Tuesday, June 25, 2019

धर्म संसद की ओर अग्रसर होती लोकसभा ---- जीवेश चौबे



विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की 17 वीं लोकसभा में नए भारत के चुने हुए जनप्रतिनिधियों ने जमकर धार्मिक नारे लगाए । चुने हुए जनप्रतिनिधियों के ये नारे अपनी जीत के बहुसंख्यक उन्माद के उद्घघोष के साथ ही अल्पसंख्कों को तिरस्कृत करते से सुनाई दिए ।  विगत  70 साल में पहली बार देश की लोकसभा धर्म संसद की तरह व्यवहार करती नजर आई । देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद का निचला सदन, लोकसभा  सांसदों के शपथ ग्रहण के दौरान धर्म की पहचान बताने का अखाड़ा बन गया। ज्यादातर सांसदों ने शपथ लेने के बाद धार्मिक पहचान से जुड़े नारे लगाए। यह नियमों के विरुद्घ था या नहीं ये तो विशेषज्ञ ही मीमांसा कर बता पायेंगे सदन में  मगर किसी भी सांसद ने इसके खिलाफ कोई शिकायत नहीं की ।पूरे शपथ ग्रहण के दौरान जमकर धार्मिक पहचान से जुड़े नारों की मुठभेड़ हुई। जबर्दस्त टोकाटाकी-हंगामे के बीच जय श्री राम, बोले सो निहाल और अल्ला हू अकबर के नारे लगे। इस पूरे प्रकरण का सबसे दुखद और चिंताजनक पहलू रह रहा कि धार्मिक पहचान से जुड़े नारे विपरीत धर्म के सांसदों को चिढ़ाने के अंदाज में लगाते देखे गए। कई सांसदों ने शपथ के बाद अपनी वैचारिक पसंद बताने के लिए नारों का उपयोग किया। ज्यादातर सांसदों ने शपथ के बाद जयश्रीराम, जय मां काली, जय भीम, जय समाजवाद, राधे राधे, वाहे गुरू दी खालासा वाहे गुरू दी फतेह, अल्ला हू अकबर जैसे नारे लगाए।

