Saturday, December 20, 2014

अकार -39 में पढ़ें...

नवजागरण के संभ्रात नायक : बदरुद्दीन तैयब- कर्मेन्दु शिशिर

….शैक्षणिक और सांस्कृतिक रूप से मुस्लिम समाज को समृध्द और परिष्कृत करने में उनका योगदान अप्रतिम है। ऐसे में उनकी ब्रिटिश हुकूमत की पक्षधरता भी कोई असंगत बात नहीं थी। लेकिन इस क्रम में उनका इतनी दूर तक चले जाना कि उन्होंने पूरी मुस्लिम कौम को ही कांग्रेस से दूर रहने की न सिर्फ हिदायतें दीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य के अनंतकाल तक बने रहने का विश्वास भी दिया, कारण चाहे जो रहे हों, यह बात उनके जैसे व्यक्तित्व के अनुरूप नहीं थी। वे जिस हैसियत के रहनुमा थे, उनकी अतीत में जैसी ऊँची सोच रही थी, उनका जैसा व्यवहार और जीवन रहा था- उसमें उनसे उम्मीद बहुत बड़ी थी। वे चाहते तो कोई ऐसी तवीज सोच सकते थे, जिससे मुस्लिम हितों की सुरक्षा के साथ देश की मुक्ति की दिशा भी सूझती। वे हिन्दू, मुस्लिम सहित तमाम कौमों के बीच सह-अस्तित्व की एक ऐसी वैचारिक नींव रोप सकते थे- जो उन्हें भारत का पितामह बना सकती थी। यह एक ऐसी चूक थी, जिससे उनसे प्रेरित और प्रभावित नवजागरण के अनेक मुस्लिम नायकों ने इत्तेफाक नहीं रखा। उनके प्रति पूरे आदर के बावजूद उनके इस निर्णय और सोच का विरोध किया। इनमें शिबली नोमानी, ज् ाफर अली खान से हसरत मोहानी जैसे नामचीन लोग थे। उनसे उम्र में कनिष्ठ लेकिन उनके समकालीनों में अत्यन्त प्रतिष्ठित रहे बदरुद्दीन तैयबजी तो उन लोगों में थे, जिन्होंने उनकी इस सोच से असहमति दर्ज की और उनकी इच्छा के विपरीत 1887 में आयोजित तीसरी कांग्रेस की अध्यक्षता भी की।…..
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Monday, December 15, 2014

रायपुर साहित्य महोत्सव पर------------निर्वाचित हत्यारों के साथ रायपुर मेँ ---विमल कुमार

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मैं रायपुर जाना चाहता हूँ
हत्यारों के सामने शीश नवाने के लिए
उन्हें बताने के लिए 
कि मुल्क में अब बहुत शांति है
दंगे फसाद अब नहीं होते
और कोई भूखा नहीं है अब
डिजिटल इंडिया में
मैं रायपुर जाकर यह भी बताना चाहता हूँ
कि तुम मुझे खरीद भी सकते हो
इस तरह सम्मानित करके
जब चाहो
तुम जहाँ भी करोगे आमंत्रित
वहां हम हाज़िर हो जायेंगे
बिलाशक
मैं अभी जा रहा हूँ
निकल गया हूँ घर से
क्योंकि वहां जाना बहुत जरूरी है
लोकतंत्र की रक्षा के लिए
अगर मैं नहीं गया वहां तो
तो तुम मुझे एक दिन
इतिहास से भी बाहर कर दोगे
जा रहा हूँ
कि उनके अल्बम में एक तस्वीर मेरी भी हो
कम से कम
निर्वाचित हत्यारों के साथ
जो तस्दीक करे
कि मैं कहाँ खड़ा था अपने समय में
-विमल कुमार
( ताकि सनद रहे और वक्त ज़रुरत काम आये )

