Saturday, October 19, 2019

क्यों ज़रूरी हो गया है सबके लिए गांधी विमर्श----जीवेश चौबे

एक दौर था जब गांधी की आलोचना वामपंथी या क्रान्तिकारी रुझान  होने का प्रथम प्रमाण माना जाता था और गांधी से घृणा करना दक्षिणपंथी होने की ज़रूरी शर्त। लम्बे समय तक गांधी व उनके विचारों को लेकर जहां लेफ्ट पार्टियों में वैचारिक असहमति का वातावरण बना रहा और दक्षिणपंथियों के बीच गांधी हमेशा से घृणा और द्वेष के पर्याय माने जाते रहे। गांधी के अहिंसक व सत्याग्रही सिद्धांतों को लेकर वामपंथियों का घोर विरोध रहा। मार्क्स, लेनिन, माओ और देश में भगत सिंह को अपना आदर्श मानने वाले गांधी के अहिंसक आंदोलन की प्रासंगिकता और उनके विचारों की लगातार आलोचना करते रहे।
आजादी के पूर्व से ही सामाजिक बदलाव और समाजवाद के लिए हिंसक क्रांति के पैरोकार रहे वाम दल व मार्क्सवादी वर्ग ने गांधी के सिद्धांतों और आज़ादी के लिए अपनाए जा रहे अहिंसक आंदोलन को कभी अहमियत या मान्यता  नहीं दी। आज भी वाम दल अपने दलीय संगठनात्मक स्तर पर घोषित तौर से गांधी पर केन्द्रित कोई आयोजन नहीं कर रहे हैं। मगर आज ऐसा क्या हुआ कि तमाम वाम रुझान वाले बुद्धिजीवी और संबद्ध संगठन गांधी को सर आंखों पर बिठा रहे हैं और वाम दलों पर दबाव भी बना रहे हैं ।
यही बात उन दक्षिणपंथियों और फासीवादियों पर भी लागू होती है । आजादी के पहले बल्कि अपनी स्थापना के समय से ही गांधी से निजी विद्वेष व घृणा रखने वाले और देश का दुश्मन बताने वाले आज क्यों गांधी को स्वीकार करने को मजबूर हो रहे हैं। हालांकि यहां भी यही देखा जा सकता है कि आरएसएस खुले व घोषित तौर पर गांधी पर कोई आयोजन नहीं कर रहा मगर इससे संबद्ध और पोषित दल भाजपा व अन्य संगठन गांधी जयंती पर कई आयोजन कर रहे हैं। निश्चित रूप से दक्षिणपंथी मन से इसे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि एक कट्टरपंथी वर्ग ऐसा भी है जो गांधी के बरक्स गोड़से के महिमामंडन में लगातार पूरी ताकत से लगा हुआ है ।
इसी के चलते गांधी जयंती के अवसर पर सोशल मीडिया में गोड़से वंदना के असंख्य उद्धरण सामने आए जिसे न तो संघ और न ही भाजपा नीत केन्द्र सरकार ने रोकने या कार्यवाही करने का कोई प्रयास किया जो साफ-साफ इनकी मंशा स्पष्ट करता है। यह बात भी गौरतलब है कि गांधी के जीवित रहते और आजादी के काफी बाद तक कॉंग्रेस के भीतर भी वाम रुझान का एक वर्ग रहा जो लगातार उनकी सत्य, अहिंसा और सहिष्णुता की नीतियों पर आक्रामक रुख अपनाए रहा। गौरतलब है कि आजादी के पूर्व दौर में लोहिया और बहुत से समाजवादी रुझान के कॉंग्रेसी गांधी की नीतियों व विचारों का समर्थन करते रहे ।
इस बात पर भी ग़ौर किया जाना चाहिए कि दो राष्ट्रों की अवधारणा के उन्नयन के पश्चात न सिर्फ कट्टरपंथी हिन्दू बल्कि मुसलमानों का एक कट्टरपंथी जिन्ना समर्थक वर्ग भी पाकिस्तान बनने की राह में गांधी को बड़ा रोड़ा मानता रहा, मगर इस कट्टर वैचारिक विरोध के बावजूद इतिहास में ऐसी कोई घटना या वाक्या नहीं मिलता कि गांधी पर कभी भी किसी कट्टरपंथी मुसलमान ने कोई हमला किया हो। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है। दूसरी ओर बंटवारे को लेकर कट्टरपंथी हिंदुओं की सोच व धारणा बहुत अलग थी। मुसलमानों का पक्ष लेने और मुसलमानों को तरजीह देने से नाराज दक्षिणपंथी कट्टर हिंदू समाज वैचारिक मतभेद की बजाय समाज में गांधी के प्रति घृणा फेलाने में लगा रहा।

