Friday, December 28, 2018

मंत्री पद की लालसा, संवैधानिक दिक्कतें और जनमानस-- जीवेश चौबे




मुख्य मंत्री भूपेश बघेल ने केंद्र को चिट्ठी लिखकर मंत्रियों की संख्या बढ़ाने की मांग की है। मंत्रीमंडल का गठन एक मुख्य मंत्री का विशेषाधिकार होता है जिसे वह अपने विवेक, आपसी तालमेल, अनुभव व उपयोगिता के अनुसार व्यक्तियों को प्रदान करता है । मुख्य मंत्री  संविधान के तहत सद्इरादों से किए गए प्रावधानो से बंधे हुए हैं जिसका सभी को सम्मान करना चाहिए ।एक तो मंत्रियों की संख्या में बढ़ोतरी करना इतना आसान नहीं है  इसके अलावा जनता के पैसे का दुरुपयोग किया जाना किसी भी तरह जायज़ नही ठहराया जा सकता । मुख्य मंत्री के विशेषाधिकार को चुनौती देने और महत्वाकांक्षाओं के चलते स्वार्थी हो जाने की बजाय उनके साथ खड़ा होकर पार्टी को मजबूती प्रदान करना ज्यादा महत्वपूर्ण है ।
यह बात भी गौरतलब है कि चुने हुए जनप्रतिनिधियों की हर हरकतों पर जनता की बराबर नजर होती है । जनमानस पर पड़ने वाला प्रभाव काफी महत्वपूर्ण होता है जिसकी ओर चुनाव जीतने के बाद कम ही ध्यान दिया जाता है । यह तथ्य समझना जरूरी है कि जनता बड़ी उम्मीद व अपेक्षाओं से किसी भी पार्टी को सत्ता में लाती है, मगर पार्टी के अंतर्कलह का उसके मानस पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और उसे काफी निराशा होती है । विशेष रूप से छत्तीसगढ़ में जिस तरह हताश होकर जनता ने पूर्ववर्ती सरकार के प्रति आक्रोश व्यक्त करते हुए कॉंग्रेस को लगभग तीन चौथाई बहुमत से सत्ता सौंपी है उससे जन अपेक्षाओं के प्रति कॉंग्रेस की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है । कॉंग्रेस के सभी विजयी प्रत्याशियों के साथ ही उनके समर्थकों व अन्य कार्यकर्ताओं  को पदलोलुपता से ऊपर उठकर जन भावनाओं के प्रति संवेदनशील व जिम्मेदार होना होगा ।
  क्या हर जीता हुआ जन प्रतिनिधि मंत्री बनाया जा सकता है संविधान के 91 वें संशोधन के अनुसार मंत्री पद की संख्या सदन की कुल संख्या के 15 प्रतिशत से ज्यादा नही ही सकती । यह प्रावधान बहुत सोच समझकर जनता के पैसे की बर्बादी ,फिजूलखर्ची रोकने के साथ ही   सादगीपूर्ण प्रशासन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से लागू किया गया है । एक मंत्री के पीछे वेतन भत्तों के अतिरिक्त सुरक्षा मानकों व अन्य सुविधाओं पर सरकार पर काफी वित्तीय भार पड़ता है । 
 प्रश्न ये उठता है कि क्या जनता की सेवा सिर्फ मंत्री बनकर ही की जा सकती है? जनसेवा के लिए राजनीति में आने का दावा करने वाले सत्ता पाते ही क्यों मंत्रिपद के लिए जूतमपैजार की हद तक उतर जाते हैं । उल्लेखनीय है कि मौजूदा परिस्थितियों में सांसद व विधायक के लिए जनसेवा व जन  विकास कार्यों को अंजाम देने के उद्देश्य से प्रति वर्ष सांसद निधि व विधायक निधि का भी प्रावधान किया गया है। इस राशि को वे अपने स्वविवेक से जनहित के कार्यों में खर्च कर सकते हैं   मगर हाल ही में आई रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश जन प्रतिनिधि इस राशि का उपयोग ही नही कर पाते और कई मामलों में तो यह राशि लेप्स भी हो जाती है   फिर  आखिर ऐसा क्या है कि हर विधायक मंत्री बनना चाहता है। निश्चित रूप से मंत्री के पास विशेषाधिकार व संसाधन एक विधायक से ज्यादा ही होते हैं मगर इन सबसे इतर सामंतवादी मानसिकता के चलते मंत्रिपद के रुतबे के साथ सायरन व लाल बत्ती लगी दसियों गाड़ियों के काफिले का आडम्बर ही ज्यादा आकर्षित करता है ।
यह बात गौरतलब है कि मौजूदा दौर में एक विधायक या सांसद पद के बिना खुद को उपेक्षित सा महसूस करता है । मंत्रिपद न मिलने की दशा में वह किसी मंडल या आयोग के शीर्ष पद पर आसीन होना चाहता है । आजकल उसे मलाईदार पद से परिभाषित किया जाने लगा है । सभी के मंत्री या अन्य पदों पर काबिज होने की अदम्य लालसा  विधायक  की राजनीति में आने मंशा पर सवाल खड़ा करती है । हालांकि हर कोई जन सेवा के नाम पर मंत्रिपद की मांग करता है मगर अब हर आम  मतदाता भी यह जानता व मानता है कि मंत्री पद अकूट कमाई का ज़रिया बन चुका है , कुछ अपवाद ज़रूर हो सकते हैं मगर अब यह साफ तौर पर देखा जा सकता है। हमारे आसपास ही ऐसे  व्यक्ति हैं जो चुने जाने से पहले  बहुत ही साधारण स्तर पर जीवन जी रहे होते हैं मगर मंत्री बनते ही रातों रात दौलत के अपार भंडार जमा कर लेते हैं ।
      उधर मध्य प्रदेश में भी मंत्री पद को लेकर घमासान मचा हुआ है। तीन राज्यों में से इन दो राज्यों , छत्तीसगढ़ व मध्य प्रदेश, में 15 साल बाद कांग्रेस सत्ता में लौटी है  । लम्बे समय के पश्चात सत्ता में लौटी कांग्रेस पार्टी में हर कोई मंत्री बनना चाहता है । महत्वाकांक्षाएं स्वाभाविक हैं मगर पार्टी अनुशासन का पालन और जनभावनाओं का सम्मान करना ज्यादा ज़रूरी है। विशेष रूप से मध्य प्रदेश जैसे राज्य में जहां बहुमत का अंतर बहुत ही कम है, अपने नीहित स्वार्थ के चलते पार्टी की साख व संभावनाओं को दांव पर लगाना अनुचित तो है ही साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि जरा सी चूक पार्टी कार्यकर्ताओं की बरसों की मेहनत से हासिल उपलब्धियों को संकट में डाल सकती है ।

जीवेश चौबे

Friday, December 21, 2018

असीमित अपेक्षाओं और वायदों के अमल की चुनौतियों की पहली पायदान पर ख़रे उतरे मुख्यमंत्री भूपेश बघेल