Thursday, December 11, 2014

छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के 11 वर्ष : -जीवेश चौबे

छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के 11 वर्ष : -जीवेश चौबे 
इस दिसम्बर छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के 11 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं । लगातार तीसरी बार जीतने का शानदार रिकार्ड बनाकर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने देश में अपना नाम व मान बढ़ाया है । प्रदेश गठन के पश्चात हुए पहले स्वतंत्र चुनाव में डॉ. रमन सिंह ने पहली बार 2003 में बहुमत प्राप्त किया था । तब लगभग अजेय समझे जाने वाले कांग्रेस के अजीत जोगी को मात देकर डॉ. रमन सिंह ने पहली बार छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री का पद संभाला ,तब से लगातार उन्होंने अपनी सौम्य व संयत छवि से प्रदेश के मतदाताओं को अपने मोह से बांधे रखा है। 2008 एवं पिछले वर्ष 2013 दोनों ही चुनावों में तमाम अटकलों को विराम देते हुए उन्हों जीत का परचम लहराया । इस वर्ष उनकी हैट्रिक को 1 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं । इस पर सुहागा ये कि केन्द में भी भाजपा की सरकार पूर्ण बहुमत से सत्ता में आ गई है, तो अब जीत की हैट्रिक का जश्न तो बनता है । इसी खुशी को सार्वजनिक रूप से मनाने के बहाने आने वाले निकाय चुनावों में पकड़ बनाने के उद्देश्य से भाजपा के प्रदेश नेतृत्व ने जश्न को वृहत्तर स्तर पर आयोजित किया है । इस कड़ी में दो महत्वपूर्ण आयोजन किए जा रहे हैं । एक राजनैतिक व सांगठिक स्तर पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की रैली एवं दूसरा बौद्धिक वर्ग को संतुष्ठ करने राष्ट्रीय स्तर का साहित्यिक आयोजन, रायपुर साहित्य महोत्सव, इसी कड़ी में पहली बार आयोजित किया जा रहा है । 12 दिसम्बर को अमित शाह की रैली एवं साहित्यिक महोत्सव का आयोजन इसी मायने में महत्वपूर्ण है कि प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार लगातार तीसरी बार सत्ता में आई है एवं तीसरी बार सत्ता में आने एक वर्ष भी पूर्ण हो रहे हैं । भाजपा की यह उपलब्धि कम नहीं है । ऐसा नहीं है कि भाजपा को यह उपलब्धि कोई थाली में परोसकर मिली हो । इन 11 वर्षों में ऐसी कई घटनाएं हुई जिससे लगा कि अब भाजपा के दिन लद गए मगर पार्टी जीतने में कामयाब रही । पिछले कार्यकाल में गर्भाशय कांड से लेकर झीरम घाटी तक की वारदातों ने भाजपा की नींद उड़ा दी थी । मगर कांग्रेस अपेक्षित लाभ उठाने में नाकाम रही । इधर तीसरी बार सत्ता में आई भाजपा के लिये यह एक वर्ष भी काफी दुखदायी रहा है । हाल ही में नसबंदी कांड , फिर नक्सल हमले में जवानों की मौत और फिर नवजात शिशुओं की लगातार मौतों ने सरकार को परेशानियों के साथ साथ सवालों के कटघरे में भी खड़ा कर दिया है । विपक्षी दल कांग्रेस लगातार इन मुद्दों पर सरकार को घेर रहा है मगर आम जनता में किसी तरह न तो कोई जन आंदोलन खड़ा हुआ न ही सामाजिक स्तर पर कोई ठोस विरोध के साथ सामने आया । कुल मिलाकर राजनैतिक विरोध की आड़ में संवेदनशील मद्दे दब कर रह गए। काँग्रेस ने तमाम तरीके अपनाए यहां तक कि देश की राजधानी दिल्ली में भी राय सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किए , मगर आब तक तो कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया । विपक्षी दल कांग्रेस ने इन हादसों को लेकर साहित्य महोत्सव का भी विरोध किया । साहित्यकारों से महोत्सव में शामिल न होने की अपील की इसका आगे क्या असर होगा यह तो समय बताएगा मगर अब तक तो किसी साहित्यकार ने काँग्रेस की अपील को गंभीरता से लिया हो ऐसा लगता नहीं है । विपक्षी दल के नाते कांग्रेस का विरोध भी अपनी जगह ठीक है । यदि भाजपा विपक्ष में होती तो वह भी यही करती । बात साहित्यकारों की करें तो यह बात काफी दुखद भी है कि पूर्व में भी किसी घटना पर कभी भी साहित्यकारों की कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती रही । विशेष रूप से छत्तीसगढ में गर्भाशय कांड, झीरम घाटी ,नसबंदी कांड , नवजात शिशुओं की मौत से लेकरअभी या पूर्व में भी नक्सली हमलों में मारे गए जवानों का मामला हो, इन किसी भी हादसों में अंचल के साहित्यिक बौद्धिक हलकों में कोई प्रतिक्रिया दिखलाई नहीं दी । इससे इन आत्मकेन्द्रितों की संवेदनशीलता का अंदाजा लगाया जा सकता है । ऐसे लोगों से अपील करने का क्या तुक? और इसका नतीजा भी कुछ कुछ देखने मिला जब अखबारों में कुछ साहित्यकारों के साक्षात्कारों में उन्होंने खुलकर कांग्रेस की अपील को खारिज कर दिया। वैसे यह ठीक भी है कि कांग्रेस के कहने से कोई क्यों चले ? लोग कहने लगे कि अशोक बाजपेयी ने तो दशकों पूर्व कांग्रेस के शासनकाल में भोपाल गैस त्रासदी के ठीक बाद हुए साहित्यिक महोत्सव में कहा था कि मुर्दो के साथ मर नहीं जाते । कल भी साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि महोत्सव है कोई मनोरंजन नहीं जिसका विरोध किया जाय , इतने वरिष्ठ और विद्वान साहित्यकार ने प्रतिक्रिया में कहा तो ठीक ही होगा । विभिन्न मसलों पर अक्सर बौद्धिक साहित्यिक वर्ग सर्द खामोशी ओढ़े रहता है । इक्का दुक्का साहित्यकारों को छोड़ सराकरी प्राश्रय प्राप्त साहित्यकार अक्सर चुप रहकर अपनी रोटियाँ सेकते रहते हैं । एक सतही और चलताऊ सा तर्क दे देते हैं कि हर घटना पर कोई झण्डा उठा लेना, धरना देना या सड़क पर आना तो जरूरी नहीं है ... मुद्दों से कन्नी काट जाने का यह अच्छा बहाना होता है । इस बीच नक्सलियों के हमले में एक बार फिर जवानों की मौत हुई । नक्सल मोर्चे पर सरकार लगातार नाकाम हो रही है । अब तो केन्द्र में भी भाजपा की सरकार है तो ठीकरा केन्द्र पर मढ़ना भी संभव नहीं हो पा रहा है । केन्द्रिय गृहमंत्री आए और राजधानी से ही लौट गए । बस्तर मुख्यालय जगदलपुर तक जाने की ज़ेहनत नहीं उठाई । छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से ही केन्द्र की उपेक्षा का शिकार रहा है चाहे केन्द्र में कांग्रेस की सरकार रही हो या भाजपा की । इन सब मुद्दों पर हर तरह के विरोध विपक्षी दल करते रहे हैं । यह विपक्ष का कर्म भी है और धर्म भी। मगर हकीकत ये है कि भाजपा विगत 11 वर्षों से लगातार सत्ता में काबिज है और मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को फिलहाल किसी भी तरह की कोई गंभीर चुनौती मिलती दिख नहीं रही है । तो सफलता का जश्न भी लाजमी है जो अमित शाह की रैली और रायपुर साहित्य महोत्सव के रूप में मनाया जा रहा है । ®®®

Wednesday, December 3, 2014

खेल कभी खत्म नहीं होता......... '63 नाबाद- हमेशा'- फ़िल ह्यूज़ को याद करते हुए....