जब भी कोई सदस्य शपथ लेने आता भाजपा के सदस्य जयश्री राम का नारा लगाने लगते। हद तो तब हो गई जब धर्म विशेष को निशाना बनाकर नारेबाजी की गई । विशेष रूप से जब असादुद्दीन ओवैसी शपथ लेने उठे  तो जयश्री राम-वंदे मातरम का नारा तेज हो गया। ओवैसी भी पीछे नहीं रहे और शपथ लेने के बाद जय भीम अल्ला हू अकबर का नारा लगाया। उनकी भाजपा सदस्यों से नोंकझोंक शुरू हो गई और जयश्री राम का नारा और तेज हो गया। औवैसी ने जब अपनी शपथ पूरी कर ली तो उन्होंने शपथ ग्रहण के पश्चात जय श्रीरीम के जवाब में जय भीम और अल्लाह-हू-अकबर का नारा लगाते हुए अपनी शपथ को खत्म किया। संभल के शफीकुर्रहमान बर्क की बारी आई तो फिर से जयश्री राम का नारा तेज हो गया। इस पर शपथ लेने के बाद बर्क की भाजपा सदस्यों से कहासुनी  हो गई। बर्क ने कहा कि देश का संविधान जिंदाबाद कह सकते हैं मगर वंदेमातरम के खिलाफ है। इस पर सदन में शर्म शर्म के नारे लगे। हेमामालिनी ने शपथ लेने के बाद राधे राधे और कृष्णम वंदे जगत गुरू का नारा लगाया। बसपा सदस्यों ने जयभीम तो सपा के सदस्यों ने जय समाजवाद के नारे लगाए। ओवैसी या  शफीकुर्रहमान बर्क को इस तरह निशाना बनाया जाना किसी सभ्य समाज की संसद में गवारा नहीं किया जा सकता ।
प्रश्न ये उठता है कि एक धर्मनिरपेक्ष देश में आखिर क्योंकर सांसद को धार्मिक आधार पर शपथ दिलाई जाती है । क्या अपने आराध्य की शपथ लेने मात्र से संविधान  पालन की गारंटी मानी जा सकती है ?  देखा जाए तो इतिहास इस तरह की शपथ को झूठा साबित करता है । पिछले कई दशकों से ईश्वर के नाम पर शपथ लेने वाले अधिकांश जनप्रतिनिधियों के चरित्र व क्रियाकलाप संदेहास्पद विवादास्पद और कई मर्तबा तो संविधान विरोधी भी रहे हैं । हाल के वर्षों में जब एक तिहाई से ज्यादा जनप्रतिनिधियों पर आपराधिक धाराएं लगी हुई होती हैं इस तरह ईश्वर के नाम की शपथ लेना ढकोसले के सिवा कुछ नहीं है । यह बात गौरतलब है कि  जिस संसद में आप प्रतिनिधि के तौर पर चुने गए हैं वो कोई धर्म संसद नहीं बल्कि देश की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा है जो किसी भी धर्म के या संप्रदाय के नियमों या कानून से नहीं बल्कि संविधान के अनुसार संचालित होती है । संसद के नियम संविधान में दर्ज हैं जिसमें आप किसी भी मान्यता प्राप्त भाषा व व्यक्तिगत धार्मिक आस्था के अंतर्गत शपथ ले सकते हैं मगर सदन में किसी तरह के धार्मिक या कहें सांप्रदायिक उन्मादी यहां तक कि राजनैतिक  नारे नहीं लगा सकते । नए लोकसभा अध्यक्ष एक बार कहते हैं सदन में नारेबाजी की मनाही है और जब सत्तापक्ष का नाम आता है तो अपने कथन से  मुकर जाते हैं ।
