Saturday, December 31, 2016

विकल्प विमर्श : मुक्तिबोध स्मरण श्रंखला-3

इस बार कविता--
पूंजीवादी समाज के प्रति
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इतने प्राण, इतने हाथ, इनती बुद्धि
इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि
इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति
यह सौंदर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति
इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद –
जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बंध
इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुंदर-जाल –
केवल एक जलता सत्य देने टाल।
छोड़ो हाय, केवल घृणा औ' दुर्गंध
तेरी रेशमी वह शब्द-संस्कृति अंध
देती क्रोध मुझको, खूब जलता क्रोध
तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध
तेरे रक्त से भी घृणा आती तीव्र
तुझको देख मितली उमड़ आती शीघ्र
तेरे ह्रास में भी रोग-कृमि हैं उग्र
तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध, तुझ पर व्यग्र।
मेरी ज्वाल, जन की ज्वाल होकर एक
अपनी उष्णता में धो चलें अविवेक
तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ।
(गजानन माधव मुक्तिबोध)

Friday, December 9, 2016

साहित्यिक परिदृश्य के जरूरी हस्ताक्षर विनोद शंकर शुक्ल – -जीवेश चौबे

    सर एक कार्यक्रम कर रहे हैं आपका सहयोग व मार्गदर्शन चाहिए .... आप कभी भी मोबाइल पर कहें और हमेशा जवाब आता , आ जाओ घर पर । चाहे कोई भी हो, सर . यानि सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार विनोद शंकर शुक्ल हर हमेशा साहित्यिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए हर तरह के सहयोग को तत्पर रहते। उनके लिए साहित्य एक जज्बा था, जुनूनू था  जो उन्हें लगातार शहर की तमाम गतिविधियों से जोड़े रखता था । लगभग चार दशकों से भी ज्यादा समय  से वे रायपुर के साहित्यिक परिदृश्य के जरूरी हस्ताक्षर की तरह थे । लगभग हर शाम वे पैदल सड़क पर चलते हुए एक चक्कर जरूर लगाते और पुराने बस स्टैंड स्थित किताब दुकान से होते हुए घर लौटते । यदि आपको उनसे मिलना हो तो आप शाम के वक्त इस ठिकाने पर जरूर मिल सकते थे।
      छत्तीसगढ़ के प्रमुख व्यंग्यकारों में एक विनोद शंकर शुक्ल का पूरा जीवन रायपुर के साहित्यिक वातावरण में गुजरा ।  नगर के हर साहित्यिक सांस्कृतिक आयोजनों में वे जरूर उपस्थित रहते ।  अपने नाम के अनुरूप वे एक खुशमिजाज, विनोदप्रिय थे । कॉलेज जीवन से ही वे साहित्य से जुड़ गए थे । आधी सदी से भी ज्यादा समय से वे हमारे परिवार से जुड़े रहे । पारिवारिक संबंध के अलावा पिता श्री प्रभाकर चौबे के व्यंग्यकार होने के कारण संबंध और घनिष्ठ होते चले गए । परसाईजी और शरद जोशी के पश्चात वे प्रभाकर चौबे को भी अपना आदर्श मानते थे। वे उन्हें बड़े भाई की तरह मानते थे और ताउम्र उन्होंने इस रिश्ते को निभाया ।  विनोदजी व्यंग्यकार होने के साथ साथ एक जबरदस्त घुमक्कड़ भी थे और पिता के साथ देश के तमाम स्थानो पर घूमने निकल जाया करते थे ।   साहित्य सम्मेलनो में दोनो जब भी जाते सम्मेलन के पश्चात साथ में आसपास के पर्यटन स्थलों के लिए निकल पड़ते । कन्याकुमारी ये लेकर हिमाचल या फिर नॉर्थ ईस्ट से लेकर द्वारका तक लगभग सभी जगह वे दोनो यायावर की तरह घूमते ।
      बहुत कम लोगों को पता है कि विनोदजी छत्तीसगढ़ महाविद्यालय के शासकीय होने के पूर्व  अनुदान प्राप्त अशासकीय महाविद्यालय शिक्षक संघ के अध्यक्ष भी रहे । वे प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा से भी जुड़े रहे । एक लम्बे अरसे तक वे भारतीय जन नाट्य संघ ( इप्टा ) के रायपुर के अध्यक्ष रहे । एक बात और याद आती है कि बहुत पहले उन्होंने कर्फ्यू नाटक लिखा जिसका सार्वजनिक पाठ भी हुआ मगर संभवतः उसका मंचन नहीं हो पाया । विनोद जी पढ़ने के बहुत शौकीन थे, विशेष रूप से व्यंग्य ।लगभग हर व्यंग्यकार के संकलन उनके पास मौजूद थे और साथ ही अन्य किताबें भी । वे पूरी तरह साहित्य व संस्कृति को समर्पित थे । अपने इसी जूनूल के चलते उन्होंने अपने घर पर एक साहित्यिक आयोजनो के लिए संस्कृति नाम से एक हॉल ही बना लिया था जहां लम्बे समय तक कई साहित्यिक आयोजन, अनेक गोष्ठियां और कार्यक्रम होते रहे ।
      विनोद जी अपने शुरुवाती दिनो में अग्रदूत से भी जुड़े फिर बाद में लम्बे समय तक दैनिक नवभारत में उनके व्यंग्य प्रकाशित होते रहे । कहा जाए तो वे दूसरी पीढ़ी के प्रमुख व्यंग्यकारों में एक रहे । उन्होने व्यंग्य शती नामक त्रैमासिक पत्रिका भी लम्बे अरसे तक प्रकाशित की जिसका पूरे देश में विशेष स्थान रहा । काफी पहले उन्होंने नगर में एक व्यंग्य सम्मेलन भी करवाया था । विनोदजी के साथ एक बात बहुत अच्छी थी कि उन्हें किसी भी विषय पर बोलने का लिए बहुत ज्यादा तैयारी की जरूरत नहीं होती थी । मैं अक्सर अपने विभिन्न व विविध विषयों पर केन्द्रित आयोजनो में उनसे वक्तव्य के लिए आग्रह करता और वे सहज रूप से तैयार हो जाते ।
      मैं छत्तीसगढ़ महाविद्यालय में पत्रकारिता मे उनका छात्र भी रहा । साहित्य में रुचि के चलते मैं उनका विशेष प्रिय भी था । उसके पश्चात पिता से अलग मेरा उनसे एक विशेष संबंध बन गया जो लगातार प्रगाढ़ होता गया । उनके पुत्र अपराजित से मित्रता भी एक विशेष कारण रही । जब उनकी तबियत बिगड़ी तो मैं परेशान हो गया । उनके ऑपरेशन के पश्चात मैं उनसे मिलने अस्पताल गया । वे काफी नर्वस थे । वे चाहते थे लोगों से मिलना मगर तबियत के चलते यह संभव नहीं था । फिर जब वे अस्पताल से घर आए तो मैं वहां भी गया ।  मुझे लगा अब वे स्वस्थ होकर वापस सामान्य दिनचर्या में जल्द लौट आयेंगे मगर उन्हें इन्फैक्शन हो गया जो लगातार बिगड़ता गया और अंत में अपराजित उन्हें मुम्बई ले गया मगर हालत में कुछ सुधार नहीं पो पाया । एक मस्त मौला व्यक्ति यूं लगातार अकेलेपन मे टूटता सा गया । एक लम्बे अरसे से विनोदजी अपनी बीमारी से जूझ रहे थे । उनका घर से निकलना बंद था और वे मन मसोसकर असहाय से पड़े रहते थे । बीमारी से वे उतने दुखी नहीं हुए मगर सामाजिक संलग्नता से वंचित होने से वे लगभग टूट से गए थे ।
      अपराजित से उनका हालचाल पता चलता रहता था और जी की तो लगातार उनसे बात होती रहती थी । कुछ दिनो पहले ही तो अपराजित ने कहा था कि पापा बहुत तेजी से रिकवर कर रहे हैं और जल्द रायपुर आने वाले हैं । एकाध बार बातचीत के दौरान मैने अपराजित से कहा भी कि तुम सर को कोई आयोजन में ले जाया करो वे जल्द स्वस्थ हो जायेंगे । मगर नियति को कुछ और ही मंजूर था । अकेलेपन और साहित्यिक विस्थापन से वे टूटते चले गए  । उनका जाना सबको उदास कर गया । वे हर उम्र के संस्कृतिकर्मी के मित्र सरीखे थे । सभी के लिए उनके मन में अपार स्नेह व सम्मान था । उनका जाना एक अपूरणीय क्षति है और नगर के साहित्यिक परिदृश्य से एक अध्याय का समाप्त होना है ।

---जीवेश चौबे   

Saturday, December 3, 2016

विकल्प विमर्श की मुक्तिबोध स्मरण श्रंखला-2 कहानी- काठ का सपना ः गजानन माधव मुक्तिबोध

विकल्प विमर्श की मुक्तिबोध स्मरण श्रंखला-2 


काठ का सपना ः गजानन माधव मुक्तिबोध 
भरी, धुआँती मैली आग जो मन में है और कभी-कभी सुनहली आँच भी देती है। पूरा शनिश्‍चरी रूप।
वे एक बालिका के पिता हैं, और वह बालिका एक घर के बरामदे की गली में निकली मुँडेर पर बैठी है, अपने पिता को देखती हुई। उन्‍हें देख उसके दुबले पीले चेहरे पर मुस्‍कराहट खिलती है। और वह अपने दोनों हाथ आगे कर देती है जिससे कि उसके काका उसे अपने कंधों पर ले लें।

उसके पिता अपनी बालिकाओं को देख प्रसन्‍न नहीं होते हैं। विक्षुब्‍ध हो जाता है उनका मन। नन्‍हीं बालिका सरोज का पीला उतरा चेहरा, तन में फटा हुआ सिर्फ एक 'फ्राक' और उसके दुबले हाथ उन्‍हें बालिका के प्रति अपने कर्तव्‍य की याद दिलाते हैं; ऐसे कर्तव्‍य की जिसे वे पूरा नहीं कर सके, कर भी नहीं सकेगें, नहीं कर सकते थे। अपनी अक्षमता के बोध से ये चिढ़ जाते हैं। और वे उस नन्‍हीं बालिका को डाँट कर पूछते हैं, 'यहाँ क्‍यों बैठी है? अंदर क्‍यों नहीं जाती।'

बालिका सरोज, गंभीर, वृद्ध दार्शनिक-सी बैठी रहती है। अपने क्रोध पर पिता को लज्‍जा आती है। उनका मन गलने लगता है। उनके हृदय में बच्‍ची के प्रति प्‍यार उमड़ता है। वे उसे अपने कंधे पर ले लेते हैं। ऊँचे उठने का सुख अनुभव कर बच्‍ची मुस्करा उठती है।

पिता बच्‍ची को लिए घर में प्रवेश करते हैं तो एक ठंडा सूना, मटियाली बास-भरा अँधेरा प्रस्‍तुत होता है, पिछवाड़े के अंतिम छोर में आसमान की नीलाई का एक छोटा चौकोर टुकड़ा खड़ा हुआ है! वह दरवाजा है।

घर में कोई नहीं है।

सिर्फ दो साँसें हैं,

एक पिता की।

दूसरी पुत्री की।

वे एक अँधेरे कोने में बैठ जाते हैं और उनके घुटनों में वह बालिका है। उसका चेहरा पिता को दिखाई नहीं देता। फिर भी वह पूरा-का-पूरा महसूस होता है। वे चुपचाप उसके गाल पर हाथ फेरते जाते हैं और सोचते हैं कि वह लड़की मेरे समान ही धैर्यवान है, सब कुछ पहचानती है। बड़ी प्‍यारी लड़की है। उन्‍हें लगता है कि उनकी आँखे तर हो रही हैं।

एकाएक खयाल आता है कि अगर घर में बड़ा आईना होता तो अच्‍छा होता; अपनी बड़ी आँसू-भरी सूरत की बदसूरती देख लेते। उन्‍हें उमर रसीदा आदमियों का रोना अच्‍छा नहीं लगता।

सामने, अँधेरे में, रंग-बिरंगी पर धुँधली आकृतियाँ तैर जाती हैं। सुंदर चेहरेवाली एक लड़की है, वह उनकी सरोज है! नारंगी साड़ी है, सुनहली किनारी है सफेद ब्‍लाउज है! गले में हार है। हाथों में रंग-बिरंगी चूड़ियाँ हैं - एक-एक दर्जन! पति के घर से वापस लौटी है। खुश है, दामाद मैकेनिकल इंजीनियर है जिसकी गरीब सूरत है। और वह बाहर बरामदे में कुरसी पर बैठा है; क्‍या करे सूझता नहीं!