देश के पाँच राज्यों के चुनाव संपन्न हुए । इन पाँच प्रदेशों में हर प्रान्त में सत्ता परिवर्तन
हुआ । यही हमारे लोकतंत्र की खूबी है । विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में आज भी जनता की शक्ति सलामत है जो हमारे लोकतंत्र की जडों को लगातार मजबूत बनाए हुए है। 70 साल की आजादी में हमारे देश में कभी भी लोकतंत्र हारा नहीं, जब कभी भी लोकतंत्र पर खतरा मंडराता सा लगा, जनता ने अपनी बुध्दिमानी व समझदारी का परिचय देते हुए देश में लोकतंत्र को मजबूत बनाने में अपनी महती भूमिका व जिम्मेदारी निभाई ।
       इन पाँच प्रदेशों में एक हमारा छत्तीसगढ भी है । यहाँ भी सत्ता परिवर्तन हुआ । विगत 3 चुनाव जीतकर 15 वर्षों से सत्ता में रही भारतीय जनता पार्टी इस बार बुरी तरह परास्त होकर विपक्ष में चली गई ।
इसके साथ ही लम्बे समय से संघर्ष कर रही कांग्रेस इस बार 90 में से 68 सीटें लेकर लगभग 3 चौथाई बहुमत से सत्ता हासिल करने में कामयाब हुई । कांग्रेस की जीत में महती भूमिका निभाने वाले युवा व जुझारू नेता श्री भूपेश बघेल मुख्य मंत्री बने । युवा होते प्रदेश की कमान एक युवा मुख्यमंत्री को दिए जाने से प्रदेश की जनता में हर्ष व उत्साह की लहर व्याप्त है । इस हर्ष व उत्साह की लहरों में जहां एक ओर असीमित अपेक्षाएँ व उम्मीदे हिलोरें ले रही हैं वहीं गए वादों व जनहित के मुद्दों पर अविलंब अमल की चुनौतियां भी सामने हैं ।नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने पदभार ग्रहण करते ही अपने वादे के मुताबिक महज एक घंटे के भीतर किसानों का कर्ज माफ करते हुए अपने स्पष्ट दृष्टिकोण, प्रतिबध्द इरादों व सकारात्मक कार्यशैली का परिचय दे दिया है। मुख्यमंत्री की इस कार्यशैली से जनता काफी उत्साहित हुई व जनता में सरकार के प्रति विश्वास कायम हुआ है।
अब से पहले तक जनता के मन में यही बात घर किए बैठी थी कि पार्टियाँ चुनाव में जो वादे करती हैं वो खोखले व वोट पाने के लिये ही होते हैं। इस बार हमारे प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने शपथ ग्रहण के पश्चात पहली बैठक में अपने प्रमुख वादों पर तत्काल अमल कर पुराने मिथक व भ्रम को तोड़ा है । कहा जा सकता है कि जनता की असीमित अपेक्षाओं और अपने वायदों के अमल की सख्त चुनौतियों की पहली पायदान मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल सफलतापूर्वक पार कर गए हैं । उनकी इस कार्यशैली से जनता में ये उम्मीद बढ़ी है कि वे आगे भी सभी वायदों पर इसी तरह प्रतिबध्द होकर अमल करेंगे। छत्तीसगढ़ ही नहीं इस बार कांग्रेस ने जीते हुए सभी राज्यों में प्रमुख वादों पर तत्काल अमल की नई कार्यशैली का आगाज़ किया है जिसका जनमानस पर काफी सकारात्मक असर हो रहा है ।


किसानों के कर्ज माफ करने के पश्चात मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल द्वारा दो टूक शब्दों में रिटायर्ड कर्मियों की संविदा नियुक्ति एवं आउट सोर्सिंग  बंद किये जाने  की मंशा ने बेरोजगार युवाओं में उम्मीद की नई किरण जगाई है । बेरोजगारी हमारे प्रदेश की बहुत बडी समस्या है। शिक्षित बेरोजगारीं की संख्या दिन ब दिन बढती जा रही है । विगत वर्षों में हमारे प्रदेश में निजि शिक्षण संस्थान तो तेजी से बढे मगर में शिक्षा की गुणवत्ता पर कोई ध्यान नहीं दिया गया । यह आज एक  एक गंभीर समस्या बनकर प्रदेश के पालकों की चिंता का प्रमुख कारण बन गया है । जहां एक ओर शिक्षा की निम्न गुणवत्ता के चलते प्रदेश के प्रतिभावान व मेधावी छात्र दूसरे प्रदेशों में अध्ययन के लिए पलायन को मजबूर हो रहे हैं वहीं  उद्योग व्यापार में यथोचित निवेश न हो पाने के कारण रोजगार की दिक्कते भी उतनी ही तेजी से बढती गई हैं, जिससे शिक्षित युवा वर्ग भी पलायन को मजबूर हुए हैं ।             उच्च शिक्षा प्राप्त मेहनती, सक्षम व समर्थ युवा वर्ग रोजगार की तलाश में अपने गृह प्रदेश से दूर जाकर नौकरी करने को मजबूर है।
युवा वर्ग को ये उम्मीद है कि प्रदेश के नए मुखिया, प्रदेश में ही रोजगार के नए अवसरों के सृजन हेतु ठोस योजना पर गंभीरता से विचार कर बौध्दिक पलायन पर विराम लगाने में कामयाब होंगे।  हम भी उम्मीद करते हैं हमारे नव निर्वाचित मुख्यमंत्री युवा वर्ग की इस समस्या को दूर करने के लिये सुनियोजित वर्क प्लान लायेंगे। हम आशा करते हैं कि विभिन्न मुद्दों को लेकर लगातार संघर्ष करते हुए आज प्रचंड बहुमत से मुख्य मंत्री पद पर पहुंचे श्री भूपेश बघेल युवाओं के साथ ही प्रदेश की आम जनता की अपेक्षाओं व उम्मीदों पर खरे उतरेंगे।  


