Saturday, July 11, 2020

कानून को कटघरे में खड़ा करती है एनकाउंटर के प्रति बढ़ती जनस्वीकृति - जीवेश चौबे

पाप से घृणा करो पापी से नहीं, जाने कब से कहा बताया जाता रहा है। आधुनिक समाज मे
पाप की जगह अपराध और पापी की जगह अपराधी ने ले ली और लोग कहने लगे अपराध से घृणा करो अपराधी से नहीं । हालांकि सनातन से लेकर आज तक कभी किसी ने न तो इसे आत्मसात किया और न ही स्वीकार । एक आदर्श वाक्य या उक्ति की तरह बस पीढ़ी दर पीढ़ी रटाया पढाया जाता रहा । हम तो सदा से समरथ को नहीं दोस गोसांई... को मानने वाले रहे हैं। समर्थ और प्रभावशाली के कुष्कृत्य भी हमें अपराध नहीं लगते और हम मन ही मन उस व्यक्ति से घृणा करते रहते हैं मगर उसकी खिलाफत करने का साहस नहीं कर जुटा पाते,एक तारणहार की राह देखते उसके तमाम अत्याचारों को, जिसे पाप कह लें या अपराध, सहन करते रहते हैं। बर्बर समाज में जीते हमारे दिलो दिमाग पर आंख के बदले आंख , हाथ के बदले हाथ और खून का बदला खून इस तरह बिठा दिया गया कि आज भी जब हम इस जंगली कानून को फलीभूत होते देखते हैं तो भीतर से आल्हादित हो उठते हैं। हमारे भीतर का जानवर संतुष्ट होता है। 
विकास दुबे प्रकरण कोई पहला नहीं है और न ही विकास दुबे कोई अंतिम नाम है। विकास दुबे हमारे समाज और व्यवस्था की विद्रूपता का ही एक नाम ही है जो राजनीति, पुलिस, प्रशासन और अपराध के अंतर्संबंधों के फैले मकड़ जाल का एक मोहरा मात्र है । आज इस खूनी खेल में विकास को ख़त्म कर इन संबंधों से परदा उठाने की संभावनाओं को भी खत्म कर दिया गया है । ये हमेशा से होता रहा है और आगे भी जारी रहेगा । सभी जानते रहे हैं विकास दुबे के काले और खौफनाक कारनामों की हकीकत। सभी जानते रहे कि वो पिछले 30 बरसों से पूरे तंत्र के संरक्षण में बेखौफ, बेरोकटोक अपना साम्राज्य चला रहा था । जाने कितने बेगुनाहों की हत्याओं का आरोप था और जाने कितने संगीन अपराधों में संलग्न रहा । आखिर इतने सालों से वो कैसे बचा रहा और अपना वर्चस्व कायम रख सका ? ये सवाल भी अनुत्तरित नहीं है, हर शख्स इसका उत्तर जानता है बल्कि हर शख्स ही इसका उत्तर है । विगत 30 वर्षों में जाने कितने ही मासूम और निरअपराध लोगों की हत्या में संलग्न विकास दुबे और उसके जैसे असंख्य दुर्दांत अपराधी किस तरह अपने आप को बचाए रखते हैं यह लगभग सभी जानते हैं।  राजनैतिक और पुलिस के संरक्षण और समर्थन के बिना कोई भी अपराधी अपना साम्राज्य नहीं चला सकता। इस मामले में भी यह खबर भी आम है कि विकास दुबे के घर दबिश से पहले उसके गांव में पुलिस के आने की सूचना भी उसे पुलिस में उसके उसके सूत्रों ने ही दी थी जिसके चलते कहा जा रहा है कि इतिहास में पहली बार सरकार ने पूरा थाना निलंबित कर लाइन अटैच कर दिया। यह हमारे लोकतंत्र में पुलिस, अपराधी और राजनीतिक संरक्षण की एक मिसाल है।
 आज अपराध, राजनीति, पुलिस और प्रशासन के सम्बन्ध इतने प्रगाढ़ होते गए हैं कि अब तो भेद कर पाना भी काफी मुश्किल होता जा रहा है। अब तो अपराध ही राजनीति का प्रवेशद्वार सा होता जा रहा है। इस खेल में जो सफल होकर राजनीति के किसी ऊंचे मकाम तक पहुंच जाता है वो अपने ओहदे और प्रभाव का इस्तेमाल कर पीछे अपनी राह के सारे आपराधिक दागों को संविधान की झाड़ू से धो पोंछ डालता है। जिस समाज में दुर्दांत अपराधियों को राजनीतिक और सामाजिक संरक्षण प्राप्त हो वह समाज एक बीमार और भयाक्रांत समाज होता है। एक लोकतांत्रिक देश में किसी एनकाउंटर करने वालों का स्वागत फूलमाला और मिठाई से किया जाए तो संवेदनशील लोगों का चिंतित होना स्वाभाविक है। हालांकि इन संवेदनशील लोगों को ट्रोल किया जाना , देशद्रोही तक करार देना भी आज का शगल हो गया है। हम एक ओर तो अमरीका में एक अश्वेत के साथ पुलिस दुर्व्यवहार पर मुखर हो जाते हैं मगर अपने देश में पुलिस की बर्बरता और असंवैधानिक तरीकों पर चुप्पी साध लेते हैं बल्कि विकास दुबे जैसे अनगिनत एनकाउंटरों पर खुलकर समर्थन करते हैं।  
 क्या इसका सीधा तात्पर्य यह लगाया जाय कि आम आदमी का कानून,संविधान से विश्वास उठ गया? इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता। छोटे छोटे मामलों के सालों साल खींचने के अदालती प्रक्रिया ने आम जन का कानून पर भरोसा कम किया है। हमेशा से न्याय में देर के चलते लोग अदालत न्याय और कानूनी प्रक्रिया से बहुत निराश होते रहे हैं ।  हाल ही में निर्भया के दोषियों को फांसी की सजा के मामले में भी देश की जनता कानून के असहाय हो जाने के निम्नतम स्तर का रूप देख चुकी है । यह भी देख चुकी है कि एक वकील किस बेशर्मी से कानूनी दांवपेचों का इस्तेमाल कर आरोपियों को बचाने कितना नीचे गिर सकता है।
यह बहुत चिंता की बात है कि एक लोकतांत्रिक देश में आज हम न्याय के लिए मध्य युग की बर्बर मान्यताओं की ओर आकर्षित हो रहे हैं। आज भी हमारा मानस लोकतंत्र के अनुरूप नहीं ढल सका है । आज भी हम मध्ययुग के बर्बर रीति रिवाजों को वास्तविक न्याय मान रहे हैं । अपराधी को दंड संविधान के तहत कानूनी तौर पर तय किया जाना ही लोकतंत्र की पहचान है। आखिर हमारी कानूनी प्रक्रिया ऐसी क्यों बना दी गई है कि आम आदमी को न्याय नहीं तारीख ही मिलती है ।
एक बात पर गौर करें कि जब तक कोई भी  अपराधी आम जन को लूटता या बेरहमी से मारता काटता रहता है,उसे कोई भय नहीं रहता । वो बेखौफ अपना साम्राज्य चलाता रहता हैै और कई बार तो बाकायदा लोकतांत्रिक तरीके से माननीय यानी विधायक और मंत्री तक हो जाता है। आखिर ऐसा क्यों होता है कि जिसे पूरा समाज एक दुर्दांत अपराधी मानता है उसे ही अपना  जनप्रतिनिधि चुन लेता है। मगर यह भी विडंबना ही है कि इस सबके बावजूद हर शख्स ऐसे अपराधियों के एनकाउंटर पर खुश भी होता है।
एक बात और ग़ौरतलब है कि सालों साल पूरी सेटिंग के साथ अपनी दादागिरी और आतंक का साम्राज्य बेखौफ चालाने वाले अपराधी तब अचानक दुर्दांत हो जाते हैं जब वह पुलिस और प्रशासन से पंगा मोल ले लेते है ।  क्या कारण है कि  सालों से अपराध की दुनिया का सरगना अपराधी विभिन्न राजनीतिक दलों, सरकारों से, कानून की नजरों से बचता अपना अपराधिक साम्राज्य स्थापित करता है मगर जयों ही वह पुलिस से पंगा लेता है पूरे समाज के लिए जो दुर्दांत करार दिया जाता है। उसका खात्मा बहुत ज़रूरी हो जाता है।आश्चर्य तो इस बात का है एक ही दिन में अचानक वह पूरे समाज की नजर में खतरनाक दुर्दांत अपराधी हो जाता है सिर्फ इसलिए कि वह पुलिस से दुश्मनी मोल ले लेता है ।
यह भी सभी जानते हैं कि न तो ये पहला है और न आखिरी एनकाउंटर है। हम सब यह भी जानते हैं कि इस एनकाउंटर के बाद भी ना तो अपराध रुकेंगे और ना ही अपराध, राजनीति, प्रशासन और पुलिस के अंतर्संबंधों पर किसी तरह की आंच आएगी। तमाम काम पहले की तरह बदस्तूर जारी रहेंगे, बल्कि और मजबूत भी हो जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हम भी नहीं सुधरेंगे और ऐसे ही कुख्यात और दुर्दांत चेहरों में से कई को बाकायदा लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर माननीय जनप्रतिनिधि भी बनाते रहेंगे।जिस देश की जनता तर्क और ज्ञान की बजाय अंधभक्ति में लीन हो उस देश में लोकतंत्रात्रिक मूल्यों की बात करना ही बेमानी है।