शेफ़ील्ड शील्ड के एक मैच के दौरान दक्षिण ऑस्ट्रेलिया के लिए खेल रहे ह्यूज़ के हेलमेट पर न्यू साउथ वेल्स के गेंदबाज शॉन एबॉट की गेंद ज़ोर से जा लगी. ह्यूज़ ने साल 2009 से 2013 के बीच 26 टेस्ट मैच खेले थे. ह्यूज़ ने साथी खिलाड़ी एस्टन एगर के साथ मिलकर 2013 में इंग्लैंड के ख़िलाफ़ दसवें विकेट के लिए रिकॉर्ड 163 रनों की साझेदारी की थी.
     क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया ने एक अपडेट जारी करके फिलिप ह्यूज़ के अंतिम स्कोर को 63 नाबाद से '63 नाबाद- हमेशा' कर दिया है.क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया के प्रमुख जेम्स सुदरलैंड ने कहा, "यह मामूली बात लग सकती है, लेकिन यह महत्वपूर्ण सम्मान है. फ़िलिप सदा के लिए 63 पर नाबाद रहेंगे."
          यह काफी दुखद घटना थी जिसमें एक खिलाड़ी को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। मगर हाल में चल रही इन चर्चाओं का कोई अर्थ नहीं कि क्रिकेट में बाउंसर पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए । निश्चित रूप यह एक दर्दनाक हादसा था मगर ऐसे हादसों से खेल रुका नहीं करते । बहुत पहले , लगभग 50 वर्ष पहले, हमारे देश के मशहूर खिलाड़ी नारी कॉन्ट्रेक्टर का को भी इसी तरह बाउंसर से चोट लगी थी हालांकि वे बच गए थे मगर उसके बाद उनका क्रिकेट जीवन समाप्त हो गया था ।लेकिन उन्होंने भी कभी बाउंसर प्रतिबंधित करने की बात नहीं की ।
  हादसे जीवन मे होते रहते हैं । कुछ हादसों में जीवन दांव पर होता है कुछ में व्यक्ति की जान चली जाती है मगर दुनिया चलती रहती है । मेरा ख्याल है कि यदि ह्यूज़ बच जाते और खेलने लायक नहीं रहते तो वे खुद भी कभी बाउंसर प्रतिबंधित करने का पक्ष नहीं लेते । उनके माता पिता तक गेंदबाज शॉन एबॉट को किसी तरह दोषी नहीं मानते । उनके जस्बे और दिलेरी की तारीफ करनी होगी । पूरा खेल जगत स्तब्ध है और एक खामोशी सी छाई है मगर खेल जारी रहता आया है । हम सब ह्यूज़ को कङी भूल नहीं पायेंगे । हमारी श्रद्धांजली ........ 

Tuesday, October 21, 2014

संगमन 20

संगमन- 20
इस बार मण्डी, हिमाचल प्रदेश में.....

Monday, September 29, 2014

अकार 39 में- नामवर सिंह के जीवन के कुछ अनुद्धाटित तथ्य

अकार 39 में-
नामवर सिंह के जीवन के कुछ अनुद्धाटित तथ्य
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1960 का नामवर सिंह से जुड़ा यह गोपनीय सरकारी पत्र व्यवहार हमें'नेशनल आर्काइव' से प्राप्त हुआ है। यह पत्र व्यवहार नामवर जी के शुरूआती जीवन की एक पूरी छवि देता है। उनकी वैचारिकता, कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति प्रतिबध्दता और सक्रियता का प्रमाण भी है। सागर विश्वविद्यालय में नामवर जी की हिंदी के असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति तथा आगे उसे स्थायी करने के प्रति तत्कालीन वाइस चांसलर डी.पी. मिश्रा का पत्र बेहद ध्यान से पढ़े जाने की मांग करता है। इसी तरह सीआईडी रिपोर्ट भी । ये दोनों दस्तावेज नामवर जी के एक प्रतिबध्द, समर्पित,सक्रिय कम्युनिस्ट होने का प्रमाण हैं और इसका भी, कि कांग्रेसी सरकार, विशेष रूप से डी.पी. मिश्रा, किस तरह कम्युनिस्टों के प्रति सोचते और व्यवहार करते थे। …..
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Wednesday, September 24, 2014

विकल्प विमर्श में इस हफ्ते.(21-27 सितंबर)...

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विकल्प विमर्श में इस हफ्ते....
मुक्तिबोध की पचासवीं पुण्यतिथि पर प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर का आयोजन http://www.vikalpvimarsh.in/moreTopstory.asp?Details=4762जादवपुर विश्वविद्यालय के छात्र आंदोलन के बहाने नए बंगाल की तलाश--जगदीश्वर चतुर्वेदीhttp://www.vikalpvimarsh.in/morelekh.asp?Details=4768भारत-अमेरिका के खट्टे-मीठे रिश्ते -डॉ गौरीशंकर राजहंसhttp://www.vikalpvimarsh.in/moreTopstory.asp?Details=4772कहानी-विमर्श – कला संस्कृति----कसबे का आदमी--- कमलेश्वर http://www.vikalpvimarsh.in/morekahani.asp?Details=4775कविताएं कंठस्थ कर रहे हैं प्रयाग शुक्लhttp://www.vikalpvimarsh.in/morerangmanch.asp?Details=4773आत्मकथा को लेकर उत्साहित हैं आशा भोंसलेhttp://www.vikalpvimarsh.in/moremanoranjan.asp?Details=4774
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Tuesday, September 2, 2014

विकल्प विमर्श में इस हफ्ते-


विकल्प विमर्श में इस हफ्ते-
(नीचे दी गई लिंक पर क्लिक करें..)
आलेख
जनता तलाश लेगी रास्ता---प्रभाकर चौबे
नरेन्द्र मोदी की बेलगाम भाषा के खतरे- जगदीश्चवर चतुर्वेदी
भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष का इतिहास बोध
ईराक: बुश और ब्लेयर द्वारा पैदा किया गया संकट--- एन्ड्रयू मुरे 