जीवेश चौबे

Thursday, November 22, 2018

फहमीदा रियाज: चली गई एक साझा आवाज- प्रियदर्शन



फ़हमीदा रियाज़ का जाना एक बड़ी हूक पैदा करता है ।
फ़हमीदा रियाज के खाते में 15 से ज़्यादा किताबें रहीं। पत्थर की ज़ुबाननाम से उनका पहला संग्रह 1960 के दशक में ही आ गया था। जिया-उल-हक़ के दौर पर आई उनकी किताब अपना जुर्म साबितभी चर्चित रही। उन्होंने कई उपन्यास भी लिखे। रूमी का अनुवाद किया।
फ़हमीदा रियाज़ का जाना भारतीय उपमहाद्वीप में विवेक और साहस की एक और आवाज़ का चले जाना है। भारत में उनकी शोहरत उस नज़्म की वजह से ज्यादा रही जिसके निशाने पर भारतीय उपमहाद्वीप का बढ़ता कट्टरपंथ था। यह एक चुटीली नज़्म है जो बहुत मासूमियत और सादगी के साथ इस बढ़ते कट्टरपंथ की ख़बर लेती है-
तुम बिलकुल हम जैसे निकले
अब तक कहां छुपे थे भाई
वो मूरखता वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गंवाई
आखिर पहुंची द्धार तुम्हारे
अरे बधाई बहुत बधाई
प्रेत धरम का नाच रहा है
कायम हिन्दू राज करोगे?
सारे उलटे काज करोगे
अपना चमन दराज़ करोगे
तुम भी बैठे करोगे सोचा
पूरी है वैसी तैयारी
कौन है हिन्दू कौन नहीं है
तुम भी करोगे फतवे जारी...
यह शायद 2000 का साल था जब फ़हमीदा रियाज़ ने दिल्ली में ऐटमी परीक्षणों के ख़िलाफ़ नज़्म सुनाई। करगिल के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच इन सुलगते वर्षों में इस कविता ने अलग तरह का बवाल पैदा किया। कहते हैं कि जेएनयू में जब इसका पाठ हो रहा था तो कोई फौजी अफ़सर पिस्तौल निकालने लगा था। लेकिन फ़हमीदा के लिए ऐसे हालात नए नहीं थे। कम से कम 50 बरस से फ़हमीदा रियाज़ अपने लेखन से तमाम तरह के कठमुल्लेपन की नींद हराम कर रही थीं। याद कर सकते हैं कि वे किसी लोकतांत्रिक हिंदुस्तान में नहीं, लोकतंत्र को कुचलने वाले सैनिक शासकों से भरे पाकिस्तान में लिख रही थीं जहां लिखने के जोख़िम हमारे यहां से कई गुना ज़्यादा थे। 1970-80 के ही वे दशक थे जब पहले ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो घास खाकर ऐटम बम बनाने की बात करते हुए पाकिस्तान के राष्ट्रवाद को सान पर चढ़ा रहे थे और बाद में जिया-उल-हक ने उसे बिल्कुल इस्लामी राज्य में बदल डाला था। इस दौर में बहुत कम लेखकों में फ़हमीदा जैसा साहस था कि वे लिख सकें-
जो मुझ में छुपा मेरा गला घोंट रहा है
या वो कोई इबलीस है या मेरा ख़ुदा है
जब सर में नहीं इश्क़ तो चेहरे पे चमक है
ये नख़्ल ख़िज़ां आई तो शादाब हुआ है
1970 के दशक के शुरुआती सालों में जब उनकी नज़्मों का संग्रह बदन दरीदाआया तो उन पर बेलिहाज होने के लगभग वैसे ही आरोप लगे जैसे कभी इस्मत चुगतई पर लगे थे। फ़हमीदा की शायरी लेकिन इससे बेपरवाह अपनी ऐंद्रीयता का भी रंग दिखाती रही-
ये कैसी लज़्ज़त से जिस्म शल हो रहा है मेरा
ये क्या मज़ा है कि जिस से है उज़्व उज़्व बोझल
ये कैफ़ क्या है कि सांस रुक रुक के आ रहा है
ये मेरी आँखों में कैसे शहवत-भरे अंधेरे उतर रहे हैं
लहू के गुम्बद में कोई दर है कि वा हुआ है
ये छूटती नब्ज़, रुकती धड़कन, ये हिचकियां सी
गुलाब ओ काफ़ूर की लपट तेज़ हो गई है
ये आबनूसी बदन, ये बाज़ू, कुशाद सीना
मिरे लहू में सिमटता सय्याल एक नुक्ते पे आ गया है
मिरी नसें आने वाले लम्हे के ध्यान से खिंच के रह गई हैं
बस अब तो सरका दो रुख़ पे चादर
दिए बुझा दो
लेकिन यह ज़िया-उल-हक़ का दौर था जब फ़हमीदा को अपने दुस्साहसी लेखन की असली क़ीमत चुकानी पड़ी। उन पर कई मुकदमे किए गए। उनके शौहर को गिरफ़्तार कर लिया गया और वे ख़ुद एक शादी के बहाने पाकिस्तान से भाग कर भारत आईं। अगले सात साल वे भारत में रहीं। उनके बच्चों की स्कूली पढ़ाई यहीं हुई। कहते हैं कि अमृता प्रीतम ने उनके लिए उस वक़्त इंदिरा गांधी से बात की थी। ज़िया-उल-हक़ की मौत तक वे वापस नहीं लौट सकीं। इस लिहाज से सात साल यह लेखिका दिल्ली की होकर रहीं, उसने दिल्ली पर एक प्यारी सी नज़्म भी लिखी। हालांकि, यह एक दिलचस्प तथ्य है कि उनका जन्म भारत के मेरठ में हुआ था।
फ़हमीदा रियाज के खाते में 15 से ज़्यादा किताबें रहीं। पत्थर की ज़ुबाननाम से उनका पहला संग्रह 1960 के दशक में ही आ गया था। जिया-उल-हक़ के दौर पर आई उनकी किताब अपना जुर्म साबितभी चर्चित रही। उन्होंने कई उपन्यास भी लिखे। रूमी का अनुवाद किया। सामाजिक आंदोलनों और ख़ासकर स्त्रियों के मुद्दे पर लगातार काम करती रहीं।
दरअसल, फ़हमीदा रियाज़ याद और भरोसा दिलाती हैं कि सत्ता की बर्बरता साहित्य के मिज़ाज को बदल नहीं सकती। पाकिस्तान की कम से कम तीन शायरा ऐसी रहीं जिन्हें हिंदुस्तान में खूब पढ़ा और सराहा जाता रहा। फहमीदा से कुछ पहले पैदा हुई किश्वर नाहीद ने विभाजन की त्रासदी और हिंसा को बहुत करीब से देखा और इसके ज़ख़्म ताउम्र उनका जीवन दर्शन बनाते रहे, उनके संघर्ष को दिशा देते रहे। फ़हमीदा के कुछ साल बाद पैदा हुई परवीन शाकिर बेशक अलग मिज़ाज की शायरा थीं, लेकिन परंपरा को चुनौती उनके यहां भी मिलती है और उन्हें भारतीय उपमहाद्वीप में राजनीतिक बंटवारे के बावजूद सीमाओं के आर-पार समान रूप से सराहा जाता है।
फ़हमीदा रियाज़ इसी कड़ी का हिस्सा थीं। वे भारत लगातार आती-जाती रहीं, यह यकीन दिलाती रहीं कि सारी टूटन के बावजूद दोनों देशों के आम अवाम की बहुत सारी तकलीफ़ें साझा हैं, उनके बीच कोई ऐसी चीज़ है जो सारी राजनीति से बड़ी और ऊंची है। नागार्जुन, फ़ैज़, नाजिम हिक़मत जैसे कवियों के साथ वे एशिया की आवाज़ बनाती हैं।
एशिया की यह साझा आवाज़ दुर्भाग्य से इन दिनों खतरे में है, हांफ रही है। सारी दुनिया में जो कट्टरता बढ़ी है, उसका सबसे ज़्यादा साया दक्षिण एशिया की राजनीति और यहां के समाज पर दिख रहा है। ऐसे में फ़हमीदा रियाज़ का जाना एक बड़ी हूक पैदा करता है।
(नवजीवन से साभार)

Thursday, October 11, 2018

विकल्प विमर्श फेसबुक एडीशन 11 वीं कड़ी - जयशंकर प्रसाद की कहानी -मधुआ


जयशंकर प्रसाद ( 30 जनवरी 1889- 15 नवंबर 1937)- जय शंकर प्रसाद हिन्दी साहित्य के अप्रतिम रचनाकार हैं। हिंदी की खड़ी बोली में नाटक लेखन की शुरुआत भले ही भारतेंदु हरिश्चंद्र ने की थी, लेकिन खड़ी बोली में बेहतरीन कविताएं भी लिखी जा सकती हैं, इसे सबसे पहले जयशंकर प्रसाद ने साबित किया. 1925 में प्रकाशित 'आंसू' को खड़ी बोली कविता की पहली महान रचना माना जाता है. प्रसाद की भाषा में शाब्दिक अर्थ और ध्वनि का अद्भुत तालमेल हर जगह नजर आता है । वो कामायनी हो या कोई और रचना. कामायनी को तो सुमित्रानंदन पंत ने 'हिंदी का ताजमहल' कहा था.
प्रमुख कृतियां-
काव्य : झरना, आँसू, लहर, कामायनी, प्रेम पथिक
कहानी संग्रह : छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी, इंद्रजाल
उपन्यास : कंकाल, तितली, इरावती
नाटक : स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, जन्मेजय का नाग यज्ञ, राज्यश्री, अजातशत्रु, विशाख, एक घूँट, कामना, करुणालय, कल्याणी परिणय, अग्निमित्र, प्रायश्चित, सज्जन
आज पढ़ते हैं उनकी कहानी-
 