घर में उनकी स्‍त्री पूड़ी बना रही है। पकौड़ियाँ बन रही हैं। बहुत-बहुत-सी चीजें हैं। भाग-दौड़ है। हल्‍ला-गुल्‍ला है। शोर-शराबा है। लोग आ-आ कर बैठ रहे हैं - आ रहे हैं, जा रहे हैं। पास-पड़ोस की लुगाइयाँ चौके में मदद कर रही हैं। और उनके दिल में... क्‍या करें, क्‍या न करें, सब कुछ कर डालें! क्‍या ही अच्‍छा होता कि उनमें यह ताकत होती कि वे सबको प्रसन्‍न कर सकते और सारी दुनिया को खुश देख सकते। ...कि इतने में सपना टूट जाता है।

बरामदे का दरवाजा बज उठता है। पैरों की आवाज से साफ जाहिर होता है कि स्‍त्री, जो कहीं गई थी लौट आई है।

अंदर आ कर देखती है। उसे अचंभा होता है। 'यहाँ क्‍या कर रहे हो?'

उसकी आवाज गूँजती है। जैसे लोहे की साँकल बजती है। जैसे ईमान बजता है!

'सरोज कहाँ है?'

कोई आवाज नहीं! सरोज और उसके पिता स्‍तब्‍ध बैठे हैं।

पिता बोलते हैं मानो छाती के कफ को चीरती हुई घरघराती आवाज आ रही हो। कहते हैं, 'कहाँ गई थी? घर बड़ा सूना लग रहा था।'

स्‍त्री कोई जवाब नहीं दे कर वहाँ से चली जाती है। आँगन में पहुँच कर, जमीन में गड़ा हुआ एक पुराना पेड़, जो कट चुका है और जिसकी झिल्लियाँ बिखरी हैं, उस पर पैर रख कर खड़ी होती है। जमीन में उस कटे पेड़ में से जमीन की तहें छूते हुए नए अंकुर निकले हैं। बाद मे उन पर से उतर कर वह झिल्लियाँ बीनती है। पड़ोस से लाई हुई कुल्‍हाड़ी चला कर उन अधकटे ठूँठों से लकड़ी निकालने का खयाल आता है। लेकिन काटने का जी नहीं होता। इसलिए झिल्लियाँ बीन कर वह उनका एक ढेर बना देती है और फिर आँगन की दीवार की मुँडेर पर चढ़ जाती है, क्‍योंकि उस मुँडेर के एक ओर नीम की एक सूखी डाल निकल आई है।

उसे वह तोड़ती है। ऊँची मुँडेर पर चढ़ कर नीम की सूखी डाल तोड़ लाने का जो साहस है, उस साहस से दीप्‍त हो कर वह प्रफुल्‍ल हो जाती है। सारी लकड़ी ठंडे चूल्‍हे के पास लाती है, जमा कर देती है।

सरोज पिता की गोद से उठ आई है। वह देखती है कि चूल्‍हे में सुनहली ज्‍वाला निकल रही है! वह देखती है, और देखती रह जाती है। उसे उस ज्‍वाला का रंग अच्‍छा लगता है। वह चूल्‍हे के पास जा कर बैठ गई है। उसकी रीढ़ की हड्डी दु:ख रही है, पर चूल्‍हे में जलती हई ज्‍वाला उसे अच्‍छी लग रही है।

सारा चौका सुहाना हो उठता है - भूरा-मटियाला, साफ-सुथरा! भीत की पटिया पर रखी पीतल की एक भगोनी, छोटे-छोटे दो गिलास और दो कटोरियाँ, कैसी चमचमा रही हैं, कितनी सुंदर! उन पर माँ का हाथ फिरा है। तभी तो... तभी तो...।

सुबह के पकाए भात में पानी डाला जाता है और नमक! चूल्‍हे पर चढ़ गया है भात! सुबह का बेसन भी है। उसमें पानी मिला दिया जाता है। उसे भी चूल्‍हे के दूसरे मुँह पर रख दिया गया है, सीझता रहेगा!

सरोज बोलती नहीं, माँ बोलती नहीं, पिता बोलते नहीं!

जब वह नन्‍ही बालिका भोजन कर चुकी तो उसकी जान में जान आई। बोरे पर बिछे, माँ के चिथड़े से बने, अपने मुलायम बिस्‍तर पर वह सो गई। पिताजी के बिस्‍तर से सटा हुआ उसका बिस्‍तर है! वे उसे अपने पास नहीं लेते। रात को वह बिस्‍तर गीला करती है, इसलिए!

दोनों तथाकथित बिस्‍तरों पर लेट गए हैं! दोनों को नींद नहीं! दोनों एक दूसरे से कुछ कहना चाहते हैं; कहना आवश्‍यक है। उस पूर्व-ज्ञान को वे कहना-सुनना नहीं चा‍हते। वह पूर्व-ज्ञान वेदनाकारक है, इसलिए उसे न कहना ही अच्‍छा! फिर भी न कहने से काम नहीं बनता, क्‍योंकि कह-सुन लेने से अपने-अपने निवेदनों पर सील लग जाती है, व्‍यक्तिगत मुहर लग जाती है। वह व्‍यक्तिगत मुहर अभी लगी नहीं हैं। हर एक उत्‍तर हर एक ज्ञान है। फिर भी बहुत कुछ अज्ञात छूट जाता है!

वे नहीं चा‍हते थे कि रात में नींद के पहले के ये कुछ क्षण खराब हो जाएँ, मन:स्थिति विकृत हो और दुर्दमनीय चिंता से ग्रस्‍त हो कर वे रात-भर जागते-कराहते रहें। नहीं, ऐसा नहीं! चिंता सुबह उठ कर करेंगे। रात है। यह रात अपनी है। कल की कल देखी जाएगी!

किंतु इन खयालों से माथे का दुखना नहीं थमता, देह की थकान दूर नहीं होती, असंतोष की आग और बेबसी का धुआँ दूर नहीं होता।

नहीं, उसका एक उपाय है! जबरदस्‍ती नींद लाने के लिए आप एक से सौ तक गिनते जाइए! इस तरह, आप कई बार गिनेंगे, दिमाग थक जाएगा और आप ही आप भीतर अँधेरा छा जाएगा। एक दूसरा तरीका है! रेखागणित की एक समस्‍या ले लीजिए। मन-ही-मन चित्र तैयार कीजिए। उसके कोणों को नाम दीजिए और आगे बढ़ते जाइए। अंत तक आने के पहले ही नींद घेर लेगी। एक और भी मार्ग है, जिसे इस लेख का लेखक अपनाया करता है! मस्तिष्‍क की सारी नसें ढीली कर दीजिए। आँखे मूँद कर पलकें बिलकुल बंद करके, सिर्फ अँधेरे को एकाग्र दे‍खते रहिए। तरह-तरह की तसवीरें बनेंगी। पेड़दार रास्‍ते और उस पर चलती हुई भीड़ अथवा पहाड़ और नदियाँ जिनकों पार करती हुई रेलगाड़ी... भक-भक-भक ।

अँधेरा जड़ हो गया और छाती पर बैठ गया। नहीं, उसे हटाना पड़ेगा ही - सरोज के पिता सोच रहे हैं! और उनकी आँखे बगल में पड़े हुए बिस्‍तर की ओर गईं।

वहाँ हलचल है। वहाँ भी बेचैनी है। लेकिन कैसी?

...लेकिन उन दोनों में न स्‍वीकार है न अस्‍वीकार! सिर्फ एक संदेह है, यह संदेह साधार है कि इस निष्क्रियता में एक अलगाव है - एक भीतरी अलगाव है। अलगाव में विरोध है, विरोध में आलोचना है, आलोचना में करुणा है। आलोचना पूर्णत: स्‍वीकरणीय है, जिसे इस पुरुष ने कभी पूरा नहीं किया। वह पूरा नहीं कर सकता।

कर्तव्‍य कर्म को पूरा करना केवल उसके संकल्‍प-द्वारा ही नहीं हो सकता। उसके लिए और भी कुछ चाहिए! फिर भी, वह पुरुष मन-ही-मन यह वचन देता है, यह प्रतिज्ञा करता है कि कल जरूर वह कुछ-न-कुछ करेगा; विजयी हो कर लौटेगा।

पुरुष में भी आवेश नहीं है। वह भी ठंडा है, सिर्फ गरमी लाने की कोशिश कर रहा है।

वह उसकी बाँहों में थी। निश्‍चेष्‍ट शरीर! फिर भी, उसमें एक उष्‍मा है, जो मानो सौ नेत्रों से अपने पुरुष को देख रही हो, निर्णय प्रदान करने के लिए प्रमाण एकत्र कर रही हो। फिर भी निश्‍चेष्‍ट और सक्रिय!

पुरुष संवेदनाओं के जाल में खो गया। उसे स्‍त्री के होठ गुलाब की सूखी पंखुरियों-से लगे, जिससे उसे सूरज की गरमी की याद आई। उसके कपोल मिट्टी-से थे - भुसभुसी, नमकीन, शुष्‍क मृत्तिका! उसका हृदय एक अनजानी गूढ़ करुणा की सूचना से भर उठा। ...हाँ, उसका पेट, उसकी त्‍वचा में तो घरेलू बास थी। उसने उसे अपनी बाँहों में भर लिया और वह, मन-ही-मन, उस पूरी गरम चिलकती हुई पृथ्‍वी को याद करने लगा जिस पर वह बेसहारा मारा-मारा फिरता है। क्‍या यह पृथ्‍वी उतनी ही दु:खी रही है जितना कि वह स्‍वयं है!

