Saturday, December 31, 2016

विकल्प विमर्श : मुक्तिबोध स्मरण श्रंखला-3

इस बार कविता--
पूंजीवादी समाज के प्रति
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इतने प्राण, इतने हाथ, इनती बुद्धि
इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि
इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति
यह सौंदर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति
इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद –
जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बंध
इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुंदर-जाल –
केवल एक जलता सत्य देने टाल।
छोड़ो हाय, केवल घृणा औ' दुर्गंध
तेरी रेशमी वह शब्द-संस्कृति अंध
देती क्रोध मुझको, खूब जलता क्रोध
तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध
तेरे रक्त से भी घृणा आती तीव्र
तुझको देख मितली उमड़ आती शीघ्र
तेरे ह्रास में भी रोग-कृमि हैं उग्र
तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध, तुझ पर व्यग्र।
मेरी ज्वाल, जन की ज्वाल होकर एक
अपनी उष्णता में धो चलें अविवेक
तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ।
(गजानन माधव मुक्तिबोध)

Friday, December 9, 2016

साहित्यिक परिदृश्य के जरूरी हस्ताक्षर विनोद शंकर शुक्ल – -जीवेश चौबे

    सर एक कार्यक्रम कर रहे हैं आपका सहयोग व मार्गदर्शन चाहिए .... आप कभी भी मोबाइल पर कहें और हमेशा जवाब आता , आ जाओ घर पर । चाहे कोई भी हो, सर . यानि सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार विनोद शंकर शुक्ल हर हमेशा साहित्यिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए हर तरह के सहयोग को तत्पर रहते। उनके लिए साहित्य एक जज्बा था, जुनूनू था  जो उन्हें लगातार शहर की तमाम गतिविधियों से जोड़े रखता था । लगभग चार दशकों से भी ज्यादा समय  से वे रायपुर के साहित्यिक परिदृश्य के जरूरी हस्ताक्षर की तरह थे । लगभग हर शाम वे पैदल सड़क पर चलते हुए एक चक्कर जरूर लगाते और पुराने बस स्टैंड स्थित किताब दुकान से होते हुए घर लौटते । यदि आपको उनसे मिलना हो तो आप शाम के वक्त इस ठिकाने पर जरूर मिल सकते थे।
      छत्तीसगढ़ के प्रमुख व्यंग्यकारों में एक विनोद शंकर शुक्ल का पूरा जीवन रायपुर के साहित्यिक वातावरण में गुजरा ।  नगर के हर साहित्यिक सांस्कृतिक आयोजनों में वे जरूर उपस्थित रहते ।  अपने नाम के अनुरूप वे एक खुशमिजाज, विनोदप्रिय थे । कॉलेज जीवन से ही वे साहित्य से जुड़ गए थे । आधी सदी से भी ज्यादा समय से वे हमारे परिवार से जुड़े रहे । पारिवारिक संबंध के अलावा पिता श्री प्रभाकर चौबे के व्यंग्यकार होने के कारण संबंध और घनिष्ठ होते चले गए । परसाईजी और शरद जोशी के पश्चात वे प्रभाकर चौबे को भी अपना आदर्श मानते थे। वे उन्हें बड़े भाई की तरह मानते थे और ताउम्र उन्होंने इस रिश्ते को निभाया ।  विनोदजी व्यंग्यकार होने के साथ साथ एक जबरदस्त घुमक्कड़ भी थे और पिता के साथ देश के तमाम स्थानो पर घूमने निकल जाया करते थे ।   साहित्य सम्मेलनो में दोनो जब भी जाते सम्मेलन के पश्चात साथ में आसपास के पर्यटन स्थलों के लिए निकल पड़ते । कन्याकुमारी ये लेकर हिमाचल या फिर नॉर्थ ईस्ट से लेकर द्वारका तक लगभग सभी जगह वे दोनो यायावर की तरह घूमते ।