गांधी के प्रति लगातार द्वेष, घृणा फैलाने की सुनियोजित मुहिम के चलते यह कट्टरपंथी वर्ग लगातार गांधी पर आक्रामक रहा और अंततः उनकी हत्या भी एक कट्टरपंथी हिन्दू ने ही की। कट्टरपंथियों की इस करतूत का अंजाम हालांकि उन्हें आजादी के बाद लगभग आधी सदी तक भुगतना पड़ा मगर अन्ततः वे अपने मकसद में कामयाब रहे और आज गांधी पिछली सदी की तरह पूजनीय और मान्य नहीं रहे हैं। मगर फिर भी यह कटु सत्य है कि आज भी उनकी उपेक्षा संभव नहीं है इसीलिए गांधी को लेकर चलने की मजबूरी अभी भी बनी हुई है मगर अब भी उन पर पीछे से लगातार हमले जारी हैं ।
आज पूरा विश्व इस बात को स्वीकार रहा है कि ऐसे समय में जब न सिर्फ भारत बल्कि पूरे विश्व में हिंसा का बोलबाला है, फासीवादी ताकतें लगातार सर उठा रही हैं। एक ओर जहां कई राष्ट्र दक्षिणपंथी फासीवाद और अधिनायकवाद की गिरफ्त में हैं और आपस में उलझ रहे हैं वहीं पूंजीवाद और नवउदारवाद अपनी असफलता के चरम पर आवारा पूंजी की गिरफ्त में इस कदर क्रूर और अनियंत्रित हो गया है कि पूरी मानवता खतरे में पड़ गई है। गरीबी, भुखमरी और कुपोषण लोगों को लील रहा है। ऐसे निर्मम और खतरनाक दौर में गांधी के विचार बरबस प्रासंगिक हो जाते हैं। गांधी के विचार इसलिए भी प्रासंगिक हो जाते हैं क्योंकि उन्होंने स्वयं इन विचारों को अपने आचरण में ढालकर प्रयोग किया, उन विचारों को सत्य और अहिंसा की कसौटी पर जांचा-परखा और इनकी प्रामाणिकता सिद्ध करके दिखाई।
अब विश्व महसूस भी करने लगा है कि गांधी के बताए रास्ते पर चलकर ही विश्व
को नैराश्य, द्वेष और प्रतिहिंसा से बचाया जा सकता है। हाल के वर्षों में गांधी के शाश्वत मूल्यों सत्य अहिंसा और सहिष्णुता की प्रासंगिकता बढ़ी है। गांधी के इन मूल्यों को पूरे विश्व ने उनके जन्मदिवस 2 अक्तूबर को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में घोषित कर गांधी विचार के प्रति अपनी सहमति, सम्मान और विश्वास प्रकट किया है। गांधी सत्य, अहिंसा व सहिष्णुता के केवल प्रतीक भर नहीं हैं बल्कि मुकम्मल मापदण्ड भी हैं जिन्हें पूरे विश्व ने स्वीकारा है और विश्व भर में उनके विचारों को जीवन में उतारने की कोशिश हो रही है ।

तो क्या अब गांधी के वैचारिक व धुर विरोधियों को भी लगने लगा है कि गांधी के बारे में उनकी अवधारणा संकुचित थी? क्या उन्हें विश्वास होने लगा है कि गांधी के नैतिक नियम पहले से कहीं और अधिक प्रासंगिक और प्रभावी हैं और उनका अनुपालन होना चाहिए?
प्रश्न यह उठता है कि तमाम असहमतियों और विद्वेष के बावजूद आखिर क्यों गांधी सबके लिए विमर्श का अनिवार्य विषय हो गए हैं? गांधी की अनिवार्यता के प्रश्न पर यह समझना भी जरूरी है कि विभिन्न राजनैतिक दलों और संगठनों के अपने हित ही सर्वोपरि हैं अतः दोनों ही पक्ष गांधी के उन्हीं विचारों और सिद्धांतों से सहमत होते दिखाई देंगे जो उनकी विचारधारा और उनकी सहूलियतों के मुताबिक सुविधाजनक होंगे, अन्य सिद्धांतों से दोनों ही आंखें मूंदे रहेंगे। इससे पहले यह समझना होगा कि गांधी जी राजनीतिक आजादी के साथ सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक आजादी के लिए भी चिंतित थे।
गांधी की ये प्रमुख चिंता रही कि समावेशी समाज की संरचना को कैसे मजबूत किया जाए। गांधी जहां एक ओर साम्यवाद के मामले में संघर्ष की बजाय समन्वय के हिमायती थे वहीं धर्म के मामले में भी वे कट्टरता व पाखंडरहित पीर पराई जाणे रे के पक्षधर थे। ये दोनों ही बातें देश के बहुसंख्यक समाज की स्थाई मानसिकता कही जा सकती हैं। जो इसे बदलने में लगे हैं वो संभव है भविष्य में सफल हो जएं मगर फिलहाल इस विशाल जन के स्थाईभाव के खिलाफ जाने का कोई भी राजनैतिक दल साहस नहीं कर पा रहा है। यही वजह है कि आज गांधी सभी के लिए अनिवार्य विमर्श बने हुए हैं ।
 jeeveshprabhakar@gmail.com

Thursday, October 3, 2019

गांधी 150 वीं जयंती पर प्रभाकर चौबे स्मृति व्याख्यान व सम्वाद में असद ज़ैदी व गौहर रज़ा के व्याख्यान