Monday, May 25, 2020

घर लौटने की जिद्दी धुन- जीवेश चौबे

कौन जानता था कि बचपन में खेला गया छुक छुक गाड़ी का खेल एक दिन सचमुच उनकी रेल बनकर उन्हें घर पहुंचाने का सबब बन जाएगा । यदि सुरक्षित घर पहुंचा ही देता तो भी कम से कम खेल खेलने का लुफ्त आया समझ लेते, मगर रास्ते में यूं डब्बों का बिखर जाना एक उम्मीद का बिघर जाना है , एक संसार का उजड़ जाना है । इस तरह तो कभी रेल भी न बिखरी होगी जैसे उनकी ज़िंदगी बिखर गई । वो जिन्हें जीते जी रेल न मिल सकी उनकी लाशों को स्पेशल रेल से घर पहुंचाया गया । रेल का ये खेल सचमुच किसी को रास न आया ।
ज़िंदगीक्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिसमें
हर  घड़ी    दर्द    के   पैवंद   लगे   जाते  हैं
(फैज़ )
 फैज़ साहब का ये शेर आज घर लौटते लाखों मजदूरों की मजबूरियों को इस शिद्दत से बयां करता है मानो फटती बिवाईयों से अभी अभी फूट पड़ा हो । कभी बेबसी कभी रूदन के बीच अपने वतन , अपने घर लौटने की बेकररारी आहिस्ता आहिस्ता आक्रोश में तब्दील होती जा रही है ।
सुनहरे और उज्ज्जवल भविष्य का ख्वाब लिए जो महानगरों की ओर भागे चले आए थे उनके  ख्वाबों के ऐसे अंजाम का अंदाजा तो किसी को न था । उम्मीद और आकांक्षाओं की गगन छूती अट्टालिकाएं यूं  ताश के पत्तों की तरह बिखर जाएंगी किसी ने सोचा न था । लोगों के मकान  बनाते जो अपनी गृहस्थी संवारने में लगे रहे वो अचानक सड़कों पर बेघरबार होकर भटकने को मजबूर हो गए हैं।इमरान-उल-हक़ चौहान का एक शेर है-
ख़्वाब, उम्मीद, तमन्नाएँ, तअल्लुक़, रिश्ते
जान   ले  लेते  हैं आख़िर ये  सहारे  सारे
नवउदारवाद और क्रोनीकैपिटेलिस्म की मृगमरीचिका में इन महानगरों की ओर खिंचे आया ये आदम सैलाब आज फिर वहीं उन्हीं राहों पर आकर खड़ा हो गया है जहां से इसने अपनी यात्र शुरु की थी । घर से महानगर का सफर जब शुरु हुआ  तब भी ऐसा नहीं कि इनकी राहों में फूल ही फूल बिखरे हुए थे । राह तब भी कांटों भरी ही थी मगर तब सफर की इब्तदा थी, मन में जीवन संवारने का उत्साह था, ज़िंदगी को बेहतर बनाने का ऐसा जुनून कि ये अपने स्याह ख्वाबों को रंगीन बनाने , उन्हें सजाने की चाह में तमाम तकलीफों को हंसते हंसते सहे जाते रहे ।
अब फर्क इतना है कि सफ़र वापसी का है , घर वापसी का । उस घर की ओर वापसी का जिसे ये अपनी महत्वाकांक्षाओं के अथाह समुंदर में कहीं डुबा आए थे । आज जब ये समुन्दर इस भोथरे विकास की कीमत मांग रहा है । आखिर हर विकास की एक कीमत तो होती ही है । मगर यह कीमत चुकाता वही वर्ग है जो आज बदहवास सा अपने घर की ओर , अपनी जड़ो की ओर लौट रहा है ।  भूखे बदहवास लोगों की बस एक ज़िद  है, बस एक धुन ,एक  जिद्दी धुन सी सवार है और वो है घर वापसी की धुन। इस धुन के आगे सरकार के कारे राग दब गए हैं ।
जो लोग मौत को ज़ालिम क़रार देते हैं
ख़ुदा  मिलाए उन्हें ज़िंदगी के  मारों से
दूसरी ओर इनकी घर वापसी से पूंजीपतियों के कान खड़े हो गए हैं । एक भय , खौ़फ सा पसर गया है पूरे पूंजीपति वर्ग में और वो  है उनके अपने धंधे का अस्तित्व का । उन्होनें मजदूर के चेहरे का आक्रोश भांप लिया है , सरकार से और आम जनता से पहले ही । वे खौ़फज़दा हैं कि घर वापसी को बेचैन ये मजदूर हालात संभलने के बाद फिर वापस उनकी चाकरी में लौटेगा कि नहीं ? आनन फानन में ये पूंजीपति वर्ग सरकार पर दबाव डालकर इनकी घर वापसी के सारे रास्ते बंद कर देना चाहता है, लोकतंत्र के तमाम श्रम कानूनों को ध्वस्त कर तमाम हकों को खत्म कर शोषण का एक नया दौर शुरु कर देना चाहता है । नई सदी में अधिकारविहीन, बेबस लाचार कामगारों की नई जमात, बंधुआ मजदूरी की नई अत्याधुनिक  प्रथा शुरु करने को बेताब हो उठा है ये पूंजीपति वर्ग ।  और आश्चर्य तो ये है कि इस नई प्रथा के बंधुवाओं  में सिर्फ अनपढ़ गंवार देहाती मजदूर ही नहीं पढ़े लिखे ऊंची ऊंची डिग्रीधारी श्वेत धवल कपड़ों में सजे धजे कॉर्पोरेट के गुलाम भी बेआवाज़ शामिल हैं मगर वो खामोश हैं, उन्हें गुलामी की आदत सी पड़ चुकी है  । सुविधाओं के गुलाम हो चुके ये सफेदपोश आखिर कहां जायेंगे, वापस आ ही जायेंगे। अब मगर पेट से ज्यादा दिल पर गहरी चोट खाए इन मजदूरों को रोक पाना बहुत कठिन हो गया है । यहां तक कि सरकारें भी अब इनकी ज़िद से घबरा उठी है ।         
ये जान लीजिए मगर इस धरती पर वे ही बचेंगे जो बेधड़क, चिलचिलाती धूप में तपती धरती पर निकल पड़ते हैं नंगे पांव। और इस पृथ्वी को बचाएंगे भी ये ही। फिर चाहे वो घर से पलायन का वक़्त हो य ही घर वापसी का समय। कांधे पर अपनी अगली पीढी को ढोते सर पर पूरी गृहस्थी का बोझ लिए निकल पड़ने की हिम्मत इन्हीं में होती है।  साए की तरह बराबरी से चलती पत्नी का साथ भी होता है । हर बार , बार बार बस एक जुनून होता है। ये ही रचते हैं नया युग नया ज़माना। एयर कंडिशन्ड दबड़ों से निकलते हमारी छद्म संवेदनाओं के ट्वीट , सोशल मीडिया पर सामूहिक विलाप के तमाम ढोंग और मोबाइल के स्क्रीन पर  वर्जिश करती हमारी उंगलियां से जाहिर करती हमारी चिंताओं से कहीं ज्यादा इन्हीं फौलाद ढालते हाथों के बीच कहीं चुपचाप बूझते कांधे पर सवार उस अगली पीढी के हाथों में बचा रहेगा जीवन,इन्हीं के  इरादों में ,जूनून मे ।
चिंता न करें ये जल्द ही आयेंगे लौटकर वापस क्योंकि हमने अपने स्वार्थों के चलते उन्हें उनके घरों तक वो सुविधाएं वो जरूरतें मुहैया ही नहीं कराई हैं । तमाम संसाधनों पर जब तक हम कब्जा जमाए रहेंगे ये घर जाकर भी बार बार लौटेंगे, और हम अपनी क्रूर मुस्कुराहटों के साथ उनका स्वागत करते रहेंगे । जरा दम ले लें इस बार थकान तन की नहीं है मन की है , ज़रा इस थकान से राहत पा लेने दीजिए वे आयेंगे ज़रूर आयेंगे लौटकर। वंचितों की ये आवाजाही बदस्तूर जारी रहेगी जब तक वे सब कुछ जीतकर अपने कब्जा नहीं कर लेते। अभी तो वे उधेड़बुन में हैं, असमंजस में हैं…..
अब उस के शहर में ठहरें कि कूच कर जाएँ
‘फ़राज़’ आओ  सितारे  सफ़र  के देखते  हैं
( अहमद फराज़)

Friday, May 22, 2020

भूपेश बघेल की किसान न्याय योजना क्या कॉंग्रेस के लिए गेम चेंजर साबित होगी ? – जीवेश चौबे


मुख्यमंत्री भूपेश बघेल द्वारा राजीव गांधी की पुण्यतिथि 21 मई के दिन प्रदेश में किसानों के लिए ‘राजीव गांधी किसान
न्याय योजना’  लांच की गई है, जो राहुल गांधी की महत्वाकांक्षी ‘न्याय’ योजना का ही परिवर्तित रूप है। इस योजना का महत्वपूर्ण पहलू यह है कि ‘ न्याय ’ योजना के अनुरूप राशि सीधे किसानो के खातों में डाली जाएगी । उल्लेखनीय है कि विगत लोकसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने पूरे देश के गरीबों के ‘ न्याय ’ योजना का मसौदा सामने लाया था । कोरोना संकट के दौरान भी राहुल गांधी कई बार केंद्र से गरीबों और मजदूरों के खातों में सीधे पैसा डालने पर जोर देते रहे हैं। इस मुद्दे पर हाल के दिनों में राहुल गांधी प्रख्यात अर्थशास्त्री  रघुराम राजन और नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी से भी चर्चा कर चुके हैं। सवाल ये है कि क्या यह योजना राष्ट्रीय स्तर पर कॉंग्रेस के लिए गेम चेंजर साबित हो सकती है ?



