर रह गया है। बस्तर के साथ
साथ पूरे छत्तीसगढ में सभी राजनैतिक दलों के भीतर परिवारवाद, वंशवाद
की जड़ें गहरी होती जा रही हैं । इनसे उबर
पाना किसी भी दल के लिए निकट भविष्य में भी आसान नहीं लगता। सवाल ये है कि परिवारवाद वंशवाद का हल्ला तो सभी
दल मचाते हैं मगर इससे मुक्ति के लिए कोई पहल नहीं करता । सत्ता की इस त्रिटंगड़ी दौड़
में जब जीत ही एकमात्र लक्ष्य हो तो लोकतांत्रिक मूल्य और नैतिकता की बातें बेमानी
हो जाती हैं । बस्तर के निरीह आदिवासियों के साथ साथ छत्तीसगढ़ का आम मतदाता बड़ी निरीह
और बेबस नजरों से बाहर खड़ा इस दौड़ को देखते
बस ताली बजाने को मजबूर है ।
(देशबंधु में 6 सितंबर 2019 को प्रकाशित)
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