एक उर्जा उठी और गिर गई। पुरुष निश्‍चेष्‍ट पड़ा रहा। मन जाग्रत था।

...दोनों स्‍त्री-पुरुष के जीवन पर विराम का पूर्ण चिह्न लग गया है, काठ हो गए हैं। बाढ़ आती है। किनारे पर पड़े हुए काठों को बहा कर ले जाती है। जल-विप्‍लव में। काठ बहते जाते हैं, फिर भी वे प्राणहीन काठ, आपस में गुँथे हुए बहे जा रहे हैं।

बादल-तूफान के कारण, पेड़ तिरछे हो रहे हैं। पर वे गुँथे-बँधे बहे जा रहे हैं, बहे जा रहे हैं... और, हाँ गुँथे-बँधे काठ खाली नहीं हैं। उन पर एक बालिका बैठी हुई है। हाँ, वह सरोज है। अपने नन्‍हे दो हाथ उसने दोनों के काठों पर टेक दिए हैं, जिनके सहारे वह स्‍वयं चली जा रही है।

सरोज की उस बाल मूर्ति की रक्षा करनी ही होगी! उन दो निष्‍प्राण काठ-लट्ठों का यही कर्तव्‍य है।

पुरुष इस स्‍वप्‍न को देखता ही रहता है। बारह का गजर होता है। रात और आगे बढ़ती है। सप्‍तर्षि, जो अब तक कोने में थे, सामने आ कर साफ दिखाई देते हैं।

Monday, November 14, 2016

विकल्प विमर्श की मुक्तिबोध स्मरण श्रंखला में इस हफ्ते कहानी- क्‍लॉड ईथरली--- गजानन माधव मुक्तिबोध