मुख्यमंत्री भूपेश बघेल द्वारा राजीव गांधी की पुण्यतिथि 21 मई के दिन प्रदेश में किसानों के लिए ‘राजीव गांधी किसान न्याय योजना’  लांच की गई है । उल्लेखनीय है कि विगत लोकसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने पूरे देश के गरीबों के लिए ‘ न्यूनतम आय सहायता योजना’  यानि ‘ न्याय ’ योजना का मसौदा सामने लाया था जिसके तहत देश के 5 करोड़ गरीब परिवार यानि तकरीबन 20 फीसदी गरीब जनता को सालाना 72 हजार रुपये दिए जाने की योजना थी। महत्वपूर्ण बात यह थी कि इस योजना के अंतर्गत पैसे सीधे लाभान्वितों के खाते में डाले जाने का प्रावधान किया गया था। गौरतलब है कि कोरोना संकट के दौरान भी राहुल कई बार केंद्र से गरीबों और मजदूरों के खाते में सीधे पैसा डालने की बात कर चुके हैं। इस मुद्दे पर हाल के दिनों में राहुल गांधी प्रख्यात अर्थशास्त्री  रघुराम राजन और नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी से भी चर्चा कर चुके हैं।
राहुल गांधी अपने इस ड्रीम प्रोजेक्ट को लेकर काफी उत्साहित थे मगर चुनाव में हार की वजह से यह महत्वाकांक्षी योजना ठंडे बस्ते में चली गई थी ।  अब छत्तीसगढ़ में मुख्य मंत्री भूपेश बघेल ने छत्तीसगढ़ में इस योजना को नए फॉर्मेट में ‘राजीव गांधी किसान न्याय योजना’ के नाम से किसानों के लिए लागू किया है ।  इस योजना के प्रति कॉंग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी के उत्साह का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि योजना के उदघाटन कार्यक्रम में वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए कॉंग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी खुद शामिल हुए । मुख्य मंत्री भूपेश बघेल ने इस योजना को छत्तीसगढ़ के किसानों के लिए क्रियान्वयित कर राहुल गांधी की स्वप्निल परियोजना को साकार करने की दिशा में पहल की है।
राजीव गांधी किसान न्याय योजना किसानों को खेती-किसानी के लिए प्रोत्साहित करने की देश में अपने तरह की एक बड़ी योजना है। इस योजना के तहत सरकार किसानों को  अधिकतम 10 हजार रूपए प्रति एकड़ की दर से सहायता राशि देगी। इस योजना के  पहले चरण में राज्य के लगभग 19 लाख किसानों को चार किश्तों में तकरीबन 5700 करोड़ रुपए का लाभ मिलेगा ।  इस योजना का महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह राशि सीधे उनके खातों में हस्तांतरित की जाएगी ।
भूपेश बघेल द्वारा किसानो को सीधे लाभ पहुंचाना राहुल गांधी की न्याय योदना की सोच के तहत उठाया गया  एक क्रांतिकारी कदम है। इससे न सिर्फ किसानो को बल्कि उनके जरिए कोरोना संक्रमण के दौर में दम तोड़ते बाज़ार को भी राहत मिलेगी। खाते में पैसा होने से पूंजी प्रवाह में तेजी आएगी और बाजार को गति मिलेगी। इस योजना की दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने आश्वस्त किया है कि आगे इस योजना में सभी तरह की फसल लेने वाले किसानों के साथ ही  योजना के द्वितीय चरण में राज्य के लाखों भूमिहीन कृषि मजदूरों को भी इस योजना का लाभ दिलाने  योजना के अंतर्गत शामिल किया जाएगा । मुख्यमंत्री बघेल ने इसके लिए विस्तृत कार्ययोजना तैयार करने के लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में समिति भी गठित कर दी है। यह समिति दो माह में विस्तृत कार्ययोजना का प्रस्ताव तैयार कर प्रस्तुत करेगी।
भूमिहीन किसानो को शामिल करना एक महत्वपूर्ण पहल है । आज तक खेतिहर मजदूरों को किसी भी प्रकार की कृषि संबंधित योजना का लाभ नहीं मिलता रहा । भूमिहीन होकर मजदूर बना किसान बहुत ही बदतर परस्थितियों में जीने को मजबूर होता है ।  इन्हीं परिस्थितियों के चलते अधिकांश खेतिहर मजदूर पलायन का रास्ता अपनाते हैं ।  इस योजना में उनके लिए भी प्रावधान किया जाना निश्चित रूप से  खेतिहर मजदूरों की आर्थिक स्थिति सुधारने की दिशा में एक सकारात्मक कदम  है और अगर इस योजना का सही क्रियान्वयन किया गया तो यह योजना छत्तीसगढ़ से श्रमिकों का पलायन रोकने में भी कारगर साबित हो सकती है ।
सवाल यह है कि क्या भूपेश बघेल द्वारा लागू की गई  राहुल गांधी की न्याय योजना कांग्रेस के लिए मनरेगा की तरह लाभकारी साबित हो सकेगी ?  गौरतलब है कि  यूपीए शासनकाल के दौरान शुरू की गई मनरेगा योजना से कॉंग्रेस पार्टी को काफी लाभ हुआ था।  मनरेगा आज भी जारी है और कोरोना के कारण शहरों से गांव वापस लौटने वाले मजदूरों के लिए काफी मददगार साबित हो रही है और इसीलिए एक समय मनरेगा की कटु आलोचना करने वाले मोदी जी कोरोना संकट से निजात पाने मनरेगा के बजट में बढ़ोतरी करने को बाध्य हुए हैं ।  
राहुल गांधी कोरोना काल के पहले से ही मोदी सरकार को किसानों के मुद्दे पर लगातार घेरते रहे हैं । इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि यदि छत्तीसगढ़ में  इसके सकारात्मक परिणाम सामने आते हैं तो निश्चित रूप से राहुल गांधी  कांग्रेस  शासित अन्य राज्यों को  भी यह योजना लागू करने कह सकते हैं। किसानो का बड़ा वर्ग पहले से ही कांग्रेस का समर्थक माना जाता है। एक तरह से  कांग्रेस का वोट बैंक गरीब किसान ही रहे हैं तो निश्चित तौर पर किसान न्याय योजना की सफलता  पार्टी के लिए एक ठोस व महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है और कॉंग्रेस पार्टी के लिए संजीवनी का काम कर सकती है । भूपेश बघेल की पहल यदि कामयाब हो जाती है तो राहुल गांधी इस योजना की सफलता प्रचारित प्रसारित कर केंद्र सरकार को घेरने का प्रयास कर सकते हैं ।

सब कुछ मगर इस पर निर्भर करता है कि मुख्य मंत्री भूपेश बघेल छत्तीसगढ़ की लालफीताशाही और नौकरशाही को नियंत्रित कर वास्तविक धरातल पर इस महत्वाकांक्षी राजीव गांधी किसान  न्याय  योजना का कितना लाभ किसानो तक पहुंचाने में कामयाब हो पाते हैं।