लोकतंत्र सिर्फ नियम कायदों की बिला पर नहीं चला करते बल्कि लोकतंत्र की परिपक्वता चुने
हुए या शीर्ष जनप्रतिनिधियों के नैतिक आचरण व मर्यादा पर ज्यादा निर्भर करती है । नैतिकता की नींव उत्तरदायित्व और जवाबदेही की धारणा के साथ रखी जाती है। लोकतंत्र में सार्वजनिक पद पर आसीन व्यक्ति की  जवाबदेही अंततोगत्वा जनता के प्रति ही होती है ।  हालांकि इसे कानून और नियमों की व्यवस्था से संचालित किया जाता है मगर नैतिकता का स्थान हमेशा नियमों कायदों से ऊपर ही होता है । नैतिकता कानून और नियमों के  निर्धारण को एक आधार प्रदान करती है। यह सार्वजनिक जीवन में शीर्ष स्थान प्राप्त लोगों के आदर्श विचार ही होते हैं जो कानून और नियम का पालन करने के साथ उच्च नैतिक मुल्यों के आधार पर उनका चरित्र निर्माण करते हैं।  लोकतंत्र का मूलभूत सिद्धांत यह है कि सदन की सदस्यता धारण करने वाले या कहें सभी सार्वजनिक पदों पर आसीन व्यक्ति जनता की धरोहर हैं।  सार्वजनिक पद पर आसीन होने वाले सभी लोग जन-जीवन पर पर्याप्त प्रभाव डालते हैं। जनता का बहुत बड़ा वर्ग यह अपेक्षा करता है कि  जनप्रतिनिधि द्वारा अपने दायित्वों व नैतिक मूल्यों का जिम्मेदारी से पालन किया जाना चाहिये। आम जीवन में नैतिकता की भूमिका के अनेक पक्ष हैं मगर सार्वजनिक जीवन में रहने वाले व्यक्तियों के लिए एक  उच्च आचार संहिता के मूल्यों की अपेक्षा की जाती है ।  सार्वजनिक पद पर आसीन लोगों के लिये नैतिक मानदंड क्या होने चाहिये यह कोई लिखित कायदे में होना जरूरी नहीं है बल्कि यह आपके आचार व्यवहार से एक आदर्श के रूप में परिलक्षित होना चाहिए ।
लोकसभा में बहुसंख्यक वर्चस्व का यह भोंडा प्रदर्शन पूरे अल्पसंख्यक समुदाय में भय और अविश्वास का माहौल पैदा कर गया है । देश की सड़कों पर विगत कुछ दशकों के दौरान सभी धार्मिक समुदाय द्वारा विभिन्न जयंतियों और धार्मिक अवसरों पर उन्मादी शक्ति प्रदर्शन का सिलसिला अपने पूरे उन्वान पर पहुंच चुका है । क्या अब देश की संसद इस सड़क छाप शक्ति प्रदर्शन की राह पकड लेगी ?  यह बात समझनी जरूरी है   कि बहुत ही निम्नस्तर के इस सांप्रदायिक व बहुसंख्यक उन्मादी हुंकार के परिणाम दूरगामी होंगे । राजनीति में नैतिकता की दृष्टि से एक दोषयुक्त व सर्वथा पूर्णता की आशा करना अवास्तविक और अव्यवहारिक होगा, मगर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान में राजनीति में जो मानदंड स्थापित किये जा रहे हैं वे तंत्र व समाज के विभिन्न पहलुओं पर निश्चित रूप से महत्त्वपूर्ण असर डालेंगे ।
jeeveshprabhakar@gmail.com
(देशबंधु 26 जून 2019 को प्रकाशित)
जीवेश चौबे