मैं सड़क पार कर लेता हूँ। जंगली, बेमहक लेकिन खूबसूरत विदेशी फूलों के नीचे ठहर-सा जाता हूँ कि जो फूल
, भीत के पासवाले अहाते की आदमकद दीवार के ऊपर फैले, सड़क के बाजू पर बाँहें बिछा कर झुक गए हैं। पता नहीं कैसे, किस साहस से व क्‍यों उसी अहाते के पास बिजली का ऊँचा खंभा - जो पाँच-छह दिशाओं में जानेवाली सूनी सड़कों पर तारों की सीधी लकीरें भेज रहा है - मुझे दीखता है और एकाएक खयाल आता है कि दुमंजिला मकानों पर चढ़ने की एक ऊँची निसैनी उसी से टिकी हुई है। शायद, ऐसे मकानों की लंब-तड़ंग भीतों की रचना अभी भी पुराने ढंग से होती है।
सहज, जिज्ञासावश देखें, कहाँ, क्‍या होता है। दृश्‍य कौन-से, कौन-से दिखाई देते हैं! मैं उस निसैनी पर चढ़ जाता हूँ और सामनेवाली पीली ऊँची भीत के नीली फ्रेमवाले रोशनदान में से मेरी निगाहें पार निकल जाती हैं।
और, मैं स्‍तब्‍ध हो उठता हूँ।
छत से टँगे ढिलाई से गोल-गोल घूमते पंखे के नीचे, दो पीली स्‍फटिक-सी तेज आँखे और लंबी शलवटों-भरा तंग मोतिया चेहरा है जो ठीक उन्‍हीं ऊँचे रोशनदानों में से, भीतर से बाहर, पार जाने के लिए ही मानो अपनी दृष्टि केंद्रित कर रहा है। आँखों से आँखे लड़ पड़ती हैं। ध्‍यान से एक-दूसरे की ओर देखती है। स्‍तब्‍ध, एकाग्र!
आश्‍चर्य?
साँस के साथ शब्‍द निकले! ऐसी ही कोई आवाज उसने भी की होगी!
चेहरा बहुत बुरा नहीं है, अच्‍छा है, भला आदमी मालूम होता है। पैंट पर शर्ट ढीली पड़ गई है। लेकिन यह क्‍या!
मैं नीचे उतर पड़ता हूँ। चुपचाप रास्‍ता चलने लगता हूँ। कम-से-कम दो फर्लांग दूरी पर एक आदमी मिलता है। सिर्फ एक आदमी! इतनी बड़ी सड़क होने पर भी लोग नहीं! क्‍यों नहीं?
पूछने पर वह शख्‍स कहता है, शहर तो इस पार है, उस ओर है; वहीं कहीं इस सड़क पर बिल्डिंग का पिछवाड़ा पड़ता है। देखते नहीं हो!
मैंने उसका चेहरा देखा ध्‍यान से। बाईं और दाहिनी भौंहें नाक के शुरू पर मिल गई थीं। खुरदुरा चेहरा, पंजाबी कहला सकता था। वह नि:संदेह जनाना आदमी होने की संभावना रखता है! नारी तुल्‍य पुरुष, जिनका विकास किशोर काव्‍य में विशेषज्ञों का विषय है।
इतने में मैंने उससे स्‍वाभाविक रूप से, अति सहज बन कर पूछा, 'यह पीली बिल्डिंग कौन-सी है।' उसने मुझ पर अविश्‍वास करते हुए कहा, 'जानते नहीं हो? यह पागलखाना है - प्रसिद्ध पागलखाना!'
'अच्‍छा...!' का एक लहरदार डैश लगा कर मैं चुप हो गया और नीची निगाह किए चलने लगा।
और फिर हम दोनों के बीच दूरियाँ चौड़ी हो कर गोल होने लगीं। हमारे साथ हमारे सिफर भी चलने लगे।
अपने-अपने शून्‍यों की खिड़कियाँ खोल कर मैंने - हम दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा कि आपस में बात कर सकते हैं या नहीं! कि इतने में उसने मुझसे पूछा, 'आप क्‍या काम करते हैं?'
मैंने झेंप कर कहा, 'मैं? उठाईगिरा समझिए।'
'समझें क्‍यों? जो हैं सो बताइए।'
'पता नहीं क्‍यों, मैं बहुत ईमानदारी की जिंदगी जीता हूँ; झूठ नहीं बोला करता, पर-स्‍त्री को नहीं देखता; रिश्‍वत नहीं लेता; भ्रष्‍टाचारी नहीं हूँ; दगा या फरेब नहीं करता; अलबत्‍ता कर्ज मुझ पर जरूर है जो मैं चुका नहीं पाता। फिर भी कमाई की रकम कर्ज में जाती है। इस पर भी मैं यह सोचता हूँ कि बुनियादी तौर से बेईमान हूँ। इसीलिए, मैंने अपने को पुलिस की जबान में उठाईगिरा कहा। मैं लेखक हूँ। अब बताइए, आप क्‍या हैं?'
वह सिर्फ हँस दिया। कहा कुछ नहीं। जरा देर से उसका मुँह खुला। उसने कहा, 'मैं भी आप ही हूँ।'
एकदम दब कर मैंने उससे शेकहैंड किया (दिल में भीतर से किसी ने कचोट लिया। हाल ही में निसैनी पर चढ़ कर मैंने उस रोशनदान में से एक आदमी की सूरत देखी थी; वह चोरी नहीं तो क्‍या था। संदिग्‍धावस्‍था में उस साले ने मुझे देख लिया!)
'बड़ी अच्‍छी बात है। मुझे भी इस धंधे में दिलचस्‍पी है, हम लेखकों का पेशा इससे कुछ मिलता-जुलता है।'
इतने में भीमाकार पत्‍थरों की विक्‍टोरियन बिल्डिंग के दृश्‍य दूर से झलक रहे थे। हम खड़े हो गए हैं। एक बड़े-से पेड़ के नीचे पान की दुकान थी वहाँ। वहाँ एक सिलेटी रंग की औरत मिस्‍सी और काजल लगाए हुए बैठी हुई थी।
मेरे मुँह से अचानक निकल पड़ा, 'तो यहाँ भी पान की दुकान है?'
उसने सिर्फ इतना ही कहा, 'हाँ, यहाँ भी।'
और मैं उन अध-विलायती नंगी औरतों की तस्‍वीरें देखने लगा जो उस दुकान की शौकत को बढ़ा रही थीं।
दुकान में आईना लगा था। लहर थीं धुँधली, पीछे के मसाले के दोष से। ज्‍यों ही उसमें मैं अपना मुँह देखता, बिगड़ा नजर आता। कभी मोटा, लंबा, तो कभी चौड़ा। कभी नाक एकदम छोटी, तो एकदम लंबी और मोटी! मन में वितृष्‍णा भर उठी। रास्‍ता लंबा था, सूनी दुपहर। कपड़े पसीने से भीतर चिपचिपा रहे थे। ऐसे मौके पर दो बातें करनेवाला आदमी मिल जाना समय और रास्‍‍ता कटने का साधन होता है।
उससे वह औरत कुछ मजाक करती रही। इतने में चार-पाँच आदमी और आ गए। वे सब घेरे खड़े रहे। चुपचाप कुछ बातें हुईं।
मैंने गौर नहीं किया। मैं इन सब बातों से दूर रहता हूँ। जो सुनाई दिया उससे यह जा‍हिर हुआ कि वे या तो निचले तबके में पुलिस के इनफॉर्मर्स हैं या ऐसे ही कुछ!
हम दोनों ने अपने-अपने और एक-दूसरे के चेहरे देखे! दोनों खराब नजर आए। दोनों रूप बदलने लगे! दोनों हँस पड़े और यही मजाक चलता रहा।
पान खा कर हम लोग आगे बढ़े। पता नहीं क्‍यों मुझे अपने अजनबी साथी के जनानेपन में कोई ईश्‍वरीय अर्थ दिखाई दिया। जो आदमी आत्‍मा की आवाज दाब देता है, विवेक-चेतना को घुटाले में डाल देता है, उसे क्‍या कहा जाए! वैसे, वह शख्‍स भला मालूम होता था। फिर, क्‍या कारण है कि उसने यह पेशा अख्तियार किया! साहसी, हाँ, कुछ साहसिक लोग पत्रकार या गुप्‍तचर या ऐसे ही कुछ हो जाते हैं, अपनी आँखों में महत्‍वपूर्ण बनने के लिए, अस्तित्‍व की तीखी संवेदनाएँ अनुभव करने और करते रहने के लिए!
लेकिन, प्रश्‍न यह है कि वे वैसा क्‍यों करते हैं! किसी भीतरी न्‍यूनता के भाव पर विजय प्राप्‍त करने का यह एक तरीका भी हो सकता है। फिर भी, उसके दूसरे रास्‍ते भी हो सकते हैं! यही पेशा क्‍यों? इसलिए, उसमें पेट और प्रवृत्ति का समन्‍वय है! जो हो, इस शख्‍स का जनानापन खास मानी रखता है!
हमने वह रास्‍ता पार कर लिया और अब हम फिर से फैशनेबल रास्‍ते पर आ गए, जिसके दोनों ओर युकलिप्‍टस के पेड़ कतार बाँधे खड़े थे। मैंने पूछा, 'यह रास्‍ता कहाँ जाता है?' उसने कहा, 'पागलखाने की ओर ।' मैं जाने क्‍यों सन्‍नाटे में आ गया।
विषय बदलने के लिए मैंने कहा, 'तुम यह धंधा कब से कर रहे हो?'
उसने मेरी तरफ इस तरह देखा मानो यह सवाल उसे नागवार गुजरा हो।
मैं कुछ नहीं बोला। चुपचाप चला, चलता रहा। लगभग पाँच मिनट बाद जब हम उस भैरों के गेरूए, सुनहले, पन्‍नी जड़े पत्‍थर तक पहुँच गए, जो इस अत्‍या‍धुनिक युग में एक तार के खंभे के पास श्रद्धापूर्वक स्‍थापित किया गया था, उसने कहा, 'मेरा किस्‍सा मुख्‍तसर है। लाज-शरम दिखावे की चीजें हैं। तुम मेरे दोस्‍त हो, इसलिए कह रहा हूँ। मैं एक बहुत बड़े करोड़पति सेठ का लड़का हूँ। उनके घर में जो काम करनेवालियाँ हुआ करती थीं, उनमें-से एक मेरी माँ है, जो अभी भी वहीं हैं। मैं, घर से दूर पाला-पोसा गया, मेरे पिता के खर्चे से! माँ पिलाने आती। उसी के कहने से मैंने बमुश्किल तमाम मैट्रिक किया। फिर, किसी सिफारिश से सी.आई.डी. की ट्रेनिंग में चला गया। तबसे यही काम कर रहा हूँ। बाद में पता चला कि वहाँ का खर्च भी वही सेठ देता है। उसका हाथ मुझ पर अभी तक है। तुम उठाईगिरे हो, इसलिए कहा! अरे! वैसे तो तुम लेखक-वेखक भी हो। बहुत-से लेखक और पत्रकार इनफॉर्मर हैं! तो, इसलिए, मैंने सोचा, चलो अच्‍छा हुआ। एक साथी मिल गया।'
उस आदमी में मेरी दिलचस्‍पी बहुत बढ़ गई। डर भी लगा। घृणा भी हुई। किस आदमी से पाला पड़ा। फिर भी, उस अहाते पर चढ़ कर मैं झाँक चुका था। इसलिए एक अनदिखती जंजीर से बँध तो गया ही था।
उस जनाने ने कहना जारी रखा, 'उस पागलखाने में कई ऐसे लोग डाल दिए गए हैं जो सचमुच आज की निगाह से बड़े पागल हैं। लेकिन उन्‍हें पागल कहने की इच्‍छा रखने के लिए आज की निगाह होना जरूरी है।'
मैंने उकसाते हुए कहा, 'आज की निगाह से क्‍या मतलब?'
उसने भौंहें समेट लीं। मेरी आँखों में आँखे डाल कर उसने कहना शुरू किया, 'जो आदमी आत्‍मा की आवाज कभी-कभी सुन लिया करता है और उसे बयान करके उससे छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है। आत्‍मा की आवाज को लगातार सुनता है, और कहता कुछ नहीं, वह भोला-भाला सीधा-सादा बेवकूफ है। जो उसकी आवाज बहुत ज्‍यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है, वह समाज-विरोधी तत्‍वों में यों ही शामिल हो जाया करता है। लेकिन जो आदमी आत्‍मा की आवाज जरूरत से ज्‍यादा सुन करके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्‍म का पालन करता है, वह निहायत पागल है। पुराने जमाने में संत हो सकता था। आजकल उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है।'
मुझे शक हुआ कि मैं किसी फैंटेसी में रह रहा हूँ। यह कोई ऐसा-वैसा कोई गुप्‍तचर नहीं है। या तो यह खुद पागल है या कोई पहुँचा हुआ आदमी है! लेकिन वह पागल भी नहीं है न पहुँचा हुआ है। वह तो सिर्फ जनाना आदमी है या वैज्ञानिक शब्‍दावली प्रयोग करूँ तो यह कहना होगा कि वह है तो जवान-पट्ठा लेकिन उसमें जो लचक है वह औरत के चलने की याद दिलाती है!
मैंने उससे पूछा, 'तुमने कहीं ट्रेनिंग पाई है?'
'सिर्फ तजुर्बे से सीखा है! मुझे इनाम भी मिला है।'
मैंने कहा, 'अच्‍छा!'
और मैं जिज्ञासा और कुतूहल से प्रेरित हो कर उसकी अंधकारपूर्ण थाहों में डूबने का प्रयत्‍न करने लगा।
किंतु उसने सिर्फ मुस्‍करा दिया! तब मुझे वह ऐसा लगा मानो वह अज्ञात साइंस के गणितिक सूत्र की अंक-राशि हो, जिसका मतलब तो कुछ जरूर होता है लेकिन समझ में नहीं आता।
मन में विचारों की पंक्तियों की पंक्तियाँ बनती गईं। पंक्तियों पर पंक्तियाँ। शायद उसे भी महसूस हुआ होगा! और जब दोनों के मन में चार-चार पंक्तियाँ बन गईं कि इस बीच उसने कहा, 'तुम क्‍यों नहीं यह धंधा करते?'
मैं हतप्रभ हो गया। यह एक विलक्षण विचार था! मुझे मालूम था कि धंधा पैसों के लिए किया जाता है। आजकल बड़े-बड़े शहरों के मामूली होटलों में जहाँ दस-पाँच आदमी तरह-तरह की गप लड़ाते हुए बैठते हैं, उनकी बातें सुन कर, अपना अंदाज जमाने के लिए, कई भीतरी सूची-भेदक-प्रवेशक आँखे भी सुनती बैठती रहती हैं। यह मैं सब जानता हूँ। खुद के तजुर्बे से बता सकता हूँ। लेकिन, फिर भी, उस आदमी की हिम्‍मत तो देखिए कि उसने कैसा पेचीदा सवाल किया!
आज तक किसी आदमी ने मुझसे इस तरह का सवाल न किया था। जरूर मुझमें ऐसा कुछ है कि जिसे मैं विशेष योग्‍यता कह सकता हूँ। मैंने अपने जीवन में जो शिक्षा और अशिक्षा प्राप्‍त की, स्‍कूलों-कॉलेजों में में जो विद्या और अविद्या उपलब्‍ध की, जो कौशल और अकौशल प्राप्‍त की, उसने - मैं मानूँ या न मानूँ - भद्रवर्ग का ही अंग बना दिया है। हाँ, मैं उस भद्रवर्ग का अंग हूँ कि जिसे अपनी भद्रता के निर्वाह के लिए अब आर्थिक कष्‍ट का सामना करना पड़ता है, और यह भाव मन में जमा रहता है कि नाश सन्निकट है। संक्षेप में, मैं सचेत व्‍यक्ति हूँ, अति-शिक्षित हूँ, अति-सं‍स्‍कृत हूँ। लेकिन चूँकि अपनी इस अतिशिक्षा और अतिसं‍स्‍‍कृति के सौष्‍ठव को उद्घाटित करते रहने के लिए, जो स्निग्‍ध प्रसन्‍नमुख चाहिए, वह न होने से मैं उठाईगिरा भी लगता हूँ - अपने-आप को!
तो मेरी इस महक को पहचान उस अद्भुत व्‍यक्ति ने मेरे सामने जो प्रस्‍ताव रखा, उससे मैं अपने-आप से एकदम सचेत हो उठा! क्‍या हर्ज है? इनकम का एक खासा जरिया यह भी तो हो सकता है।
मैंने बात पलट कर उससे पूछा, 'तो हाँ, तुम उस पागलखाने की बात कह रहे थे। उसका क्‍या?'
मैंने गरदन नीचे डाल ली। कानों में अविराम शब्‍द-प्रवाह गतिमान हुआ। मैं सुनता गया। शायद वह उसके वक्‍तव्‍य की भूमिका रही होगी। इस बीच मैंने उससे टोक कर पूछा, 'तो उसका नाम क्‍या है?
'क्‍लॉड ईथरली!'
'क्‍या वह रोमन कैथलिक है - आदिवासी इसाई है?'
उसने नाराज हो कर कहा, 'तो अब तक तुम मेरी बात ही नहीं सुन रहे थे?'
मैंने उसे विश्‍वास दिलाया कि उसकी एक-एक बात दिल में उतर रही थी। फिर भी उसके चेहरे के भाव से पता चला कि उसे मेरी बात पर यकीन नहीं हुआ। उसने कहा, 'क्‍लॉड ईथरली वह अमरीकी विमान चालक है, जिसने हिरोशिमा पर बम गिराया था।'
मुझे आश्‍चर्य का एक धक्‍का लगा। या तो वह पागल है, या मैं! मैंने उससे पूछा, 'तो उससे क्‍या होता है?'