      बहुत कम लोगों को पता है कि विनोदजी छत्तीसगढ़ महाविद्यालय के शासकीय होने के पूर्व  अनुदान प्राप्त अशासकीय महाविद्यालय शिक्षक संघ के अध्यक्ष भी रहे । वे प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा से भी जुड़े रहे । एक लम्बे अरसे तक वे भारतीय जन नाट्य संघ ( इप्टा ) के रायपुर के अध्यक्ष रहे । एक बात और याद आती है कि बहुत पहले उन्होंने कर्फ्यू नाटक लिखा जिसका सार्वजनिक पाठ भी हुआ मगर संभवतः उसका मंचन नहीं हो पाया । विनोद जी पढ़ने के बहुत शौकीन थे, विशेष रूप से व्यंग्य ।लगभग हर व्यंग्यकार के संकलन उनके पास मौजूद थे और साथ ही अन्य किताबें भी । वे पूरी तरह साहित्य व संस्कृति को समर्पित थे । अपने इसी जूनूल के चलते उन्होंने अपने घर पर एक साहित्यिक आयोजनो के लिए संस्कृति नाम से एक हॉल ही बना लिया था जहां लम्बे समय तक कई साहित्यिक आयोजन, अनेक गोष्ठियां और कार्यक्रम होते रहे ।
      विनोद जी अपने शुरुवाती दिनो में अग्रदूत से भी जुड़े फिर बाद में लम्बे समय तक दैनिक नवभारत में उनके व्यंग्य प्रकाशित होते रहे । कहा जाए तो वे दूसरी पीढ़ी के प्रमुख व्यंग्यकारों में एक रहे । उन्होने व्यंग्य शती नामक त्रैमासिक पत्रिका भी लम्बे अरसे तक प्रकाशित की जिसका पूरे देश में विशेष स्थान रहा । काफी पहले उन्होंने नगर में एक व्यंग्य सम्मेलन भी करवाया था । विनोदजी के साथ एक बात बहुत अच्छी थी कि उन्हें किसी भी विषय पर बोलने का लिए बहुत ज्यादा तैयारी की जरूरत नहीं होती थी । मैं अक्सर अपने विभिन्न व विविध विषयों पर केन्द्रित आयोजनो में उनसे वक्तव्य के लिए आग्रह करता और वे सहज रूप से तैयार हो जाते ।
      मैं छत्तीसगढ़ महाविद्यालय में पत्रकारिता मे उनका छात्र भी रहा । साहित्य में रुचि के चलते मैं उनका विशेष प्रिय भी था । उसके पश्चात पिता से अलग मेरा उनसे एक विशेष संबंध बन गया जो लगातार प्रगाढ़ होता गया । उनके पुत्र अपराजित से मित्रता भी एक विशेष कारण रही । जब उनकी तबियत बिगड़ी तो मैं परेशान हो गया । उनके ऑपरेशन के पश्चात मैं उनसे मिलने अस्पताल गया । वे काफी नर्वस थे । वे चाहते थे लोगों से मिलना मगर तबियत के चलते यह संभव नहीं था । फिर जब वे अस्पताल से घर आए तो मैं वहां भी गया ।  मुझे लगा अब वे स्वस्थ होकर वापस सामान्य दिनचर्या में जल्द लौट आयेंगे मगर उन्हें इन्फैक्शन हो गया जो लगातार बिगड़ता गया और अंत में अपराजित उन्हें मुम्बई ले गया मगर हालत में कुछ सुधार नहीं पो पाया । एक मस्त मौला व्यक्ति यूं लगातार अकेलेपन मे टूटता सा गया । एक लम्बे अरसे से विनोदजी अपनी बीमारी से जूझ रहे थे । उनका घर से निकलना बंद था और वे मन मसोसकर असहाय से पड़े रहते थे । बीमारी से वे उतने दुखी नहीं हुए मगर सामाजिक संलग्नता से वंचित होने से वे लगभग टूट से गए थे ।
      अपराजित से उनका हालचाल पता चलता रहता था और जी की तो लगातार उनसे बात होती रहती थी । कुछ दिनो पहले ही तो अपराजित ने कहा था कि पापा बहुत तेजी से रिकवर कर रहे हैं और जल्द रायपुर आने वाले हैं । एकाध बार बातचीत के दौरान मैने अपराजित से कहा भी कि तुम सर को कोई आयोजन में ले जाया करो वे जल्द स्वस्थ हो जायेंगे । मगर नियति को कुछ और ही मंजूर था । अकेलेपन और साहित्यिक विस्थापन से वे टूटते चले गए  । उनका जाना सबको उदास कर गया । वे हर उम्र के संस्कृतिकर्मी के मित्र सरीखे थे । सभी के लिए उनके मन में अपार स्नेह व सम्मान था । उनका जाना एक अपूरणीय क्षति है और नगर के साहित्यिक परिदृश्य से एक अध्याय का समाप्त होना है ।