विमर्श-
अभिमन्यु की आत्महत्या -- राजेंद्र यादव
संगीत मेरे परिवार में नहीं:--- प्रियदर्शिनी कुलकर्णी

http://www.vikalpvimarsh.in/moremanoranjan.asp?Details=4759

Wednesday, August 27, 2014

परसाई जयंती

प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर द्वारा हरिशंकर परसाई जयंती पर गोष्ठी का आयोजन
हरिशंकर परसाई जयंती के अवरसर पर प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर द्वारा एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया । आयोजित गोष्ठी में मुख्य अतिथि वरिष्ठ समीक्षक श्री राजेन्द्र मिश्र एवं विशेष अतिथि के रूप में वरिष्ठ साहित्यकार श्री विनोद कुमार शुक्ल उपस्थित थे । कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रगतिशील लेखक संघ छत्तीसगढ़ के संरक्षक एवं वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रभाकर चौबे ने की । हरिशंकर परसाई जयंती के अवसर पर प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर द्वारा आयोजित गोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में मुख्य वक्ता सुपरिचित व्यंयकार श्री विनोद शंकर शुक्ल थे । कार्यक्रम का संचालन प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर के सचिव जीवेश प्रभाकर ने किया । कार्यक्रम के प्रारंभ में प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर की ओर से रायपुर इकाई के अध्यक्ष श्री संजय शाम, श्री नंद कंसारी , श्रीमती उर्मिला शुक्ल , श्री अरुणकांत शुक्ल, वरिष्ठ कथाकार एवं उपन्यासकार श्री तेजिंदर जी ने अतिथियों का स्वागत किया । सर्वप्रथम सुप्रसिद्ध व्यंगकार श्री विनोद शंकर शुक्ल ने आधार वक्तव्य प्रस्तुत किया । अपने उद्बोधन में श्री विनोद शंकर शुक्ल ने परसाई जी के लेखन पर प्रकाश डालते हुये कहा कि लोकशिक्षण में परसाई कबीर व तुलसी की परम्परा के लेखक माने जा सकते हैं । उनके सुप्रसिद्ध कॉलम 'सुनो भई साधो' एवं पूछिए परसाई से के जरिए वे लोक से जुड़कर लोगों को शिक्षित करने की कोशिश करते रहे । श्री विनोद शंकर ने आगे कहा कि परसाई जी का लोक शिक्षण कई संगठनो एवं आंदोलनों से भी कहीं यादा था । श्री शुक्ल ने आगे कहा कि आजादी के पहले प्रेमचंद ने, और आजादी के पश्चात परसाई जी ने लोकशिक्षण के लिए अतुलनीय काम दिया । परसाई जी की कथनी और करनी में अंतर नहीं था और वे अपनी बात बेबाकी से व्यक्त किया करते थे । पं. जवाहार लाल नेहरू के प्रशंसक होने के बावजूद उन्होंने नेहरू युग के मायावाद को तोड़ा एवं पंचवर्षीय योजनाओं से पनपने वाले भ्रष्टाचार की कड़ी आलोचना की । इस अवसर पर उपस्थित वरिष्ठ कथाकार एवं उपन्यासकार श्री तेजिन्दर ने परसाई जी को याद करते हुए कहा कि परसाई जी अपने साथ युवा लोगों को बड़ी सहजता में जोड़ लेते थे तथा वे लेखकीय आभा से काफी दूर रहा करते थे । उनके सानिध्य में लगातार सीखने को मिलता था । वरिष्ठ लेखक श्री अरूणकांत शुक्ल ने परसाई के निबंधों पर चर्चा करते हुए कहा कि परसाई जी धर्म और विज्ञान दोनों को कसौटी पर कसकर उसकी व्याख्या किया करते थे । श्री अरुणकांत ने कहा कि परसाई कहा करते थे कि धर्म और विज्ञान दोनो यदि गलत हाथों में पड़ जाएं तो मानव एवं मानवता दोनो खत्म होते हैं। इसके पश्चात श्री सुभाष मिश्र ने अपने विचार व्यक्त करते हुये कहा कि हालांकि परसाई जी ने कोई नाटक नहीं लिखा मगर आज देश भर में परसाई जी की रचनाओं के नाटय रूपांतरणों का ही मंचन सबसे यादा किया जा रहा है । वरिष्ठ समीक्षक श्री राजेन्द्र मिश्र ने परसाई जी के लेखन पर अपनी बात रखते हुये कहा कि परसाई जी के लेखन का केन्द्रिीय भाव दुख है मगर उन्होंने दुख को मुक्ति की भावना से जोड़ने का काम किया । उन्होंने कहा कि परसाई मानते हैं कि मुक्ति अकेले की नहीं होती बल्कि सबके साथ होती है । श्री मिश्र ने कहा कि परसाई व्यंगकार नहीं बल्कि समग्र रूप से एक उत्कृष्ठ रचनाकार थे जिन्होंने ठोस लेखन किया । उन्होंने कहा कि परसाई 3-4 शब्दों में एक पूरा वाक्य रच दिया करते थे जो एक अद्भुत कार्य है । अंत में अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रभाकर चौबे ने परसाई के समग्र लेखन पर प्रकाश डालते हुए कहा कि ''हरिशंकर परसाई भारत में राजनैतिक व्यंग्य के जनक थे , वे स्पष्ट रूप से एक व्यंग्यकार थे जिस पर पूरे हिन्दी साहित्य को गर्व है'', उन्होंने कहा कि परसाई के लेखन से पूरा समय झांकता है । श्री प्रभाकर चौबे ने कहा कि परसाई एक एक्टीविस्ट भी थे। वे सहज हास्य नहीं बल्कि गंभीर व्यंय लिखते थे जो भीतर तक घाव करता ङै । परसाई स्वयं कहा करते थे कि वे लेखक छोटे हैं मगर संकट बड़े हैं इस संदर्भ में श्री प्रभाकर चौबे ने कहा कि कोई भी सत्ता एक सीमा के पश्चात लेखकीय स्वतंत्रता बर्दाश्त नहीं करती। कार्यक्रम का संचालन प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर के सचिव श्री जीवेश प्रभाकर ने किया एवं प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर ईकाइ के अध्यक्ष श्री संजय शाम ने आभार व्यक्त किया। कार्यक्रम में नगर के अनेक साहित्यकार रंगकर्मी एवं प्रबुद्धजन उपस्थित थे।

Thursday, August 21, 2014

विकल्प विमर्श में - परसाई जयंती पर पढ़ें...

