Friday, September 27, 2019

दंतेवाड़ा की जीत भूपेश बघेल की नीतियों पर जनता की मुहर है --जीवेश चौबे

दन्तेवाड़ा की  जीत निश्चित रूप से मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की नीतियों और जनोन्मुखी योजनाओं की सफलता
की जीत है । एक बात पर ग़ौर किया जाना ज़रूरी है कि इस उपचुनाव के पूर्व लोकसभा चुनाव में कॉंग्रेस को प्रदेश में करारी हार का सामना करना पड़ा हालांकि कॉंग्रेस ने बस्तर में जीत हासिल की मगर लोकसभा चुनाव में मिली करारी शिकस्त का मनोवैज्ञानिक दबाव निश्चित रूप से पूरी पार्टी पर हावी था । लोकसभा चुनाव में हालांकि राष्ट्रीय मुद्दे प्रमुख होते हैं और मतदाता की मानसिकता अलग होती है । अतः इस उप चुनाव में भूपेश सरकार का लगभग 10 माह का कार्यकाल  निश्चित रूप से कसौटी पर था ।  
आदिवासियों को जमीन वापसी का निर्णय हो या वन उत्पादों के समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी या फिर खदानो , प्रकृतिक संसाधनो पर मुख्य मंत्री भूपेश बघेल का रुख , इस जीत के बाद यह मानना ही होगा कि तमाम किन्तु परन्तु से इतर बस्तर की जनता ने  भूपेश बघेल सरकार द्वारा आदिवासी अंचल और आदिवासियों के लिए विगत लगभग 10 माह में किए गए कार्यों पर अपनी मुहर लगाई है । यहां इस बात पर गौर करना जरूरी है कि इन 10 माह के दौरान लगभग 3 माह आचार संहिता के कारण तमाम कल्याणकारी योजनाओं पर अमल नहीं किया जा सका ।
            उल्लेखनीय है कि स्व. महेन्द्र कर्मा के रहते दंतेवाड़ा सीट पर कॉंग्रेस का लगातार दबदबा बना रहा । महेन्द्र कर्मा की नृशंस हत्या के पश्चात 2013 में उनकी पत्नी देवती कर्मा चुनाव जीतीं थीं मगर  पिछली बार 2018 में हुए विधान सभा चुनाव में कर्मा परिवार के अंदरूनी पारिवारिक कलह व असंतोष के कारण भाजपा को लाभ मिला और भाजपा के भीमा मंडावी चुनाव जीत गए थे । इसके बावजूद मुख्य मंत्री ने एक बार फिर देवती कर्मा पर ही भरोसा किया और व्यक्तिगत रुचि लेकर कर्मा परिवार के आपसी मतभेद दूर करवाने में सफलता हासिल की । इसके साथ ही पार्टी संगठन को विश्वास में लेकर मुख्यमंत्री के नेतृत्व में सुनियोजित रणनीति व पूरी ताकत के साथ चुनाव लड़ा गया जिसके परिणामस्वरूप कॉंग्रेस ने भाजपा से अपनी सीट वापस हासिल करने में कामयाबी हासिल की ।

इस जीत का फायदा निश्चित रूप से अगले माह होने वाले चित्रकोट उप चुनाव में मिलेगा । इस जीत से जहां केन्द्रीय नेतृत्व व संगठन में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का कद बढ़ेगा, उनकी साख बढ़ेगी और उन पर विश्वास बढ़ेगा वहीं उनका खुद का आत्मविश्वास भी मजबूत होगा  ।     

