Saturday, July 11, 2020

कानून को कटघरे में खड़ा करती है एनकाउंटर के प्रति बढ़ती जनस्वीकृति - जीवेश चौबे

पाप से घृणा करो पापी से नहीं, जाने कब से कहा बताया जाता रहा है। आधुनिक समाज मे
पाप की जगह अपराध और पापी की जगह अपराधी ने ले ली और लोग कहने लगे अपराध से घृणा करो अपराधी से नहीं । हालांकि सनातन से लेकर आज तक कभी किसी ने न तो इसे आत्मसात किया और न ही स्वीकार । एक आदर्श वाक्य या उक्ति की तरह बस पीढ़ी दर पीढ़ी रटाया पढाया जाता रहा । हम तो सदा से समरथ को नहीं दोस गोसांई... को मानने वाले रहे हैं। समर्थ और प्रभावशाली के कुष्कृत्य भी हमें अपराध नहीं लगते और हम मन ही मन उस व्यक्ति से घृणा करते रहते हैं मगर उसकी खिलाफत करने का साहस नहीं कर जुटा पाते,एक तारणहार की राह देखते उसके तमाम अत्याचारों को, जिसे पाप कह लें या अपराध, सहन करते रहते हैं। बर्बर समाज में जीते हमारे दिलो दिमाग पर आंख के बदले आंख , हाथ के बदले हाथ और खून का बदला खून इस तरह बिठा दिया गया कि आज भी जब हम इस जंगली कानून को फलीभूत होते देखते हैं तो भीतर से आल्हादित हो उठते हैं। हमारे भीतर का जानवर संतुष्ट होता है। 
विकास दुबे प्रकरण कोई पहला नहीं है और न ही विकास दुबे कोई अंतिम नाम है। विकास दुबे हमारे समाज और व्यवस्था की विद्रूपता का ही एक नाम ही है जो राजनीति, पुलिस, प्रशासन और अपराध के अंतर्संबंधों के फैले मकड़ जाल का एक मोहरा मात्र है । आज इस खूनी खेल में विकास को ख़त्म कर इन संबंधों से परदा उठाने की संभावनाओं को भी खत्म कर दिया गया है । ये हमेशा से होता रहा है और आगे भी जारी रहेगा । सभी जानते रहे हैं विकास दुबे के काले और खौफनाक कारनामों की हकीकत। सभी जानते रहे कि वो पिछले 30 बरसों से पूरे तंत्र के संरक्षण में बेखौफ, बेरोकटोक अपना साम्राज्य चला रहा था । जाने कितने बेगुनाहों की हत्याओं का आरोप था और जाने कितने संगीन अपराधों में संलग्न रहा । आखिर इतने सालों से वो कैसे बचा रहा और अपना वर्चस्व कायम रख सका ? ये सवाल भी अनुत्तरित नहीं है, हर शख्स इसका उत्तर जानता है बल्कि हर शख्स ही इसका उत्तर है । विगत 30 वर्षों में जाने कितने ही मासूम और निरअपराध लोगों की हत्या में संलग्न विकास दुबे और उसके जैसे असंख्य दुर्दांत अपराधी किस तरह अपने आप को बचाए रखते हैं यह लगभग सभी जानते हैं।  राजनैतिक और पुलिस के संरक्षण और समर्थन के बिना कोई भी अपराधी अपना साम्राज्य नहीं चला सकता। इस मामले में भी यह खबर भी आम है कि विकास दुबे के घर दबिश से पहले उसके गांव में पुलिस के आने की सूचना भी उसे पुलिस में उसके उसके सूत्रों ने ही दी थी जिसके चलते कहा जा रहा है कि इतिहास में पहली बार सरकार ने पूरा थाना निलंबित कर लाइन अटैच कर दिया। यह हमारे लोकतंत्र में पुलिस, अपराधी और राजनीतिक संरक्षण की एक मिसाल है।