विकल्प विमर्श में - 
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परसाई जयंती पर पढ़ें...
परसाई:लेखन से झांकता समय --- प्रभाकर चौबे

कंधे श्रवणकुमार के ----हरिशंकर परसाई 

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(लिंक पर क्लिक करें)



Saturday, August 9, 2014

विकल्प विमर्श में......

विकल्प विमर्श में
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आनेख / समसामयिक में 
शिक्षा पर- राष्ट्रपति की चिंता- प्रभाकर चौबे
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हिंसा पर इसराइली और फिलस्तीनी औरतो की सोच 
http://www.vikalpvimarsh.in/moreTopstory.asp?Details=4742
कहानी -
चीफ की दावत-भीष्म साहनी 
http://www.vikalpvimarsh.in/morekavita.asp?Details=4743
अपनी भाषा से उदासीनता नहीं: ओरसिनी
http://www.vikalpvimarsh.in/morekahani.asp?Details=4728
लंदन में नाटकघरों का सुनहरा युग
http://www.vikalpvimarsh.in/morerangmanch.asp?Details=4731
मध्यपूर्व पर बदलता भारतीय रुख
http://www.vikalpvimarsh.in/moreTopstory.asp?Details=4730
इज़राइल की बर्बरता के खिलाफ़ आवाज़ उठाना क्यों ज़रूरी है? –

http://www.vikalpvimarsh.in/morevimarsh.asp?Details=4729

Tuesday, July 22, 2014

विकल्प विमर्श में इस हफ्ते......

विकल्प विमर्श में इस हफ्ते......
(दिए गए लिंक पर क्लिक करें..)
आगे पांच साल---प्रभाकर चौबे का लेख
http://www.vikalpvimarsh.in/moreSampadkiya.asp?Details=4715
इज़राइल की बर्बरता के खिलाफ़ आवाज़ उठाना क्यों ज़रूरी है?
http://www.vikalpvimarsh.in/morevimarsh.asp?Details=4719
http://www.vikalpvimarsh.in/morekahani.asp?Details=4717

http://www.vikalpvimarsh.in/morekavita.asp?Details=4720

Thursday, June 26, 2014

एक कहानी में इस बार भीष्म साहनी की कहानी फैसला ........

दोस्तों मौने तय किया है कि अब हर हफ्ते एक कहानी पोस्ट करूंगा । यूंही पढ़ने और मनन करने के लिए। तो आज पढ़िए भीष्म साहनी की कहानी फैसला ....