Friday, September 20, 2019

छत्तीसगढ़ में छात्रसंघ चुनाव क्यों नहीं ---- जीवेश चौबे

विगत वर्षों में कॉलेज युनिवर्सिटी में छात्रसंघ चुनाव न कराए जाने का चलन आम हो गया है । तमाम सरकारें इससे बचती हैं और मनोनयन की प्रक्रिया पर ज्यादा जोर देती हैं । विडंबना ये है कि जो भी दल सत्ता में होता है वो चुनाव से बचना चाहता है और जो विपक्ष में होता है वो इसकी पैरवी करता है । छत्तीसगढ़ में भी इसी तर्ज पर इस साल छात्रसंघ चुनाव की बजाय मनोनयन की राह पर चलने का फरमान जारी किया गया है ।   प्रदेश में नई सरकार के गठन के पश्चात यह संभावना प्रबल हुई थी कि बरसों से कभी हां कभी ना से जूझ रहे छात्रसंघ चुनाव अब नियमित रूप से हो सकेंगे । मगर हाल ही में प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री उमेश पटेल ने इस वर्ष छात्रसंघ चुनाव न हो पाने की घोषणा कर छात्रों  में मायूसी पैदा कर दी है। मंत्री जी का कहना है कि इस वर्ष निकाय चुनावों के मद्दे नजर ये फैसला लिया गया है । ये तर्क गले नहीं उतरता
शहीदे आजम भगत सिंह ने विद्यार्थी और राजनीतिशीर्षक से आजादी के पूर्व एक  महत्वपूर्ण लेख लिखा था, जो जुलाई, 1928 में किरती में प्रकाशित हुआ था  उन्होने उस दौर में लिखा था - जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज अक़्ल के अंधे बनाने की कोशिश की जा रही है. इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें ख़ुद ही समझ लेना चाहिए. हम यह मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं जो सिर्फ़ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाए. ऐसी शिक्षा की ज़रूरत ही क्या है?  .
हमारे देश में  छात्र आंदोलनों का एक गौरवमयी इतिहास है। गौरतलब है कि स्वतंत्रता आन्दोलन में छात्रों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया।1920 में महात्मा गांधी के आह्वान पर छात्रों ने अपने कैरियर को दांव पर लगाते हुए स्कूल और कॉलेजों का बहिष्कार किया। । लाखों छात्रों ने सरकारी स्कूल छोड़ा  । 1942  के भारत छोड़ो आंदोलन में  छात्रों – युवकों ने जो भूमिका निभाई वह यादगार है। छात्रों ने हमेशा राजनैतिक और समाज-परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आजादी के बाद से ही मगर  सत्तारूढ़ दलों को छात्र संघटन खटकने लगे थे और ऐसा कहा जाने लगा कि छात्र केवल पढ़ाई पर ध्यान दें, राजनीति न करें बंदिशों की तमाम कोशिशों के बावजूद भी समय समय पर छात्रों ने न सिर्फ कैम्पस बल्कि देश की विभिन्न ज्वलंत समस्याओं को लेकर लगातार आंदोलन किए । छात्र आंदोलन की सबसे उल्लेखनीय भूमिका आपातकाल के खिलाफ सामने आई जिसने आपात काल की चुनौती का मजबूती से सामना करते हुए देश में पुनः लोकतंत्र  बहाल किया। इस आंदोलन से उबरे और छात्र राजनीति से परिपक्व हुए कई नेता आज मुख्यमंत्री सहित कई महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हैं । विडंबना ये है कि आज इनमें से ही कई नेता छात्र राजनीति से बचते हैं और छात्रों को राजनीति से दूर रहने का उपदेश देते हैं ।अक्सर जो दल विपक्ष में होते हैं वे अपनी राजनीति के लिए छात्रों का, अवसर के अनुसार भरपूर उपयोग करते हैं ।  
छात्र संघ चुनाव के विरोध में सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से यह दलील दी जाती है कि इसमें धनबल और बाहुबल का बोलबाला हो गया है तथा इससे पढ़ाई का माहौल दूषित होता है। यहां प्रश्न उठता है कि कई राज्यों में दशकों से छात्र संघ चुनाव नहीं हुए तो क्या यहां के परिसर हिंसामुक्त हो गए और दिल्ली विश्वविद्यालय तथा आज की सुर्खियों में रहा आया जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय यानि जे एनयू  जहां प्रतिवर्ष छात्र संघ चुनाव होते हैं, वहां की शिक्षा व्यवस्था क्या ध्वस्त हो गई? कॉलेजों और यूनिवर्सिटी में छात्र संघ चुनाव को लेकर  2006 में पूर्व मुख्य चुनाव  लिंग्दोह ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय को जो रिपोर्ट दी थी उसमें उम्मीदवारों की आयु, उनके शैक्षणिक रिकॉर्ड, क्लास में उपस्थिति के प्रतिशत और इनमें काफी सिफारिशें हैं मगर ये   व्यवहारिक धरातल पर खरा नहीं उतरती ।  सुप्रीम कोर्ट ने छात्र संघ चुनावों के लिए  निर्णय देते हुए कहा कि छात्र संघ चुनाव लिंग्दोह समति के सुझावों के आधार पर ही कराए जाएं अन्यथा उन पर रोक लगा दी जाए इसका देश भर में विरोध भी हुआ ।  इस वजह से तमाम राज्यों में छात्र संघ चुनाव कई साल तक बाधित रहे
 छात्रों से किसे समस्या है,यह एक गंभीर प्रश्न है ।  दरअसल जो  छात्र आंदोलन विचारों से  उपजते हैं वे समाज को शिक्षित भी करते हैं और एक देश में जनतांत्रिक समाज निर्माण में सहायक भी होते हैं। अपनी मांगों के लिए आंदोलन करने वाले छात्र आंदोलन तो होते रहते हैं, लेकिन व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन या कहें इंकलाब के लिए किए जाने वाले छात्र आंदोलन पूरी व्यवस्था में जबरदस्त परिवर्तन लाते हैं। कई बार व्यवस्था परिवर्तन एवं व्यापक उद्देश्य के लिए आंदोनल  आवश्यक भी होता है। इसमें छात्रों एवं युवाओं की ही भूमिका प्रमुख होती रही है ।  छात्र ही समाज, व्यवस्था तथा राजनीति में परिवर्तन लाने में सक्षम है। छात्रों को राजनीति न करने का उपदेश देना यथात्थितिवाद की पैरवी करना है । सत्ता मे  कब्जा जमाए लोग छात्रों के राजनीति में आने को लेकर भौंवें तान रहे हैं। दरअसल ये वो लोग हैं जिनकी दृढ़ मंशा है कि न सिर्फ छात्र बल्कि शिक्षक साहित्यकार, कलाकार, किसान, मजदूर, व्यापारी, कर्मचारी   सहित ऐसा हर वर्ग जो समाज को देश को नए बदलने की सोच रखता है , राजनीति न करेंवे ऐसे लोगों को जो लोग सत्ता नहीं व्यवस्था में परिवर्तन की बात करते हैं  राजनीति में आने से रोक देना चाहते हैं ।
कालेज एवं  यूनिवर्सिटी ही वो पहली पायदान होती है जहां छात्रों के भटके विचार एक नया  रूप ग्रहण करते हैं और परिपक्व भी होते हैं। राजनीति की राह का पहला कदम कॉलेज में ही  पड़ता है । लोकतांत्रिक प्रक्रिया और मूल्यों की प्राथमिक समझ कॉलेज से ही विकसित होती है । इस उम्र में उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक विचार करने, सोचने से बाधित करना, उनकी सोच और सकारात्मक ऊर्जा पर पानी डालना है। विचारहीन युवा विमर्शहीन समाज अराजकता की ओर अग्रसर होता है जो देश व समाज में  अव्यवस्था ही लाती है । छात्र संघ और छात्र राजनीति लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करने में सहायक होता है क्योंकि इससे छात्रों का राजनीतिक प्रशिक्षण सुनिश्चित होता है और नेतृत्व क्षमता विकसित होती है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज देश के करीब  80 फीसदी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में छात्र संघ नहीं है। अनेक राज्यों ने छात्रसंघों के चुनाव पर प्रतिबंध लगा दिए है। यह छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकार पर हमला है।  आज जब देश में लोकतंत्र के बुनियादी मूल्य, लोकतांत्रिक संस्थाएं और सामाजिक ताना बाना गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है युवाओं खासकर छात्रों को राजनीति से दूर रखने की कोशिशों के दूरगामी दुष्परिणाम होगें ।