Saturday, June 22, 2019

प्रभाकर चौबे स्मृति प्रथम संवाद ः लोकतंत्र की नई चुनौतियां पर ईश्वर सिंह दोस्त का सारगर्भित व्याख्यान





प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर द्वारा  साहित्यकार , वरिष्ठ सम्पादक  स्व. श्री प्रभाकर चौबे की स्मृति में *प्रभाकर चौबे स्मृति संवाद श्रंखला* का पहला आयोजन आज स्थानीय वृंदावन हॉल में सम्पन्न हुआ ।विदित हो कि श्री प्रभाकर चौबे लगभग 55 वर्षों तक निरन्तर लेखन करते रहे । गत वर्ष उनका 84 वर्ष की उम्र में निधन हो गया था । प्रभाकर चौबे ताउम्र प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे । वे छत्तीसगढ़ प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव व प्रलेस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी मेंअध्यक्ष मंडल में भी रहे ।
    उनकी स्मृति में संवाद श्रंखला के पहले आयोजन में  मुख्य वक्ता भोपाल से आमंत्रित युवा विचारक व स्वतंत्र लेखक  डॉ ईश्वर सिंह दोस्त थे तथा कार्यक्रम के अध्यक्ष वरिष्ठ साहित्यकार व  सम्पादक श्री ललित सुरजन थे। कार्यक्रम की शुरुवात में श्री प्रभाकर चौबे को याद करते हुए उन्हें पुष्पांजली अर्पित की गई । कार्यक्रम की शुरुवात में अतिथियों का स्वागत किया गया। इज़के पश्चात श्री अरुनकान्त शुक्ला ने संवाद के विषय लोकतंत्र की नई चुनॉटियाँ और हमारा भविष्य पर अपनी बात की शुरुवात करते हुए कहा कि लोकतंत्र हमेशा संकट से घिरा होता है।
    मुख्य वक्ता डॉ ईश्वर सिंह दोस्त ने पहले प्रभाकर चौबे से और रायपुर से जुड़ी अपनी यादों को और अपने पुराने सम्बन्धों को याद किया । उन्होंने कार्यक्रम के मुख्य विषय पर अपने उद्बबोधन की शुरुवात करते हुए कहा कि आज लोकतंत्र का सबसे बड़ा संकट यह है कि संकट क्या है, कैसा है, यह ज्यादातर लोगों को पता नहीं है। इस मायने में हम आपातकाल से ज्यादा खराब स्थिति में हैं। आज क्या असल है, क्या छवि है, इसका भेद धुंधला होता जा रहा है। पत्रकारिता, न्यायपालिका और लोकतंत्र, ये तीन संस्थाएं ऐसी हैं जो तथ्यों की जोड़-तोड़ को एक हद के बाद सह नहीं सकती, तब खतरा इनके बेअसर हो जाने का होता है लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती आज यही है, जिसका एक जनतांत्रिक सभ्यता के रूप में भारत को मुकाबला करना है। 
     उन्होंने विशेष रूप से कहा कि आज दुनिया के जनतंत्रों को बड़ी चुनौती मजबूत कहे जाने वाले अधिनायकवादी नेताओं से है, चाहे वह अमेरिका, तुर्की, ब्राजील, रूस जैसे देश हों या भारत हो। दूसरी बड़ी चुनौती भूमंडलीकरण की असफलता के बाद कारपोरेट पूंजीपतियों के हितों और सांप्रदायिक अस्मिता की राजनीति के गठजोड़ से है। अलग-अलग देशों में इसके रूप अलग-अलग हैं। 
     बहुसंख्यकवाद लोकतंत्र को कमजोर बना देता है। दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है, जहां धार्मिक, भाषायी, क्षेत्रीय, जातीय, राजनीतिक अल्पसंख्यकों के अधिकार छीने गए हों, और फिर वह लोकतांत्रिक भी रह पाया हो। भारत में उभरा नया सांप्रदायिक बहुसंख्यकवाद लोकतंत्र को कभी भी निष्प्रभावी बना सकता है। 
     मत-विभाजन तो जनतंत्र के साथ जाता है, मगर मन- विभाजन नहीं। मत-विभाजन एक जनतांत्रिक प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है, जिसके बाद फिर मिलजुलकर काम करना है। मगर मन-विभाजन एक गहरी खाई बना लेना है। मन-विभाजन में किसी परिवार, किसी संगठन, किसी समाज के बरबादी के सूत्र छिपे हैं। भारत में समुदायों के बीच गलतफहमियां, शिकायतें, तकरार पहले भी थी, मगर दुर्भाग्य से आज वैमनस्यता और रंजिश आम होती जा रही है। टीवी चैनलों तक पर बहस और विचार-विमर्श की जगह रार और झगड़े आयोजित किए जाते हैं। खुला और नीतिपूर्ण संवाद आज सबसे बड़ी जरूरत है, यही लोकतंत्र को बचा सकता है।  
    आज वक्त आ गया है कि हम तय करें कि क्या भारत को हमें संकुचित आत्माओं, बंद दिमागों और खार खाए बैठे दिलों का देश बनाना है या फिर उदार हृदयों, खुले व रोशन दिमागों, विस्तृत आत्माओं का देश बनाना है।
    
    कार्यक्रम में जीवेश चौबे ने भी संक्षिप्त मे वपनी बात रखते हुए लोकतंत्र के लिए युवाओं की आगे आने की बात कही और आयोजन के लिए प्रलेस रायपुर का आभार व्यक्त किया । अंत मे कार्यक्रम के अध्यक्ष श्री ललित सुरजन ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रभाकर चौबे की स्मृतियों की साझा करते हुए उन्हें बड़ी शिद्दत से याद किया । उन्हीने अपने उदबोधन मे कहा कि नई पीढ़ी से उम्मीद है कि वे लोकतंत्र को आगे बढ़ाएगी । उन्होंने कहा कि लोकतंत्र हैं तो चुनौतियां भी होंगी मगर  लोकतंत्र हमेशा चुनौतियीं से जूझकर विजयी होता रहा है। उन्होंने कहा कि एक अच्छे भविष्य के लिए  सवाल उठाना ज़रूरी है यही लोकतंत्र को बचाये रखता है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि आज प्रगतिशील विचारों को लोगों के बीच ले जाना होगा ।