 आज अपराध, राजनीति, पुलिस और प्रशासन के सम्बन्ध इतने प्रगाढ़ होते गए हैं कि अब तो भेद कर पाना भी काफी मुश्किल होता जा रहा है। अब तो अपराध ही राजनीति का प्रवेशद्वार सा होता जा रहा है। इस खेल में जो सफल होकर राजनीति के किसी ऊंचे मकाम तक पहुंच जाता है वो अपने ओहदे और प्रभाव का इस्तेमाल कर पीछे अपनी राह के सारे आपराधिक दागों को संविधान की झाड़ू से धो पोंछ डालता है। जिस समाज में दुर्दांत अपराधियों को राजनीतिक और सामाजिक संरक्षण प्राप्त हो वह समाज एक बीमार और भयाक्रांत समाज होता है। एक लोकतांत्रिक देश में किसी एनकाउंटर करने वालों का स्वागत फूलमाला और मिठाई से किया जाए तो संवेदनशील लोगों का चिंतित होना स्वाभाविक है। हालांकि इन संवेदनशील लोगों को ट्रोल किया जाना , देशद्रोही तक करार देना भी आज का शगल हो गया है। हम एक ओर तो अमरीका में एक अश्वेत के साथ पुलिस दुर्व्यवहार पर मुखर हो जाते हैं मगर अपने देश में पुलिस की बर्बरता और असंवैधानिक तरीकों पर चुप्पी साध लेते हैं बल्कि विकास दुबे जैसे अनगिनत एनकाउंटरों पर खुलकर समर्थन करते हैं।  
 क्या इसका सीधा तात्पर्य यह लगाया जाय कि आम आदमी का कानून,संविधान से विश्वास उठ गया? इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता। छोटे छोटे मामलों के सालों साल खींचने के अदालती प्रक्रिया ने आम जन का कानून पर भरोसा कम किया है। हमेशा से न्याय में देर के चलते लोग अदालत न्याय और कानूनी प्रक्रिया से बहुत निराश होते रहे हैं ।  हाल ही में निर्भया के दोषियों को फांसी की सजा के मामले में भी देश की जनता कानून के असहाय हो जाने के निम्नतम स्तर का रूप देख चुकी है । यह भी देख चुकी है कि एक वकील किस बेशर्मी से कानूनी दांवपेचों का इस्तेमाल कर आरोपियों को बचाने कितना नीचे गिर सकता है।
यह बहुत चिंता की बात है कि एक लोकतांत्रिक देश में आज हम न्याय के लिए मध्य युग की बर्बर मान्यताओं की ओर आकर्षित हो रहे हैं। आज भी हमारा मानस लोकतंत्र के अनुरूप नहीं ढल सका है । आज भी हम मध्ययुग के बर्बर रीति रिवाजों को वास्तविक न्याय मान रहे हैं । अपराधी को दंड संविधान के तहत कानूनी तौर पर तय किया जाना ही लोकतंत्र की पहचान है। आखिर हमारी कानूनी प्रक्रिया ऐसी क्यों बना दी गई है कि आम आदमी को न्याय नहीं तारीख ही मिलती है ।
एक बात पर गौर करें कि जब तक कोई भी  अपराधी आम जन को लूटता या बेरहमी से मारता काटता रहता है,उसे कोई भय नहीं रहता । वो बेखौफ अपना साम्राज्य चलाता रहता हैै और कई बार तो बाकायदा लोकतांत्रिक तरीके से माननीय यानी विधायक और मंत्री तक हो जाता है। आखिर ऐसा क्यों होता है कि जिसे पूरा समाज एक दुर्दांत अपराधी मानता है उसे ही अपना  जनप्रतिनिधि चुन लेता है। मगर यह भी विडंबना ही है कि इस सबके बावजूद हर शख्स ऐसे अपराधियों के एनकाउंटर पर खुश भी होता है।
एक बात और ग़ौरतलब है कि सालों साल पूरी सेटिंग के साथ अपनी दादागिरी और आतंक का साम्राज्य बेखौफ चालाने वाले अपराधी तब अचानक दुर्दांत हो जाते हैं जब वह पुलिस और प्रशासन से पंगा मोल ले लेते है ।  क्या कारण है कि  सालों से अपराध की दुनिया का सरगना अपराधी विभिन्न राजनीतिक दलों, सरकारों से, कानून की नजरों से बचता अपना अपराधिक साम्राज्य स्थापित करता है मगर जयों ही वह पुलिस से पंगा लेता है पूरे समाज के लिए जो दुर्दांत करार दिया जाता है। उसका खात्मा बहुत ज़रूरी हो जाता है।आश्चर्य तो इस बात का है एक ही दिन में अचानक वह पूरे समाज की नजर में खतरनाक दुर्दांत अपराधी हो जाता है सिर्फ इसलिए कि वह पुलिस से दुश्मनी मोल ले लेता है ।