मधुआ 
जयशंकर प्रसाद
 
आज सात दिन हो गये, पीने को कौन कहे-छुआ तक नहीं! आज सातवाँ दिन है, सरकार!
तुम झूठे हो। अभी तो तुम्हारे कपड़े से महँक आ रही है।
वह ... वह तो कई दिन हुए। सात दिन से ऊपर-कई दिन हुए-अन्धेरे में बोतल उँड़ेलने लगा था। कपड़े पर गिर जाने से नशा भी न आया। और आपको कहने का....क्या कहूँ .... सच मानिए। सात दिन-ठीक सात दिन से एक बूँद भी नहीं।
ठाकुर सरदार सिंह हँसने लगे। लखनऊ में लडक़ा पढ़ता था। ठाकुर साहब भी कभी-कभी वहीं आ जाते। उनको कहानी सुनने का चसका था। खोजने पर यही शराबी मिला। वह रात को, दोपहर में, कभी-कभी सवेरे भी आता। अपनी लच्छेदार कहानी सुनाकर ठाकुर साहब का मनो-विनोद करता।
ठाकुर ने हँसते हुए कहा-तो आज पियोगे न!
झूठ कैसे कहूँ। आज तो जितना मिलेगा, सब पिऊँगा। सात दिन चने-चबेने पर बिताये हैं, किसलिए।
अद्‌भुत! सात दिन पेट काटकर आज अच्छा भोजन न करके तुम्हें पीने की सूझी! यह भी...
सरकार! मौज-बहार की एक घड़ी, एक लम्बे दु:खपूर्ण जीवन से अच्छी है। उसकी खुमारी में रूखे दिन काट लिये जा सकते हैं।
अच्छा, आज दिन भर तुमने क्या-क्या किया है?
मैंने?-अच्छा सुनिये-सवेरे कुहरा पड़ता था, मेरे धुँआ से कम्बल-सा वह भी सूर्य के चारों ओर लिपटा था। हम दोनों मुँह छिपाये पड़े थे।
ठाकुर साहब ने हँसकर कहा-अच्छा, तो इस मुँह छिपाने का कोई कारण?
सात दिन से एक बूँद भी गले न उतरी थी। भला मैं कैसे मुँह दिखा सकता था! और जब बारह बजे धूप निकली, तो फिर लाचारी थी! उठा, हाथ-मुँह धोने में जो दु:ख हुआ, सरकार, वह क्या कहने की बात है! पास में पैसे बचे थे। चना चबाने से दाँत भाग रहे थे। कट-कटी लग रही थी। पराठेवाले के यहाँ पहुँचा, धीरे-धीरे खाता रहा और अपने को सेंकता भी रहा। फिर गोमती किनारे चला गया! घूमते-घूमते अँधेरा हो गया, बूँदें पड़ने लगीं, तब कहीं भाग के आपके पास आ गया।
अच्छा, जो उस दिन तुमने गड़रियेवाली कहानी सुनाई थी, जिसमें आसफुद्दौला ने उसकी लडक़ी का आँचल भुने हुए भुट्टे के दाने के बदले मोतियों से भर दिया था! वह क्या सच है?
सच! अरे, वह गरीब लडक़ी भूख से उसे चबाकर थू-थू करने लगी! ... रोने लगी! ऐसी निर्दयी दिल्लगी बड़े लोग कर ही बैठते हैं। सुना है श्री रामचन्द्र ने भी हनुमान जी से ऐसा ही ...
ठाकुर साहब ठठाकर हँसने लगे। पेट पकड़कर हँसते-हँसते लोट गये। साँस बटोरते हुए सम्हलकर बोले-और बड़प्पन कहते किसे हैं? कंगाल तो कंगाल! गधी लडक़ी! भला उसने कभी मोती देखे थे, चबाने लगी होगी। मैं सच कहता हूँ, आज तक तुमने जितनी कहानियाँ सुनाई, सब में बड़ी टीस थी। शाहजादों के दुखड़े, रंग-महल की अभागिनी बेगमों के निष्फल प्रेम, करुण कथा और पीड़ा से भरी हुई कहानियाँ ही तुम्हें आती हैं; पर ऐसी हँसाने वाली कहानी और सुनाओ, तो मैं अपने सामने ही बढिय़ा शराब पिला सकता हूँ।
सरकार! बूढ़ों से सुने हुए वे नवाबी के सोने-से दिन, अमीरों की रंग-रेलियाँ, दुखियों की दर्द-भरी आहें, रंगमहलों में घुल-घुल कर मरनेवाली बेगमें, अपने-आप सिर में चक्कर काटती रहती हैं। मैं उनकी पीड़ा से रोने लगता हूँ। अमीर कंगाल हो जाते हैं। बड़े-बड़ों के घमण्ड चूर होकर धूल में मिल जाते हैं। तब भी दुनियाँ बड़ी पागल है। मैं उसके पागलपन को भुलाने के लिए शराब पीने लगता हूँ-सरकार! नहीं तो यह बुरी बला कौन अपने गले लगाता!
ठाकुर साहब ऊँघने लगे थे। अँगीठी में कोयला दहक रहा था। शराबी सरदी से ठिठुरा जा रहा था। वह हाथ सेंकने लगा। सहसा नींद से चौंककर ठाकुर साहब ने कहा-अच्छा जाओ, मुझे नींद लग रही है। वह देखो, एक रुपया पड़ा है, उठा लो। लल्लू को भेजते जाओ।
शराबी रुपया उठाकर धीरे से खिसका। लल्लू था ठाकुर साहब का जमादार। उसे खोजते हुए जब वह फाटक पर की बगलवाली कोठरी के पास पहुँचा, तो सुकुमार कण्ठ से सिसकने का शब्द सुनाई पड़ा। वह खड़ा होकर सुनने लगा।
तो सूअर, रोता क्यों है? कुँवर साहब ने दो ही लातें लगाई हैं! कुछ गोली तो नहीं मार दी? कर्कश स्वर से लल्लू बोल रहा था; किन्तु उत्तर में सिसकियों के साथ एकाध हिचकी ही सुनाई पड़ जाती थी। अब और भी कठोरता से लल्लू ने कहा-मधुआ! जा सो रह, नखरा न कर, नहीं तो उठूँगा तो खाल उधेड़ दूँगा! समझा न?
शराबी चुपचाप सुन रहा था। बालक की सिसकी और बढऩे लगी। फिर उसे सुनाई पड़ा-ले, अब भागता है कि नहीं? क्यों मार खाने पर तुला है?
भयभीत बालक बाहर चला आ रहा था! शराबी ने उसके छोटे से सुन्दर गोरे मुँह को देखा। आँसू की बूँदें ढुलक रही थीं। बड़े दुलार से उसका मुँह पोंछते हुए उसे लेकर वह फाटक के बाहर चला आया। दस बज रहे थे। कड़ाके की सर्दी थी। दोनों चुपचाप चलने लगे। शराबी की मौन सहानुभूति को उस छोटे-से सरल हृदय ने स्वीकार कर लिया। वह चुप हो गया। अभी वह एक तंग गली पर रुका ही था कि बालक के फिर से सिसकने की उसे आहट लगी। वह झिड़ककर बोल उठा-
अब क्या रोता है रे छोकरे?
मैंने दिन भर से कुछ खाया नहीं।
कुछ खाया नहीं; इतने बड़े अमीर के यहाँ रहता है और दिन भर तुझे खाने को नहीं मिला?
यही कहने तो मैं गया था जमादार के पास; मार तो रोज ही खाता हूँ। आज तो खाना ही नहीं मिला। कुँवर साहब का ओवरकोट लिए खेल में दिन भर साथ रहा। सात बजे लौटा, तो और भी नौ बजे तक कुछ काम करना पड़ा। आटा रख नहीं सका था। रोटी बनती तो कैसे! जमादार से कहने गया था! भूख की बात कहते-कहते बालक के ऊपर उसकी दीनता और भूख ने एक साथ ही जैसे आक्रमण कर दिया, वह फिर हिचकियाँ लेने लगा।
शराबी उसका हाथ पकड़कर घसीटता हुआ गली में ले चला। एक गन्दी कोठरी का दरवाजा ढकेलकर बालक को लिए हुए वह भीतर पहुँचा। टटोलते हुए सलाई से मिट्टी की ढेबरी जलाकर वह फटे कम्बल के नीचे से कुछ खोजने लगा। एक पराठे का टुकड़ा मिला! शराबी उसे बालक के हाथ में देकर बोला-तब तक तू इसे चबा, मैं तेरा गढ़ा भरने के लिए कुछ और ले आऊँ-सुनता है रे छोकरे! रोना मत, रोयेगा तो खूब पीटूँगा। मुझसे रोने से बड़ा बैर है। पाजी कहीं का, मुझे भी रुलाने का....