फैसला 
भीष्म साहनी 

उन दिनों हीरालाल और मैं अक्सर शाम को घूमने जाया करते थे। शहर की गलियाँ लाँघ कर हम शहर के बाहर खेतों की ओर निकल जाते थे। हीरालाल को बातें करने का शौक था और मुझे उसकी बातें सुनने का। वह बातें करता तो लगता जैसे जिंदगी बोल रही है। उसके किस्से-कहानियों का अपना फलसफाना रंग होता। लगता जो कुछ किताबों में पढ़ा है सब गलत है, व्यवहार की दुनिया का रास्ता ही दूसरा है। हीरालाल मुझसे उम्र में बहुत बड़ा तो नहीं है लेकिन उसने दुनिया देखी है, बड़ा अनुभवी और पैनी नजर का आदमी है।
उस रोज हम गलियाँ लाँघ चुके थे और बाग की लंबी दीवार को पार कर ही रहे थे जब हीरालाल को अपने परिचय का एक आदमी मिल गया। हीरालाल उससे बगलगीर हुआ, बड़े तपाक से उससे बतियाने लगा, मानों बहुत दिनों बाद मिल रहा हो।
फिर मुझे संबोधन करके बोला, 'आओ, मैं तुम्हारा परिचय कराऊँ... यह शुक्ला जी हैं...'
और गद‌गद आवाज में कहने लगा, 'इस शहर में चिराग ले कर भी ढूँढ़ने जाओ तो इन-जैसा नेक आदमी तुम्हें नहीं मिलेगा?'
शुक्ला जी के चेहरे पर विनम्रतावश हल्की-सी लाली दौड़ गई। उन्होंने हाथ जोड़े और एक धीमी-सी झेंप-भरी मुस्कान उनके होंठों पर काँपने लगी।
'इतना नेकसीरत आदमी ढूँढ़े भी नहीं मिलेगा। जिस ईमानदारी से इन्होंने जिंदगी बिताई है मैं तुम्हें क्या बताऊँ। यह चाहते तो महल खड़े कर लेते, लाखों रुपया इकट्ठा कर लेते...'
शुक्ला जी और ज्यादा झेंपने लगे। तभी मेरी नजर उनके कपड़ों पर गई। उनका लिबास सचमुच बहुत सादा था, सस्ते से जूते, घर का धुला पाजामा, लंबा बंद गले का कोट और खिचड़ी मूँछें। मैं उन्हें हेड क्लर्क से ज्यादा का दर्जा नहीं दे सकता था।
'जितनी देर उन्होंने सरकारी नौकरी की, एक पैसे के रवादार नहीं हुए। अपना हाथ साफ रखा। हम दोनों एक साथ ही नौकरी करने लगे थे। यह पढ़ाई के फौरन ही बाद कंपटीशन में बैठे थे और कामयाब हो गए थे और जल्दी ही मजिस्ट्रेट बन कर फीरोजपुर में नियुक्त हुए थे। मैं भी उन दिनों वहीं पर था...'
मैं प्रभावित होने लगा। शुक्ला जी अभी लजाते हाथ जोड़े खड़े थे और अपनी तारीफ सुन कर सिकुड़ते जा रहे थे। इतनी-सी बात तो मुझे भी खटकी कि साधारण कुर्ता-पाजामा पहनने वाले लोग आम तौर पर मजिस्ट्रेट या जज नहीं होते। जज होता तो कोट-पतलून होती, दो-तीन अर्दली आसपास घूमते नजर आते। कुर्ता-पाजामा में भी कभी कोई न्यायाधीश हो सकता है?
इस झेंप-विनम्रता-प्रशंसा में ही यह बात रह गई कि शुक्ला जी अब कहाँ रहते हैं, क्या रिटायर हो गए हैं या अभी भी सरकारी नौकरी करते हैं और उनका कुशल-क्षेम पूछ कर हम लोग आगे बढ़ गए।
ईमानदार आदमी क्यों इतना ढीला-ढाला होता है, क्यों सकुचाता-झेंपता रहता है, यह बात कभी भी मेरी समझ में नहीं आई। शायद इसलिए कि यह दुनिया पैसे की है। जेब में पैसा हो तो आत्म-सम्मान की भावना भी आ जाती है, पर अगर जूते सस्ते हों और पाजामा घर का धुला हो तो दामन में ईमानदारी भरी रहने पर भी आदमी झेंपता-सकुचाता ही रहता है। शुक्ला जी ने धन कमाया होता, भले ही बेईमानी से कमाया होता, तो उनका चेहरा दमकता, हाथ में अँगूठी दमकती, कपड़े चमचम करते, जूते चमचमाते, बात करने के ढंग से ही रोब झलकता।
खैर, हम चल दिए। बाग की दीवार पीछे छूट गई। हमने पुल पार किया और शीघ्र ही प्रकृति के विशाल आँगन में पहुँच गए। सामने हरे-भरे खेत थे और दूर नीलिमा की झीनी चादर ओढ़े छोटी-छोटी पहाड़ियाँ खड़ी थीं। हमारी लंबी सैर शुरू हो गई थी।
इस महौल में हीरालाल की बातों में अपने आप ही दार्शनिकता की पुट आ जाती है। एक प्रकार की तटस्थता, कुछ-कुछ वैराग्य-सा, मानो प्रकृति की विराट पृष्ठभूमि के आगे मानव-जीवन के व्यवहार को देख रहा हो।
थोड़ी देर तक तो हम चुपचाप चलते रहे, फिर हीरालाल ने अपनी बाँह मेरी बाँह में डाल दी और धीमे से हँसने लगा ।
'सरकारी नौकरी का उसूल ईमानदारी नहीं है, दफ्तर की फाइल है। सरकारी अफसर को दफ्तर की फाइल के मुताबिक चलना चाहिए।'
हीरालाल मानो अपने आप से बातें कर रहा था। वह कहता गया, 'इस बात की उसे फिक्र नहीं होनी चाहिए कि सच क्या है और झूठ क्या है, कौन क्या कहता है। बस, यह देखना चाहिए कि फाइल क्या कहती है।'
'यह तुम क्या कह रहे हो?' मुझे हीरालाल का तर्क बड़ा अटपटा लगा, 'हर सरकारी अफसर का फर्ज है कि वह सच की जाँच करे, फाइल में तो अंट-संट भी लिखा रह सकता है।'
', , , फाइल का सच ही उस के लिए एकमात्र सच है। उसी के अनुसार सरकारी अफसर को चलना चाहिए, न एक इंच इधर, न एक इंच उधर। उसे यह जानने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि सच क्या है और झूठ क्या है, यह उसका काम नहीं...'
'बेगुनाह आदमी बेशक पिसते रहें?'
हीरालाल ने मेरे सवाल का कोई जवाब नहीं दिया। इसके विपरीत मुझे इन्हीं शुक्ला जी का किस्सा सुनाने लगा। शायद इन्हीं के बारे में सोचते हुए उसने यह टिप्पणी की थी।