jeeveshprabhakar@gmail.com

Saturday, September 14, 2019

हिन्दी दिवस पर ----

वरिष्ठ साहित्यकार स्व. श्री प्रभाकर चौबे का लेख

जब अंग्रेज यहां आए तो अपने बंगले में काम करने के लिए हिन्दुस्तानियों को रखा। उन्हें काम चलाऊ अंग्रेजी सिखाई और समय के साथ वे सीखते भी चले। इनकी अंग्रेजी को बटलर अंग्रेजीकहा जाने लगा। बटलर का मतलब आक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार द चीफ मेल सावेंट ऑफ द हाउसहै। अंग्रेजी हिंदी डिक्शनरी में बटलर का अर्थ है प्रधान सेवक या अनुचर जिसके अधिकार में शराब की पेटियां और चांदी के बर्तन रहते हैं। बहरहाल इन बटलरों को कुछ शब्द सिखाए गए। वे अपने साहब से कहते लंच टेकिंग या नॉट।टुडे कहां डिनर…‘ वाईन फिनिस्ड, ब्रिंग डिनर मदर आफ यू कालिंग।’ ‘वाटर इज हाट, गो बाथ।इसी तरह से और साहब भी समझ जाते कि यह बंदा बताना क्या चाह रहा है।
 बहरहाल आज से 50-60 साल पहले कालेजों में वे छात्र जिनकी अंग्रेजी अच्छी होती, अच्छी अंग्रेजी बोलते-लिखते वे कमजोर अंग्रेजी वाले की अंग्रेजी को बटलर अंग्रेजीकहतेबटलर अंग्रेजी बोलता है। बटलर अंग्रेजी चिढ़ाने के लिए कहा जाता और यह हीनता का भाव भी भरता। उन दिनों हमारे शहर में ऐसा बटलर अंग्रेजी को लेकर एक चुटकुला चला था इस तरह का। काफी हाउस में प्रथम वर्ष के दो छात्र बैठे बातें कर रहे थे।
एक ने पूछा- सिगरेट इज।
दूसरे ने कहा-यस इज।
पहले ने पूछा- वेअर?’
दूसले ने जवाब दिया-इन पाकेट?’
पहले ने कहा-डू इट आऊट आफ पाकेट।
पहले ने कहा-यस
दूसरे ने कहा-गिव मी वन।
फिर पूछा-माचिस इज।
दूसरे ने कहा-यस इज।फिर पहले ने कहा-बर्न द सिगरेट।
उससे भी पहले बटलर अंग्रेजी पर मजाक स्कूलों में भी शुरू हो चुका था।
सर ने छात्र से पूछा-वाय डिड यू कम लेट?’
छात्र ने जवाब दिया-सर, इट वाज रेनिंग झम-झम-झम।
बगल में बस्ता लिए दो-दो हम।
लोग फिसल गए
गिर गए हम।
सो माई डियर सर
आई कुड नाट काय
इसे बटलर अंग्रेजी कहते। फादर ने आज यार बहुत एडवाइस दिया। मदर यार बाहर गई तो सिगरेट बर्न किया। इतने में वह आ गई। जिसे भी कहा जाता, जिस पर भी फब्ती कसी जाती कि बटलर अंग्रेजी बोलता है वह शर्म से गड़ जाता। पानी-पानी हो जाता।
बटलर अंग्रेजी का किस्सा इसलिए कि आज हमारे कुछ हिन्दी भाषा के अखबार बटलर हिन्दीलिखे जा रहे हैं और कहते हैं कि यही आज की भाषा है। लगता है मैनेजमेंट उन्हें जनता की भाषा भ्रष्ट करने के लिए ही रखती है। आज का हिन्दी अखबार किसी भी तिथि का उठा लीजिए। आपको मजेदार बटलर हिन्दी के ढेरों उदाहरण मिल जाएंगेपूरा पृष्ठ ही बटलर हिन्दी से भरा मिलेगा- आज स्टूडेंट ने फेस्टीवल मनाया। स्टूडेंट एक्जाम फार्म भरने की तैयारी में लगे। टाउन व विलेज में महिलाओं ने दिवाली पर काऊ की पूजा की। सावन में ग्रीन दृश्य के लिए लोग तरस रहे। होली पर कलर की सेल में बढ़ोतरी। टीचर को भी हॉली डे चाहिए। टीचर को प्रापर ट्रेनिंग नहीं

समझ नहीं आता कि हम हिन्दी अखबार पढ़ रहे हैं या अंग्रेजी? दरअसल यह न हिन्दी अखबार है न हिन्दी। यह बटलर अखबार है। यह सही है कि भाषा में नये-नये शब्द जुड़ते हैं तो भाषा समृद्ध होती है। हिन्दी में भी लोकभाषा सहित दिगर भाषा के कई शब्द हैं जो हिन्दी के ही होकर रह गए हैं। उन्हें अन्य भाषा का नहीं कहा जाता। कुछ शब्दों का अनुवाद भी नहीं करना चाहिए- जैसे मोबाईल, टेलीफोन, अब मिस काल’  का क्या हिन्दी या क्या मराठीमिस काल पूरा अर्थ देता है। अत: यह सर्वव्यापी बन गया है और सहज स्वीकार्य हो गया है। काम वाली बाई भी साथी से कहती है एक ठन मिस काल मार देबे।हिन्दी में भी कहते हैं- मिस काल कर देना। अंग्रेजी के ढेरों शब्द हैं। हिन्दी की तासीर के हो गए हैं। इन पर किसी को आपत्ति नहीं होती। लेकिन शब्द ग्रहण करना और किसी भाषा का पूरा व्याकरण ही भ्रष्ट करने पर तुल जानादोनों में फर्क है।