---जीवेश चौबे   

Saturday, December 3, 2016

विकल्प विमर्श की मुक्तिबोध स्मरण श्रंखला-2 कहानी- काठ का सपना ः गजानन माधव मुक्तिबोध

विकल्प विमर्श की मुक्तिबोध स्मरण श्रंखला-2 


काठ का सपना ः गजानन माधव मुक्तिबोध 
भरी, धुआँती मैली आग जो मन में है और कभी-कभी सुनहली आँच भी देती है। पूरा शनिश्‍चरी रूप।
वे एक बालिका के पिता हैं, और वह बालिका एक घर के बरामदे की गली में निकली मुँडेर पर बैठी है, अपने पिता को देखती हुई। उन्‍हें देख उसके दुबले पीले चेहरे पर मुस्‍कराहट खिलती है। और वह अपने दोनों हाथ आगे कर देती है जिससे कि उसके काका उसे अपने कंधों पर ले लें।

उसके पिता अपनी बालिकाओं को देख प्रसन्‍न नहीं होते हैं। विक्षुब्‍ध हो जाता है उनका मन। नन्‍हीं बालिका सरोज का पीला उतरा चेहरा, तन में फटा हुआ सिर्फ एक 'फ्राक' और उसके दुबले हाथ उन्‍हें बालिका के प्रति अपने कर्तव्‍य की याद दिलाते हैं; ऐसे कर्तव्‍य की जिसे वे पूरा नहीं कर सके, कर भी नहीं सकेगें, नहीं कर सकते थे। अपनी अक्षमता के बोध से ये चिढ़ जाते हैं। और वे उस नन्‍हीं बालिका को डाँट कर पूछते हैं, 'यहाँ क्‍यों बैठी है? अंदर क्‍यों नहीं जाती।'

बालिका सरोज, गंभीर, वृद्ध दार्शनिक-सी बैठी रहती है। अपने क्रोध पर पिता को लज्‍जा आती है। उनका मन गलने लगता है। उनके हृदय में बच्‍ची के प्रति प्‍यार उमड़ता है। वे उसे अपने कंधे पर ले लेते हैं। ऊँचे उठने का सुख अनुभव कर बच्‍ची मुस्करा उठती है।

पिता बच्‍ची को लिए घर में प्रवेश करते हैं तो एक ठंडा सूना, मटियाली बास-भरा अँधेरा प्रस्‍तुत होता है, पिछवाड़े के अंतिम छोर में आसमान की नीलाई का एक छोटा चौकोर टुकड़ा खड़ा हुआ है! वह दरवाजा है।

घर में कोई नहीं है।

सिर्फ दो साँसें हैं,

एक पिता की।

दूसरी पुत्री की।

वे एक अँधेरे कोने में बैठ जाते हैं और उनके घुटनों में वह बालिका है। उसका चेहरा पिता को दिखाई नहीं देता। फिर भी वह पूरा-का-पूरा महसूस होता है। वे चुपचाप उसके गाल पर हाथ फेरते जाते हैं और सोचते हैं कि वह लड़की मेरे समान ही धैर्यवान है, सब कुछ पहचानती है। बड़ी प्‍यारी लड़की है। उन्‍हें लगता है कि उनकी आँखे तर हो रही हैं।