'जब यह आदमी जज हो कर फीरोजपुर में आया, तो मैं वहीं पर रहता था। यह उसकी पहली नौकरी थी। यह आदमी सचमुच इतना नेक, इतना मेहनती, इतना ईमानदार था कि तुम्हें क्या बताऊँ। सारा वक्त इसे इस बात की चिंता लगी रहती थी कि इसके हाथ से किसी बेगुनाह को सजा न मिल जाए। फैसला सुनाने से पहले इससे भी पूछता, उससे भी पूछता कि असलियत क्या है, दोष किसका है, गुनहगार कौन है? मुलजिम तो मीठी नींद सो रहा होता और जज की नींद हराम हो जाती थी। ...अगर मैं भूल नहीं करता तो अपनी माँ को इसने वचन भी दिया था कि वह किसी बेगुनाह को सजा नहीं देगा। ऐसी ही कोई बात उसने मुझे सुनाई भी थी।
'छोटी उम्र में सभी लोग आदर्शवादी होते हैं। वह जमाना भी आदर्शवाद का था,' मैंने जोड़ा।
पर हीरालाल कहे जा रहा था, 'आधी-आधी रात तक यह मिस्लें पढ़ता और मेज से चिपटा रहता। उसे यही डर खाए जा रहा था कि उससे कहीं भूल न हो जाए। एक-एक केस को बड़े ध्यान से जाँचा करता था।'
फिर यों हाथ झटक कर और सिर टेढ़ा करके मानो इस दुनिया में सही क्या है और गलत क्या है, इसका अंदाज लगा पाना कभी संभव ही न हो, हीरालाल कहने लगा, 'उन्हीं दिनों फीरोजपुर के नजदीक एक कस्बे में एक वारदात हो गई और केस जिला कचहरी में आया। मामूली-सा केस था। कस्बे में रात के वक्त किसी राह-जाते मुसाफिर को पीट दिया गया था और उसकी टाँग तोड़ दी गई थी। पुलिस ने कुछ आदमी हिरासत में ले लिए थे और मुकदमा इन्हीं शुक्ला जी की कचहरी में पेश हुआ था। आज भी वह सारी घटना मेरी आँखों के सामने आ गई है... अब जिन लोगों को हिरासत में ले लिया गया था उनमें इलाके का जिलेदार और उसका जवान बेटा भी शामिल थे। पुलिस की रिपोर्ट थी कि जिलेदार ने अपने लठैत भेज कर उस राहगीर को पिटवाया है। जिलेदार खुद भी पीटनेवालों में शामिल था। साथ में उसका जवान बेटा और कुछ अन्य लठैत भी थे। मामला वहाँ रफा-दफा हो जाता अगर उस राहगीर की टाँग न टूट गई होती। मामूली मारपीट की तो पुलिस परवाह नहीं करती लेकिन इस मामले को तो पुलिस नजर‍अंदाज नहीं कर सकती थी। खैर, गवाह पेश हुए, पुलिस ने भी मामले की तहकीकात की और पता यही चला कि जिलेदार ने उस आदमी को पिटवाया है, और पीटनेवाले, राहगीर को अधमरा समझ कर छोड़ गए थे।
'तीन महीने तक केस चलता रहा।' हीरालाल कहने लगा, 'केस में कोई उलझन, कोई पेचीदगी नहीं थी, पर हमारे शुक्ल जी को चैन कहाँ? इधर जिलेदार के हिरासत में लिए जाने पर, हालाँकि बाद में उसे जमानत पर छोड़ दिया गया था, कस्बे-भर में तहलका-सा मच गया था। जिलेदार को तो तुम जानते हो ना। जिलेदार का काम मालगुजारी उगाहना होता है और गाँव में उसकी बड़ी हैसियत होती है। यों वह सरकारी कर्मचारी नहीं होता ।
'खैर! तो जब फैसला सुनाने की तारीख नजदीक आई तो शुक्ला जी की नींद हराम। कहीं गलत आदमी को सजा न मिल जाए। कहीं कोई बेगुनाह मारा न जाए। उधर पुलिस तहकीकात करती रही थी, इधर शुक्ला जी ने अपनी प्राइवेट तहकीकात शुरू कर दी। इससे पूछ, उससे पूछ। जिस दिन फैसला सुनाया जाना था उससे एक दिन पहले शाम को यह सज्जन उस कस्बे में जा पहुँचे और वहाँ के तहसीलदार से जा मिले। वह उनकी पुरानी जान-पहचान का था। उन्होंने उससे भी पूछा कि भाई, बताओ भाई, अंदर की बात क्या है, तुम तो कस्बे के अंदर रहते हो, तुमसे तो कुछ छिपा नहीं रहता है। अब जब तहसीलदार ने देखा कि जिला-कचहरी का जज चल कर उसके घर आया है, और जज का बड़ा रुतबा होता है, उसने अंदर की सही-सही बात शुक्ला जी को बता दी। शुक्ला जी को पता चल गया कि सारी कारस्तानी कस्बे के थानेदार की है, कि सारी शरारत उसी की है। उसकी कोई पुरानी अदावत जिलेदार के साथ थी और वह जिलेदार से बदला लेना चाहता था। एक दिन कुछ लोगों को भिजवा कर एक राह-जाते मुसाफिर को उसने पिटवा दिया, उसकी टाँग तुड़वा दी और जिलेदार और उसके बेटे को हिरासत में ले लिया। फिर एक के बाद एक झूठी गवाही। अब कस्बे के थानेदार की मुखालफत कौन करे? किसकी हिम्मत? तहसीलदार ने शुक्ला जी से कहा कि मैं कुछ और तो नहीं जानता, पर इतना जरूर जानता हूँ कि जिलेदार बेगुनाह है, उसका इस पिटाई से दूर का भी वास्ता नहीं।
'वहाँ से लौट कर शुक्ला दो-एक और जगह भी गया। जहाँ गया, वहाँ पर उसने जिलेदार की तारीफ सुनी। जब शुक्ला जी को यकीन हो गया कि मुकदमा सच॔मुच झूठा है तो उसने घर लौट कर अपना पहला फैसला फौरन बदल दिया और दूसरे दिन अदालत में अपना नया फैसला सुना दिया और जिलेदार को बिना शर्त रिहा कर दिया।
'उसी दिन वह मुझे क्लब में मिला। वह सचमुच बड़ा खुश था। उसे बहुत दिन बाद चैन नसीब हुआ था। बार-बार भगवान का शुक्र कर रहा था कि वह अन्याय करते-करते बच गया, वरना उससे बहुत बड़ा पाप होने जा रहा था। 'मुझसे बहुत बड़ी भूल हो रही थी। यह तो अचानक ही मुझे सूझ गया और मैं तहसीलदार से मिलने चला गया । वरना मैंने तो अपना फैसला लिख भी डाला था, उसने कहा।'