 आज कुछ अखबार हिन्दी व्याकरण की ही कमर तोडऩे पर उतारू हो गए हैं। न क्रिया न सर्वनाम न कर्ता न कर्मसकर्मक अकर्मक क्रिया का भेद ही मिटा रहे। पहचानना कठिन कर रहे। ये अखबार या कहें पत्रकार ऐसी भाषा क्यों लिख रहे हैं। किसके दबाव में लिख रहे हैं। इसमें कहीं न कहीं कोई न कोई षडय़ंत्र है। हिन्दी को भ्रष्ट करने की मुहिम चला दी गई है। और यह अनुवाद भी नहीं है। मजेदार बात यह कि टी.वी. के न्यूज चैनल्स के लोग तो शुद्ध हिन्दी बोल रहे हैं- वे हिन्दी-अंग्रेजी का घालमेल नहीं करते उल्टे आश्चर्य है कि पूरे कार्यक्रम संचालन के समय वे हिन्दी का शुद्ध उच्चारण करते हैं। एक भी एंकर अंग्रेजी भाषा का कोई शब्द नहीं बोलता और वह ध्यान रखता है कि हिन्दी में ही बात की जाए।

क्या बात है कि हिन्दी अखबार ही हिन्दी को भ्रष्ट करने में पिल पड़े हैं या कहें हिन्दी को भ्रष्ट करने की सुपारी इन अखबारों ने ले रखी हो। इनकी भाषा से अत्यन्त दुख होता है लेकिन धड़ल्ले से अखबार चल रहे हैं। समय के अनुसार भाषा बदलती है। नया रूप ग्रहण करते चलती है- 18वीं-19वीं शताब्दी की हिन्दी आज नहीं चल सकती न एकदम संस्कृतनिष्ट हिन्दी ही चल सकती। आज तो आज की जरूरत के अनुसार भाषा का रूप बनेगा। लेकिन इसका यह अर्थ तो नहीं कि वाक्य विन्यास की आत्मा को ही मार दिया जाए। ये क्या खेल चल रहा है? अजब भाषा पैदा की जा रही है। इस तरह की भाषा कोई बोलता नहीं। अंग्रेजी मीडियम में पढऩे वाले बच्चे भी या तो अंग्रेजी बोलते हैं अथवा अपनी मातृभाषा। एक अंग्रेजी माध्यम में भाषा पर ध्यान दिया जाता नहीं। उन्हें सेल्समैन गढऩा है, अत: बोलना सिखाया जाता है। लिखो कैसा भी। व्याकरण और स्पेलिंग पर उतना ध्यान दिया जाता नहीं।

आज बटलर हिन्दी पर बात क्यों? यह उचित सवाल है। दो दिन बाद हिन्दी दिवस है। 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस मनाया जाता है। उस दिन हिन्दी की प्रगति पर चिंता की जाती है। दरअसल हिन्दी दिवस का साहित्य लेखन से कोई सम्बंध नहीं है। साहित्य लिखा जाए। हिन्दी दिवस पर यह देखा जाता है सरकारी काम-काज में हिन्दी की कितनी प्रगति हुई? क्या स्थिति है? यह राजभाषा क्रियान्वयन समिति देखती है। देखा जाए तो हिन्दी को चलन में रखने में सरकारी उद्यमों का बड़ा योगदान है। बैंक, बीमा कंपनी, रेल सेवा, हवाई सेवा, सरकारी दफ्तर, इन संस्थानों ने हिन्दी की जबरस्त व उल्लेखनीय सेवा की है। दक्षिण में भी रेल आने का समय हिन्दी में उद्घोषणा की जाती है। भाषा तो जोडऩे वाली होती है और हिन्दी में जोडऩे का जबरदस्त गुण है। हिन्दी पूरी लोकतांत्रिक भाषा है। यह किसी से ईष्र्या भी नहीं करती न कुछ मांगतीदेती ही है। भारतीय भाषाओं की प्राय: पूरी रचनाएं हिन्दी में अनूदित हैं। महाराष्ट्र का दलित साहित्य हिन्दी में मिल जाएगा। हर प्रादेशिक भाषा का उत्तम साहित्य हिन्दी में उपलब्ध है- न केवल भारतीय भाषाओं के अनुवाद वरन् विश्व साहित्य भी और आज का साहित्य हिन्दी में आ जाता है। हिन्दी का यह गुण उसे सर्व स्वीकार्य बनाता है। लेकिन हिन्दी के कुछ अखबार उसकी संरचना पर ही प्रहार कर रहे हैं।

यह ठीक है कि आज अंग्रेजी रोजी-रोजगार की भाषा है। अंग्रेजी पढऩा चाहिए। इसका यह मतलब नहीं कि हिन्दी को  भ्रष्ट किया जाए। हिन्दी में भी रोजगार है। तमाम विज्ञापन हिन्दी में आते हैं और साफ हिन्दी में ही होते हैं। अखबारों की भाषा की तरह नहीं कि हिन्दी अंग्रेजी का घालमेल करें। टी.वी. या समाचार पत्रों में हिन्दी में आने वाले विज्ञापन पूरे मानदंड को पूरा करते हैं।  हिन्दी के कुछ अखबार इस तरह की भाषा लिखकर पता नहीं किसे खुश कर रहे या किसका भला कर रहे यह वे जानें लेकिन हिन्दी का नुकसान कर रहे हैं।