    कार्यक्रम का संचालन प्रगतिशील लेखक संघ के सचिव संजय शाम ने किया । अंत मे प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर के अध्यक्ष डॉ आलोक वर्मा ने उपस्थित लोगों का आभार व्यक्त किया ।आयोजन में प्रदेश भर से बड़ी तादात में प्रबुद्धजन उवस्थिति थे।

Saturday, June 15, 2019

मल्टीप्लैक्स में प्रदर्शन से छत्तीसगढ़ी फिल्मों को मिला नया आयामः ----जीवेश चौबे



छत्तीसगढ़ी फिल्मों की 5 दशकों से भी ज्यादा की  यात्रा में आज एक नया और महत्वपूर्ण  अध्याय जुड़ गया । आज  एक छत्तीसगढ़ी फिल्म हंस झन पगली फंस जाबे”  छत्तीसगढ़ के फिल्मकारों की मंशा के अनुरूप  “मल्टीप्लैक्स  में प्रदर्शित हुई । इसी के साथ छत्तीसगढ़ी फिल्मों को एक नया आयाम मिला  साथ ही छत्तीसगढ़ी फिल्मों के निर्माता निर्देशकों की लम्बे समय से चली आ रही अपेक्षाओं को व मांग को पहली आंशिक सफलता मिली । आंशिक इसलिए कि अभी फिल्म “हंस झन पगली फंस जाबे”  को एक ही मल्टीप्लैक्स में सिर्फ एक शो मिला है  मगर फिर भी छत्तीसगढ के फिल्म निर्माताओं व निर्देशकों में उत्साह का माहौल है ।
          फिल्म “हंस झन पगली फंस जाबे”  के निर्देशक सुप्रसिद्ध फिल्म निर्देशक सतीश जैन हैं। उल्लेखनीय हैकि पांच दशक पहले  मनु नायक द्वारा निर्मित पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म “कहि देबे संदेश”   लोकप्रिय रही थी   मगर  उसके बाद एक लम्बे अरसे तक छत्तीसगढ़ी  फिल्म जगत में सन्नाटा छाया रहा । फिर एक लम्बी खामोशी के बाद सदी की शुरुवात में सतीश जैन की फिल्म “मोर छइयां भुइंया” आई और बडी कामयाब रही । सतीश जैन की ही फिल्म “मोर छइयां भुइंया” ने छत्तीसगढ़ी फिल्मों को पुनर्जीवन दिया और प्रदेश में छत्तीसगढ़ी फिल्मों का बाजार स्थापित किया ।   इस फिल्म से ही छत्तीसगढ़ी फिल्मों के एक नए दौर की शुरुवात हुई । और आज मल्टीप्लैक्स में सतीश जैन की ही फिल्म “हंस झन पगली फंस जाबे”  ने छत्तीसगढी फिल्मों की नई इबारत लिखी । हमसे बात करते हुए सतीश जैन ने छत्तीसगढ़ी फिल्मों से जुड़े   कलाकारों, निर्माताओं निर्देशकों और समस्त शुभचिंतकों को इस उपलब्धि का सारा श्रेय दिया । उन्होने बताया कि दो दिन पहले अचानक पंडरी स्थित मल्टीप्लैक्स संचालक का फोन आया कि वे अपने यहां उनकी नई छत्तीसगढ़ी फिल्म लगाना चाहते हैं , बस दो दिन में ये हो गया । सतीश जी ने इस कामयाबी के लिए प्रदेश के संस्कृति मंत्री व मुख्य मंत्री के संवेदनशील रुख के प्रति अपना आभार व्यक्त किया । सतीश जी ने कहा कि इसके पहले मॉल में उनकी शर्तों पर फि्म लगानी पड़ती थी जो काफी मंहगा पड़ता था मगर अब एक नए सिलसिले की शुरुवात हुई है जिसे और आगे बढाए जाने की जरूरत है । हालांकि सतीश जी बहुत ज्यादा मल्टीप्लैक्स पर निर्भर होने के पक्ष में भी नहीं हैं ।  उनका मानना है कि महाराष्ट्र की तरह छत्तीसगढ़ में भी सल्टीप्लैक्सों में छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लिए विशेष पैकेज का प्रावधान होना चाहिए जिससे फिल्मकारों को प्रोत्साहन मिलेगा । इस सब  के बावजूद सतीश जी मानते हैं कि अभी छत्तीसगढ़ी फिल्मों को  अपनी गुणवत्ता व स्तर  में काफी सुधार लाना है मगर साथ ही वे इसे लेकर काफी आशान्वित भी हैं कि बहुत जल्द छत्तीसगढ़ के फिल्मकार इस कमी को दूर कर लेंगे ।
