Saturday, December 28, 2013

दिल्ली के आगे हिन्दोस्तां और भी है.....

पिछले 2-3 हफ्तों से दिल्ली की राजनीति को लेकर जो अंतहीन, अर्थहीन और तर्कहीन बहस चल रही है और इसके पहले भी लगातार कई मुद्दे जो चैनलों पर उठाए जाते रहे हैं वो तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया की सार्थकता पर कई प्रश्न चिन्ह लगाते हैं । क्या दिल्ली ही देश है?? यह बात साफ तौर पर समझ लेनी चाहिए कि इस बहुभाषी , बहुसंस्कृति और बहुराष्ट्रीय देश में अपनी अपनी सोच और मुद्दे हैं जो उस क्षेत्रविशेष की दिशा तय करते हैं। हां राष्ट्रीय मुद्दे एक हो सकते हैं और उस पर सोच व दिशा भी एक हो सकती है मगर इस परिप्रेक्ष्य में यदि आप राष्ट्रीय चैनल होने का दावा करते हैं तो आपके मुद्दे संकुचित न होकर  व्यापक होने चाहिए साथ ही आपके बहस का फलक विस्तृत होना चाहिए । मैने आज तक किसी भी तथाकथित राष्ट्रीय मुद्दों पर दक्षिण, पश्चिम या पूरब का मत नहीं सुना । क्या सिर्फ दिल्ली वालों की राय ही अंतिम ,सर्वमान्य,सर्वस्वीकार्य और पूरे देश की राय मानी जानी चाहिए ?
इसके पहले भी पिछले कई दिनो से या कहें कई वर्षों से दिल्ली का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया राष्ट्रीय होने के नाम पर एक ऊब और वितृष्णा पैदा करने लगा है । जब से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का आगाज़ हुआ है तब से तो हद ही हो गई है । सुबह से लेकर रात 12 बजे तक हर आधे घंटे में खबरें ...तेज खबरें और सुपर फास्ट खबरें आती हैं मगर इस आधे घंटे में 10 मिनट में जो खबरों के नाम पर परोसा जाता है वो सिवाय दिल्ली , गाजियाबाद,गुड़गांव, नोएडा या ज्यादा हुआ तो यू पी..बस इसके आगे तथाकथित राष्ष्ट्रीय मीडिया के राष्ट्र की सीमा बढ़ ही नहीं पाती । अरे भई हम गैर दिल्लीवासी भी देश का ही हिस्सा हैं । या ये कहें कि दिल्ली के आगे हिन्दोस्तॉं और भी है........
      दिल्ली में दो वाहन की टक्कर एक राष्ट्रीय खबर है मगर मिजोरम में पांचवीं बार सरकार बनाना नीचे पट्टी पर चलने से ज्यादा जगह नहीं बना पाता । तलवार दंपत्ति राष्ट्रीय बहस का मुद्दा है मगर बस्तर में मारे जा रहे निरीह आदिवासियों पर कोई बात नहीं होती। ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं ।
            एक राष्ट्रीय चैनल के पास उपलब्ध 24 घंटों में से 24 मिनट भी देश के अन्य राज्यों के मुद्दों को देने के लिए नहीं हैं। इन चैनलों पर बाकी राज्य तभी थोड़ी बहुत जगह पाते हैं जब वहां कोई आतंकी धमाका, भयंकर हादसा हो या कोई सैक्स या आर्थिक स्कैण्डल ।
      ये कहा जा सकता है कि लोग ये सब देखने को बाध्य नहीं हैं क्योंकि सबके हाथ में रीमोट है मगर बात सरोकार और जिम्मेदारियों की है । जब मीडिया राष्ट्रीय सरोकार और चौथे स्तंभ का दंभ भरता है तो इसे इसका दायित्व भी समझना होगा। आप इससे किसी भी बहाने से पल्ला नहीं झाड़ सकते हैं ।
इधर प्रस्तावित नए नियमों के तहत 1 घंटे में 12 मिनट की विज्ञापन सीमा तय की गई है मगर हो रहा है उल्टा, तमाम चैनल एक घंटे में 12 मिनट कार्यक्रम दिखाते हैं और बाकी के 48 मिनट विज्ञापन ।  जब जब भी खबरिया चैनलों पर दिखाए जा रहे विज्ञापनो के अधिनियम लागू करने की बात चलती है इसे हर बार 6-6 माह के लिए आगे बढ़ा दिया जाता है । आखिर क्यों मीडिया तमाम नियम कायदों से खुद को अलग व विशिष्ट करने में अपनी शान समझता है । लोकपाल की सभी बहसों में मीडिया को शामिल करने की चर्चा हंसा मजाक में तबदील कर दी जाती है । आखिर पूरा मीडिया सरकार पोषित ही तो है । 
अब यदि आप  इन राष्ट्रीय चैनलों से दूर रहने की सोचें तो  विडंबना ये है कि क्षेत्रीय चैनल भी इसी ढर्रे पर चल रहे हैं ...वहां भी क्षेत्रीय से ज्यादा दिल्ली की खबरें हैं....आखिर लोग न्यूज चैनलों से भागकर कहां जाएं ....कुछ लोग खेल और मनोरंजन में ठिया बनाने लगे हैं ..... यह एक बेहतर विकल्प हो सकता है... आप भी आमंत्रित हैं ..।