एकाएक खयाल आता है कि अगर घर में बड़ा आईना होता तो अच्‍छा होता; अपनी बड़ी आँसू-भरी सूरत की बदसूरती देख लेते। उन्‍हें उमर रसीदा आदमियों का रोना अच्‍छा नहीं लगता।

सामने, अँधेरे में, रंग-बिरंगी पर धुँधली आकृतियाँ तैर जाती हैं। सुंदर चेहरेवाली एक लड़की है, वह उनकी सरोज है! नारंगी साड़ी है, सुनहली किनारी है सफेद ब्‍लाउज है! गले में हार है। हाथों में रंग-बिरंगी चूड़ियाँ हैं - एक-एक दर्जन! पति के घर से वापस लौटी है। खुश है, दामाद मैकेनिकल इंजीनियर है जिसकी गरीब सूरत है। और वह बाहर बरामदे में कुरसी पर बैठा है; क्‍या करे सूझता नहीं!

घर में उनकी स्‍त्री पूड़ी बना रही है। पकौड़ियाँ बन रही हैं। बहुत-बहुत-सी चीजें हैं। भाग-दौड़ है। हल्‍ला-गुल्‍ला है। शोर-शराबा है। लोग आ-आ कर बैठ रहे हैं - आ रहे हैं, जा रहे हैं। पास-पड़ोस की लुगाइयाँ चौके में मदद कर रही हैं। और उनके दिल में... क्‍या करें, क्‍या न करें, सब कुछ कर डालें! क्‍या ही अच्‍छा होता कि उनमें यह ताकत होती कि वे सबको प्रसन्‍न कर सकते और सारी दुनिया को खुश देख सकते। ...कि इतने में सपना टूट जाता है।

बरामदे का दरवाजा बज उठता है। पैरों की आवाज से साफ जाहिर होता है कि स्‍त्री, जो कहीं गई थी लौट आई है।

अंदर आ कर देखती है। उसे अचंभा होता है। 'यहाँ क्‍या कर रहे हो?'

उसकी आवाज गूँजती है। जैसे लोहे की साँकल बजती है। जैसे ईमान बजता है!

'सरोज कहाँ है?'

कोई आवाज नहीं! सरोज और उसके पिता स्‍तब्‍ध बैठे हैं।

पिता बोलते हैं मानो छाती के कफ को चीरती हुई घरघराती आवाज आ रही हो। कहते हैं, 'कहाँ गई थी? घर बड़ा सूना लग रहा था।'

स्‍त्री कोई जवाब नहीं दे कर वहाँ से चली जाती है। आँगन में पहुँच कर, जमीन में गड़ा हुआ एक पुराना पेड़, जो कट चुका है और जिसकी झिल्लियाँ बिखरी हैं, उस पर पैर रख कर खड़ी होती है। जमीन में उस कटे पेड़ में से जमीन की तहें छूते हुए नए अंकुर निकले हैं। बाद मे उन पर से उतर कर वह झिल्लियाँ बीनती है। पड़ोस से लाई हुई कुल्‍हाड़ी चला कर उन अधकटे ठूँठों से लकड़ी निकालने का खयाल आता है। लेकिन काटने का जी नहीं होता। इसलिए झिल्लियाँ बीन कर वह उनका एक ढेर बना देती है और फिर आँगन की दीवार की मुँडेर पर चढ़ जाती है, क्‍योंकि उस मुँडेर के एक ओर नीम की एक सूखी डाल निकल आई है।

उसे वह तोड़ती है। ऊँची मुँडेर पर चढ़ कर नीम की सूखी डाल तोड़ लाने का जो साहस है, उस साहस से दीप्‍त हो कर वह प्रफुल्‍ल हो जाती है। सारी लकड़ी ठंडे चूल्‍हे के पास लाती है, जमा कर देती है।

सरोज पिता की गोद से उठ आई है। वह देखती है कि चूल्‍हे में सुनहली ज्‍वाला निकल रही है! वह देखती है, और देखती रह जाती है। उसे उस ज्‍वाला का रंग अच्‍छा लगता है। वह चूल्‍हे के पास जा कर बैठ गई है। उसकी रीढ़ की हड्डी दु:ख रही है, पर चूल्‍हे में जलती हई ज्‍वाला उसे अच्‍छी लग रही है।