Monday, April 27, 2020

कोरोना काल में पूछना ताउ चाचा के हाल – जीवेश चौबे

कोरोना का कहर है और देश  क्या पूरे संसार में बहुतई मारा मारी मची पड़ी है । ऐसा समय है कि जान पहचान वाले क्या दोस्त यार मां बाप- बेटे- बेटी से लेकर प्रेमी प्रेमिका तक मिल नहीं पा रहे । अब विदेशियों का क्या वो तो पहले ही परिवार से दूर रहते हैं, तकलीफ तो हम सनातनी सभ्यता के वाहक , आदिकाल से कुट्टम कुटाई करते हुए भी संयुक्त परिवार में रह रहे भारतीय परिवार को हो गई । अब कोरोना को क्या पता हमारे संस्कार ? वो तो मुआ चीन से निकला और पसर गया । अब हम तो पहले भी व्हेन सांग को सर पे बिठा चुके हैं और इसी परंपरा का निर्वाहन करते हुए शी जिंग पिंग को झूला झुला बैठे। अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का... की तर्ज पर मुआ चीन पालना का बदला कोरोना से निकालेगा ये तो किसी ने नहीं सोचा था । चीनी हिन्दी भाई भाई बोल के पहले नेहरू धोखा खाए अब  नेहरू को गरियाने वालों को भी नेहरू की तरह फिर ये सिला मिला कहने लगे हैं । मगर हमारे संस्कार और परंपरा देखिए कि  हम तो अतिथि देवो भव के संस्कार से नहाए , अंकल ट्रंप को भी  मेहमान बनाकर गर्व महसूस करने से नहीं चूके ।
इसी परंपरा के चलते सब अपने अपने नाते रिश्तेदारों के हाल पूछ रहे हैं, सरकार भी कह रही है बुजुर्गों का ध्यान रखें । अब लॉक डाउन करके घर बिठा देगे तो कोई क्या करेगा । हमने भी सरकार का कहा मान ताउ चाचा को फोन लगा दिया ।  हमारे ताउ चाचा , हैं तो चाचा मगर बचपन से हम सब उन्हें ताऊ चाचा कहते रहे ,बस ये समझ लो जरा सा हेरफेर है जीडीपी की तरह। बहरहाल ताऊ चाचा के हाल जानने का मन किया, जिनसे पता नही कितने बरस से हम मिले तो नहीं मगर कभी कभार मुलाकात होई जाती है । ठेठ देसी किसम के 70 पार के ताउ चाचा । सेवानिवृत्त शिक्षक, शिक्षक क्या पूरी शिक्षा व्यवस्था हैं । हमारे यहां जैसे शिक्षा मिले न मिले बच्चे को व्यवस्था का ज्ञान तो मिल ही जाता है वैसई ताऊ चाचा मिले न मिले ज्ञान जरूर मिल जाता है । 70 साल में शिक्षा तो देशी, अंग्रेजी, मिश्रित न जाने कितनी बदली मगर शिक्षा व्यवस्था नहीं बदली, वैसई ताऊ चाचा हैं ।  70 सालों में सरकार भी बदलती रही मगर व्यवस्था की तरह ताऊ चाचा आज तक नहीं बदले हैं ।
जैसई मोबाइल लगाया बड़े भैया ने उठाया, जाहिर है मोबाइल तो भैया के ही पास होता है।  जैसे कोई सामान पत्नी को दिलाना न हो तो कैसे उलट पुलट के रख देने का मन करता है वैसई भैया से हां हूं मे बात करके ताउ चाचा से बात करने की सोच रहे थे मगर भैया ताउ के अवतार ही हैं, जैसी पूंजी वैसा उत्पाद, बात खत्म ही नहीं कर रहे थे । पता नहीं कहां कहां की पंचायत ले बैठे, क्या बताएं छुट्टन जिज्जी परेशान है, जीजा उनको अभी भी मारते हैं..तुम्हारी भौजी के पांव का दर्द अब हमारे सर का दर्द हो गया है..बेटा भक्त हो गया है, बेटी के पांव घर पर नहीं टिकते... अच्छा वो छोड़ो तुम बताओ... तुम्हारी सास कैसी हैं, ससुर को अटैक आया था क्या, ऐसी खबर मिली थी, साले का प्रमोशन हो गया कि नहीं। याने एक तो फोन करते नहीं जब हमने किया तो सारी पंचायत करने लगे । जैसे नेताजी पत्रकार वार्ता में सवालों का जवाब न दें बस अपनी हीबात करते रहें । वैसे भी आजकल सब मन की बात ही करने लगे हैं , दूसरे की सुनते नहीं बस अपनी सुनाए पड़े रहते हैं ।
अच्छा बताओ बहू कैसी है...अब हमसे रहा नहीं गया, हमने कहा ठीक ही है हम कोई थोड़े उसको मारते हैं...जैसे सत्ताधारी पार्टी के विधायक पाला बदल लें तो नेता कैसे खिसिया जाता है वैसई भैया खिसिया गए और ज़रा सी देर को मुंह बंद हुआ, बस हमने तुरत कहा- ताउ चाचा हैं ? खिसियाए भैया ने सारी भड़ास निकालकर कहा- वो कहां जायेंगे, लो कर लो बात। हमने राहत की सांस ली मानो हाई कमान से मिलने का टाइम मिल गया हो ।


कैसे हो ताउ चाचा..मैने जैसे ही पूछा ,  वो फट पड़े ।
तुमको क्या लगता है... ? जवाब की जगह प्रश्न दाग दिया ।
नहीं, याने तबियत वबियत ठीक है न, मैने सफाई दी।
हां हं.. हमें क्या होना है.. एकदम फिट हैं...
वो तो हैई ताउ चाचा, मगर क्या है न कोरोना फैला है, सरकार कह रही है बुजुर्गों का ध्यान रखें ।
हम सब समझते हैं बेटा... तुम्हारे चाचा हैं .. एक ये हैं हमारे पुत्र, रोज पूछते हैं बबा बुखार तो नहीं है न, मोहल्ले वाले अलग पूछ रहे हैं । रोज बुढ़उ बुढ़उ कहने वाले ये बुजुर्गों का ख्याल रख रहे हैं या रास्ता देख रहे हैं जाने का । मगर जान लो हमें कुछ नहीं होना।
मैने कहा, नहीं ताउ ऐसा नहीं, हम तो सरकार की बात मानकर आपके हालचाल पूछ ले रहे हैं ।
अरे बेटा मेरा क्या हाल पूछते हो तुम सब । देश का हाल देखो मेरा छोड़ो, ताऊ चाचा भावुक हो गए,उनका शिक्षक जाग गया...बोले, तुम लोगों को तो ये ही नहीं पता कि इन 70 साल में क्या, कौन कितने कमजोर हो गए, किसकी सेहत बिगड़ गई , कौन कोरेन्टाइन में चला गया , रखना है तो उनका ख्याल रखो। मुझे छोड़ो, ये दम तोड़ रहे हैं इनकी सेहत का ख्याल करो ।
 मैं अवाक रह गया। एक बार फिर ताऊ चाचा का ज्ञान मिल गया । सचमुच ये सरकारें व्यवस्थाओं,संस्थाओं की चिंता से दूर और बेखबर कर आत्मकेन्द्रित बना देती हैं। पूंजीवादी सरकारें राहत काल में आदमी को व्यक्ति केन्द्रित और संकटकाल में समाजोन्मुखी बना देती हैं ।  सड़कों पर भटकते लाखों कामगारों , समाज के गरीब तबकों बुजुर्गों बच्चों सबका ख्याल समाज रखे। सरकार न तो पहले कुछ करे न बाद में, सारी जिम्मेदारी जनता  पर डाल देती है । आज 70 पार के सभी आइसोलेशन में है, देखिए जनता कब ये लॉक डॉउन खोलती है । 