अब उसने बहुत ही नाराज हो कर कहा, 'अबे बेवकूफ! नेस्‍तनाबूद हुए हिरोशिमा की बदरंग और बदसूरत, उदास और गमगीन जिंदगी की सरदारत करनेवाले मेयर को वह हर माह चेक भेजता रहा जिससे कि उन पैसों से दीन-हीनों को सहायता तो पहुँचे ही; उसने जो भयानक पाप किया है वह भी कुछ कम हो!'
मैंने उसके चेहरे का अध्ययन करना शुरू किया। उसकी वे खुरदुरी घनी मोटी भौंहें नाक के पास आ मिलती थीं। कड़े बालों की तेज रेजर से हजामत किया हुआ उसका वह हरा-गोरा चेहरा, सीधी-मोटी नाक और मजाकिया होठ और गमगीन आँखे, जिस्‍म की जनाना लचक, डबल ठुड्डी, जिसके बीच में हलका-सा गड्ढा!
यह कौन शख्‍स है, जो मुझसे इस तरह बात कर रहा है। लगा कि मैं सचमुच इस दुनिया में नहीं रह रहा हूँ, उससे कोई दो सौ मील ऊपर आ गया हूँ, जहाँ आकाश, चाँद-तारे, सूरज सभी दिखाई देते हैं। रॉकेट उड़ रहे हैं। आते हैं, जाते हैं और पृथ्‍वी एक चौड़े-नीले गोल जगत-सी दिखाई दे रही है, जहाँ हम किसी एक देश के नहीं हैं, सभी देशों के हैं। मन में एक भयानक उद्वेगपूर्ण भावहीन चंचलता है! कुल मिला कर, पल-भर यही हालत रही। लेकिन वह पल बहुत ही घनघोर था। भयावह और संदिग्‍ध! और उसी पल से अभिभूत हो कर मैंने उससे पूछा, 'तो क्‍या हिरोशिमा वाला क्‍लॉड ईथरली इस पागलखाने में है।'
वह हाथ फैला कर उँगलियों से उस पीली बिल्डिंग की तरफ इशारा कर रहा था, जिसके अहाते की दीवार पर चढ़ कर मेरी आँखों ने रोशनदान पार करके उन तेज आँखों को देखा था, जो उसी रोशनदान में से गुजर कर बाहर जाना चाहती हैं। तो, अगर मैं जस जनाने लचकदार शख्‍स पर यकीन करूँ तो इसका मतलब यह हुआ कि मेरी देखी वे आँखे और किसी की नहीं, खास क्‍लॉड ईथरली की ही थीं। लेकिन यह कैसे हो सकता है!
उसने मेरी बात ताड़ कर कहा, 'हाँ, वह क्‍लॉड ईथरली ही था।'
मैंने चिढ़ कर कहा, 'तो क्‍या यह हिंदुस्‍तान नहीं है। हम अमेरिका में ही रह रहे हैं?'
उसने मानो मेरी बेवकूफी पर हँसी का ठहाका मारा, कहा, 'भारत के हर बड़े नगर में एक-एक अमेरिका है! तुमने लाल ओठवाली चमकदार, गोरी-सुनहली औरतें नहीं देखी, उनके कीमती कपड़े नहीं देखे! शानदार मोटरों में घूमने वाले अशिक्षित लोग नहीं देखे! नफीस किस्‍म की वेश्‍यावृत्ति नहीं देखी! सेमिनार नहीं देखे! एक जमाने में हम लंदन जाते थे और इंग्‍लैंड‍ रिर्टन कहलाते थे और आज वाशिंगटन जाते हैं। अगर हमारा बस चले और आज हम सचमुच उतने ही धनी हों और हमारे पास उतने ही एटम बम और हाइड्रोजन बम हों और रॉकेट हों तो फिर क्‍या पूछना! अखबार पढ़ते हो कि नहीं?'
मैंने कहा, 'हाँ।'
तो तुमने मैकमिलन की वह तकरीर भी पढ़ी होगी जो उसने... को दी थी। उसने क्‍या कहा था? यह देश, हमारे सैनिक गुट में तो नहीं है, किंतु संस्‍कृति और आत्‍मा से हमारे साथ है। क्‍या मैकमिलन सफेद झूठ कह रहा था? कतई नहीं। वह एक महत्‍वपूर्ण तथ्‍य पर प्रकाश डाल रहा था।
और अगर यह सच है तो यह भी सही है कि उनकी संस्‍कृति और आत्‍मा का संकट हमारी संस्‍कृति और आत्‍मा का संकट है! यही कारण है कि आजकल के लेखक और कवि अमरीकी, ब्रिटिश तथा पश्चिम यूरोपीय साहित्‍य तथा विचारधाराओं में गोते लगाते हैं और वहाँ से अपनी आत्‍मा को शिक्षा और संस्‍कृति प्रदान करते हैं! क्‍या यह झूठ है। और हमारे तथाकथित राष्‍ट्रीय अखबार और प्रकाशन-केंद्र! वे अपनी विचारधारा और दृष्टिकोण कहाँ से लेते हैं?'
यह कह कर वह जोर से हँस पड़ा और हँसी की लहरों में उसका जिस्‍म लचकने लगा।
उसने कहना जारी रखा, 'क्‍या हमने इंडो‍नेशियाई या चीनी या अफ्रीकी साहित्‍य से प्रेरणा ली है या लुमुंबा के काव्‍य से? छि: छि:! वह जानवरों का, चौपायों का साहित्‍य है! और रूस का? अरे! यह तो स्‍वार्थ की बात है! इसका राज और ही है। रूस से हम मदद चाहते हैं, लेकिन डरते भी हैं।'
'छोड़ो! तो मतलब यह है कि अगर उनकी संस्‍कृति हमारी संस्‍कृति है, उनकी आत्‍मा हमारी आत्‍मा और उनका संकट हमारा संकट है - जैसा कि सिद्ध है - जरा पढ़ो अखबार, करो बातचीत अंगरेजीदाँ फर्राटेबाज लोगों से - तो हमारे यहाँ भी हिरोशिमा पर बम गिरानेवाला विमान चालक क्‍यों नहीं हो सकता और हमारे यहाँ भी संप्रदायवादी, युद्धवादी लोग क्‍यों नहीं हो सकते! मुख्‍तसर किस्‍सा यह है कि हिंदुस्‍तान भी अमेरिका ही है।'
मुझे पसीना छूटने लगा। फिर भी मन यह स्‍वीकार करने के लिए तैयार नहीं था कि भारत अमेरिका ही है और यह कि क्‍लॉड ईथरली उसी पागलखाने में रहते हैं - उसी पागलखाने में रहता है! मेरी आँखों में संदेह, अविश्‍वास, भय और आशंका की मिली-जुली चमक जरूर रही होगी, जिसको देख कर वह बुरी तरह हँस पड़ा। और उसने मुझे एक सिगरेट दी।
एक पेड़ के नीचे खड़े हो कर हम दोनों बात करते हुए नीचे एक पत्‍थर पर बैठ गए। उसने कहा, 'देखा नहीं! ब्रिटिश-अमरीकी या फ्रांसीसी कविता में जो मूड्स, जो मनःस्थितियाँ रहती हैं - बस वे ही हमारे यहाँ भी हैं, लाई जाती हैं। सुरुचि और आधुनिक भावबोध का तकाजा है कि उन्‍हें लाया जाया क्‍यों? इसलिए कि वहाँ औद्योगिक सभ्‍यता है, हमारे यहाँ भी। मानो कि कल-कारखाने खोले जाने से आदर्श ओर कर्तव्‍य बदल जाते हों।'
मैंने नाराज हो कर सिगरेट फेंक दी। उसके सामने हो लिया। शायद, उस समय मैं उसे मारना चाहता था। हाथापाई करना चाहता था। लेकिन वह व्‍यंग्‍य-भरे चेहरे से हँस पड़ा और उसकी आँखे ज्‍यादा गमगीन हो गईं।'
उसने कहा, 'क्‍लॉड ईथरली एक विमान चालक था! उसके एटमबम से हिरोशिमा नष्‍ट हुआ। वह अपनी कारगुजारी देखने उस शहर गया। उस भयानक, बदरंग, बदसूरत कटी लोथों के शहर को देख कर उसका दिल टुकड़े-टुकड़े हो गया। उसको पता नहीं था कि उसके पास ऐसा हथियार है और उस हथियार का यह अंजाम होगा। उसके दिल में निरपराध जनों के प्रेतों, शवों, लोथों, लाशों के कटे-पिटे चेहरे तैरने लगे। उसके हृदय में करुणा उमड़ आई। उधर, अमरीकी सरकार ने उसे इनाम दिया। वह 'वॉर हीरो' हो गया। लेकिन उसकी आत्‍मा कहती थी कि उसने पाप किया, जघन्‍य पाप किया है। उसे दंड मिलना ही चाहिए। नहीं। लेकिन उसका देश तो उसे हीरो मानता था। अब क्‍या किया जाय। उसने सरकारी नौकरी छोड़ दी। मामूली से मामूली काम किया। लेकिन, फिर भी वह 'वॉर हीरो' था, महान था। क्‍लॉड ईथरली महानता नहीं, दंड चाहता था, दंड!'
'उसने वारदातें शुरू कीं जिससे कि वह गिरफ्तार हो सके और जेल में डाला जा सके। किंतु प्रमाण के अभाव में वह हर बार छोड़ दिया गया। उसने घोषित किया कि वह पापी है, पापी है, उसे दंड मिलना चाहिए, उसने निरपराध जनों की हत्‍या की है, उसे दंड दो। हे ईश्‍वर! लेकिन अमरीकी व्‍यवस्‍था उसे पाप नहीं, महान कार्य मानती थी। देश-भक्ति मानती थी। जब उसने ईथरली की ये हरकतें देखीं तो उसे पागलखाने में डाल दिया। टेक्‍सॉस प्रांत में वायो नाम की एक जगह है - वहाँ उसका दिमाग दुरुस्त करने के लिए उसे डाल दिया गया। वहाँ वह चार साल तक रहा, लेकिन उसका पागलपन दुरुस्त नहीं हो सका।'
'चार साल बाद वह वहाँ से छूटा तो उसे राय.एल. मैनटूथ नाम का एक गुंडा मिला। उसकी मदद से उसने डाकघरों पर धावा मारा। आखिर मय साथी के वह पकड़ लिया गया। मुकदमा चला। कोई फायदा नहीं। जब यह मालूम हुआ कि वह कौन है और क्‍या चाहता है तो उसे तुरंत छोड़ दिया गया। उसके बाद, उसने डल्‍लॉस नाम की एक जगह के कैशियर पर सशस्‍त्र आक्रमण किया। परिणाम कुछ नहीं निकला, क्‍योंकि बड़े सैनिक अधिकारियों को यह महसूस हुआ कि ऐसे 'प्रख्‍यात युद्ध वीर' को मामूली उचक्‍का और चोर कह कर उसकी बदनामी न हो। इसलिए उसके उस प्राप्‍त पद की रक्षा करने के लिए, उसे फिर से पागलखाने में डाल दिया गया।'
'यह है क्‍लॉड ईथरली! ईथरली की ईमानदारी पर अविश्‍वास करने की किसी को शंका ही नहीं रही। उसकी जीवन-कथा की फिल्‍म बनाने का अधिकार खरीदने के लिए कंपनी ने उसे एक लाख रुपए देने का प्रस्‍ताव रखा। उसने कतई इनकार कर दिया। उसके इस अस्‍वीकार से सबके सामने यह जाहिर हो गया कि वह झूठा और फरेबी नहीं है। वह बन नहीं रहा।'
'कौन नहीं जानता कि क्‍लॉड ईथरली अणु युद्ध का विरोध करनेवाली आत्‍मा की आवाज का दूसरा नाम है। हाँ! ईथरली मानसिक रोगी नहीं है। आध्‍या‍त्मिक अशांति का, आध्‍यात्मिक उद्विग्‍नता का ज्‍वलंत प्रतीक है। क्‍या इससे तुम इनकार करते हो?'
उसके हाथ की सिगरेट कभी की नीचे गिर चुकी थी। वह जनाना आदमी तमतमा उठा था। चेहरे पर बेचैनी की मलिनता छाई थी।
वह कहता गया, 'इस आध्‍यात्मिक अशांति, इस आध्‍यात्मिक उद्विग्‍नता को समझने वाले लोग कितने हैं! उन्‍हें विचित्र, विलक्षण, विक्षिप्‍त कह कर पागलखाने में डालने की इच्‍छा रखने वाले लोग न जाने कितने हैं! इसलिए पुराने जमाने में हमारे बहुतेरे विद्रोही संतों को भी पागल कहा गया। आज भी बहुतों को पागल कहा जाता है। अगर वह बहुत तुच्‍छ हुए तो सिर्फ उनकी उपेक्षा की जाती है, जिससे कि उनकी बात प्रकट न हो और फैल न जाए।'
'हमारे अपने-अपने मन-हृदय-मस्तिष्‍क में ऐसा ही एक पागलखाना है, जहाँ हम उन उच्‍च पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को फेंक देते हैं, जिससे कि धीरे-धीरे या तो वह खुद बदल कर समझौतावादी पोशाक पहन सभ्‍य भद्र हो जाए यानी दुरुस्त हो जाए या उसी पागलखाने में पड़ा रहे!'
मैं हतप्रभ तो हो ही गया! साथ-ही-साथ, उसकी इस कहानी पर मुग्‍ध भी। उस जीवन-कथा से अत्‍यधिक प्रभावित हो कर मैंने पूछा, 'तो क्‍या यह कहानी सच्‍ची है?'
उसने जवाब दिया, भई वाह! अमरीकी साहित्‍य पढ़ते हो कि नहीं? ब्रिटिश भी नहीं! तो क्‍या पढ़ते हो खाक!... अरे भाई रूस पर तो अनेक भाषाओं में कई पुस्‍तकें निकल गई हैं। तो क्‍या पत्‍थर जानकारी रखते हो। विश्‍वास न हो, तो खंडन करो, जाओ टटोलो। और, इस बीच में इसी पागलखाने की सैर करवा लाता हूँ।'
मैंने हाथ हिला कर इनकार करते हुए कहा, 'नहीं मुझे नहीं जाना।'
क्‍यों नहीं? उसने झिड़क कर कहा, 'आजकल हमारे अवचेतन में हमारी आत्‍मा आ गई है, चेतन में स्‍व-हित और अधिचेतन में समाज से सामंजस्‍य का आदर्श भले ही वह बुरा समाज क्‍यों न हो? यही आज के जीवन-विवेक का रहस्‍य है।...'
'तुमको वहाँ की सैर करनी होगी। मैं तुम्‍हें पागलखाने ले चल रहा हूँ, लेकिन पिछले दरवाजे से नहीं, खुले अगले से।'
रास्‍ते में मैंने उससे कहा, 'मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं हूँ कि भारत अमेरिका है! तुम कुछ भी कहो! न वह कभी हो सकता है, न वह कभी होगा ही।'
इस बात को उसने उड़ा दिया। उसे चाहिए था कि वह उस बात का जवाब देता । उसने सिर्फ इतना कहा, 'मुश्किल यह है कि तुम मेरी बात नहीं समझते।' मैंने कहा, 'कैसे?'
'क्‍लॉड ईथरली हमारे यहाँ भले ही देह-रूप में न रहे, लेकिन आत्‍मा की वैसी बेचैनी रखने वाले लोग तो यहाँ रह ही सकते हैं।'
मैंने अविश्‍वास प्रकट करके उसके प्रति घृणा भाव व्‍यक्‍त करते हुए कहा, 'यह भी ठीक नहीं मालूम होता।'
उसने कहा, 'क्‍यों नहीं? देश के प्रति ईमानदारी रखनेवाले लोगों के मन में, व्‍यापक पापाचारों के प्रति कोई व्‍यक्तिगत भावना नहीं रहती क्‍या?'
'समझा नहीं।'
'मतलब यह कि ऐसे बहुतेरे लोग हैं जो पापाचार रूपी, शोषण रूपी डाकुओं को अपनी छाती पर बैठा समझते हैं। वह डाकू न केवल बाहर का व्‍यक्ति है, वह उनके घर का आदमी भी है। समझने की कोशिश करो!'
मैंने भौंहें उठा कर कहा, 'तो क्‍या हुआ?'
'यह कि उस व्‍यापक अन्‍याय को अनुभव करनेवाले किंतु उसका विरोध करनेवाले लोगों के अंत:करण में व्‍यक्तिगत पाप-भावना रहती ही है, रहनी चाहिए। ईथरली में और उनमें यह बुनियादी एकता और अभेद है।'
'इससे सिद्ध क्‍या हुआ?'
'इससे यह सिद्ध हुआ कि तुम-सरीखे सचेत जागरुक संवेदनशील जन क्‍लॉड ईथरली हैं।'
उसने मेरे दिल में खंजर मार दिया। हाँ, यह सच था! बिलकुल सच! अवचेतन के अँधेरे तहखाने में पड़ी हुई आत्‍मा का विद्रोह करती है। आत्‍मा पापाचारों के लिए, अपने-आपको जिम्‍मेदार समझती है। हाय रे! यह मेरा भी तो रोग रहा है।
मैंने अपने चेहरे को सख्‍त बना लिया। गंभीर हो कर कहा, 'लेकिन ये सब बातें तुम मुझसे क्‍यों कह रहे हो?'
'इसलिए कि मैं सी.आई.डी. हूँ और मैं तुम्‍हारी स्‍क्रीनिंग कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे विभाग से संबद्ध रहो। तुम इनकार क्‍यों करते हो। कहो कि यह तुम्‍हारी अंतरात्‍मा के अनुकूल है।'
'तो क्‍या तुम मुझे टटोलने के लिए ये बातें कर रहे थे। और, तुम्‍हारी ये सब बातें बनावटी थीं! मेरे दिल का भेद लेने के लिए थीं? बदमाश!'
'मैं तो सिर्फ तुम्‍हारे अनुकूल प्रसंगों की जो हो सकती थी, वही कर रहा था।'