सारा चौका सुहाना हो उठता है - भूरा-मटियाला, साफ-सुथरा! भीत की पटिया पर रखी पीतल की एक भगोनी, छोटे-छोटे दो गिलास और दो कटोरियाँ, कैसी चमचमा रही हैं, कितनी सुंदर! उन पर माँ का हाथ फिरा है। तभी तो... तभी तो...।

सुबह के पकाए भात में पानी डाला जाता है और नमक! चूल्‍हे पर चढ़ गया है भात! सुबह का बेसन भी है। उसमें पानी मिला दिया जाता है। उसे भी चूल्‍हे के दूसरे मुँह पर रख दिया गया है, सीझता रहेगा!

सरोज बोलती नहीं, माँ बोलती नहीं, पिता बोलते नहीं!

जब वह नन्‍ही बालिका भोजन कर चुकी तो उसकी जान में जान आई। बोरे पर बिछे, माँ के चिथड़े से बने, अपने मुलायम बिस्‍तर पर वह सो गई। पिताजी के बिस्‍तर से सटा हुआ उसका बिस्‍तर है! वे उसे अपने पास नहीं लेते। रात को वह बिस्‍तर गीला करती है, इसलिए!

दोनों तथाकथित बिस्‍तरों पर लेट गए हैं! दोनों को नींद नहीं! दोनों एक दूसरे से कुछ कहना चाहते हैं; कहना आवश्‍यक है। उस पूर्व-ज्ञान को वे कहना-सुनना नहीं चा‍हते। वह पूर्व-ज्ञान वेदनाकारक है, इसलिए उसे न कहना ही अच्‍छा! फिर भी न कहने से काम नहीं बनता, क्‍योंकि कह-सुन लेने से अपने-अपने निवेदनों पर सील लग जाती है, व्‍यक्तिगत मुहर लग जाती है। वह व्‍यक्तिगत मुहर अभी लगी नहीं हैं। हर एक उत्‍तर हर एक ज्ञान है। फिर भी बहुत कुछ अज्ञात छूट जाता है!

वे नहीं चा‍हते थे कि रात में नींद के पहले के ये कुछ क्षण खराब हो जाएँ, मन:स्थिति विकृत हो और दुर्दमनीय चिंता से ग्रस्‍त हो कर वे रात-भर जागते-कराहते रहें। नहीं, ऐसा नहीं! चिंता सुबह उठ कर करेंगे। रात है। यह रात अपनी है। कल की कल देखी जाएगी!

किंतु इन खयालों से माथे का दुखना नहीं थमता, देह की थकान दूर नहीं होती, असंतोष की आग और बेबसी का धुआँ दूर नहीं होता।

नहीं, उसका एक उपाय है! जबरदस्‍ती नींद लाने के लिए आप एक से सौ तक गिनते जाइए! इस तरह, आप कई बार गिनेंगे, दिमाग थक जाएगा और आप ही आप भीतर अँधेरा छा जाएगा। एक दूसरा तरीका है! रेखागणित की एक समस्‍या ले लीजिए। मन-ही-मन चित्र तैयार कीजिए। उसके कोणों को नाम दीजिए और आगे बढ़ते जाइए। अंत तक आने के पहले ही नींद घेर लेगी। एक और भी मार्ग है, जिसे इस लेख का लेखक अपनाया करता है! मस्तिष्‍क की सारी नसें ढीली कर दीजिए। आँखे मूँद कर पलकें बिलकुल बंद करके, सिर्फ अँधेरे को एकाग्र दे‍खते रहिए। तरह-तरह की तसवीरें बनेंगी। पेड़दार रास्‍ते और उस पर चलती हुई भीड़ अथवा पहाड़ और नदियाँ जिनकों पार करती हुई रेलगाड़ी... भक-भक-भक ।

अँधेरा जड़ हो गया और छाती पर बैठ गया। नहीं, उसे हटाना पड़ेगा ही - सरोज के पिता सोच रहे हैं! और उनकी आँखे बगल में पड़े हुए बिस्‍तर की ओर गईं।

वहाँ हलचल है। वहाँ भी बेचैनी है। लेकिन कैसी?