हिन्दी दिवस पर इस पर अब चर्चा हो, विमर्श हो। पहले ऐसी भाषा नहीं होती रही इसलिए यह सवाल नहीं उठा। अब जरूरी है कि 14 सितम्बर हिन्दी दिवस पर इस विषय पर खुलकर चर्चा हो। हिन्दी में नये शब्द आएं वे तो आएंगे ही। लेकिन उसका व्याकरण, उसकी संरचना नष्ट न हो। हिन्दी दिवस पर इस पर सोचें।

(पूर्व प्रकाशित लेख आज भी सामयिक है)


Friday, September 13, 2019

हिंदी दिवस पर विशेष ------*जारी है हिन्दी की सहजता को नष्ट करने की साजिश* चिन्मय मिश्र

मुक्तिबोध के एक लेख का शीर्षक है 'अंग्रेजी जूते में हिंदी को फिट करने वाले ये भाषाई रहनुमा।' यह लेख उस प्रवृत्ति पर चोट है जो कि हिंदी को एक दोयम दर्जे की नई भाषा मानती है और हिंदी की शब्दावली विकसित करने के लिए अंग्रेजी को आधार बनाना चाहती है।

     भाषा विज्ञानियों का एक बड़ा वैश्विक वर्ग जिसमें नोम चॉमस्की भी शामिल हैं हिंदी की प्रशंसा में कहते हैं कि यह इस भाषा का कमाल है कि इसमें उद्गम के मात्र एक सौ वर्ष के भीतर कविता रची जाने लगी, परंतु वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि पिछले एक हजार वर्षो से अधिक से भारत में हिंदी का व्यापक उपयोग होता रहा है। अपभ्रंश से प्रारंभ हुआ यह रचना संसार आज परिपक्वता के चरम पर है।
   अंग्रेजों के भारत आगमन के पूर्व ही हिंदी की उपयोगिता सिद्ध हो चुकी थी। तत्कालीन भारत विश्व व्यापार का सबसे महत्वपूर्ण भागीदार था अतएव यह आवश्यक था कि इस देश के साथ व्यवहार करने के लिए यहां की भाषा का ज्ञान हो। गौरतलब है कि अंग्रेजी को विश्वभाषा के रूप में मान्यता भारत पर इंग्लैंड द्वारा कब्जे के बाद ही मिल पाई थी।
    दिनेशचंद्र सेन ने हिस्ट्री ऑफ बेंगाली लेंगवेज एंड लिटरेचर (बंगाली भाषा और साहित्य का इतिहास)नामक पुस्तक में लिखा है 'अंग्रेजी राज के पहले बांग्ला के कवि हिंदुस्तानी सीखते थे।' इसी क्रम में वे आगे लिखते हैं 'दिल्ली के मुसलमान शहंशाह के एकछत्र शासन के नीचे हिंदी सारे भारत की सामान्य भाषा (लिंगुआ फ्रांका) हो गई थी।'
      हिंदी की व्यापकता के लिए एक और उदाहरण का सहारा लेते हैं। इलाहाबाद स्थित संत पौलुस प्रकाशन ने 1976 में 'हिंदी के तीन आरम्भिक व्याकरण' नामक ग्रंथ का प्रकाशन किया। ये तीनों व्याकरण हिंदी भाषा के हैं और सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में विदेशियों द्वारा लिखे गए थे। इन व्याकरणों से खड़ी बोली हिंदी के प्रसार और उसके रूपों के बारे में बहुत दिलचस्प तथ्य हमारे सामने आते हैं। इनमें पहला व्याकरण जौन जोशुआ केटलर ने डच में 17वीं के उत्तरार्ध का है।
      केटलर पादरी थे और उनका संबंध डच (हालैंड) ईस्ट इंडिया कंपनी से था। इसमें भाषा की जिस अवस्था का वर्णन है वह16 वीं सदी के उत्तरार्ध की है। दूसरा व्याकरण बेंजामिन शुल्ज का है जो 1745 ई. में प्रकाशित हुआ था। इसका विशेष संबंध हैदराबाद से था, इसलिए उनकी पुस्तक को दक्खिनी हिंदी का व्याकरण भी कह सकते हैं। तीसरा व्याकरण कासियानो बेलागात्ती का है और इसका संबंध बिहार से विशेष था।
     यहां पर एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य पर गौर करना आवश्यक है कि तीनों व्यक्ति पादरी थे। वे यूरोप के विभिन्न देशों से यहां आए थे और ईसाई धर्म का प्रचार ही उनका मुख्य उद्देश्य भी था। इसमें से दो व्याकरण लेटिन में लिखे गए और तीसरे का लेटिन में अनुवाद हुआ। तब तक अंग्रेजी धर्मप्रचार की भाषा नहीं थी न ही वह अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त कर पाई थी।ध्यान देने योग्य बात यह है कि ये तीनों पादरी नागरी लिपि का भी परिचय देते हैं और बेलागात्ती ने अपनी पुस्तक केवल इस लिपि का परिचय देने को ही लिखी है। अपनी बात को और विस्तार देते हुए डा. रामविलास शर्मा लिखते है 'पादरी चाहे हैदराबाद में काम करे, चाहे पटना में और चाहे आगरा में, उसे नागरी लिपि का ज्ञान अवश्य होना चाहिए।' यह बात 17 वीं व 18 वीं शताब्दी की है।
     बेलागात्ती हिंदुस्तानी भाषा और नागरी लिपि के व्यवहार क्षेत्र के बारे में लिखते है, 'हिंदुस्तानी भाषा जो नागरी लिपियों में लिखी जाती है पटना के आस-पास ही नहीं बोली जाती है अपितु विदेशी यात्रियों द्वारा भी जो या तो व्यापार या तीर्थाटन के लिए भारत आते हैं प्रयुक्त होती है।' 1745 ई.में हिंदी का दूसरा व्याकरण रचने वाले शुल्ज ने लिखा है '18 वीं सदी में फारसी भाषा और फारसी लिपि का प्रचार पहले की अपेक्षा बढ़ गया था।पर इससे पहले क्या स्थिति थी? इस पर शुल्ज का मत है 'समय की प्रगति से यह प्रथा इतनी प्रबल हो गई कि पुरानी देवनागरी लिपि को यहां के मुसलमान भूल गए।' इसका अर्थ यह हुआ कि इससे पहले हिंदी प्रदेश के मुसलमान नागरी लिपि का व्यवहार करते थे। जायसी ने अखरावट में जो वर्ण क्रम दिया है, उससे भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। मुगल साम्राज्य के विघटन काल में यह स्थिति बदल गई। हम सभी इस बात को समझें कि हिंदी एक समय विश्व की सबसे लोकप्रिय भाषाओं में रही है और उसका प्रमाण है भारत का विशाल व्यापारिक कारोबार। जैसे-जैसे मुगल शासन शक्ति संपन्न होते गए वैसे-वैसे भारत का व्यापार भी बढ़ा और हिंदी की व्यापकता में भी वृद्धि हुई थी।
     क्या इसका यह अर्थ निकाला जाए कि किसी देश की समृद्धि ही उसकी भाषा को सर्वज्ञता प्रदान करती है। भारत व इंग्लैंड के संदर्भ में तो यह बात कुछ हद तक ठीक उतरती है। हिंदी जहां व्यापार की भाषा रही, वहीं उसका दूसरा स्वरूप आजादी के संघर्ष में भी हमारे सामने आता है। महात्मा गांधी ने जिस तरह हिंदी को देश की भाषा बनाने का उपक्रम किया उसने एक बार पुन: हिंदी को वैश्विक परिदृश्य पर ला दिया था । गांधी की भारत वापसी के पश्चात का काल हिंदी की पुनर्स्थापना का काल भी रहा है। वैसे इसका श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र को दिया जाना चाहिए, जिन्होंने
लिखा था -
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति कौ मूल।
बिनु निजभाषा ज्ञान के, मिटै न हिय कौ शूल।