Saturday, December 7, 2013

सरकार की आहट
जीवेश प्रभाकर
      बस एक रात का फासला है और कल सारे अनुमान, सारे सर्वेक्षण और सट्टे बाजों के भी आंकलन का परिणाम सामने होगा ।  इस बार मतदाताओं ने अपनेर् कत्तव्य निर्वाहन में काफी उत्साह दिखाया है । देश के अन्य 5 रायों में  चुनाव के नतीजे आयेंगे । मगर ज्यादा उत्सुकता व इंतजार अपने अपने प्रदेश को लेकर ही होता है । निश्चित रूप से इस चुनाव में मुकाबला बहुत ही संघर्षपूर्ण व कांटे का है । तमाम आंकलन व अनुमान लगाए जा चुके हैं और अब वास्तविक नतीजे की घड़ी आ चुकी है । धीमे धीमे करीब आने लगी है सरकार की आहट।
      ये रात सबके लिये बड़ी तनावग्रस्त है । वो जो वातानुकुलित कमरों में चैन की नींद सोते हैं, इस रात को वे नहीं सो पाते । जो नतीजों के इंतजार में जागते हैं वो तो इससे निजात नहीं पा सक ते, मगर कई ऐसे हैं जिनकी आगे की नींद इन परिणामों पर ही निर्भर करती है । ये वे लोग होते हैं जो सरकार पोषित होते हैं । इनका सब कुछ इन परिणामों पर ही निर्भर होता है । ये आज भी सत्ता से लाभ उठा रहे हैं और आगे भी उठाने की जुगत में लगे रहेंगे । इन लोगों के लिये भी आज की रात कत्ल की रात की तरह होती है । ये वे होते हैं जो चुनाव के दौरान अपनी कोई राय नहीं देते बल्कि दूसरों से राय जानने में लगे रहते हैं । इस दौरान ये बड़े समावेशी , मिलनसार और मृदुभाषी हो जाते हैं ।
      कल आने वाले परिणामों से जाने कितनो के गणित गलत हो जायेंगे, गड़बड़ा जायेंगे, तो जाने कितनो की केमिस्ट्री फिट हो जायेगी । कितने ही इतिहास में चले जायेंगे तो कितनों के नए अध्याय शुरू होंगे । बस एक रात और सारे समीकरण सामने होंगे । इन तमाम तनावों और उहापोह के बीच चैन से सोता मिलेगा वही जिसे पूरे चुनाव के दौरान ईश्वर की तरह चढ़ावा चढ़ाया जाता रहा और जो इन सब चढ़ावों को, सबके चढ़ावों को खुले दिल से चढ़ाता हुआ अपनी मर्जी इ.वी.एम. में दर्ज करा आया है । आज की रात वो बड़े आराम से सो रहा है क्योंकि कल के जश्न में उसे ही अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है । यह ईश्वर आज की रात बड़े आराम से खुर्राटे भर रहा होगा ।
      वो फूल वाला, मिठाईवाला, पटाखे वाला, बैंडवाला .. सब तैयार हैं । उन्हें तो बस बजाना है, जीत किसी की भी हो । ये पूरी तरह नई सरकार की तैयारी में अपना योगदान देने बेचैन हैं । ये हर चुनीव में जश्न के सामान होते हैं । जीतने का जश्न खत्म होते ही विजयी प्रत्याशी फर्श से अर्श तक पहुंच जाता है, अगले चुनाव के आते आते विजेताओं की संपत्ति तो 5-10 गुना बढ़ जाती है मगर ये जो इनकी सवारी निकालते हैं कहीं और नीचे धंसते चले जाते हैं । जाने कितने विजय जूलुसों की शान और योगदान के बावजूद आज भी ये वहीं है । उम्मीद और उत्साह से भरी जनता भी अपने कंघों पर इन विजेताओं को सत्ता की दहलीज पर छोड़ती है जहाँ वे भीतर घुसकर जो किवाड़ बंद करते हैं तो फिर ये झरोखों पर ही दर्शन देते हैं । बाद में हम आप इनके दर्शन तक को तरसते रहते हैं। सुरक्षा के नाम पर हथियारबंद कमांडो से ये अपने आप को इतना सुरक्षित कर लेते हैं कि आमजन इनकी छाया तक भी नहीं पहुंच पाता ।  कल तक जो आपके दरवाजे पर हाथ जोड़े खड़े थे ,कल शाम के बाद इनके सुरक्षाकर्मी अपने हाथो से आपको धकियाते मिलेंगे ।
कल परिणाम आने के बाद सभी आपको यही कहते मिलेंगे, ''देखा, मैंने तो पहले ही कहा था ... ।''  आप ये सुनने के लिये तैयार रहें ।
       अरे मीडिया को तो भूल ही गए ...सबसे वेसब्र तो यही रहता है । बेसब्र इतना कि चुनाव नतीजों के पहले कागजी सरकार बनवा देते हैं और उस पर बहस भी करवा लेते है । ये  सब ओर से फायदे में होता है । सरकार किसी की बने, जीते कोई भी जश्न तो इसे ही मनाना है । चित भी मेरी पट भी मेरी और अंटा भी जेब में । कल  बधाइयोंधन्यवाद से भरे विज्ञापनों के बीच अखबारों में कोई जगह नहीं होगी
     चुनाव आयोग इस बार चुनाव नतीजों के बाद भी प्रत्याशी के  खर्च पर निगाह रखेगा । जश्न का खर्च भी प्रत्याशी के खाते में डाला जाएगा । ये क्या बात हुई । चुनाव खतम पैसा हजम । क्या हर प्रत्याशी अपने निर्धारति राशि में से जश्न के लिए पैसा बचाकर रखे । अरे भई क्या हर प्रत्याशी जीत रहा है ? चुनाव आयोग भी बेतुके फरमानो से अपनी छवि खराब करता रहता है । ये बेलगाम नौकरशाही का एक हास्यासपद नमूना है । कानून तो चुनाव में हुए खर्च के लिए है क्या ....