शराबी गली के बाहर भागा। उसके हाथ में एक रुपया था। बारह आने का एक देशी अद्धा और दो आने की चाय....दो आने की पकौड़ी... नहीं-नहीं, आलू-मटर...अच्छा, न सही, चारों आने का मांस ही ले लूँगा, पर यह छोकरा! इसका गढ़ा जो भरना होगा, यह कितना खायगा और क्या खायेगा। ओह! आज तक तो कभी मैंने दूसरों के खाने का सोच-विचार किया ही नहीं। तो क्या ले चलूँ?-पहले एक अद्धा तो ले लूँ। इतना सोचते-सोचते उसकी आँखों पर बिजली के प्रकाश की झलक पड़ी। उसने अपने को मिठाई की दूकान पर खड़ा पाया। वह शराब का अद्धा लेना भूलकर मिठाई-पूरी खरीदने लगा। नमकीन लेना भी न भूला। पूरा एक रुपये का सामान लेकर वह दूकान से हटा। जल्द पहुँचने के लिए एक तरह से दौड़ने लगा। अपनी कोठरी में पहुँचकर उसने दोनों की पाँत बालक के सामने सजा दी। उनकी सुगन्ध से बालक के गले में एक तरावट पहुँची। वह मुस्कराने लगा।
शराबी ने मिट्टी की गगरी से पानी उँड़ेलते हुए कहा-नटखट कहीं का, हँसता है, सोंधी बास नाक में पहुँची न! ले खूब, ठूँसकर खा ले, और फिर रोया कि पीटा!
दोनों ने, बहुत दिन पर मिलनेवाले दो मित्रों की तरह साथ बैठकर भरपेट खाया। सीली जगह में सोते हुए बालक ने शराबी का पुराना बड़ा कोट ओढ़ लिया था। जब उसे नींद आ गई, तो शराबी भी कम्बल तानकर बड़बड़ाने लगा। सोचा था, आज सात दिन पर भरपेट पीकर सोऊँगा, लेकिन यह छोटा-सा रोना पाजी, न जाने कहाँ से आ धमका?
एक चिन्तापूर्ण आलोक में आज पहले पहल शराबी ने आँख खोलकर कोठरी में बिखरी हुई दारिद्रय की विभूति को देखा और देखा उस घुटनों से ठुड्डी लगाये हुए निरीह बालक को; उसने तिलमिलाकर मन-ही-मन प्रश्न किया-किसने ऐसे सुकुमार फूल को कष्ट देने के लिए निर्दयता की सृष्टि की? आह री नियति! तब इसको लेकर मुझे घर-बारी बनना पड़ेगा क्या? दुर्भाग्य! जिसे मैंने कभी सोचा भी न था। मेरी इतनी माया-ममता-जिस पर, आज तक केवल बोतल का ही पूरा अधिकार था-इसका पक्ष क्यों लेने लगी? इस छोटे-से पाजी ने मेरे जीवन के लिए कौन-सा इन्द्रजाल रचने का बीड़ा उठाया है? तब क्या करूँ? कोई काम करूँ? कैसे दोनों का पेट चलेगा? नहीं, भगा दूँगा इसे-आँख तो खोले?
बालक अँगड़ाई ले रहा था। वह उठ बैठा। शराबी ने कहा-ले उठ, कुछ खा ले, अभी रात का बचा हुआ है; और अपनी राह देख! तेरा नाम क्या है रे?
बालक ने सहज हँसी हँसकर कहा-मधुआ! भला हाथ-मुँह भी न धोऊँ। खाने लगूँ? और जाऊँगा कहाँ?
आह! कहाँ बताऊँ इसे कि चला जाय! कह दूँ कि भाड़ में जा; किन्तु वह आज तक दु:ख की भठ्ठी में जलता ही तो रहा है। तो... वह चुपचाप घर से झल्लाकर सोचता हुआ निकला-ले पाजी, अब यहाँ लौटूँगा ही नहीं। तू ही इस कोठरी में रह!
शराबी घर से निकला। गोमती-किनारे पहुँचने पर उसे स्मरण हुआ कि वह कितनी ही बातें सोचता आ रहा था, पर कुछ भी सोच न सका। हाथ-मुँह धोने में लगा। उजली धूप निकल आई थी। वह चुपचाप गोमती की धारा को देख रहा था। धूप की गरमी से सुखी होकर वह चिन्ता भुलाने का प्रयत्न कर रहा था कि किसी ने पुकारा-
भले आदमी रहे कहाँ? सालों पर दिखाई पड़े। तुमको खोजते-खोजते मैं थक गया।
शराबी ने चौंककर देखा। वह कोई जान-पहचान का तो मालूम होता था; पर कौन है, यह ठीक-ठीक न जान सका।
उसने फिर कहा-तुम्हीं से कह रहे हैं। सुनते हो, उठा ले जाओ अपनी सान धरने की कल, नहीं तो सड़क पर फेंक दूँगा। एक ही तो कोठरी, जिसका मैं दो रुपये किराया देता हूँ, उसमें क्या मुझे अपना कुछ रखने के लिए नहीं है?
ओहो? रामजी, तुम हो भाई, मैं भूल गया था। तो चलो, आज ही उसे उठा लाता हूँ।-कहते हुए शराबी ने सोचा-अच्छी रही, उसी को बेचकर कुछ दिनों तक काम चलेगा।
गोमती नहाकर, रामजी, पास ही अपने घर पर पहुँचा। शराबी की कल देते हुए उसने कहा-ले जाओ, किसी तरह मेरा इससे पिण्ड छूटे।
बहुत दिनों पर आज उसको कल ढोना पड़ा। किसी तरह अपनी कोठरी में पहुँचकर उसने देखा कि बालक बैठा है। बड़बड़ाते हुए उसने पूछा-क्यों रे, तूने कुछ खा लिया कि नहीं? भर-पेट खा चुका हूँ, और वह देखो तुम्हारे लिए भी रख दिया है। कह कर उसने अपनी स्वाभाविक मधुर हँसी से उस रूखी कोठरी को तर कर दिया। शराबी एक क्षण चुप रहा। फिर चुपचाप जल-पान करने लगा। मन-ही-मन सोच रहा था-यह भाग्य का संकेत नहीं, तो और क्या है? चलूँ फिर सान देने का काम चलता करूँ। दोनों का पेट भरेगा। वही पुराना चरखा फिर सिर पड़ा। नहीं तो, दो बातें किस्सा-कहानी इधर-उधर की कहकर अपना काम चला ही लेता था? पर अब तो बिना कुछ किये घर नहीं चलने का। जल पीकर बोला-क्यों रे मधुआ, अब तू कहाँ जायगा?
कहीं नहीं।
यह लो, तो फिर क्या यहाँ जमा गड़ी है कि मैं खोद-खोद कर तुझे मिठाई खिलाता रहूँगा।
तब कोई काम करना चाहिए।
करेगा?
जो कहो?
अच्छा, तो आज से मेरे साथ-साथ घूमना पड़ेगा। यह कल तेरे लिये लाया हूँ! चल, आज से तुझे सान देना सिखाऊँगा। कहाँ, इसका कुछ ठीक नहीं। पेड़ के नीचे रात बिता सकेगा न!
कहीं भी रह सकूँगा; पर उस ठाकुर की नौकरी न कर सकूँगा?-शराबी ने एक बार स्थिर दृष्टि से उसे देखा। बालक की आँखे दृढ़ निश्चय की सौगन्ध खा रही थीं।
शराबी ने मन-ही-मन कहा-बैठे-बैठाये यह हत्या कहाँ से लगी? अब तो शराब न पीने की मुझे भी सौगन्ध लेनी पड़ी।
वह साथ ले जानेवाली वस्तुओं को बटोरने लगा। एक गट्ठर का और दूसरा कल का, दो बोझ हुए।
शराबी ने पूछा-तू किसे उठायेगा?
जिसे कहो।
अच्छा, तेरा बाप जो मुझको पकड़े तो?
कोई नहीं पकड़ेगा, चलो भी। मेरे बाप कभी मर गये।
शराबी आश्चर्य से उसका मुँह देखता हुआ कल उठाकर खड़ा हो गया। बालक ने गठरी लादी। दोनों कोठरी छोड़ कर चल पड़े।