Tuesday, November 1, 2016

गोवर्धन पर्वत-जीवेश प्रभाकर

अबके दीपावली में मिली पुरानी डायरी से एक कविता----
सभी मित्रों को दीपावली की शुभकामनाओं के साथ---
गोवर्धन पर्वत-
बारिश मे तान लिया
अपने सर पर छाता
कड़कड़ाती ठंड मे
बचाता रहा अपनी चमड़ी
और गर्मियों मे
अपने घर पर ही लगा लिया कूलर ।
बस इतना ही करता रहा
मौसम दर मौसम साल दर साल साल
और सोच लिया सारी दुनिया चैन से है ।
मैं नही बेघर हुआ बाढ़ मे
न अकडा कड़कड़ाती ठंड मे
और झुलसा भी नही
गर्म लू के थपेड़ों मे ।
मैं रहा सुरक्षित और
अंशतः सफल रहा
बस अपना परिवार
ऊपर उठा पाने मे,
मैंने नही उठाया कभी गोवर्धन पर्वत ।

जीवेश प्रभाकर

Tuesday, July 26, 2016

यूँ ही कोई बदज़ुबां नहीं होता- -जीवेश प्रभाकर

एक प्रसिद्ध शेर है _
कुछ तो मजबूरियां रही होगी ;
यूँ ही कोई बेवफा नही होता ,,,,
इसी तर्ज़ पर कहा जा सकता है कि......कुछ तो वजह रही होगी यूँ ही कोई बदज़ुबां नही होता ...
गुजरात मे गो रक्षक गो हत्या के कथित आरोप लगाते हुए दलित युवकों को सरेआम रास्तों पर पीटते हुए थाने तक ले जाते हैं और कोई कार्यवाही नही होती ।सुरक्षा और संरक्षण का एक अतिआत्मविश्वास उन्हें ऐसा करते हुए किसी भी प्रकार कानून और सामाजिक भय सेमुक्त रखता है । बल्कि यदि ये कहा जाये की वे इसे शौर्य समझते हैं तो अतिशयोक्ति न्होंगी ।
अचानक मानो एक विस्फोट सा अप्रत्याशित सा घटित होता है । इसके जवाब मे पहली बार कोई वर्ग गोवंश समर्थकों या कह लें सवर्णों के खिलाफ उठ खड़ा होता है और वो भी हिंदुओं मे से ही । दलित वर्ग एकजुट होकर जिला कार्यालय के सामने गायों को गोमाता कहने वाले सवर्णों द्वारा ही अंतिम संस्कार के लिए आव्हान करते छोड़ जाता है । इसके साथ साथ पूरे गुजरात के दलित सड़क पर सवर्णों के खिलाफ उतर आते हैं । हिन्दू सवर्णों या अगड़ों के लिए यह सर्वथा अकलपनिय और अविश्वसनीय प्रतिक्रिया ही है कि दलित उनके खिलाफ यूँ खड़े हो जाएं ,वो भी गाय को लेकर।
हिंदूवादी दक्षिणपंथी पार्टी के होश उड़ जाते हैं । जो गोवंश की हत्या के नाम पर धर्म आधारित राजनीति कर रहे थे उन्हें गोवंश के खिलाफ हिन्दू धर्म से ही चुनोती मिल जाने से सारी रणनीति दरकने लगती है। धार्मिक आधार पर देशभक्ति और गोहत्या को जोड़ने से स्वतः उमड़ने वाली जनसहानुभुति व समर्थन के सारे उपक्रम ध्वस्त होते प्रतीत होने लगते हैं ।
विगत कुछ अरसे से गोहत्या और गोवंश संरक्षण के नाम पर लगातार दबंगई और अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं । मुसलमानो के खिलाफ ये एक सुविधाजनक सर्वमान्य और अचूक हथियार बनता जा रहा है । जब इस दबंगई और अचूक ब्रह्माश्त्र को अचानक हिन्दू धर्म के ही दबे कुचले दलित वर्ग से चुनोती मिली तोअभिजात्य उच्च वर्ण को नीचे से जमीन खिसकती नज़र आने लगी । मुसलमानो के विरुद्ध उपयोगी व कारगर ब्रह्मास्त्र फुस्सी लगने लगा । इसकी काट ज़रूरी थी ।
जब दलित उत्पीड़न व अत्याचार की बहस ज़रा सी जगह व सहानुभूति हासिल करती नज़र आई कि अचानक मायावती को निशाने पे लेकर एक अभद्र व अमर्यादित टिप्पणी यु पी के भाजपा उपाध्यक्ष ने कर दी । उन्हें गाली सी देते हुए उनकी तुलना वेश्या से कर दी (हालांकि मेरी नज़र मे वेश्या कोई गाली नही है बल्कि समाज का ही एक अंग है ) । हंगामा खड़ा हो जाता है .....प्रदर्शन हुल्लड़ और नारेबाजी और नारेबाजी मे दयाशंकर की पत्नी और बेटी को घसीट लिया जाता है । कोई यूँ ही किसी के लिए भी कैसे अभद्र भाषा का इस्तेमाल कर सकता है । भाषा का मनोविज्ञान से गहरा नाता है । वही अमर्यादित और अभद्र भाषा का खेल मायावती के समर्थक भी सारे राह खेलते हैं ।
बस सारी बहस दलित अत्याचार और उत्पीड़न से हटाकर इसी मुद्दे पर केंद्रित कर दी जाती है । गुजरात पूरे परिदृश्य से गायब हो जाता है और यु पी मुख्य केंद्र मे ला दिया जाता है । दलित वर्ग भी अपने उन साथियों उत्पीड़न व अत्याचार से ज्यादा मायावती के अपमान को प्राथमिकता देते हैं । मीडिया मे जो बहस गुजरात मे दलित उत्पीड़न व अत्याचार पर केंद्रित होनी चाहिए थी वह यू पी पर केंद्रित कर दी जाती है । दयाशंकर की पत्नी भी मैदान मे आ जाती है और जो बीजेपी बैकफुट पर होती है अचानक फ्रंटफुट पर ला दी जाती है । आज कहाँ है गुजरात और गुजरात के दलित और उनका उत्पीड़न आज चर्चा का केंद्र यु पी है; दयाशंकर की पत्नी है ; न कि गुजरात और वहां के पीड़ित दलित ।
ये अद् भुत राजनैतिक और मीडिया मैनेजमेंट है कि जो बात गुजरात से शुरू हुई वो यू पी पर केंद्रित कर दी गई और मुख्य बहस दलित विमर्श को हाशिये पर धकेलकर महिला विमर्श पर केंद्रित कर दी जाती है ।
गुजरात की प्रतिक्रिया ऐतिहासिक व क्रांतिकारी है । निश्चित रूप से इसका विस्तार पूरे समाज को ;आज न सही मगर देर सबेर; निर्णायक विभाजन की ओर ले जायेगा । इससे सबसे बड़ा नुकसान धर्म आधारित राजनीति करने वालों को होगा जो राष्ट्रवाद और गोमाता के नाम पर मुसलमानो को कटघरे मे खड़ा करते आये हैं । गाय के मसले पर दलित व मुसलमान एकजुट नज़र आ रहे हैं और दलितों का एक बड़ा तबका खुद को हिन्दू मानने से भी इनकार करता सामने उभरकर आ रहा है । यह हिंदूवादी ताकतों और पार्टियों के लिए खतरनाक है तथा दक्षिणपंथी हिंदूवादी संघटनो और पार्टियों के लिए यह खतरे की घंटी की तरह है । इसी के मद्दे नज़र पूरी बहस को गोवंश रक्षकों द्वारा दलितों पर किये गए अत्याचार से हटाकर मायावती के अपमान और स्वाति सिंह पर केंद्रित कर दिया जा रहा है ।
यह एक सोची समझी साजिश के तहत राजनीति की हारती बाज़ी और जातिगत सामाजिक जनाधार के बिखरने से बचाने के लिए किया जा रहा है जिसमे राजनैतिक दलों के साथ ही मीडिया का भी एक बड़ा वर्ग सहभागी है । हमे इसे समझना होगा और बहश् को दलितों पर हो रहे अत्याचार से भटकने नही देना होगा । यह समझना होगा कि दलित भी अब जागरूक हो है हैं और सत्ता के साथ साथ समाज मे भी अपनी संक्रिय व समान भागेदारी व पहचान चाह रहे हैं । इसमे उनके सबसे बड़े व माकूल सहयोगी मुसलमान ही हैं जो उन्ही कठिनाइयों से अपनी प्रतिष्ठा व पहचान के संकट से गुजर रहे हैं । सवर्ण या कहें अगडे हिंदुओं के सामने सबसे बड़ा संकट दलितों के विद्रोह से निपटाना है । मुसलमानो के खिलाफ ज़हर व अविश्वास फैलाना इनके लिए ज्यादा आसान व मनमाफिक है बनिस्बत दलितों के । दलित के खिलाफ जाना हिंदुत्ववादी ताकतों को भारी ही पड़ेगा । विडम्बना ये है कि हिंदुत्ववादी नीतिगत रूप से न तो दलितों को साथ ले सकते हैं न राजनैतिक रूप से उनके खिलाफ ही जा सकते हैं । इसका यही परिणाम होता है कि किसी तरह आक्रोश को मुद्दे से भटका कर अलना उल्लू सीधा किया जाये ।
आज जो बहस दलितों पर अत्याचार से शुरु हुई थी वह दयाशंकर की पत्नी स्वाति सिंह के इर्द गिर्द केंद्रित कर उन्हें सहानुभूति की लहर पर चुनाव मे खड़े करवाने तक पहुंचा दी गई है । 21 वीं सदी मे भी हम कुछ लोगों द्वारा हांके जा रहे हैं इससे बडे वैचारिक पतन है और मानसिक गुलामी की पराकाष्ठा क्या हो सकती है?