Sunday, April 12, 2020

मुख्य मंत्री को हर जमात के साथ होना चाहिए - जीवेश चौबे

निश्चित रूप से प्रांत के मुख्य मंत्री को हर समुदाय या जमात और जमातियों  के साथ होना ही चाहिए, हां ये ज़रूर है कि वो किसी भी समुदाय के उत्पातियों  के साथ नहीं होगा। और ये भी सच है कि हर समुदाय और जमात में उत्पाती होते ही हैं। इन उत्पतियो को कानून के अनुसार समान रूप से सजा भी देनी चाहिए ।
ये बात इसलिए कही जा रही है कि छत्तीसगढ़ में विपक्षी दल भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और अन्य नेताओं ने मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से सीधे सवाल कर डाला कि वे स्पष्ट करें कि वे तब्लीगी जमातियों के साथ हैं या खिलाफ। छत्तीसगढ़ में मुख्य मंत्री भूपेश बघेल के प्रयासों की बदौलत जहां महामारी कोरोना पर अब तक काफी हद तक नियंत्रण रखने में कामयाबी हासिल की है ,वहीं अब छत्तीसगढ़ में भी तबलीगी जमात को लेकर राजनीति शुरु हो गई है ।
   इस घोर संकट के समय इस तरह के राजनीतिक वक्तव्य गैरजिम्मेदाराना ही नहीं विपक्ष की गरिमा के प्रतिकूल भी है। एक ओर प्रधानमंत्री स्वयं पूरे देश के के तमाम राज्यों के साथ समन्वय व तालमेल बिठा कर आपदा से मिलजुलकर निपटने की अपील और प्रयास कर रहे हैं वहीं छत्तीसगढ़ में उनकी ही पार्टी के नेताओं द्वारा इस तरह की बयानबाजी उचित नहीं लगती । इन आपातकालीन परिस्थितियों में इस तरह की राजनीति एक तो विपक्ष के असहयोगात्मक रवैये को उजागर करती है वहीं दूसरी ओर विपक्ष की सतही राजनीतिक सोच को भी प्रदर्शित करती है।
निश्चित रूप से ऐसे कठिन समय में तमाम विरोधाभासों के बावजूद प्रदेश के सभी वर्ग,संप्रदाय समाज और यहां तक कि प्रत्येक नागरिक के साथ खड़ा होना ही किसी भी मुख्य मंत्री का दायित्व है । ऐसे मुश्किल वक्त में तमाम वैचारिक मतभेदों के बावजूद क्या देश के प्रधान मंत्री देश के नागरिकों के साथ भेदभाव बरत सकते हैं , निश्चित रूप से ऐसी उम्मीद क्या कल्पना भी नहीं की जा सकती । इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ऐसी विनाशकारी आपदा के समय समाज के प्रति सभी दोषियों को सजा दी जानी चाहिए मगर भेदभावों से ऊपर उठकर सभी के साथ समान रूप से संविधान व कानून के अनुसार कार्यवाही की जानी चाहिए ।
पूरे देश में  कोरोना माहामारी के कठिन दौर में कोरोना से ज्यादा मारामारी सांप्रदायिक वायरस को लेकर मची हुई है । पूरे देश में महामारी अब कोरोना से हटकर सांप्रदायिक दोषारोपण और नफरत फैलाने पर केन्द्रित होती जा रही है । तमाम न्यूज चैनल इसे और हवा देने में सबसे आगे हैं। यह बात भी गौरतलब है कि तबलीगी जमात के बहाने तमाम न्यूज़ चैनलों द्वारा पूरे मुस्लिम समाज को दोषी ठहराने की बढ़ती प्रवृत्ति और पूरे धर्म को निशाना बनाकर वैमलस्य फैलाए जाने को ध्यान में रखते हुए देर से ही सही मगर केन्द्र सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक एडवायसरी जारी करी जिसमें  कोरोना को लेकर किसा भी व्यक्ति विशेष, समुदाय , संप्रदाय, धर्म, जाति या अन्य पूर्वाग्रहित टिप्पणी करने पर प्रतिबंध लगा दिया है । कुछ चौनलों को इस संबंध में माफी तक मांगनी पड़ी है । स्वास्थ्य मंत्रालय के अलावा न्यायालय ने भी संप्रदाय विशेष के खिलाफ जारी नफरत भरे कैंपेन को बंद करने के निर्देश दिए हैं । निश्चित रूप से तबलीगी जमात ने गैरज़िम्मेदाराना हरकत की है मगर इसमें केन्द्रीय प्रशासन और दिल्ली सरकार की भी लापरवाही से इनकार नहीं किया जा सकता । अब जबकि जो होना था हो चुका तब लकीर पीटने और कोयला घिसने की बजाय इस पर काबू पाने की चुनौतियों से मिलकर जूझना होगा ।
राजनैतिक बयानबाजियों के साथ ही प्रशासनिक व न्याययिक टिप्पणियों व आदेशों से भी  छत्तीसगढ़ की आम जनता के बीच संदेह व दुराग्रह को बल मिला है । एक ओर छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने कोरोना को लेकर सिर्फ तबलीगी जमात से जुड़े तमाम लोगों की जानकारी व टेस्ट जल्द से जल्द करवाने के लिए राज्य सरकार को निर्देश जारी किए । दूसरी ओर प्रदेश के राजनांदगांव जिला कलेक्टर ने  एक कड़ा आदेश जारी कर दिया कि पहचान छिपाने वाले सिर्फ तब्लीगी जमात से संबंध रखने वालों के खिलाफ आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत  तो कार्रवाई की ही जाएगी, साथ ही यदि उसके संपर्क में आने से किसी व्यक्ति की मौत होती है तो उसके खिलाफ धारा 302 के तहत हत्या का मामला दर्ज किया जाएगा। हालात बेशक नाज़ुक और विस्फोटक हैं मगर क्या हाई कोर्ट और राजनांदगांव के कलेक्टर के आदेश सिर्फ तबलीगी जमात को लेकर दिया जाना उचित है ? अन्य वर्ग, समुदाय के लोग जो जानकारियां छुपाएं उन पर क्या इस आदेश के तहत कार्यवाही नहीं की जाएगी ? गौरतलब है कि महाराष्ट्र हाई कोर्ट की बैंच ने हाल ही में  कोरोना को लेकर धारा 51 ए का पाठ पढ़ाते हुए स्पष्ट  व  सख्त टिप्पणी की है कि सभी समरसता ,भातृत्व एवं समानता की भावना से काम करें, किसी भी जाति, धर्म वर्ग वर्ण व भाषा के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता।
उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश के आईएएस अफसर ने भी जानकारी छुपाने का जुर्म किया जिसके चलते उनके परिवार सहित 100 से ज्यादा लोग प्रभावित हो गए , क्या इनका जुर्म तब्लीगी जमातियों के जुर्म से अलग या कम कहा जा सकता है । इस तरह किसी भी धर्म जाति समुदाय संप्रदाय वर्ण या वर्ग के साथ न्यायिक भेदभाव संविधान की मूल भावनाओं के खिलाफ है । रायपुर में भी प्रशासन ने स्पष्ट किया है कि कई लोग विदेश से वापस आकर जानकारी छुपा रहे हैं और लगभग 76 लोग गायब हैं जिनकी तलाश जारी है । इनमें तबलीगी के साथ अन्य जमात के लोग भी होंगे तो क्या इनके लिए अलग अलग धाराएं लगाई जायेंगी?

 इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि दोषियों पर कड़ी कार्यवाही की जानी चाहिए । मगर इसमें सामुदायिक या सांप्रदायिक भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए बल्कि सभी दोषियों पर समान रूप से संविधान व कानून के अनुसार कार्यवाही की जानी चाहिए । हाई कोर्ट के निर्देशों के मद्दे नज़र मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कुछ विशेष पत्रकारों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग कर स्थिति साफ करने की कोशिश की और तब्लीगी जमात से जुड़े प्रकरणों की जानकारी से अवगत कराया । मगर मुख्य मंत्री को सफाई देने की बजाय सभी नागरिकों के साथ खड़े रहने की बात दृढ़ता से कहनी होगी । एक छोटे से तबके के चलते पूरे धर्म को निशाना बनाए जाने की पृवृत्ति के खिलाफ कम से कम छत्तीसगढ़ में पूरी ताकत व दृढ़ता से खड़े होकर इस सांप्रदायिक महामारी को छत्तीसगढ़ में फैलने से रोकना होगा।

Monday, April 6, 2020

छत्तीसगढ़ में लॉक डॉउनः प्रदेश हित में सोच विचारकर स्वतंत्र फैसला लें मुख्यमंत्री – जीवेश चौबे

सारा विश्व कोरोना महामारी के चलते जिंदगी और मौत की सबसे कठिन लड़ाई लड़ रहा है। विश्व की सारी सरकारें अपने इस भयंकर महाहारी से मुकाबला करने पूरी ताकत से जूझ रही हैं। छत्तीसगढ़ में भी इस महामारी की दस्तक एकदम शुरुवाती दौर में ही सुनाई दे गई थी । मुख्य मंत्री भूपेश बघेल ने एकदम पहली दस्तक के साथ ही एहतियात के लिए कमर कस ली । पहले पॉजिटिव केस मिलने के तत्काल बाद ही देश में लॉक डाउन होने के लगभग दो दिन पूर्व ही प्रदेश में सबसे पहले लॉक डॉउन किया गया । विगत 2 हफ्ते से पूरा देश लॉक डॉउन में है । इस बात पर गौर करना होगा कि छत्तीसगढ़ में स्थानीय स्तर पर सामाजिक दूरी बनाए ऱखने के कड़े आदेश जारी कर दिए गए थे। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की सकारात्मक सोच और एम्स की पूरी टीम के साथ बेहतर तालमेल व  सामंजस्य बनाकर ठोस योजना के साथ काम किया गया । लगातार मॉनिटरिंग का ही परिणाम है कि  आज छत्तीसगढ़ में 80 प्रतिशत कोरोना संक्रमित ठीक होकर घर जा चुके हैं । शुरुवाती एहतियात के चलते छत्तीसगढ़ में कोरोना का फैलाव काफी हद तक सीमित कर दिया गया । इसी का परिणाम है कि आज देश में छत्तीसगढ़ प्रथम 10 राज्यों में शामिल हुआ है ।
सभी विशेषज्ञ और जानकार सोसल डिस्टैंस यानि सामाजिक दूरी को ही कोरोना से बचने का अब तक सबसे बेहतर व कारगर उपाय बता रहे हैं ।  इसके लिए ही पूरे देश में लॉक डॉउन किया गया है और छत्तीसगढ़ में भी इस दिशा में काफी सराहनीय क्रियान्वयन किया गया ।  इसके  सकारात्मक परिणाम भी सामने आए हैं और संक्रमण के फैलाव पर काफी हद तक काबू पाने में सफलता मिली है । इन सबके बावजूद अभी खतरा टल गया ऐसा नहीं माना जा सकता। विश्व स्वास्थ्य संगठन के निर्देशों के मुताबिक संक्रमण के प्रभाव को खत्म करने में अभी एक लम्बा वक्त लगेगा । इस बीच पूरे विश्व में सामाजिक दूरी पर गंभीरता से लगातार अमल करने पर जोर दिया जा रहा है।
एम्स के डायरेक्टर ने हाल ही में चेतावनी दी है कि अब और ज्यादा सावधानी की जरूरत है । उनके अनुसार भारत में कोरोना का संक्रमण एक सरीखा का नहीं है । अलग अलग इलाकों में अलग अलग प्रभाव देखने में आ रहा है । उनके अनुसार जिन राज्यों में सोशल डिस्टैंस पर सख्ती से अमल किया जा रहा है वहां बेहतर परिणाम मिल रहे हैं । मुख्य मंत्री भूपेश बघेल के प्रयासों का ही परिणाम है कि छत्तीसगढ़ में सामाजिक दूरी  पर कड़ाई से अमल कर प्रदेश में इस महामारी का फैलाव रोकने में बहुत बड़ी कामयाबी हासिल हुई है ।  अभी 14 अप्रैल तक पूरे प्रदेश में परिस्थितियों का अवलोकन कर आगे की रणनीति तय की जाएगी । लॉक डॉउन खोलने के सुझावों पर राष्ट्रीय स्तर पर विचार किए जा रहे हैं। विशेषज्ञों की राय पर ही इन सुझावों पर अमल किया जाएगा । सवाल ये है कि क्या 14 तारीख के बाद लॉक डॉउन एकदम से खोल दिया जाना चाहिए ?  यह एक यक्ष प्रश्न है ।
 मुख्य मंत्री भूपेश बघेल ने लॉक डॉउन के पश्चात संभावित खतरों एवं आशंकाओं के मद्देनज़र प्रधानमंत्री को हाल ही में ख़त लिखकर अपनी चिंता से अवगत कराया है ।  यह बात भी ध्यान में रखनी है कि मुख्य मंत्री भूपेश बघेल के नेतृत्व व मार्गदर्शन में तमाम डॉक्टरों , मेडिकल पैरा मेडिकल, पुलिस सामाजिक संस्थानो एवं जमीनी कार्कर्ताओं के अथक प्रयासों से हासिल न्यूनतम संक्रमण फैलाव को जरा सी चूक से खो देना उचित नहीं होगा। निश्चित रूप से यह एक बड़ी चुनौती है । चुनौती सिर्फ सामाजिक नहीं बल्कि आर्थिक व सामुदायिक भी है ।
राज्य के सीमित संसाधनो के बल पर क्या इससे निपटा जा सकता है यह विचारणीय है । यह बात गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ ने सारे उपाय अपने ही संसाधनों से किए । केन्द्र सरकार से आर्थिक सहायता की उम्मीदें पूरी नहीं हो सकीं और न ही केन्द्र से अपेक्षित मदद मिल सकी । तमाम वित्तीय कठिनाइयों के बावजूद मुख्य मंत्री भूपेश बघेल राज्य के संसाधनो के भरोसे ही इस महामारी के खिलाफ जंग जारी रखे हुए हैं । इन तमाम विपरीत परिस्थितियों के बीच अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है । लॉक डॉउन के चलते प्रदेश में कामकाज बंद पड़ गए हैं । इसके चलते किसानों, मजदूरों के सामने जीवन यापन का संकट खड़ा हो गया है वहीं उद्योग व्यापार भी ठप्प पड़ गया है । मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इस गंभीर संकट को ध्यान में रखते हुए सभी वर्गों के लिए काफी राहत पैकेज की घोषणा की । साथ ही मैदानी स्तर पर भी मजदूरों व अन्य विस्थापितों को पलायन से बचाते हुए आश्रय और उनके भोजन पानी की व्यवस्था की । दूसरी ओर आर्थिक तंगी से जूझ रहे उद्योग, व्यापार काम धंधे सभी क्षेत्रों से जुड़े लाखों परिवार और आम आदमी के लिए ये कदम अत्यंत कष्टकारक हो सकते हैं  । इस स्थिति के लिए एक ठोस नीति बनानी होगी । केन्द्र सरकार से अपने हिस्से की बकाया राशि के साथ ही आपातकालीन परिस्थिति के लिए आर्थिक सहयोग भी ज़रूरी होगा ।