Saturday, September 8, 2018

आज पढ़ते हैं -मुक्तिबोध का लेख-

डबरे पर सूरज का बिम्ब

(एक साहित्यिक की डायरी से) 

जब उससे मैं सड़क पर मिला, मुझे लगा कि वह ठीक बात करने के मूड में नहीं है। राह में मुझे देखकर वह खुश नहीं हुआ था। उसकी शर्ट की पीठ पसीने से तर-बतर थी, बाल अस्त-व्यस्त थे। और चेहरा ऐसा मलिन और क्लान्त था मानो सौ जूते खाकर सवारी आ रही हो। तत्काल निर्णय लिया कि वह सरकारी दफतर से लौट रहा है, कि वह पैदल आ रहा है,कि वह वहा अहलकार की किसी ऊंची या नीची साहित्यिक या राजनीतिक श्रेणी का ही एक हिस्सा है, वह मुझे फस्र्ट क्लास सूट-बूट में देख सिर्फ आगे बढ़ जाना चाहता है, क्योंकि वह बगल में खड़ा होकर, कॅण्ट्रास्ट खड़ा नहीं करना चाहता।

पुराने जमाने में भूखे व्यक्ति को अन्न देने से जितना पुण्य लगता था, आधुनिक काल मे शायद उससे भी अधिक पुण्य श्रम से मलिन और थके हुए व्यक्ति को एक कप गरम-गरम चाय प्रदान करते हुए दो मीठी बातें करने से लग जाना चाहिए। मेरे इस तर्क का आधार यहा है कि आज-कल सच्चा श्रम, जिससे चेहरा सूख जाता है, पसीना आता है, कपड़ों की इस्तिरी बिगड़ जाती हैं, ओछे हुए बाल असत-व्यस्त हो जाते हैं, उँगलियों को स्याही लग जाती है, आँखें कमजोर हो जाती हैं, अपने से बड़े पदाधिकारियों के मारे दिल धक-धक करता है। मतलब कह कि कम से कम मानवोचित सुविधाओं में अधिक से अधिक से श्रम की मनुष्यमूर्ति-दुनिया को तो छोड़ ही दीजिए - अपने भाइयों की, उनकी आँखों में भी हजार सहानुभूतियों के बावजूद, सूक्ष्म और स्थूल अनादार की पात्र है, असम्मान की पात्र है। टैªजडी तो यह है कि ऐसी मनुष्य-मूर्ति अपने स्वयं की आँखो में भी अनादर और सम्मान की ही पात्र होती है। इस विश्व-व्यापी और अन्तर्यामी अनादार और असम्मान की धूल धारण कर, हृदय में बासी कडु़आ जहर लिये हुए थके, क्लान्त और श्रमित व्यक्ति जब अपने दफ्तरों से बाहर दो मील दूर अपने घर की तरफ लुढ़कते-पुढ़कते निकलते हैं तो उनके मन में और हमारे मन में श्रम का कितना महान् आध्यात्मिक मूल्य अवतरित होता है, वह वर्णनातीत है !

इस तिराहे पर खड़े होकर, मुझे उस व्यक्ति की जरूरत महसूस हुई। वह मेरा परिचित था। आखिर, जब मैं इस कोने में अकेला खड़ा हू तो वह मुझसे बातचीत तो कर ही सकता था। मुझे लगता था कि जब तक मैं अपनी बकवास पूरी नहीं कर लूगा मुझे चैन न मिलेगी।

मैं पान चबा रहा था। सुर्खरू था। ऐसे मौके पर मनुष्य स्वभावतः बुद्धिमान हो जाता है। उसमें आत्म-विश्वास की तेजस्विता रहती है- वह क्षण-स्थायी ही क्यों न हो । वह आशावादी होता है। ह नसीहत दे सकता है। वह दूर-दृष्टा होता है, चाहे तो पैगम्बर हो सकता है, चाहे तो वह रोमैण्टिक प्रेमी बन सकता है। वाह-वाह ! सुर्खरूपन, तेरा क्या कहना ! बिना श्रम के जो प्राप्ति होती है, उपलब्धि होती है, वही तू है ! पल-भर मैं संकोच की गटर-गंगा में डूब गया। मैं रीअली (सचमुच) फस्र्ट क्लास कपड़े पहने था। बेहतरीन सूट। मैं गया था शहर के ऊँचे दरजे के कुछ लोगों से मिलने। वहाँ या तो महँगी किस्म के खदी के कपड़े चलते थे या ये कपड़े। आजकल मै। आधा बेकार हूँ। अपने ही घर में शरणार्थी हूँ। लिहाजा, कुछ बड़े आदमियों के यहाँ जाकर, एक असिस्टेण्ट डायरेक्टर के पद ( वह जगह अभी खाली नहीं हुई थी, लेकिन सुना था कि होनवाली थी) के लिए कोशिश कर रहा था।और ज्यों ही आप ऐसे कपड़े पहन लेते हैं, अपने धुले-पुँछेपन को स्वास्थ्य की संवेदना मानते हुए( थोड़ी देर के लिए ही क्यों न सही) अपने को 'बाश्शा' अनुभव करते हैं ! गौरव और गरिमा की यह संवेदना !! तेरा नाम सत्य है, तेरा नाम शिव है, तेरा नाम है सौनदर्य ! लेकिन शहर के उस फैशनेबल मुहल्ले के अपने आत्मीयों से लौटकर मुझे आकसिमक यह भावना हुई कि मैं अकेला हूँ, कि अपनी असली श्रेणी के साथी के साथ बैठकर ही मैं अपने आनन्द का वितरण और उपभोग कर सकूँगा। और इसी अन्तःप्रवृत्ति के अन्दरूनी धक्के के फलस्वरूप मैं आॅफिस से लौटते हुए उस व्यक्ति को आमन्त्रण दे बैठा।

लेकिन ज्यों ही मैं उसके साथ चाय पीने लगा, हम दोनों के बीच एक जहरीली चुप्पी की रेख दूरी का माप-छण्ड बनने की कोशिश करने लगी। मैंने उदारता की पराकाष्ठा करते हुए एसके लिए एक कप चाय और मँगवा दी !

मैं अपने शरीर पर पड़े हुए कपड़ों से लगातार सचेत था। ये वस्त्र ही हैं कि मुझे उससे दूर ठेले जा रहे थे ! इस संकोच को दूर हटाने के लिए मैंने कोट उतारकर रख दिया ! गरमी के बहाने शर्ट के बटन इस प्रकार खोल दिये कि अन्दर उलटी पहनी हुई जीर्ण-शीर्ण फटी बनियान लोगों की दिखाई दे सके !
मैं चाहता था कि वह मेरे अन्दरूनी नक्शे को देखे। लेकिन शायद वह अपनी धुन के धुँधलके में उड़ते हुए थके-हारे पंछी की भाँति नीड़ में समाना चाहता था। घर लौटना चाहता था।

मैं अपने को उससे एक गज ऊँचा अनुभव न करूँ और सच्ची मेहनत का शाप न झेल सकने के कारण उससे एक गज नीचा भी न अनुभव करूँ, इसलिए उसका जी खुश करके उसके साथ हँस बोल लेने के लिए मैंने उससे पूछा, “कल आल इण्डिया रेडियो से मैंने आपकी कहानी सुनी। बहुत अच्छी थी ! पढ़ी भी अच्छी गयी !“उसने मेरी तरफ ध्यान से देखा-यह जानने के लिए कि मेरा इरादा क्या हो सकता है। उसने प्रभुतावश कहा, अजी, आप तो बस आप तो आलोचक हैं,नुक्स बताइए! मैंने विश्वास दिलाया कि उसकी कहानी बहुत अच्छी थी, क्योंकि वह सचमुच बहुत अच्छी थी। लेकिन उसका जी नहीं भरा।उसने मेरी तरफ गौर से देखा। वह एक पतला-लम्बा चेहरा था। जरूरत से ज्यादा उंचा माथा-शयद आगे के बाल कम होने के कारण। मुझे ऐसे चेहरे पसन्द हैं। ऐसे लोगों में आप डूब सकते हैं और आपकी डुबकी को वे एन्जॅाय करने मजा लेने की ताकत रखते हैं । कम से कम मेरा खयाल है। मेरे द्वारा की गयी प्रशंसा के प्रति उसकी सन्देह की द्ष्टि मुझे बहुत-बहुत भायी। एक सच्चा लेखक जानता है कि वह कहां कमजोर है कि उसने कहां सच्चाई से जी चुराया है, कि उसने कहां लीपा-पोती कर डाली है, कि उसने कहां उलझा-चढ़ा दिया है, कि उसे वस्तुतः कहना क्या था और कह क्या गया है,कि उसकी अभिव्यक्ति कहां ठीक नहीं है।वह इसे बखूबी जानता है। क्योंकि वह लेखक सचेत है। सच्चा लेख्क अपनेखुद का दुश्मन होता है। वह अपनी आत्म-शान्ति को भंग करके ही लेखक बना रह सकता है। इसीलिए लेखक अपनी कसौटी पर दूसरों की प्रशंसा को भी कसता है और आलोचना को भी। वह अपने खुद का सबसे बड़ा आलोचक होता है।