हीरालाल की बात सुन कर मैं सचमुच प्रभावित हुआ। अब मेरी नजरों में शुक्ला सस्ते जूतों और मैलों कपड़ों में एक ईमानदार इंसान ही नहीं था बल्कि एक गुर्देवाला, जिंदादिल और जीवटवाला व्यक्ति था। उसे बाग की दीवार के पास खड़ा देख कर जो अनुकंपा-सी मेरे दिल में उठी थी वह जाती रही और मेरा दिल उसके प्रति श्रद्धा से भर उठा। हमें सचमुच ऐसे ही लोगों की जरूरत है जो मामले की तह तक जाएँ और निर्दोष को आँच तक न आने दें।
खेतों की मेड़ों के साथ-साथ चलते हम बहुत दूर निकल आए थे। वास्तव में उस सफेद बुत तक जा पहुँचे थे जहाँ से हम अक्सर दूसरे रास्ते से मुड़ने लगते।
'फिर जानते हो क्या हुआ?' हीरालाल ने बड़ी आत्मीयता से कहा।
'कुछ भी हुआ हो हीरालाल, मेरे लिए इतना ही काफी है कि यह आदमी जीवटवाला और ईमानदार है। अपने उसूल का पक्का रहा।'
'सुनो, सुनो, एक उसूल जमीर का होता है तो दूसरा फाइल का।' हीरालाल ने दानिशमंदों की तरह सिर हिलाया और बोला, 'आगे सुनो... फैसला सुनाने की देर थी कि थानेदार तो तड़प उठा। उसे तो जैसे साँप ने डस लिया हो। चला था जिलेदार को नीचा दिखाने, उल्टा सारे कस्बे में लोग उसकी लानत-मलामत करने लगे। चारों ओर थू-थू होने लगी। उसे तो उल्टे लेने-के-देने पड़ गए थे।
'पर वह भी पक्का घाघ था उसने आव देखा न ताव, सीधा डिप्टी-कमिश्नर के पास जा पहुँचा। जहाँ डिप्टी-कमिश्नर जिले का हाकिम होता है, वहाँ थानेदार अपने कस्बे का हाकिम होता है। डिप्टी-कमिश्नर से मिलते ही उसने हाथ बाँध लिए, कि हुजूर मेरी इस इलाके से तबदीली कर दी जाए। डिप्टी-कमिश्नर ने कारण पूछ तो बोला, हुजूर, इस इलाके को काबू में रखना बड़ा मुश्किल काम है। यहाँ चोर-डकैत बहुत हैं, बड़े मुश्किल से काबू में रखे हुए हूँ। मगर हुजूर, जहाँ जिले का जज ही रिश्वत ले कर शरारती लोगों को रिहा करने लगे, वहाँ मेरी कौन सुनेगा। कस्बे का निजाम चौपट हो जाएगा। और उसने अपने ढंग से सारा किस्सा सुनाया। डिप्टी-कमिश्नर सुनता रहा। उसके लिए यह पता लगाना कौन-सा मुश्किल काम है कि किसी अफसर ने रिश्वत ली है या नहीं ली है, कब ली है और किससे ली है। थानेदार ने साथ में यह भी जोड़ दिया कि फैसला सुनाने के एक दिन पहले जज साहब हमारे कस्बे में भी तशरीफ लाए थे। डिप्टी-कमिश्नर ने सोच-विचार कर कहा कि अच्छी बात है, हम मिस्ल देखेंगे, तुम मुकद्दमे की फाइल मेरे पास भिजवा दो। थानेदार की बाँछें खिल गईं। वह चाहता ही यही था, उसने झट से फिर हाथ बाँध दिए, कि हुजूर एक और अर्ज है। मिस्ल पढ़ने के बाद अगर आप मुनासिब समझें तो इस मुकदमे की हाईकोर्ट में अपील करने की इजाजत दी जाए।
'आखिर वही हुआ जिसकी उम्मीद थी। डिप्टी-कमिश्नर ने मुकदमे की मिस्ल मँगवा ली। शुरू से आखिर तक वह मुकद्दमे के कागजात देख गया, सभी गवाहियाँ देख गया, एक-एक कानूनी नुक्ता देख गया और उसने पाया कि सचमुच फैसला बदला गया है। कागजों के मुताबिक तो जिलेदार मुजरिम निकलता था। मिस्ल पढ़ने के बाद उसे थानेदार की यह माँग जायज लगी कि हाईकोर्ट में अपील दायर करने की इजाजत दी जाए। चुनाचे उसने इजाजत दे दी।
'फिर क्या? शक की गुंजाइश ही नहीं थी। डिप्टी कमिश्नर को भी शुक्ला की ईमानदारी पर संदेह होने लगा...'
कहते-कहते हीरालाल चुप हो गया। धूप कब की ढल चुकी थी और चारों ओर शाम के अवसादपूर्ण साए उतरने लगे थे। हम देर तक चुपचाप चलते रहे। मुझे लगा मानो हीरालाल इस घटना के बारे में न सोच कर किसी दूसरी ही बात के बारे में सोचने लगा है।
'ऐसे चलती है व्यवहार की दुनिया', वह कहने लगा, 'मामला हाईकोर्ट में पेश हुआ और हाईकोर्ट ने जिला-अदालत के फैसले को रद्द कर दिया। जिलेदार को फिर से पकड़ लिया गया और उसे तीन साल की कड़ी कैद की सजा मिल गई । हाईकोर्ट ने अपने फैसले मे शुक्ला पर लापरवाही का दोष लगाया और उसकी न्यायप्रियता पर संदेह भी प्रकट किया।
'इस एक मुकद्दमे से ही शुक्ला का दिल टूट गया। उसका मन ऐसा खट्टा हुआ कि उसने जिले से तबदीली करवाने की दरख्वास्त दे दी और सच मानो, उस एक फैसले के कारण ही वह जिले-भर में बदनाम भी होने लगा था। सभी कहने लगे, रिश्वत लेता है। बस, इसके बाद पाँच-छह साल तक वह उसी महकमे में घिसटता रहा, इसका प्रमोशन रुका रहा। इसीलिए कहते हैं कि सरकारी अफसर को फाइल का दामन कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए, जो फाइल कहे, वही सच है, बाकी सब झूठ है...'
अँधेरा घिर आया था और हम अँधेरे में ही धीमे-धीमे शहर की ओर लौटने लगे थे। मैं समझ सकता हूँ कि शुक्ला के दिल पर क्या बीती होगी और वह कितना हतबुद्धि और परेशान रहा होगा। वह जो न्यायप्रियता का वचन अपनी माँ को दे कर आया था।
'फिर? फिर क्या हुआ? जजी छोड़ कर शुक्ला जी कहाँ गए?'
'अध्यापक बन गया, और क्या? एक कालिज में दर्शनशास्त्र पढ़ाने लगा। सिद्धांतों और आदर्शों की दुनिया में ही एक ईमानदार आदमी इत्मीनान से रह सकता है। बड़ा कामयाब अध्यापक बना। ईमानदारी का दामन इसने अभी भी नहीं छोड़ा है। इसने बहुत-सी किताबें भी लिखी हैं। बढ़िया से बढ़िया किताबें लिखता है, पर व्यवहार की दुनिया से दूर, बहुत दूर...