Monday, June 20, 2016

इसी मुलुक की कथा सुनाता "अलग मुलुक का बाशिंदा " ः संदर्भ राजकमल नायक की नाट्य प्रस्तुति -जीवेश प्रभाकर

राजकमल नायक रंगकर्म के क्षेत्र में एक जाना पहचाना और सम्मानित नाम है । यदि वे कोई नई प्रस्तुति पेश करते हैं तो दर्शकों में उत्सुकता और अपेक्षा बनी रहती है । एक लम्बे अंतराल के पश्चात इस बार वे स्वलिखित ,निर्देशित व् संगीतबद्ध एक पात्रीय नाटक "अलग मुलुक का बाशिंदा " लेकर आये हैं ।
कथानक श्मशान में रहने वाले भैरव के माध्यम से गढ़े गए कथा कोलाज़ पर केन्द्रित है । भैरव सामान्य बैगाओं या श्मशान बाबाओं से अलग एक संवेदनशील पढ़ा लिखा युवा है जो अपने पिता की विरासत संभाल रहा है । वो चक्कर और भयंकर सरदर्द की बिमारी से ग्रसित है । ये उसकी संवेदनशीलता का परिचायक है जो समाज की इन विडंबनाओं के चलते अंत में उसकी मौत के रूप में सामने आता है । ये कथा कोलाज़ आज हमारे आज के मुलुक ,समाज,मानवीय मूल्यों , अंतर्संबंधों और जीवन का आइना है। कथानक में बड्डे,छुट्टन,मम्मा, अँगरेज़ पर्यावारंविद, बाबूजी,बाबूजी का मित्र ,शराबी,एक युवा लड़की, बुधा किसान जैसे अनेक चरित्र सामने आते हैं जिनके बहाने निर्देशक समाज की परतें उधेड़ता है ।कथानक में पेड़ों के काटने ,शराब और जलती चिता से उठते धुएं के बहाने जहां पर्यावरण पर चिंता जताते हैं वहीँ समाज की दकियानूसी सोच पर भी प्रश्न खडा करते हैं जो शवदाह हेतु विद्युत् शवदाह को नहीं अपना पा रहा है । नाटक में महिलाओं की आज़ादी और स्वतंत्र अस्तित्व की लड़ाई को बड़ी ही गंभीरता से उठाया है । युवा लड़की अपने पिता की चिता को मुखाग्नि देती है और पुरुषवादी समाज पर मंदिर श्मशान और अन्य स्थानों पर महिलाओं के प्रतिबन्ध पर प्रश्न खडा करती है । लड़की के कथानक् का प्रस्तुतीकरण कमाल का है जिसमे एक चुनरी के माध्यम से लड़की का और फिर उसी चुनरी द्वारा पिता को मुखाग्नि देने का दृश्य सचमुच उनकी निर्देशकीय क्षमता का ही कमाल है । नाटक का सबसे प्रभावी व् मार्मिक दृश्य है एक वृद्ध किसान का अपने युवा बेटे की लाश लेकर श्मसान आना । देश में किसानो की आत्महत्याओं को इस कथानक के जरिये निर्देशक ने बड़े ही मार्मिक व् प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया है । बूढा किसान देर रात साइकिल पर अपने बेटे की लाश लेकर श्मशान आता है और भैरव से उसके क्रियाकर्म की गुहार लगाते हुए अपना दर्द व्यक्त करता है । भैरव उसकी बात सुनता है और शवदाह करता है । इसके बाद भैरव तमाम विडंबनाओं के दर्द और कुछ न कर पाने की लाचारी की छटपटाहट में दम तोड़ देता है । पूरे नाटक के एक एक दृश्य और ब्लाक अपने आप में अनूठे हैं । मानो आप एक जादुई दुनिया से यथार्थ को देख रहे हों । सभी अलग अलग कथा प्रस्तुति के लिए अलग मेकअप और अलग परिवेश के लिए भी कहीं कोई पॉज नहीं लिया गया। मंच का पूरा उपयोग । यहाँ मंच सज्जा की तारीफ़ करना लाज़मी है । सधी हुई मंच सज्जा के लिए हेमंत वैष्णव और पुष्पेन्द्र का काम सराहनीय रहा । मंच सज्जा को संतुलित व् सधी हुई प्रकाश व्यवस्था ने और बेहतर रूप देने में अहम् भूमिका अदा की । 
संगीत राजकमल के नाटकों की प्रमुख पहचान मानी जाती है । इस नाटक में भी रंग संगीत बहुत दमदार और मधुर है । रंग संगीत उनका स्वयं का है जिसमे शुभ्मय मुखर्जी का सहयोग उल्लेख्नीय है । तमाम बदलते रंग दृश्यों में पार्श्व संगीत एक अलग धुन व राग के साथ विशेष प्रभाव स्थापित करते हैं । इसके साथ ही कबीर के पद व् नज़ीर अकबराबादी की नज़्म को भी अच्छी कर्णप्रिय धुनों में ढाला गया है ।
एक पात्रीय नाटक में दर्शकों को लम्बी अवधि तक बांधे रख पाने में बड़ी कठिनाई होती है । इसके लिए निर्देशक की दृष्टि,परिकल्पना और दृश्यबंधों का अनुकूलित संपादन बहुत जरूरी होता है और इसमें राजकमल पूरी तरह कामयाब रहे हैं । उन्होंने अपने निर्देशकीय कौशल और क्षमता का पूरा परिचय देते हुए लगभग डेढ़ घंटे तक दर्शकों को बांधे रखने में कामयाब रहे हैं । इसमें भैरव की भूमिका निभा रहे मुख्य पात्र नीरज गुप्ता का पूरा योगदान रहा । नीरज ने निर्देशक के विश्वास और अपेक्षाओं पर खरा उतारते हुए भैरव के साथ ही 12 चरित्रों को अकेले पूरी ईमानदारी और बेहतरीन अंदाज़ में निभाया है । नीरज ने सभी भूमिकाओं के साथ पूरा न्याय करते हुए अपनी क्षमता से आगे जाकर परफोर्म किया और दर्शकों की वाहवाही हासिल की जिन्हें हर भूमिका में दर्शकों ने सराहा । इन बहुचारित्रिय भूमिका व् एकपात्रीय मंचन के लिए बड़ी ऊर्जा और प्रतिभा की आवश्यकता होती है । नीरज निश्चित रूप से बधाई के पात्र हैं जो इस पैमाने पर खुद को साबित करने में कामयाब रहे । इस प्रस्तुतीकरण के साथ ही वे संभाव्नाओं के नए आयाम खोलते हैं ।
ये कहा जा सकता है कि वरिष्ठ निर्देशक राजकमल नायक दर्शकों की अपेक्षाओं पर पूरी तरह खरे उतरे और एक श्रेष्ठ प्रस्तुति अपने प्रशंसकों व् रंग प्रेमियों को दी है । यहाँ स्क्रिप्ट का ज़िक्र ज़रूरी जो जाता है । हिंदी रंग जगत में लम्बे अरसे से ओरिजिनल हिंदी स्क्रिप्ट के अभाव का रोना रोकर कई निर्देशक दशकों पुरानी स्क्रिप्ट का ही मंचन करते रहते हैं । राजकमल ने इस बहाने से निजात पाने खुद स्क्रिप्ट तैयार की जो दमदार और समसामयिक मुद्दों पर बिना लाउड हुए बहुत सीधे,सरल और संवेदनशील तरीके से दर्शकों से संवाद करती है उन्हें सोचने पर मजबूर करती है । यह स्क्रिप्ट अन्य निर्देशकों द्वारा बहुपात्रिय नाटक के तौर पर भी उठाई जा सकती है । 
अंत में ये कहना ज़रूरी हो जाता है कि राजकमल ने अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप नाट्य प्रेमियों को एक बेहतरीन प्रस्तुति का उपहार दिया है । आज के फास्ट फ़ूड फ़टाफ़ट नुमा दौर में जब लोग गंभीर प्रयासों से इतर सतही स्तर पर किये जा रहे काम का ढिंढोरा पीटते फिरते हैं राजकमल जैसे गंभीर व् निष्ठावान रंगकर्मी बड़ी शिद्दत व् खामोशी के साथ नाट्य जगत को समृद्ध करने में अपना बहुमूल्य योगदान दे रहे हैं । इस नाटक के पीछे उनकी 4-5 महीनो की मेहनत ,रंगकर्म के प्रति निष्ठा व् समर्पण के साथ साथ परफेक्शन का धैर्य और क्षमता है जो एक बेहतर प्रस्तुति के आवश्यक तत्व हैं। निश्चित रूप से राजकमल बधाई के पात्र हैं । ये अपेक्षा करते है कि इस नाटक के और भी प्रदर्शन होंगे ।
जीवेश प्रभाकर