    इस पर पं.हजारी प्रसाद द्विवेदी की बहुत ही सागरर्भित टिप्पणी है। वे लिखते हैं, 'उन्होंने निज भाषा 'शब्द का व्यवहार किया है, 'मिली-जुली', 'आम फहम', 'राष्ट्रभाषा' आदि शब्दों को नहीं। प्रत्येक जाति की अपनी भाषा है और वह निज भाषा की उन्नति के साथ उन्नत होती है।' इसी परम्परा के विस्तार को वे हिंदी का जन आंदोलन की संज्ञा भी देते हैं।
    आजादी के संघर्ष के दौरान ही पढ़े-खिले समुदाय का एक वर्ग अंग्रेजी को 'आभिजात्य' भाषा के रूप में स्वीकार कर चुका था। भारत की आजादी के पश्चात यह आभिजात्य वर्ग एक तरह के पारम्परिक 'कुलीन वर्ग' में परिवर्तित हो गया और उसने अपनी कुलीनता को ही इस देश की नियति निर्धारण का पैमाना बना दिया। इस दौरान षड़यंत्र के तहत हिंदी-उर्दू और हिंदी बनाम भारत की अन्य भाषाओं का मुद्दा अनावश्यक रूप से उछाला गया। ध्यान देने योग्य है कि मुगलकाल तक, जब हिंदी पूरे देश में व्यवहार में आ रही थी तब भी बंगला, तमिल, उड़िया तेलुगु जैसी भाषाएं अपने अंचलों में पूरे परिष्कार से न केवल स्वयं को संवार रही थीं बल्कि अपनी संस्कृति का निर्माण भी कर रही थीं।
     इस संदर्भ में हिंदी पर यह आरोप भी लगता है कि हिंदी की सबसे बड़ी विफलता यह है कि वह अपनी संस्कृति विकसित नहीं कर पाई, परंतु ध्यानपूर्वक अध्ययन से ऐसा भी भान होता है कि संभवत: हिंदी को कभी भी अपनी पृथक संस्कृति निर्मित करने की आवश्यकता ही महसूस नहीं हुई होगी। अवधी, भोजपुरी, ब्रज जैसी संस्कृतियों ने सम्मिलित रूप से व्यापक स्तर पर हिंदी संस्कृति के निर्माण में कहीं न कहीं योगदान दिया है।
      कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी अगर अपनी पृथक संस्कृति के निर्माण के प्रति सचेत होती तो संभवत: भारत में इतनी विविधता भी नहीं होती और वह भी एकरसता वाला देश बन कर रह जाता। भारत के पूरे व्यापार का माध्यम होने के बावजूद एकाधिकारी प्रवृत्ति से बचे रहने से बढ़ा कार्य कोई समाज नहीं कर सकता था। हिंदी समाज ने इस असंभव को संभव कर दिखाया है।
    आज जब हिंदी पुन: बाजार की भाषा बन गई है तब विदेशी व्यापारिक हथकंडों से लैस एक वर्ग इसमें अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप कर इसकी सहजता को नष्ट कर देना चाहता है। दु:ख इस बात का है कि हिंदी को समझने व व्यवहार में लाने वाला प्रबुद्धतम वर्ग भी इसमें षड़यंत्रपूर्वक सम्मिलित हो गया है। आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है कि इसके लोकव्यापी स्वरूप को बचाए रखा जाए। पिछले एक हजार साल हिंदी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद स्वयं को भारतीय संस्कृति का पर्याय बनाए हुए है और यहां पर निवास करने वाला समाज इसका यह स्वरूप हमेशा बनाए भी रखेगा।