     आपसे नई सरकार के गठन के बाद ही बात होगी। तो मिलते हैं नतीजों के बाद.. ।

Thursday, December 5, 2013

                                     संघर्ष का पर्याय
                                                               नेल्सन मन्डेला
                                                                   1918-2013

                                         सेनानी को सलाम.................



संग्राम अभी भी जारी है........................ 

Tuesday, December 3, 2013

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अकार का नया अंक-36 अब नेट पर...
पढ़ेंः--
राजकुमार राकेश का आलेखः

ऊगो चावेस और बोलीवारियन क्रान्ति

.......हमारे समय में शावेज़ एकमात्र ऐसे राजनयिक थे जिन्होंने प्रत्येक स्तर पर खुले रूप से अमेरिका की गतिविधियों को भर्त्सना की थी । उनकी जगह फिलहाल खाली है । यह लेख शावेज़ के जीवन व्यक्तित्व और विचारों के अनेक पक्षों पर रोशनी डालता है । शावेज़ की मृत्यु के तत्काल बाद हम इसे देना चाहते थे, पर इसकी सामग्री जुटाना और फिर लिखना श्रमसाध्य काम था । राजकुमार राकेश ने अध्ययन और तत्परता के साथ इस ज़रूरी लेख को 'अकार' के लिये तैयार किया इसके लिये हम उनके आभारी हैं ।
- प्रियंवद
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Saturday, November 30, 2013

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अकार ( वर्तमान अंक-36 )
अकार -36 अब इंटरनेट पर अपलोड--

मुस्लिम रैनेसॉं पर बातचीत की श्रखला -

      'अकार' ने मुस्लिम समाज, धर्म, इतिहास, के प्रख्यात अध्येताओं से बातचीत की एक श्रृंखला शुरू की है । इसमें सबसे पहले प्रो. इरफान हबीब से की गयी विस्तृत विचारोत्तेजक बातचीत प्रस्तुत की जा रही है। उसके बाद प्रो. शम्सुर्रहमान फारूकी, प्रो. शमीम हनफी और पाकिस्तान के कुछ विशिष्ट लोग होंगे । यदि यह बातचीत, बहस आगे बढ़ी तो हम इसे विश्व के अलग अलग हिस्सों में ले जाने का प्रयास करेंगे ।........
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जीवेश प्रभाकर
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Monday, April 15, 2013

एक कहानी में पढ़ें...