गांधी की बचाने की ज़िम्मेदारी नई नस्ल पर है : गौहर रज़ा

  20 वी सदी में भारत  ने विश्व को दो महान हस्तियां दीं , एक गांधी और एक नेहरू शायर, विचारक एवं वैज्ञानिक गौहर रजा ने उक्त बात प्रभाकर चौबे फाउंडेशन व पत्रकारिता विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में गांधी की 150 वीं जयंती के अवसर पर आयोजित प्रभाकर चौबे स्मृति व्याख्यान एवम सम्वाद में कहीं । कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वरिष्ठ सम्पादक ललित सुरजन थे । कार्यक्रम का संचालन ने करते हुए प्रभाकर चौबे फाउंडेशन के अध्यक्ष श्री जीवेश चौबे ने फाउंडेशन के उद्देश्यों से अवगत कराया।
        गांधी, स्वतंत्रता संग्राम और आजाद भारत की कल्पना विषय पर अपने विचारोतजक उदबोधन में गौहर रज़ा ने कहा कि आज हम इतिहास पर नजर डालें तो पाएंगे कि अशोक, बिस्मार्क, सिकंदर, नेपोलियन , अकबर या हिटलर इन सभी की जो भी भूमिका रही समाज ने उन्हें उसी रूप में स्वीकार किया न कि किसी बदलाव के साथ. गांधी जी ने बराबरी की बात की समाज के सभी वर्गों को समान अधिकार देने की बात की लेकिन आज के समाज में हम बराबरी की बात करते तो हैं लेकिन बराबरी को स्वीकार नहीं कर पातेउन्होंने कहा गांधी जी की बुनियादी दृष्टि में  राजनीति  व समाज था न कि आध्यात्म, उन पर हिंदू, इस्लाम, जैन, बौद्ध आदि सभी धर्मों के दर्शन का प्रभाव था. गरीब हो या अमीर सबके लिए उनके वचन एक जैसे ही होते थे.तमाम लोग उन्हें समझौता परस्त कह सकते हैं लेकिन मैं इसे बीच का रास्ता निकालने वाले रणनीतिकार के रूप में देखता हूं, ताकि किसी  प्रकार के वैमनस्य को टाला जा सके.वैज्ञानिक गौहर  रजा ने कहा कि  हम बड़ी- बड़ी बातें बोलते हैं लेकिन दलितों और निचले तबके के लोगों और महिलाओं के प्रति हमारा क्या नजरिया है ये सोचने का विषय है. हमारा स्वतंत्रता आंदोलन इन सभी ढांचों को तोडने का प्रयास था, उन्होंने कहा कि आज गांधी  को बचाने की जिम्मेदारी हमारी अगली नस्ल यानि आप युवाओं की है. गांधी के ख्वाबों के हिंदुस्तान में सब बराबर हैं जिन्हें उनके ख्वाबों का हिंदुस्तान पसंद नहीं वही गांधी के विचारों पर हमला कर उन्हें नए रूप में पेश करना चाहते हैं.
    इस अवसर पर  वरिष्ठ कवि असद जैदी  ने  गांधी जी की नई तालीम व भाषा पर उनके विचार  विषय पर कहा कि गांधी मजबूरी नहीं मजबूरों और मजदूरों के नायक थे,समाज के सबसे निचले तबके के मजबूर, मजलूम लोग गांधी की चिंताओं में प्रमुख थे.    उन्होंने कहा कि गांधी जी ने दलितों वंचितों किसानों की लड़ाई का बीड़ा उठाया, वे समाज के उच्च वर्गों के हितों के लिए नहीं बल्कि अंतिम व्यक्ति के लिए लड़े,उन्हें किसी ने राष्ट्रपिता की पदवी प्रदान नहीं की बल्कि उन्होंने इसे कमाया,ये किसी सरकार की देन नहीं थी बल्कि राष्ट्रपिता के तौर पर समाज के हर वर्ग में उनकी स्वीकार्यता रही.  बापू को राष्ट्रपिता की पदवी दी नहीं गई उन्होंने इसे कमाया ।

           इस मौके पर  मुख्य अतिथि वरिष्ठ पत्रकार श्री ललित सुरजन ने भी गांधी जी के आदर्शों पर व्याख्यान दिया व युवाओं से गांधी जी के जीवन से प्रेरणा लेने की अपील की, कार्यक्रम की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति जी आर चुरेंद्र ने की तथा स्वागत भाषण कुलसचिव डॉ. आनंद शंकर बहादुर ने दिया।अंत मे प्रभाकर चौबे फाउंडेशन के अध्यक्ष जीवेश चौबे ने आभार व्यक्त किया। इस अवसर पर आमन्त्रित अतिथियों का शाल श्रीफल व स्मृति चिन्ह से सम्मान भी किया गया । संयोजन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. नरेंद्र त्रिपाठी थे. कार्यक्रम के उपरांत प्रसिद्ध गौहर रजा, असद जैदी व कवि महेश वर्मा का काव्यपाठ का आयोजन भी किया गया.