Wednesday, June 1, 2016

शैक्षणिक योग्यता नहीं नैतिक ईमानदारी जरूरी है---- जीवेश प्रभाकर


कई दिनो से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की डिग्री को लेकर पूरे देश में बवाल मचा हुआ है । यह निहायत ही शर्म की बात है कि देश के प्रधानमंत्री जैसे गरिमामयी पद पर आसीन व्यक्ति की डिग्री को लेकर देशभर में हल्ला मचा हुआ है और खुद प्रधानमंत्री मौन हैं ।
        वाचाल माने जाने वाले नरेन्द्र मोदी की इस मसले पर नीम खामोशी सचमुच आश्चर्यजनक है । इस तरह संदेहों के साथ साथ  अफवाहों को जन्म देती है । पूरे विश्व में संभवतः यह अपने तरह का पहला मामला है जबकि एक देश के प्रधानमंत्री पर इस तरह दोषारोपण हो रहा हो ।
      ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री या किसी भी नेता को डिग्रीधारी ही होना चाहिए । और न ही देश की जनता प्रधानमंत्री क्या किसी भी नेता को डिग्री के आधार पर चुनती है ।  शिक्षित होने के लिए और जनप्रतिनिधि होने के लिए  किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं होती  मगर बात ईमानदारी व सच्चाई की है ।  सार्वजनिक जीवन में नैतिक रूप से सच्चाई व ईमानदारी बहुत आवश्यक है ।  पहले भी कई राजनेता बहुत बड़ी डिग्रीधारी नहीं हुए मगर उनमें नैतिक ईमानदारी थी । पूरे देश में कोई प्रधानमंत्री से डिग्री नहीं मागता मगर आप लगातार झूठ व फरेब का सहारा लेकर तथ्यों को गलत पेश करेंगे तो लोगों में गलत संदेश जाता है साथ साथ विश्वासनीयता में भी कमी आती है ।
      हमेशा आक्रामक रहने की कोशिश करने वाली भाजपा पूरी तरह बचाव की मुद्रा में है । यह संदेहों को और पुख्ता करता है । यह अजीब बात है कि प्रधानमंत्री, जो पहले 10 वर्ष से भी ज्यादा समय तक गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके हैं , अब तक अपनी शैक्षणिक योग्यता का ठोस , विशवसनीय व प्रमाणित घोषणा नहीं कर सके हैं ।
 सबसे ज्यादा जिम्मेदारी चुनाव आयोग की बनती है जो अब तक खामोश रहकर तमाशा देख रहा है । जरा जरा सी बात पर नियम कायदे की धौंस दिखाने वाला चुनाव आयोग आखिर स्वयं आगे आकर तत्यों को साफ क्यों नहीं कर रहा है ? यदि झूठे तत्य हैं तो नियमानुसार कार्यवाही क्यों नहीं कर रहा है ?
      एक साधारण सी नौकरी के लिए भी आवेदन पत्र के साथ ही तमाम योग्यताओं के प्रमाण पत्रों की छाया प्रति लगानी अमिवार्य होता है मगर यह अजब बात है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे बड़े चुनाव में प्रतिभागी उम्मीदवार को नामांकन के समय शैक्षणिक योग्ता के कुछ भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं करना पड़ता । ये हमारे चुनाव की सबसे बड़ी कमजोरी है । इसी के चलते सिर्फ प्रधानमंत्री ही नहीं उनकी कैबीनेट मंत्री स्मृति इरानी एवं देश की कई पार्टियों के अनेक उम्मीदवारों के प्रमाण पतत्रों पर फर्जी होने के आरोप लगते रहते हैं । और सबसे बड़ा आश्यर्य इस बात का भी है कि विगत 15 वर्षों से राज्. व अब देश के शीर्ष पद पर आसीन व्यक्ति द्वारा लगातार संदेहास्पद जानकारी दिए जाने के बावजूद चुनाव आयोग कोई भी कार्यवाही नहीं कर सका है ।
       होना तो ये चाहिए कि स्वयं प्रधानमंत्री को आगे आकर सभी  आरोपों का जवाब देकर तमाम संदेहों को दूर कर देना चाहिए । रेडियो पर मन की बात कहने की चाह है तो जनता के मन की शंका इसी कार्.क्रम में दूर कर देना चाहिए । मगर  आज किसी  भी नैतिकता की उम्मीद बेमानी हो चली है अतः जरूरत इस बात की हो गई है कि चुनाव आयोग नामांकन के समय ही प्रत्येक उम्मीदवार को स्वघोषित शैक्षणिक योग्यता सहित तमाम प्रमाण पत्रों को सत्यापित कर प्रस्तुत करने का सख्त नियम बनाए । 

       

Friday, April 15, 2016

ये वो मंज़िल तो नहीं........--क्या धर्मपरिवर्तन से रोहित के सपने पूरे हो जायेंगे ?--

तो रोहित की मां ओर भाई ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया । सामाजिक न्याय और समानता के संघर्ष का आदर्श माने जाने वाले बाबा साहेब आंबेडकर की 125 वीं जयंती पर दोनो ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया ।  बहुत से लोग खुश हैं। ठीक है। यह उनका निजि फैसला है तब तक इस पर पर कुछ कहा नहीं जा सकता और न उन्हें रोका जा सकता है । व्यक्तिगत रूप से आप इससे संतुष्ट भी हो सकते हैं क्योंकि मेरी नज़र में धर्म निहायत ही निजि किस्म का मसला है । बात यदि निजि मसले की होती तो कोई हर्ज नहीं था मगर जब आप इसे सार्वजनिक रूप से उस आईकॉन, रोहित, के नाम का सहारा लेकर प्रचारित प्रसारित करते हैं जो सामाजिक न्याय व समानता की जंग का पर्याय बन चुका है, तो इसके परिणाम सार्वजनिक स्तर पर ही आंके जायेंगे। हो सकता है मंशागत इससे हिन्दू धर्म के ठेकेदारों और हिन्दुत्ववादियों को नीचा दिखाया जा सके या कट्टरपंथियों को तिरस्कृत किया जा सके, दूसरी ओर बौद्ध धर्म के लोग इसे अपनी जीत के तौर पर पेश करें और गौरवान्वित भी हों। मगर सामाजिक समानता और समरसता की लड़ाई लड़ रहे पहले रोहित और अब उनके साथियों जैसे बहुसंख्यक युवा जुझारुओं के साथ साथ उन युवाओं को परोक्ष रूप से नैतिक व बौद्धिक समर्थन दे रहे व संघर्षरत मुझ जैसे असंख्य लोगों  लिए यह अत्यंत दुखदायी और स्तब्ध कर देने वाला निर्णय है ।चूंकि मै दृढ़तापूर्वक इस बात को मानता हूं कि धर्म परिवर्तन एक कुँए से निकलकर दूसरे अन्धे कुँए में कूद जाने से ज्यादा कुछ नहीं है।
निश्चित रूप से हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था में दलितों एवं पिछड़ों के प्रति घोर घृणा और तिरस्कार का भाव मिलता है । अत्याचार,प्रताड़ना और अपमान की एक शर्मनाक दीर्घकालिक परम्परा रही है । ये सदियों से होता आया है और बहुत बड़े पैमाने पर आज भी बदस्तूर जारी है । कमोबेश हर धर्म में इस तरह के भेदभाव होते आए हैं और आज भी हो रहे हैं । सभी धर्मं में अलग अलग आधार पर देखे जा सकते हैं । रंग , नस्ल, वर्ण या वर्ग के आधार पर इस तरह के भेदभाव और भेदभाव के चलते अत्याचार और अपमान भी होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं ।
       सवाल ये उठता है कि क्या धर्म परिवर्तन से रोहित की आकांक्षाओं या सपनों को पाया जा सकता है ? रोहित की मां व भाई के धर्म परिवर्तन को कूटनीतिक रूप से तो हिन्दू धर्म के विरुद्ध  भुनाया जा सकता है मगर व्यापक परिप्रेक्ष्य में इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता । धर्म चाहे कोई भी हो रोहित के प्रश्नों का जवाब या हल वहां नहीं हो सकता। रोहित के सवाल इतने आसान नहीं कि किसी धर्म में उसका हल मिल सके । रोहित की समस्या सामाजिक है ।रोहित की लड़ाई सामाजिक न्याय की है जिसे कोई धर्म हल नहीं कर सकता । हमें यह समझना ही होगा । हमें यह बहुत अच्छी तरह समझना होगा कि रोहित धर्म से कहीं ज्यादा सामाजिक प्रताड़ना से जूझ रहा था । सामाजिक भेदभाव की चौड़ी होती दीवार से टकरा रहा रहा था । वो दीवार जिसे बाबा साहेब आम्बेडकर ने आजादी के बाद गिराना चाहा था । अपने पूरे प्रयासों से बाबा साहेब ने वो संविधान तैयार किया, और उस वक्त अपने समकालीन प्रगतिशील सोच के सहयोगियों की मदद से लागू भी करवाया, जिसे यदि ईमानदारी से लागू किया जाता तो आज रोहित जैसे अनेक नौजवानों को मानसिक संत्रास की पराकाष्ठा पर पहुंचकर आत्महत्या न करनी पड़ती ।
       धर्मपरिवर्तन की राह तो रोहित भी अपना सकता था । मगर उसने ऐसा किया नहीं । वो लगातार परिस्थितियों से जूझता रहा , सामाजिक न्याय और समानता के उद्देश्य को लेकर वह जूझ रहा था, लगातार लड़ता रहा अपने चंद साथियों के साथ ।  ठीक है कि वह परिस्थितियों से थक गया मगर इसे उसकी हार नहीं मानना चाहिए । हारा तो वह आज जब उसकी मां और भाई को धर्मपरिवर्तन की राह पर धकेल दिया गया । ये रोहित के आदर्शों और उसकी लड़ाई को एक बड़ा झटका है । गहरा आघात है उस लड़ाई को जिसे उसके बाद कन्हैया और उसके साथियों सहितअसंख्य युवा अपने कंधों पर उठाकर आगे ले जा रहे हैं । एक अरसे के बाद सामाजिक न्याय और समानता की लड़ाई मुख्य धारा में आई है जिसमें युवा वर्ग सक्रिय रूप से शामिल हुआ है और जिसे राष्ट्रीय स्तर पर संज्ञान में लिया गया है । आज रोहित, कन्हैया और अन्य शोषित पीड़ित समाज देश की मुख्य बहस में आया है । रोहित की लड़ाई महज धर्म परिवर्तन तक सीमित करके नहीं देखी जानी चाहिए । यह उन तमाम धार्मिक शक्तियों का मिला जुला खतरनाक षड़यंत्र है जो रोहित के सपनों व सामाजिक न्याय व समानता की लड़ाई की धार को धार्मिक रंग देकर भोथरा कर देना चाहते हैं ।
       सावधान.....सावधान