छत्तीसगढ़ी फिल्मों के सुप्रसिद्ध निर्देशक प्रेम चंद्राकर मल्टीप्लैक्स में छत्तीसगढी फिल्म के प्रदर्शन को लेकर बहुत खुश हैं । उन्होंने कहा कि देर से सही एक अच्छी शुरुवात हुई है । वे कहते हैं कि लम्बे समय से इस मांग को लेकर छत्तीसगढ़ी फिल्मकार आंदोलन कर रहे थे और हाल में ही जबरदस्त प्रदर्शन हुआ था । ये उसी संघर्ष का फल है ।  वे वर्तमान सरकार के संस्कृति मंत्री व विशेष रूप से मुख्यमंत्री के सहयोग व समर्थन से काफी उत्साहित हैं । उनका मानना है कि सरकार के दबाव के चलते ही मल्टीप्लैक्स वाले अपनी पुरानी शर्तों को समाप्त कर सामान्य रूप से फिल्मों के प्रदर्शन के लिए तैयार हुए हैं । प्रेम जी का मानना है कि अब फिल्मकारों पर भी बेहतर फिल्म बनाने का दबाव होगा । वे कहते हैं कि महाराष्ट्र व अन्य प्रदेशों की तरह छत्तीसगढ़ में भी मल्टीप्लैक्स में छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लिए नियमित रूप से शो की संख्या निर्धारित की जानी चाहिए । इसके लिए वे सरकार से ऐसे नियम बनाए जाने की अपेक्षा करते हैं जिसमें फिल्मकारों व मल्टीप्लैक्स मालिकों दोनों संतुष्ट हों । प्रेम चंद्राकर जी इसे छत्तीसगढ़ी फिल्मों के नए युग की शुरुवात के रूप में मानते हैं । 
       छत्तीसगढ़ी फिल्म व टीवी सीरियल के वरिष्ठतम निर्देशकों में अग्रणी नाम संतोष जैन मल्टीप्लैक्स में छत्तीसगढ़ी
फिल्मों के प्रदर्शन को लेकर लम्बे समय से संघर्ष कर रहे हैं । संतोष जैन  “हंस झन पगली फंस जाबे”   के मल्टीप्लैक्स में प्रदर्शन  को  आंशिक सफलता मानते हैं ।  मल्टीप्लैक्स में छत्तीसगढ़ी फिल्मों के प्रदर्शन को लेकर  लोकल बनाम ग्लोबल की लड़ाई लड़ रहे संतोष जी का कहना है कि  हाल के प्रदर्शन ,घेराव व गिरफ्तारी  ने शासन व प्रशासन को भी फिल्म निर्णाताओं व निर्देशकों की ताकत का अहसास दिलाया है जिससे मल्टीप्लैक्स मालिकों के रुख व रवैयै में बदलाव लाया है ।   उनका कहना है कि संस्कृति मंत्री श्री ताम्रध्वज साहू व मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल एस मुद्दे पर काफी संवेदनशील हैं और उनका रुख काफी सकारात्मक व उत्साहजनक रहा है । हालांकि ये प्रयोगात्मक स्तर पर एक शो रखा गया है जिसके रिस्पॉंस पर ही आगे की संभावनाएं आकार लेंगी ।  मल्टीप्लैक्स के नफा नुकसान के सवाल पर संतोष जी ने कहा कि  क्षेत्रीय फिल्मों के विकास के लिए मल्टीप्लैक्स मालिकों को कुछ  शुरुवाती नुकसान हो सकता है मगर आगे उन्हें फायदा ही होगा क्योंकि मल्टीप्लैक्स में प्रदर्शन होने से जहां एक ओर छत्तीसगढ़ी फिल्मों को नया शहरी दर्शक वर्ग मिलेगा वहीं निर्माताओं निर्देशकों पर भी बेहतर फिल्में बनाने का दबाव बढेगा जिससे अच्छी फिल्में बनेंगी ।वे इस बात को मानते हैं कि अभी अपेक्षाओं के अनुरूप स्तरीय फिल्में उतनी नहीं बन पा रही हैं ।
छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लोकप्रिय युवा निर्माता व निर्देशक डॉ. पुनीत सोनकर भी मल्टीप्लैक्स में छत्तीसगढ़ी फिल्म के प्रदर्शन से काफी उत्साहित हैं । वे  इसके लिए अपने साथियों के संघर्ष के साथ ही संस्कृति मंत्री व मुख्यमंत्री के सकारात्मक रुख से काफी आशान्वित हैं । उन्होने कहा कि पहली बार सरकार छत्तीसगढ़ी फिल्मों को लेकर इस तरह संवेदनशील व सकारात्मक रुख दिखा रही है । मल्टीप्लैक्स में छत्तीसगढ़ी फिल्मो के प्रदर्शन से छत्तीसगढी फिल्मों को नया आयाम मिला है इससे प्रेरित होकर नए फिल्मकार भी इस क्षेत्र में आगे आयेंगे । उन्होने आशा व्यक्त की कि मल्टीप्लैक्स में प्रदर्शन की कामयाबी के साथ साथ सरकार छत्तीसगढ़ी फिल्मों को अनुदान व कलाकारों को पैंशन देने की दिशा में भी इसी तरह सकारात्मक रुख दिखाएगी ।
             