चिन्मय मिश्र  वरिष्ठ पत्रकार, स्तंभकार व सामाजिक कार्यकर्ता हैं । यह चिन्मय मिश्र का पूर्व प्रकाशित महत्वपूर्ण लेख है :-

(प्रसृति जीवेश चौबे)

Thursday, September 5, 2019

परिवारवाद की भेंट चढ़ा दंतेवाड़ा उपचुनाव - – जीवेश चौबे

छत्तीसगढ़ की एक विधानसभा सीट दंतेवाड़ा पर उप चुनाव की घोषणा हुई है, दूसरी   विधान सभा सीट चित्रकोट  को क्यों छोड़ दिया गया कोई नहीं जानता । दंतेवाड़ा विधानसभा सीट के भाजपा विधायक भीमा मंडावी की नक्सली हमले में मौत हो गई थी, जिसकी वजह से यह सीट खाली हुई थी।  दूसरी ओर  चित्रकोट विधानसभा के विधायक दीपक बैज द्वारा लोकसभा चुनाव के मद्देनजर इस्तीफा  देने के बाद वह सीट भी खाली हो चुकी है । गौरतलब है कि यह दोनो सीटें बस्तर संभाग की है। नियमानुसार किसी कारण कोई विधानसभा सीट खाली हो जाए तो सीट खाली होने के छह महीने के अंदर उप चुनाव करवाना होता है अतः नवम्बर तक चित्रकोट में भी उप चुनाव संपन्न हो जाने चाहिए।  अब यह चुनाव आयोग की खुली दादागिरी है जो दूसरी सीट पर चुनाव न करवाए जाने का कोई कारण नहीं बता रही । तो इसका मतलब छत्तीसगढ़ में अगले 2 माह में एक और उप चुनाव होगा । यह विडंबना ही है कि एक देश एक चुनाव की बात करने वाले छत्तीसगढ़ के  दो उप चुनाव दो अलग अलग तारीखों में करवा रहे हैं । फिर उसके पश्चात निकाय चुनाव, यानि अगले 6 माह प्रदेश की जनता चुनाव की सुनामी से जूझती रहेगी ।  एक तो आयोग के खिलाफ कोई पार्टी सख्त कदम उठाती नहीं और दूसरे जनता तो कभी ऐसे किसी मुद्दे पर कभी कोई प्रतिक्रिया देती नहीं बल्कि ऐसे मुद्दे विपक्षी दलों के लिए छोड़ देती है  और सत्ता के साथ हो लेती है । लोकतंत्र में जनता की भूमिका क्या सिर्फ वोट देने तक ही है ? या इसे जानबूझकर वोट देने तक सीमित कर देने की कोशिशें की जा रही हैं , इस पर भी विस्तार से सोचने की जरूरत है ।   
 देश के सर्वाधिक नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में से एक दंतेवाड़ा विधानसभा सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीट है दंतेवाड़ा में 23 सितंबर को वोट डाले जाएंगे और 27 सितंबर को परिणाम घोषित किए जाएंगे । उप चुनाव की घोषणा के साथ ही राजनीतिक दलों ने अपनी बिसात बिछानी शुरू कर दी है । दंतेवाड़ा सीट पर उपचुनाव में प्रदेश में सत्तारूढ़ कॉग्रेस, विपक्षी दल भाजपा  के साथ ही जोगी कॉंग्रेस,आप , भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ अन्य पार्टियों  ने अपने प्रत्याशी  की घोषणा कर दी है । विडंबना देखिए कि प्रमुख राष्ट्रीय दलों नें पूर्व राजनैतिक परिवार के सदस्यों को ही अपना उम्मीदवार बनाया है । सत्तारूढ़ कॉंग्रेस ने पूर्व नेता स्वर्गीय महेन्द्र कर्मा की पत्नी देवती कर्मा को उम्मीदवार बनाया गया है । हद तो ये है कि परिवारवाद, वंशवाद के नाम पर हाय तौबा मचाने वाली भाजपा ने भी दिवंगत विधायक भीमा मंडावी की पत्नी ओजस्वी मंडावी को ही उम्मीदवार बनाया है । पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने भी इसी राह पर चलते हुए अपनी पार्टी से स्वर्गीय महेन्द्र कर्मा के भतीजे  सुमित कर्मा को दंतेवाड़ा उपचुनाव में जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ का प्रत्याशी घोषित किया है।
दोनों ही प्रमुख दलों ने अपने अपने शहीदों की पत्नियों को टिकट दिया है । परिवार के प्रभाव व अपने नेताओं की शहादत का लाभ लेने की मंशा के अलावा इसकी एक वजह यह भी है कि यहां महिला मतदाताओं की संख्या अधिक है। ऐसा नहीं है कि यहां पहली बार महिला मतदाताओं की संख्या अधिक है।  