यह भी सभी जानते हैं कि न तो ये पहला है और न आखिरी एनकाउंटर है। हम सब यह भी जानते हैं कि इस एनकाउंटर के बाद भी ना तो अपराध रुकेंगे और ना ही अपराध, राजनीति, प्रशासन और पुलिस के अंतर्संबंधों पर किसी तरह की आंच आएगी। तमाम काम पहले की तरह बदस्तूर जारी रहेंगे, बल्कि और मजबूत भी हो जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हम भी नहीं सुधरेंगे और ऐसे ही कुख्यात और दुर्दांत चेहरों में से कई को बाकायदा लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर माननीय जनप्रतिनिधि भी बनाते रहेंगे।जिस देश की जनता तर्क और ज्ञान की बजाय अंधभक्ति में लीन हो उस देश में लोकतंत्रात्रिक मूल्यों की बात करना ही बेमानी है।

Monday, May 25, 2020

घर लौटने की जिद्दी धुन- जीवेश चौबे

कौन जानता था कि बचपन में खेला गया छुक छुक गाड़ी का खेल एक दिन सचमुच उनकी रेल बनकर उन्हें घर पहुंचाने का सबब बन जाएगा । यदि सुरक्षित घर पहुंचा ही देता तो भी कम से कम खेल खेलने का लुफ्त आया समझ लेते, मगर रास्ते में यूं डब्बों का बिखर जाना एक उम्मीद का बिघर जाना है , एक संसार का उजड़ जाना है । इस तरह तो कभी रेल भी न बिखरी होगी जैसे उनकी ज़िंदगी बिखर गई । वो जिन्हें जीते जी रेल न मिल सकी उनकी लाशों को स्पेशल रेल से घर पहुंचाया गया । रेल का ये खेल सचमुच किसी को रास न आया ।
ज़िंदगीक्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिसमें
हर  घड़ी    दर्द    के   पैवंद   लगे   जाते  हैं
(फैज़ )
 फैज़ साहब का ये शेर आज घर लौटते लाखों मजदूरों की मजबूरियों को इस शिद्दत से बयां करता है मानो फटती बिवाईयों से अभी अभी फूट पड़ा हो । कभी बेबसी कभी रूदन के बीच अपने वतन , अपने घर लौटने की बेकररारी आहिस्ता आहिस्ता आक्रोश में तब्दील होती जा रही है ।
सुनहरे और उज्ज्जवल भविष्य का ख्वाब लिए जो महानगरों की ओर भागे चले आए थे उनके  ख्वाबों के ऐसे अंजाम का अंदाजा तो किसी को न था । उम्मीद और आकांक्षाओं की गगन छूती अट्टालिकाएं यूं  ताश के पत्तों की तरह बिखर जाएंगी किसी ने सोचा न था । लोगों के मकान  बनाते जो अपनी गृहस्थी संवारने में लगे रहे वो अचानक सड़कों पर बेघरबार होकर भटकने को मजबूर हो गए हैं।इमरान-उल-हक़ चौहान का एक शेर है-
ख़्वाब, उम्मीद, तमन्नाएँ, तअल्लुक़, रिश्ते
जान   ले  लेते  हैं आख़िर ये  सहारे  सारे
नवउदारवाद और क्रोनीकैपिटेलिस्म की मृगमरीचिका में इन महानगरों की ओर खिंचे आया ये आदम सैलाब आज फिर वहीं उन्हीं राहों पर आकर खड़ा हो गया है जहां से इसने अपनी यात्र शुरु की थी । घर से महानगर का सफर जब शुरु हुआ  तब भी ऐसा नहीं कि इनकी राहों में फूल ही फूल बिखरे हुए थे । राह तब भी कांटों भरी ही थी मगर तब सफर की इब्तदा थी, मन में जीवन संवारने का उत्साह था, ज़िंदगी को बेहतर बनाने का ऐसा जुनून कि ये अपने स्याह ख्वाबों को रंगीन बनाने , उन्हें सजाने की चाह में तमाम तकलीफों को हंसते हंसते सहे जाते रहे ।
अब फर्क इतना है कि सफ़र वापसी का है , घर वापसी का । उस घर की ओर वापसी का जिसे ये अपनी महत्वाकांक्षाओं के अथाह समुंदर में कहीं डुबा आए थे । आज जब ये समुन्दर इस भोथरे विकास की कीमत मांग रहा है । आखिर हर विकास की एक कीमत तो होती ही है । मगर यह कीमत चुकाता वही वर्ग है जो आज बदहवास सा अपने घर की ओर , अपनी जड़ो की ओर लौट रहा है ।  भूखे बदहवास लोगों की बस एक ज़िद  है, बस एक धुन ,एक  जिद्दी धुन सी सवार है और वो है घर वापसी की धुन। इस धुन के आगे सरकार के कारे राग दब गए हैं ।