बेचारा सर्वज्ञ शब्द-तत्पर आलोचक यह सब क्या जाने ! वह केवल वाह्य प्रभाव की दृष्टि से देखता है। आलोचक साहित्य का दारोगा है। माना कि दारोगापन बहुत बड़ा कर्तव्य है - साहित्य,संस्कृति,समाज ,विश्व तथाब्रह्माण्ड के प्रति। लेकिन मुश्किल यह है कि वह जितना उंचा उत्तरदायित्व सिर पर ले लेता है, अपने को उतना ही महान अनुभव करता है। और सच्चा लेखक जितनी बड़ी जिम्मेदारी अपने सिर पर ले लेता है, स्वयं को उतना अधिक तुच्छ अनुभव करता है। उसे अपनी अक्षमता और आत्मसीमा का साक्षत् बोध होता रहता है। ऐसा क्यों? इसलिए कि अभिव्यक्ति की तुलना जी में धड़कनेवाले केवल वस्तु सत्य से ही नहीं करता, वरन् अपने स्वयें के साक्षात्कार सामर्थ्य की तुलना उस वस्तु-सत्य की विशालता से भी करता है। आत्म-सत्य भी कह सकते हैं उसे, जिसकी धारणा के लिए उसे लगता है कि जितनी आवश्यक मनःशक्ति उसमें चाहिए उतनी नहीं है। कभी-कभी तो उसे केतल आभास-संवेदन से ही काम चला लेना पड़ता है। तब अपनी विषय-वस्तु की विशालता और गहराई की तुलना में लेखक अपने को हीन क्यों न अनुभव करे ,जब कि वह खूब जानता है कि उसने जो कुछ वस्तुतः सम्पन्न किया है उससे भी अच्छा किया जा सकता था। विषय-वस्तु के प्रति लेखक का यह संवेदनात्मक उत्तरदायित्व,उसकी मनःशक्ति को किस तरह भंग किये रखता है,यह किसी सच्चे लेखक से ही जाना जा सकता है।

मैंने उस दुबले-पतले चेहरे के सन्देह-भाव को देखा और बात पलटने की दृष्टि से कहा, “यह जरूर है कि आपकी कहानी बहुत ज्यादा मनोवैज्ञानिक थी।"

उसने मुसकराकर जवाब दिया, "मनौवैज्ञानिक न होती तो क्या होती ! मन में ही घुलते और घुटते रहले के सिवा और क्या है जिन्दगी में ?"

मैंने उससे असहमति प्रकट करनी चाही। मैंने पूछा, तो क्या आप कुण्ठा को मनोवैज्ञानिकता की जननी मानते हैं।

"ककुण्ठा-वुण्ठा , मैं नहीं समझता, “उसने जवाब दिया, “हर जमाने में गरीबों की मुश्किल रही है हर जमाने में एक श्रेणी का दिल नहीं खुला है- बहुत विशाल श्रेणी का ,भारतीय जनता का ,मेहनतकश का।“ वह आगे कहता गया, “पिछला कौन-सा ऐसा युग था जिसमें कुण्ठा न हरी हो ?... और फिर...और फिर...कुण्ठा का मतलब क्या है ? उसने समझाते हुए कहा, कुण्ठा का आधिपत्य तो तब समझना चाहिए जब कुण्ठा के बुनियादी कारणों को दूर करने की बेसब्री और विक्षोभ न हो। हाँ, कुण्ठा का अगर फ्रॅायडवाद और मार्क्सवाद की संकर सन्तान है।

वह दुबला-पतला चेहरा मेरे सामने उठावदार और उभारदार हो गया, उसमें भव्य गरिमा प्रतिबिम्बित हो उठी। मुझे लगा-उसका दिमाग खुद-ब-खुद सोचता है। उस वयक्ति में मेरी दिलचस्प ज्यादा बढ़ गयी। मैं उसके विचारों को आदरपूर्वक सुनने लगा।उसने मुझे बोलने का अवसर न देते हुए कहा, “मैं तो सिर्फ मेहनत पर, अकारथ मेहनत पर, उस मेहनत पर जो अपना पेट भी नहीं भर सकती, उस मेहनत पर जो बहुत सज्जन है, उस सीन-शीनल श्रम पर लिखनेवाला हूँ, उस श्रम का चित्रण करना चाहता हूँ, जिसका बदला कभी नहीं मिलता और जिसे आये-दिन आत्मबलिदान और त्याग की नसीहत दी जाती है ! मैं उस भयानक मशीन का चित्रण करने वाली कहानी नहीं, बल्कि उपन्यास लिखने वाला हूँ, जिसमें हर आदमी वह नहीं है जो वह वस्तुतः है या होना चाहेगा। उसमें मशीन का दोष नहीं। मशीन चलानेवालों का गुरुतर अपराध है ! इस मशीन की लौह-नलियों में पडत्रे हुए मानती श्रम का मैं चित्रण करना चाहता हूँ ! कहिए, आपका क्या खयाल है ?

“मैंने ढाई मिनिट तक जैसे साँस ही नहीं ली। उसके भाव-विचार ने न केतल मुझे प्रभावित किया था, वरन् दिमाग पर दबाव डाल दिया था। मेरे सिर पर वजन हो गया था।

मैंने धीरे-धीरे कहा, “जरूर चित्रण कीजिए, जरूर लिखिए !

“क्यों, लेकिन आप चुप हो गये ! "

मैंने कहा, “चुप नहीं, मैं सोच रहा थ कि सिर्फ बहुत बड़ी थीम (विषय) उठा लेने से काम नहीं चलता। यह जरूरी है कि सिर्फ उतना ही अंश उठाया जाये जिसका मन पर अत्यधिक आघात हुआ हो। बड़ी भारी बिल्डिंग खड़ी करने को बजाय छोटी-सी कुटिया खड़ी की जाये तो अधिक अच्छा होगा।"

उसने कहा, “सही है। आसमान का चित्रण सधे न सधे, सामने के मैले डबरे में डबरे में सूरज के बिम्ब का चित्रण मुझसे सध भी जायेगा।“ उस व्यक्ति के इस वचन में आत्म-दया की हलकी-सी गूँज मुझे सुनाई दी।
मैंने बेरूखी से कहा, “इस आत्म-दया की जरूरत नहीं। एक सच्चे आर्टिस्ट का संघर्ष बहुत घुमावदार होता है ! हाँ, लेकिन भीतर सूरज का प्रतिबिम्ब धारण किये हैं। पूरा वस्तु-सत्य इस इमेज में आ गया है। इसीलिए पत्रवह महत्वपूर्ण है। हमारा परिश्रम भी तो थोड़ा नहीं है। हमारी साँस भी तो उखड़ी-उखड़ी है। डबरे हुए तो क्य हुआ, हैं तो प्रकृति-जन्य !"

एकाएक जैसे मैंने उसकी कमजोर रग पकड़ ली। उसमें आत्मविश्वास की कमी थी। जब सिर्फ सीना तानकर लोग खोटा माल खपा देते हैं और प्रभववादी होने के बहाने हर मामूली को गैर-मामूली बनाकर दुनिया के सामने उसे पेश करते हैं तो जो चीज सही और सच्ची है वह क्यों न ऐंठे ?