दंतेवाड़ा विधानसभा सीट के अस्तित्व में आने के बाद से ही यहां महिला मतदाताओं की संख्या   अधिक रही है यह बात भी गौरतलब है कि दंतेवाड़ा विधानसभा सीट पर महिला मतदाताओं की संख्या भले ही अधिक है, लेकिन वो मतदान करने बहुत कम निकलती रही हैं । यह भी ध्यान रखना होगा कि महिला मतदाता बाहुल्य होने के बावजूद यहां 2013 से पहले कोई भी महिला विधायक चुनाव नहीं जीत पाई थी 2013 के चुनाव में कॉंग्रेस ने झीरम कांड में दिवंगत  नेता  महेन्द्र कर्मा की पत्नी देवती कर्मा को टिकट दिया था जिन्होने यह चुनाव जीतकर पहली महिला विधायक होने का गौरव हासिल किया गत वर्ष 2018 में हुए विधान सभा चुनाव में प्रदेश भर में बुरी हार के बावजूद बीजेपी के भीमा मांडवी ने कांग्रेस की देवती कर्मा को हराकर पुनः यह सीट हासिल कर ली थी । गौरतलब है कि इस सीट पर सिर्फ बीजेपी या कांग्रेस नहीं बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ( सीपीआई)  का भी अच्छा जनाधार है  2008  के चुनावों में सीपीआई यहां दूसरे नंबर की पार्टी बनकर उभरी थी जब भाजपा के भीमा मांडवी ने सीपीआई के  मनीष कुंजाम को हराया था । हालांकि  2013 के चुनाव में कांग्रेस की देवती कर्मा ने भाजपा  को हराया था मगर   2018 में हुए चुनाव में फिर भाजपा ने इस सीट पर कब्जा कर लिया था और भीमा मंडावी ने इस सीट पर जीत हासिल की थी, मगर कम्युनिस्ट पार्टी के व्यापक जनाधार को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता ।
सत्तारूढ दल कॉंग्रेस के लिए दंतेवाड़ा उपचुनाव प्रतिष्ठा का सवाल कहा जा सकता है । बहुमत के लिहाज से भले ही कॉंग्रेस छत्तीसगढ़ में बहुत सुकून से है मगर विधान सभा में मिली जबरदस्त कामयाबी के बाद  लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ होने के बावजूद कॉंग्रेस को मुंह की खानी पड़ी थी । यह भी गौरतलब है कि इसके ठीक बाद प्रदेश में पंचायत व नगरीय निकाय के चुनाव भी होने हैं । निश्चित रूप से दंतेवाड़ा उपचुनाव के परिणाम पूरे प्रदेश पर नहीं तो कम से कम बस्तर में तो आगामी निकाय चुनावों में प्रभाव डालेंगे । संभवतः इसीलिए चित्रकोट में अभी चुनाव न करवाए जा रहे हों जबकि नियमानुसार नवंबर तक छत्तीसगढ़ की दूसरी विधानसभा सीट चित्रकोट में भी उपचुनाव करवाना ज़रूरी है ।
विधान सभा में जबरदस्त लहर के बावजूद कॉंग्रेस को बस्तर की एकमात्र दंतेवाड़ा सीट में ही हार का मुंह देखना पड़ा था । उल्लेखनीय है कि दंतेवाड़ा से बस्तर का शेर कहे जाने वाले महेन्द्र कर्मा की पत्नी देवती कर्मा ही उम्मीदवार थी । तब मगर देवती कर्मा के बेटे छबिंद्र कर्मा की बगावत के चलते पारिवारिक फूट का फायदा भाजपा को मिला । इस बार होने जा रहे उप चुनाव में कहा जा रहा है कि पार्टी ने  छबिंद्र कर्मा से चर्चा करने के बाद ही उनकी मां देवती कर्मा का टिकट फाइनल किया है ताकि किसी तरह का भीतरघात या नुकसान ना झेलना पड़े कॉंग्रेस का दावा है कि कर्मा परिवार के सारे मतभेद खत्म हो गए हैं  और वे एकजुट हैं।यदि ऐसा है तो  निश्चित रूप से इसका फायदा कॉंग्रेस को मिलेगा । वहीं दूसरी ओर भाजपा अपने विधायक भीमा मंडावी की नक्सलियों द्वारा हत्या के पश्चात उनकी पत्नी ओजस्वी मंडावी को सहानुभूति का लाभ मिलने की उम्मीद कर रही है । इसके अतिरिक्त भाजपा लोकसभा चुनाव में मिली कामयाबी को भुनाने के लिए भी कुछ आशावान है , हालांकि बस्तर लोकसभा सीट कॉंग्रेस जीतने में कामयाब रही थी । इन परिस्थितियों में  दोनो ही प्रमुख पार्टियों के पास किसी  और उम्मीदवार का कोई  विकल्प बचा नहीं रह जाता । इसी कड़ी में अजीत जोगी ने भी अपनी पार्टी से महेन्द्र कर्मा के भतीजे को टिकिट दे दी है ।
कुल मिलाकर दंतेवाड़ा सीट परिवारवाद की भेंट चढ़ चुकी है ।  विकास और सामाजिक राजनैतिक उत्थान की बाट जोहता बस्तर आज चंद परिवारों की राजनैतिक जागीर बनकर रह गया है। बस्तर के साथ साथ पूरे छत्तीसगढ में सभी राजनैतिक दलों के भीतर परिवारवाद, वंशवाद की जड़ें गहरी होती जा रही हैं ।  इनसे उबर पाना किसी भी दल के लिए निकट भविष्य में भी आसान नहीं लगता।  सवाल ये है कि परिवारवाद वंशवाद का हल्ला तो सभी दल मचाते हैं मगर इससे मुक्ति के लिए कोई पहल नहीं करता । सत्ता की इस त्रिटंगड़ी दौड़ में जब जीत ही एकमात्र लक्ष्य हो तो लोकतांत्रिक मूल्य और नैतिकता की बातें बेमानी हो जाती हैं । बस्तर के निरीह आदिवासियों के साथ साथ छत्तीसगढ़ का आम मतदाता बड़ी निरीह और बेबस नजरों से  बाहर खड़ा इस दौड़ को देखते बस ताली बजाने को मजबूर है । 

(देशबंधु में 6 सितंबर 2019 को प्रकाशित)