...लेकिन उन दोनों में न स्‍वीकार है न अस्‍वीकार! सिर्फ एक संदेह है, यह संदेह साधार है कि इस निष्क्रियता में एक अलगाव है - एक भीतरी अलगाव है। अलगाव में विरोध है, विरोध में आलोचना है, आलोचना में करुणा है। आलोचना पूर्णत: स्‍वीकरणीय है, जिसे इस पुरुष ने कभी पूरा नहीं किया। वह पूरा नहीं कर सकता।

कर्तव्‍य कर्म को पूरा करना केवल उसके संकल्‍प-द्वारा ही नहीं हो सकता। उसके लिए और भी कुछ चाहिए! फिर भी, वह पुरुष मन-ही-मन यह वचन देता है, यह प्रतिज्ञा करता है कि कल जरूर वह कुछ-न-कुछ करेगा; विजयी हो कर लौटेगा।

पुरुष में भी आवेश नहीं है। वह भी ठंडा है, सिर्फ गरमी लाने की कोशिश कर रहा है।

वह उसकी बाँहों में थी। निश्‍चेष्‍ट शरीर! फिर भी, उसमें एक उष्‍मा है, जो मानो सौ नेत्रों से अपने पुरुष को देख रही हो, निर्णय प्रदान करने के लिए प्रमाण एकत्र कर रही हो। फिर भी निश्‍चेष्‍ट और सक्रिय!

पुरुष संवेदनाओं के जाल में खो गया। उसे स्‍त्री के होठ गुलाब की सूखी पंखुरियों-से लगे, जिससे उसे सूरज की गरमी की याद आई। उसके कपोल मिट्टी-से थे - भुसभुसी, नमकीन, शुष्‍क मृत्तिका! उसका हृदय एक अनजानी गूढ़ करुणा की सूचना से भर उठा। ...हाँ, उसका पेट, उसकी त्‍वचा में तो घरेलू बास थी। उसने उसे अपनी बाँहों में भर लिया और वह, मन-ही-मन, उस पूरी गरम चिलकती हुई पृथ्‍वी को याद करने लगा जिस पर वह बेसहारा मारा-मारा फिरता है। क्‍या यह पृथ्‍वी उतनी ही दु:खी रही है जितना कि वह स्‍वयं है!

एक उर्जा उठी और गिर गई। पुरुष निश्‍चेष्‍ट पड़ा रहा। मन जाग्रत था।

...दोनों स्‍त्री-पुरुष के जीवन पर विराम का पूर्ण चिह्न लग गया है, काठ हो गए हैं। बाढ़ आती है। किनारे पर पड़े हुए काठों को बहा कर ले जाती है। जल-विप्‍लव में। काठ बहते जाते हैं, फिर भी वे प्राणहीन काठ, आपस में गुँथे हुए बहे जा रहे हैं।

बादल-तूफान के कारण, पेड़ तिरछे हो रहे हैं। पर वे गुँथे-बँधे बहे जा रहे हैं, बहे जा रहे हैं... और, हाँ गुँथे-बँधे काठ खाली नहीं हैं। उन पर एक बालिका बैठी हुई है। हाँ, वह सरोज है। अपने नन्‍हे दो हाथ उसने दोनों के काठों पर टेक दिए हैं, जिनके सहारे वह स्‍वयं चली जा रही है।

सरोज की उस बाल मूर्ति की रक्षा करनी ही होगी! उन दो निष्‍प्राण काठ-लट्ठों का यही कर्तव्‍य है।

पुरुष इस स्‍वप्‍न को देखता ही रहता है। बारह का गजर होता है। रात और आगे बढ़ती है। सप्‍तर्षि, जो अब तक कोने में थे, सामने आ कर साफ दिखाई देते हैं।