मैंने उससे कहा, “आजकल सच्चाई का सबसे बड़ा दुश्मन असत्य नहीं स्वयं सच्चाई ही है, क्योंकि वह ऐंठती नहीं, सज्जनता  को साथ लेकर चलती है। आजकल के जमाने में वह है आउट आफ डेट। जी ! उसलिए सत्य जरा युयुत्सु बने, वीर बने तभी वह धक सकता है, चल सकता है, बिक सकता है।"

वह और भी अप्रतिभ हो गया। किन्तु उसके चेहरे पर भीतर की खुशी का ज्यादा उजाला लाने के लिए मैंने उसे कहा, “बोल्डनेस हैज जीनियस ( औद्धत्य की अपनी प्रतीभा है)। गेटे का वाक्य है। मैं इसे उल्टा करके पढ़ता हूँ।“ मेरे कीमती कपड़ों के ठाठ ने मुझे कुछ उत्साहित तो कर ही दिया था (लेकिन क्या मैं सच कह रहा हूँ ?) जो हो ,हम दोनों जब बिदा हुए, बहुत दोस्त बनकर बिदा हुए।

Monday, September 3, 2018

विकल्प विमर्श- - फेसबुक एडीशन

यह पेज अच्छी रचनाये पढ़ने के लिए बनाया गया है । एक तरह से यह फेसबुक पत्रिका की तरह है जिसमे हर हफ्ते 3 या 4 कहानी ,कविता, लेख या कोई रम्य रचना पोस्ट की जाएगी । ये रचनाये कला साहित्य संस्कृति रंगकर्म फ़िल्म से लेकर समाज व अन्य समसामयिक विषयों पर होंगी । इसमे भाषा का बंधन भी नही रखा गया है ।
आप किसी अच्छी पठनीय रचना की लिंक /पोस्ट की जानकारी भी एडमिन को निजी मैसेज बॉक्स में भेज सकते हैं जो एडमिन द्वारा पोस्ट की जाएगी ।

आप अपनी या किसी अन्य लेखक की नई प्रकाशित किताब की जानकारी ( प्रकाशक, मूल्य व उपलब्धता सहित) अथवा किताब की समीक्षा भी भेजें ताकि हम इसे भी इस पेज पर प्रकाशित कर पाठकों से साझा कर सकें।

आप पढ़ें और प्रतिक्रिया संपादक के मैसेज बॉक्स में पोस्ट करें ।

आपसे सहयोग की अपेक्षा करते हैं ।

जीवेश प्रभाकर
संपादक

पेज की लिंक-- 
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Wednesday, July 25, 2018

प्रभाकर चौबे के व्यक्तिव व कृतित्व पर केंद्रित प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर का आयोजन

प्रभाकर चौबे ने निरपेक्ष भाव से लेखन किया....

  प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर द्वारा हाल ही में दिवंगत वरिष्ठ साहित्यकार व्यंग्यकार व पत्रकार श्री  प्रभाकर चौबे के व्यक्तित्व व कृतित्व पर केंद्रित प्रभाकर चौबे:व्यक्तित्व एवं कृतित्व का आयोजन किया गया । आयोजन में छत्तीसगढ़ के विभिन्न जिलों से साथी रचनाकारों ने उन्हें बड़ी शिद्दत से उनके कृतित्व पर विमर्श किया ।उल्लेखनीय है कि श्री प्रभाकर चौबे पत्रकारिता व साहित्य के साथ ही समाजसेवा व ट्रे़ड यूनियन में भी लगातार सक्रिय रहे । श्री प्रभाकर चौबे प्रगतिशील लेखक संघ व भारतीय जन नाट्य संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष मंडल में एवं हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य तथा छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के संरक्षक थे । वे दशकों ट्रेड यूनियन में प्रमुख पदों पर लगातार सक्रिय रहे। पत्रकारिता के साथ साथ उन्होने साहित्य में भी काफी लिखा है । 
     सबसे पहले भिलाई से आए वरिष्ठ कथाकार लोकबाबू ने लिखित आलेख का पाठ किया । इस आलेख में उन्होंने प्रभाकर चौबे के सांगठनिक व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला ।इसके पश्चात रायपुर प्रगतिशील लेखक संघ के वरिष्ठ साथी व कवि डॉ आलोक वर्मा ने अपने संस्मरण साझा करते हुए कहा कि उनके व्यक्तित्व व कृतित्व में कोई अंतर नही था । वे जैसे थे वैसे ही लिखते भी थे । उन्होंने कहा कि प्रभाकर चौबे ने लगातार लोक शिक्षण का काम किया । रायपुर इप्टा के वरिष्ठ निर्देशक मिन्हाज असद ने कहा कि उनकी तीन बातें महत्वपूर्ण थी पढ़ना , लिखना और सामाजिक जुड़ाव । वरिष्ठ व्यंग्यकार रवि श्रीवास्तव ने उनके व्यंग्य रचनाओं की चर्चा करते हुए कहा कि प्रभाकर चौबे के व्यंग्य में प्रतिबद्धता होती थी । उनके व्यंग्य हास्य न होकर घर अर्थ लिए गंभीर व्यंग्य हुआ करते थे ।
      दुर्ग से आये वरिष्ठ आलोचक जय प्रकाश ने प्रभाकर चौबे की कविताओं पर अपनी बात कही । उन्होंने कहा कि प्रभाकर चौबे ने बहुत सशक्त गद्य के साथ ही गंभीर व प्रभावशील कविताओं का सृजन किया । जाय प्रकाश जी ने कहा कि प्रभाकर चौबे ने बिना किसी लालसा या महत्वाकांक्षा के निरपेक्ष भावना से सृजन किया । जय प्रकाश ने कहा कि प्रभाकर चौबे सिर्फ व्यंग्यकार ही नही थे बल्कि एक गंभीर वैचारिक लेखन भी करते रहे ।वे अपनी कविताओं में लोक जीवन के भीतर जाते हैं और उन अनुभवों को बहुत संवेदनाओं के साथ व्यक्त करते हैं । उनके काव्य जगत में बिखराव नही है ।
    प्रगतिशील लेखक संघ छत्तीसगढ़ के महासचिव नथमल शर्मा ने प्रभाकर चौबे के सांगठनिक व्यक्तित्व पर अपनी बात कही । मुख्य अतिथि महेंद्र मिश्र ने अपनी बात में बताया कि प्रभाकर चौबे उनके दो करीबी मित्रों में एक थे । साथी का जाना शब्दों में व्यक्त नही किया जा सकता  । ये एक अहसास है जिसे महसूस किया जा सकता है । कार्यक्रम के अध्यक्ष ललित सुरजन ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि प्रभाकर चौबे लोक शिक्षण का कार्य सिर्फ अखबारों में लिखकर ही नही बल्कि जनता के बीच जाकर सीधे संवाद के ज़रिए भी करने पर ज़ोर दिया करते थे । उन्होंने अपने साथ प्रभाकर चौबे के साथ अपने लगभग 6 दशकों के संबंधों को याद करते हुए अनेक प्रसंगों का ज़िक्र किया । उन्होंने कहा कि प्रभाकर चौबे बहुत कठिन संघर्षों से गुजरे थे मगर फिर भी वे समाज के प्रति हमेशा सद्भभावना रखते थे । उनके मन मे समाज के प्रति अपनी जवाबदारी समझते थे ।अरुनकान्त शुक्ला ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि उन्हीं के प्रोत्साहन से मेरा कविता संग्रह निकल सका ।
   कार्यक्रम का संचालन प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर के अध्यक्ष संजय शाम ने किया । अंत मे बिगत दिनों दिवंगत हुए सुप्रसिद्ध साहित्यकार तेजिंदर को श्रद्धाञ्जली अर्पित करते हुए प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर के  सचिव जीवेश प्रभाकर ने आभार व्यक्त किया और बताया कि शीघ्र ही तेजिंदर पर एक आयोजन किया जाएगा । इस गरिमापूर्ण आयोजन में नगर के बुद्धिजीवी रंगकर्मी व सुधिजन बड़ी संख्या में उपस्थित थे ।