मुख्य मंत्री भूपेश बघेल के प्रयासों का ही परिणाम है कि छत्तीसगढ़ में  इस महामारी का फैलाव रोकने में बहुत बड़ी कामयाबी हासिल हुई है ।  इस उपलब्धि को कायम रखने व आपदा के विस्तार को रोकने के लिए छत्तीसगढ़ में 14 अप्रैल के बाद संभव हो तो एक दो हफ्ते तक लॉक डॉउन बहुत सीमित व नियंत्रित उपायों के अंतर्गत खोलना ही उचित प्रतीत होता है  । राज्य की नाकेबंदी भी जारी रखनी होगी । बाहर के प्रदेशों से किसी भी तरह की आवाजाही पर पूरी तरह रोक भी जारी रखनी होगी । मुख्य मंत्री से यह अपेक्षा है कि अंतर जिला  और यहां तक कि नगरों व कस्बों के बीच भी आवाजाही पर कड़ाई से प्रतिबंध जारी रखा जाना चाहिए  जिससे सामाजिक दूरी के जरिए अभी तक हासिल उपलब्धि बाधित न हो और आगामी दिनों में जल्द ही संक्रमण का खतरा लगभग पूरी तरह समाप्त किया जा सके । मुख्यमंत्री को इन सभी संभावनाओं और आपदा की आशंकाओं को ध्यान में रखकर प्रदेश हित में जनहित में सोच समझकर कदम उठाने होंगे ।

Sunday, April 5, 2020

गज़ल ( कोरोना के दौर में ) -


लोग भी न जाने क्या क्या याद अब कने लगे हैं
मौत की आहट से देखो पल भर में ही डरने लगे हैं

तान रख्खे थे जिन्होंने ख्वाबों ख्वाहिश के महल
एक ही झटके में देख वो कैसे दरकने लगे हैं

गठरी उम्मीदों की लेकर जहां आए गावों से हुजूम
वो शहर अपने ही मुसलसल बोझ से ढहने लगे हैं

एक बेहतर ज़िदगी का ख्वाब लेकर आए थे जहां
रुसवा होके वो वहां से बदहवास निकलने लगे हैं

बोझ सर पे लेके जो सजडकों पे पैदल दीखते हैं
लोग उनकी बेबसी को अय्याशियां कहने लगे हैं

पांव के छालों से उनके फूटते दरिया से देख
सख्त चट्टानों से भी झरने फूटकर बहने लगे हैं

जिब्बू ये मंज़र बेबसी का और ये खामोश लब
ये सब हमारी नाकामियों की दास्तां कहने लगे हैं