जो लोग मौत को ज़ालिम क़रार देते हैं
ख़ुदा  मिलाए उन्हें ज़िंदगी के  मारों से
दूसरी ओर इनकी घर वापसी से पूंजीपतियों के कान खड़े हो गए हैं । एक भय , खौ़फ सा पसर गया है पूरे पूंजीपति वर्ग में और वो  है उनके अपने धंधे का अस्तित्व का । उन्होनें मजदूर के चेहरे का आक्रोश भांप लिया है , सरकार से और आम जनता से पहले ही । वे खौ़फज़दा हैं कि घर वापसी को बेचैन ये मजदूर हालात संभलने के बाद फिर वापस उनकी चाकरी में लौटेगा कि नहीं ? आनन फानन में ये पूंजीपति वर्ग सरकार पर दबाव डालकर इनकी घर वापसी के सारे रास्ते बंद कर देना चाहता है, लोकतंत्र के तमाम श्रम कानूनों को ध्वस्त कर तमाम हकों को खत्म कर शोषण का एक नया दौर शुरु कर देना चाहता है । नई सदी में अधिकारविहीन, बेबस लाचार कामगारों की नई जमात, बंधुआ मजदूरी की नई अत्याधुनिक  प्रथा शुरु करने को बेताब हो उठा है ये पूंजीपति वर्ग ।  और आश्चर्य तो ये है कि इस नई प्रथा के बंधुवाओं  में सिर्फ अनपढ़ गंवार देहाती मजदूर ही नहीं पढ़े लिखे ऊंची ऊंची डिग्रीधारी श्वेत धवल कपड़ों में सजे धजे कॉर्पोरेट के गुलाम भी बेआवाज़ शामिल हैं मगर वो खामोश हैं, उन्हें गुलामी की आदत सी पड़ चुकी है  । सुविधाओं के गुलाम हो चुके ये सफेदपोश आखिर कहां जायेंगे, वापस आ ही जायेंगे। अब मगर पेट से ज्यादा दिल पर गहरी चोट खाए इन मजदूरों को रोक पाना बहुत कठिन हो गया है । यहां तक कि सरकारें भी अब इनकी ज़िद से घबरा उठी है ।         
ये जान लीजिए मगर इस धरती पर वे ही बचेंगे जो बेधड़क, चिलचिलाती धूप में तपती धरती पर निकल पड़ते हैं नंगे पांव। और इस पृथ्वी को बचाएंगे भी ये ही। फिर चाहे वो घर से पलायन का वक़्त हो य ही घर वापसी का समय। कांधे पर अपनी अगली पीढी को ढोते सर पर पूरी गृहस्थी का बोझ लिए निकल पड़ने की हिम्मत इन्हीं में होती है।  साए की तरह बराबरी से चलती पत्नी का साथ भी होता है । हर बार , बार बार बस एक जुनून होता है। ये ही रचते हैं नया युग नया ज़माना। एयर कंडिशन्ड दबड़ों से निकलते हमारी छद्म संवेदनाओं के ट्वीट , सोशल मीडिया पर सामूहिक विलाप के तमाम ढोंग और मोबाइल के स्क्रीन पर  वर्जिश करती हमारी उंगलियां से जाहिर करती हमारी चिंताओं से कहीं ज्यादा इन्हीं फौलाद ढालते हाथों के बीच कहीं चुपचाप बूझते कांधे पर सवार उस अगली पीढी के हाथों में बचा रहेगा जीवन,इन्हीं के  इरादों में ,जूनून मे ।
चिंता न करें ये जल्द ही आयेंगे लौटकर वापस क्योंकि हमने अपने स्वार्थों के चलते उन्हें उनके घरों तक वो सुविधाएं वो जरूरतें मुहैया ही नहीं कराई हैं । तमाम संसाधनों पर जब तक हम कब्जा जमाए रहेंगे ये घर जाकर भी बार बार लौटेंगे, और हम अपनी क्रूर मुस्कुराहटों के साथ उनका स्वागत करते रहेंगे । जरा दम ले लें इस बार थकान तन की नहीं है मन की है , ज़रा इस थकान से राहत पा लेने दीजिए वे आयेंगे ज़रूर आयेंगे लौटकर। वंचितों की ये आवाजाही बदस्तूर जारी रहेगी जब तक वे सब कुछ जीतकर अपने कब्जा नहीं कर लेते। अभी तो वे उधेड़बुन में हैं, असमंजस में हैं…..
अब उस के शहर में ठहरें कि कूच कर जाएँ
‘फ़राज़’ आओ  सितारे  सफ़र  के देखते  हैं
( अहमद फराज़)