तकनीक के विकास से फिल्म बनाना आसान हुआ जिसके चलते कुछ ही अरसे में अंधाधुंध फिल्में बाजार में आती चली गईं हैं ।  छत्तीसगढ़ी फिल्मों के नए दौर को भी लगभग दो दशक हो रहे हैं  , लगातार फिल्में भी बन रही हैं मगर इस तल्ख हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता कि तकनीकी रूप से काफी सक्षम होने के बावजूद छत्तीसगढ़ी फिल्मों में  कहानी  की  मौलिकता और विषय व कलात्मक गुणवत्ता का जबरदस्त अभाव है। ज्यादातर बम्बइया और भोजपुरी फिल्मों की भोंडी नकल के चलते  कोई भी फिल्म उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल नहीं कर पाई  है । सवाल ये है कि क्या मल्टीप्लैक्स में प्रदर्शन की शुरुवात हो जाने मात्र से छत्तीसगढ़ी फिल्में अपनी कमजोरियों से निजात पा कुछ बेहतर कर पायेंगी ? क्योंकि फिल्में मल्टीप्लैक्स में लगने से नहीं अपनी गुणवत्ता के कारण ही चलती हैं ।आशआ है छत्तीसगढ़ी फिल्मकार इस दिशा में भी सोचेंगे ।

( देशबंधु में 16 जून 2019 को प्रकाशित)