जिब्बू रायपुरिया

Thursday, March 26, 2020

फैलती महामारी,जूझता पूंजीवाद और जीवनदायी समाजवादी खुराक--जीवेश चौबे


कोरोना संकट ने पूरे विश्व में सिर्फ और सिर्फ लाभ अर्जन की प्राथमिकता वाले पूंजीवादी ढांचे को बुरे तरीके से हिला दिया है इसमें कोई शक शुबा नहीं रह गया है। इस विश्वव्यापी अभूतपूर्व संकट के सामने पूंजीवादी देश पूरी तरह असहाय नज़र आ रहे हैं। आज पूंजीवाद अपने चरम पर आ चुका है । भारत भी विगत दशकों में पूंजीवादी नीतियों को पूरी तरह आत्मसात कर विकास की छद्म आकांक्षा करता रहा है । दूसरी ओर संकट के भीषण दौर में यह बात मानने को सभी मजबूर हो गए हैं कि इस आपदा से सबसे पहले जूझने व प्रभावित होने के बावजूद इस महामारी को नियंत्रित करने व निपटने में चीन जैसे साम्यवादी देश बेहतर रूप से कामयाब रहे हैं, जहां राज्य के संसाधन व तमाम संस्थान सरकारी नियंत्रण में हैं और मजबूत हैं और यही व्यवस्था इस महामारी के नियंत्रण में सबसे ज्यादा कारगर साबित हुई है ।
इसी के मद्दे नज़र कोरोना संकट के दौर में संसाधनों के उत्पादन' व वितरण  पर सरकार के माध्यम से समाज का आधिपत्य जैसे समाजवादी व्यवस्था का मॉडल अपनाने पर लगातार जोर दिया जा रहा है, हालांकि चीन जैसे साम्यवादी देशों को पूंजीवाद के प्रवर्तक, पोषक व अनुसरण करने वाले तमाम देशों व बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेट्, द्वारा षड़यंत्रपू्र्वक तानाशाही का तमगा देकर ख़ारिज कर दिया जाता है। । सीमित आवश्यकता , संसाधनो पर सभी का समान हक और सबको समान व आवश्कतानुसार वितरण , ये सब समाजवादी मॉडल के ही घटक हैं । पूंजीवाद की विजय और समाजवाद के नेस्तनाबूद हो जाने का दावा करने वाले आज इन्हीं सिद्धांतों का सहारा लेकर आपदा से निपटने की राह तलाश रहे हैं।  विश्व के तमाम संकटग्रस्त पूंजीवादी देशों में आपातकाल का हवाला देकर संसाधनो पर सरकार का नियंत्रण किया जाने लगा है । मगर पूंजीवाद आसानी से हार नहीं मानता ऐज एस कठिन दौर में भी पूंजीवाद के पोषक वो सारे कॉर्पोरेट्स छोटे मोटे अनुदान जैसे बुर्जुवाई तरीकों के जरिए पूंजीवाद की गिरती साख को बचाए रखने के प्रयास में लगे हुए हैं साथ ही इन परिस्थितियों में भी लाभ अर्जन के नए मौके तलाशने में जुटे हुए हैं ।
 हाल के दशकों में भारत सहित दुनिया भर में पूंजीवादी देशों में ज्यादातर सुरक्षा व विदेश नीति को छोड़कर सभी सरकारी संस्थानों को उपेक्षित कर ध्वस्त करने की कोशिश की जाती रही हैं। पूंजीवादी देशों में जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों द्वारा मुख्य रूप से शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार जैसे बुनियादी क्षेत्रों को पूंजीवाद  के नए सिपहासालार और पोषक बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेट्स के हाथ तेजी से सौंप दिए जा रहे हैं । पूंजीवाद की एक बड़ी उपलब्धि राज्य संस्थानों के विचार को पूरी तरह नेस्तनाबूद कर देना है। अपने लाभ के लिए निजि क्षेत्रों के तमाम निवेशक लगातार लोक कल्याणकारी शासकीय संस्थानों को कमजोर कर कब्जा कर लेना चाहते हैं । पूंजीवाद की मूल अवधारणा में जनता द्वारा ही लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार को भी विकास विरोधी मानकर, उस पर हमला करना एक आम शगल हो गया है। आज इस संकट की घड़ी में ये तमाम निजि कंपनियां पंगु साबित हो रही हैं। आज विश्वव्यापी संकट की इस कठिन परिस्तितियों में ये निजि बहुराष्ट्रीय कंपनियां और  कॉर्पोरेट सारी जिम्मेदारी सरकार के मत्थे डाल लाभ हानि की कसौटी पर अपनी प्राथमिकताएं तय कर रही हैं 
यह बात खुलकर सामने आ गई है कि पूंजीवादी नीतियां अपनाने वाली तमाम सरकारें इस महामारी के संकट से निपटने में बहुत मुश्किलों का सामना कर रही है। इन देशों में ज़्यादातर जनस्वास्थ्य और शिक्षा का बड़ा हिस्सा निजीकरण की भेंट चढ़ चुका है। भारत सहित और कई विकासशील देशों में जहां हाल के दशकों में निजि क्षेत्रों व बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेट्स को बढावा देने की नीतियों के अंतर्गत षड़यंत्रपूर्वक सरकारी व सार्वजनिक क्षेत्रों के शिक्षण व स्वास्थ्य संस्थानो को कमजोर किया गया वहां सार्वजनिक और सरकारी क्षेत्रों की जन स्वास्थ्य, चिकित्सा व शिक्षा संस्थाओं के आधारभूत ढांचे की दम तोड़ती अधोसंरचना और क्षमता सामने आ चुकी है। इसी के चलते सरकार को  आज ऐसी चुनौती से निपटने अत्यंत मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है जबकि वर्षों से लाभ अर्जित करते निजि क्षेत्रों से कोई वांछनीय सहयोग नहीं मिल पा रहा है ।
जनविरोधी पूंजीवादी नीतियों की असफलता का ही नतीज़ा है कि हाल के दिनों में जरूरतमंदों और बेरोज़गारों को जीविकोपार्जन के लायक निश्चित आय के प्रावधानों पर विचार किया जाने लगा है और अब ये विचार तमाम दलों के मुख्य एजेंडे पर आ गए हैं, जबकि कुछ अरसे पहले तक इन विचारों पर कोई सोचता भी नहीं था। उम्मीद है इस महामारी में पूंजीवादी व्यवस्था के दुष्परिणमों असफलताओं से सबक लेकर भारत निजिकरण की बजाए संसाधनो के राष्ट्रीयकरण को प्राथमिकता देगा एवं क्रूर अमानवीय  पूंजीवादी व्यवस्था के अंधानुकरण के स्थान पर समाजवाद की दिशा में विचार करेगा मगर आज के दौर में शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कॉर्पोरेटपोषित लोकतंत्र से मुक्ति की राह इतनी आसान भी नहीं है । हम  तो बस थोडी बहुत उम्मीद ही कर सकते हैं

Wednesday, March 25, 2020

राज्यों को आर्थिक मदद मुहैया कराई जाय-- जीवेश चौबे

मशहूर गीतकार शैलेन्द्र की बड़ी कालजयी पंक्तियां हैं-
तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत पर यकीन कर.....
हज़ार भेस धर के आई मौत तेरे द्वार पर
मगर तुझे न छल सकी चली गई वो हार कर
(शैलेन्द्र)
जीने की जबरदस्त जीजीविषा और अदम्य आकांक्षा से भरा मनुष्य तमाम मुश्किलों और विषम परिस्थितियों के बावजूद हमेशा ज़िंदगी की जंग जीतने में कामयाब होता रहा है । आज पूरा विश्व कोरोना वायरस की चपेट में है और भयंकर संक्रमण की आशंकाओं से आक्रांत है । तमाम देशों की सरकारें और राष्ट्र प्रमुख वायरस के साथ साथ इससे आने वाली रोज़मर्रा की कठिनाइयों को लेकर चिंतित हैं । आज जब सामाजिक अलगाव ही बचाव का एकमात्र उपचार माना जा रहा है, तमाम देश निकट भविष्य में इससे छोटे , गरीब तबके को होने वाली आर्थिक दिक्कतों को लेकर चिंतित हैं ।
कई देशों में आम लोगों के लिए आर्थिक पैकेज की घोषणा की गई है, हमारे देश में भी राज्य सरकारों ने अपने स्तर पर अपनी क्षमता से कहीं ज्यादा राहत देने की घोषणा की है । केन्द्र सरकार ने 15 हजार करोड़ का प्रावधान किया है मगर वो मेडिकल सुविधाओं व प्रशिक्षण के लिए किया गया है उसमें आम आदमी को सीधे तौर पर कोई आर्थिक मदद नहीं मिलेगी । केन्द्र सरकार ने आम आदमी के लिए राज्य सरकारों को पहल करने का आव्हान किया है । मुश्किल ये है कि राज्य सरकारों के पास सीमित फंड होता है और लॉक डाउन जैसी स्थिति में जब व्यवसाय बुरी तरह प्रभावित रहता है राज्य सरकारों के आय के स्त्रोत भी सीमित हो जाते हैं ।
आपात स्थिति में केन्द्र से ही राहत व मदद की उम्मीद की जाती है जिस पर केन्द्र सरकार खरी नहीं उतर सकी है । मध्य व उच्च वर्ग को आयकर, जीएसटी व उद्योग जगत को तमाम टैक्स रियायतों की घोषणा तो ठीक है मगर, मध्यम , छोटे, फुटपाथ पर  व्यवसाय करने वाले लाखों लोगों के लिए कोई राहत पैकेज नहीं बताए गए हैं ।  अब तक न तो केन्द्र और न ही अधिकांश राज्य सरकार ने निराश्रितों, बेघरों और असंगठित क्षेत्रों के मजदूरों के लिए कोई ठोस कदम उठाए हैं ।
लाखों की तादात में महानगरों से गांव कस्बों को वापस लौटते श्रमिक व कामगार भी आने वाले दिनो में एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आ सकते हैं । एक तो इनका मेडिकल चैकअप ही नहीं हुआ जिससे उनके गृह स्थानो पर संक्रमण की आशंका तो बढाता ही है साथ ही आर्थिक सूनामी के इस दौर में इन्हें वापस रोजगार हासिल करवा पाना भी एक गंभीर चुनौती होगी । हालांकि अब तक कुछ राज्य सरकारों ने आगामी 1-2 माह तक गरीबी रेखा के नीचे तबके के लिए मुफ्त राशन प्रदान करने की घोषणा की है मगर ये राहत केन्द्र सरकार की मदद के बिना लम्बे समय तक जारी रख पाना संभव नहीं लगता।
अब तक प्रधान मंत्री जी दो बार राष्ट्र को संबोधित कर कोरोना के खतरे व एहतियात बरतने के नाम पर ताली, थाली और घंटा बजाने से लेकर आध्यात्मिक उद्बबोधन ही किया है । यह बात गौरतलब है कि कोरे भाषणो के सिवाय जमीनी स्तर पर राज्य सरकारों एवं आम जनता के लिए कोई ठोस आर्थिक सहयोग की योजना अब तक नहीं बताई है जो आज सबसे ज़रूरी है । राज्य सरकारों की जिम्मेदारी तो अपनी जगह है जिसे ज्यादातर राज्यों में अपनी क्षमतानुसार निभा भी रहे हैं  मगर संघीय संरचना में केन्द्र सरकार राज्यों को आर्थिक सहायता मुहैया कराने की अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती । केरल जैसे छोटे राज्य ने 20000 करोड़ का प्रावधान किया है साथ ही तमाम बच्चों को मिड डे मील की आपूर्ति के साथ ही गरीब व मजदूर वर्ग को निःशुल्क राशन उपलब्ध कराने की घोषणा भी की है।  केरल के अलावा छत्तीसगढ, दिल्ली . उत्तर प्रदेश सहित कुछ और राज्यों ने भी इस आपातकाल में जनता की मद  केलिए अपनी क्षमता से कहीं ज्यादा मदद करने का साहस दिखाया है । मगर ये समझना होगा कि राज्य सरकारों की अपनी सीमाएं हैं और संसाधन सीमित हैं । आर्थिक रूप से राज्य सरकारें बहुत मजबूत नहीं हैं । इन तमाम बातों को ध्यान में रखते हुए केन्द्र सरकार को अपने खजाने जल्द से जल्द खोलने ही होंगे । संकट की इस घड़ी में पूर्वाग्रह व दुराग्रहों से ऊपर उठकर और तमाम मतभेदों को भुलाकर सभी को एक साथ एकजुट होकर मुसीबत का सामना करना होगा ।

जीवेश चौबे

jeeveshprabhakar@gmail.com

Saturday, January 25, 2020

सवाल नागरिकता खोने का नहीं. नागरिक होने का है -- जीवेश चौबे

देश भर में लगातार नागरिकता को लेकर बहस और आंदोलन जारी है । नागरिकता कानून में संशोधन से आगे जनगणना रजिस्टर और नागरिकता रजिस्टर को लेकर उपजे भय और संशय के चलते देश के हर भाग में लगातार लोग सड़कों पर हैं और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी विपक्षियों पर जनता में भ्रम फैलाने का आरोप लगाकर दमन की नीति अपना रही है । भाजपा लगातार यह बात दुहरा रही है कि ये कानून नागरिकता देने का है छीनने का नहीं और इससे किसी की नागरिकता छीनने या खोने का कोई कोई सवाल नहीं उठता है । लेकिन सवाल नागरिकता खोने का नहीं बल्कि नागरिक होने का है । इस बात को समझना होगा कि हमारे देश के संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता एक महत्वपूर्ण पक्ष है जिसकी बुनियाद पर ही भारत की एकता और अखंडता तमाम उतार चढ़ाव के बावजूद अब तक कायम रह पाई है । इसे संरक्षित और सुरक्षित ऱखना हर नागरिक की जवाबदारी है ।जब जब सरकारें संविधान की मूल भावनाओं से खिलवाड करती हैं आम नागरिक सड़कों पर आकर देश और संविधान की रक्षा के लिए संघर्ष करता है ।
  यह बात भी समझनी होगी कि भाजपा ने इस कानून के बहाने हिन्दू राष्ट्र के अपने मूल एजेण्डे पर सीधी कार्यवाही शुरु कर दी है । भारत में आज तक नागरिकता   धर्म आधारित कभी नहीं रही मगर इस कानून संशोधन के बाद, भले ही शरणार्थियों के लिए हो, मगर नागरिकता की राह में धर्म का टोल स्थापित कर दिया गया है । कानून में किसी धर्म का उल्लेख भले न हो मगर जिस तरह पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के लिए ही यह कानून संशोधन किया गया उससे भाजपा की मंशा साफ तौर पर समझी जा सकती है । अन्यथा श्रीलंका, चीन, म्यानमार, आदि भी हमारे पड़ोसी देश हैं और वहां भी अल्पसंख्यक प्रताड़ित होते रहे हैं । विशेषकर श्रीलंका में तो तमिलों की हालत बहुत दयनीय है, यदि भाजपा हिन्दुओं की पैरोकार बनती है तो ये सवाल उठना वाजिब है कि क्या भाजपा तमिलों को हिन्दू नहीं मानती ? इन्हीं विरोधाभासों के चलते भाजपा की मंशा पर सवाल उठाए जा रहे हैं ।
सवाल तो ये भी उठता है कि जिन नागरिकों ने अपने मताधिकार से आपको दोबारा सत्ता में बिठाया आप उन्हे ही नागरिकता सिद्ध करने के लिए कहेंगे । नागरिकता के अब तक मान्य तमाम दस्तावेजों को खारिज कर एक नए प्रमाणपत्र के लिए पूरे देश को खंगालने के पीछे छुपी मंशा को राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के लिए तय किए गए मापदण्डों के लिए तैयार किए गए सवालों के खांचों से समझा जा सकता है । राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर पहले भी बनाया गया मगर नीयत का अंतर नागरिकों में ख़ौफ पैदा कर रहा है । इन सवालों के संविधान की मूल भावनाओं के खिलाफ पीछे छुपे भारतीय जनता पार्टी के एजेंडे को देश का शिक्षित व जागरूक वर्ग समझ रहा है और इसीलिए देश के तमाम शहरों में लोग सड़कों पर निकलकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं ।
दूसरी ओर नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन के जवाब में या कहें नागरिकता संसोधन व रजिस्टर कानून  की खिलाफत को व्यापक जनआंदोलन बनने से रोकने सरकार से इतर भारतीय जनता पार्टी का संगठन खुलकर सामने आ गया है । इस परिप्रेक्ष्य में यह बात भी स्वीकारनी ही होगी कि राम मंदिर का मसला खत्म हो जाने के बाद नागरिकता कानून और नागरिकता रजिस्टर को लेकर देश में एक बार फिर सांप्रदायिक ध्रवीकरण हो गया है । यह बात भी काबिले ग़ौर है कि  नागरिकता कानून के लिए समर्थन जुटाने के बहाने भाजपा के साथ साथ तमाम कट्टर हिन्दू संगठन पूरी ताकत से शहर दर शहर रैलियां और प्रदर्शन कर इस ध्रवीकरण को और मजबूत करने के प्रयास में पूरी शिद्दत से जुट गए हैं। इस संयुक्त व संगठित प्रयासों से भारतीय जनता पार्टी अपनी सुनियोजित रणनिति व व्यापक कैडर बल के चलते एक बड़े बहुसंख्यक समुदाय को अपनी बात मनवाने में यदि सफल नहीं भी रही हो तो भी कम से कम बहुसंख्यकों को अपने साथ दिखा पाने में सफल कही जा सकती है ।
भले यह भ्रम हो मगर भाजपा की इस रणनीति के चलते ताजा हालात में कोई दल बहुसंख्यक वोट बैंक के खिलाफ जाने का साहस नहीं कर पा रहा है । बुहसंख्यक वोट बैंक का खौ़फ लगभग सभी विपक्षी दलों पर बुरी कदर हावी हो गया है । न सिर्फ कॉंग्रेस बल्कि विभिन्न ताकतवर क्षेत्रीय दल भी असमंजस की स्थिति से उबर नहीं पा रहे हैं । हालांकि सभी दल के शीर्ष नेता मीडिया,सोशल मीडिया या विभिन्न मंचों पर आंदोलनकारियों के साथ होने की घोषणा जरूर कर रहे हैं मगर औपचारिक रूप से दलीय स्तर पर सीधे सीधे आंदोलनकारियों के साथ खड़े नहीं दिख रहे हैं । बंगाल में तृणमूल पार्टी  , बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और वाम दलों को छोड़कर कोई भी विपक्षी दल खुलकर इन आंदोलनों में दलीय भागीदारी दिखाने से किनारा करता नज़र आ रहा है । बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी व कुछ अन्य दलों की निष्क्रियता या सधी बधी प्रतिक्रिया संशय के दायरे में है, हालांकि इन दलों से आम जनता को भरपूर समर्थन की उम्मीदें थी । 
 इसी खौ़फ का परिणाम है कि आंदोलनों के लिए विख्यात बल्कि आंदोलनों से ही उबरे और सत्ता हासिल किए आम आदमी पार्टी और उनके नेता अरविंद केजरीवाल भी दिल्ली चुनाव के चलते दिल्ली में जारी शाहीन बाग के आंदोलन में खुलकर व साफ तौर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने से कतरा गए हैं । 
अब सवाल उठता है कि देशभर में हो रहे इस विरोध में सड़कों पर उतरे नागरिकों के साथ कौन है । निश्चित रूप से देशभर के प्रबुद्धजन और सिविल सोसायटी से जुड़े लोग आत्म संज्ञान से इस संभावित कतरे के खिलाफ आंदोलनरत हैं । देश का हर वो जागरूक और नागरिकबोध और संविधान के लिए समर्पित हर संवेदनशील नागरिक स्वस्फूर्त इस आंदोलन में शामिल है । सरकार और विशेषरूप से भाजपा के लिए यही तकलीफदेह है कि विपक्षी दलों की बजाय आम नागरिक विरोध में सड़कों पर उतर आया है । इसमें भी महिलाओं की भागीदारी से भाजपा और ज्यादा परेशान है । वो हर तरह से यहां तक कि अपने गुर्गों के जरिए महिलाओं को अपमानित करने ओछी टिप्पणियों से भी गुरेज नहीं कर रही है । दमन के तमाम हथकण्डे अपना रही है । अब तो महिलाओं और बच्चों का लिहाज तक ताक पर रख दिया है ।
दरअसल हिन्दू राष्ट्र के स्वप्न को पूरा करने की राह में एनपीआर और एनआरसी सबसे अहम पड़ाव है जिसे भाजपा हर हालत में लागू करना चाहेगी । अपनी मंशा को पूरा करने भाजपा ने सरकार की शक्तियों के साथ अपना पूरा संगठन झोंक दिया है । इस ताकत का सामना करने नागरिक या सिविल सोसायटी के प्रतिरोध के साथ एक संगठित शक्ति का होना निहायत जरूरी है । इसके लिए लोकतंत्र के पैरोकार तमाम राजनैतिक दलों को सतही राजनैतिक आकांक्षाओं महत्वाकांक्षाओं को ताक में रख संगठनात्मक रूप से पूरी ताकत बटोरकर इस नागरिक संघर्ष में आम जन के साथ शामिल होना पड़ेगा तभी कुछ सकारात्मक परिणाम की उम्मीद की जा सकती है ।

जीवेश चौबे
jeeveshprabhakar@gmail.com


(जीवेश चौबे कानपुर से प्रकाशित वैचारिक पत्रिका अकार में उप संपादक हैं। कवि, कथाकार एवं समसामयिक मुद्दों पर लगातार लिखते रहते हैं।