लेटर-बॉक्स--अज्ञेय 
दोनों बूढ़े थे और बाल-बच्चा उनका कोई नहीं था - दो बेटे जंग में मारे गये थे जापान की तरफ़। लाहौर में आ मिलने को कह गये थे। लाहौर की तरफ़ जाते-जाते और भी कई लोग उनके साथ हो गये थे, लेकिन रास्ते में कुछ लोगों ने बन्दूकों से बहुत-सी गोलियाँ चलायीं और कुछ साथ के मारे गये - चाचा भी मर गये। पर साथियों ने रुकने नहीं दिया। बहुत जल्दी-जल्दी बढ़ते गये। लाहौर में बाबूजी के मिलने की बात थी, पर लाहौर वे लोग गये ही नहीं। रास्ते में और बहुत से लोग मिले थे, उन्होंने कहा कि लाहौर जाना ठीक नहीं इसलिए रास्ते में से मुड़ गये।
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Tuesday, April 9, 2013

चावेज द्वारा 20 सितंबर 2006 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिये गये तीखे अमेरिका विरोधी भाषण के अंश

कल शैतान आया था 
चावेज द्वारा 20 सितंबर 2006 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिये गये तीखे अमेरिका विरोधी भाषण के अंश
 सबसे पहले मैं सम्मान के साथ आप सब को आमंत्रित करना चाहता हूं, जिन्हें उस पुस्तक को पढ़ने का अवसर नहीं मिला, जिसे हमने पढ़ा है। नोम चॉम्स्की, जो विश्व और अमेरिका के सबसे प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों में से हैं, उनकी सबसे नयी रचना "हेजेमनी ऑर सरवाइवल?' मुझे लगता है कि अमेरिका में हमारे भाइयों और बहनों को यह किताब सबसे पहले पढ़नी चाहिए क्योंकि खतरा उनके अपने घरों में ही है। शैतान उनके घर में ही है। खुद शैतान उनके घर में है।वह शैतान कल यहां था। कल शैतान यहां, इसी जगह पर मौजूद था। यह मेज, जहां से मैं आपको संबोधित कर रहा हूं, अभी भी गंधक की तरह महक रही है। कल इसी हॉल में अमेरिका के राष्ट्रपति, जिन्हें में "शैतान'कहता हूं, आये थे और इस तरह बात कर रहे थे मानो दुनिया उनकी जागीर हो। अमेरिकी राष्ट्रपति के कल के भाषण का विश्लेषण करने के लिए किसी मनोवैज्ञानिक की जरूरत होगी।साम्राज्यवाद के एक प्रवक्ता की तरह वे हमें अपने वर्तमान आधिपत्य, शोषण और विश्व के लोगों को लूटने की अपनी युक्ति बताने आये थे। इस पर अल्फ्रेड हिचकॉक की एक अच्छी फिल्म बन सकती है। मैं उसका शीर्षक भी सुझा सकता हूं - "द डेविल्स रेसिपी'। मतलब यह कि अमेरिकी साम्राज्यवाद- जैसा कि चॉम्स्की भी गंभीरता और स्पष्ट रूप से कहते हैं- अपने आधिपत्य की वर्चस्ववादी व्यवस्था को स्थापित करने की पुरजोर कोशिश कर रहा है। हम इसे होने नहीं दे सकते। हम उसकी वैश्विक तानाशाही को स्थापित होने नहीं दे सकते, उसे मजबूत होने नहीं दे सकते। विश्व के उस अत्याचारी राष्ट्रपति का वक्तव्य दंभ और पाखंड से भरा है। यह साम्राज्यवादी पाखंड है, जिसके जरिये वे सभी कुछ नियंत्रित करना चाहते हैं। वे हम पर लोकतांत्रिक मॉडल थोपना चाहते हैं, जिसे उन्होंने खुद बनाया है। कुलीनों का मिथ्या लोकतंत्र। और इससे भी ज्यादा, एक ऐसा लोकतांत्रिक मॉडल, जो विस्फोट, बमबारी, आक्रमण और बंदूक की गोलियों के बल पर थोपा गया है। ऐसा है वह लोकतंत्र! हमें अरस्तू की स्थापनाओं और लोकतंत्र के बारे में बताने वाले आरंभिक यूनानियों की फिर से समीक्षा करनी पड़ेगी और देखना होगा कि आखिर नौसैनिक आक्रमण, हमले, उग्रवाद और बमों से लोकतंत्र का कौन सा मॉडल थोपा जा रहा है।अमेरिकी राष्ट्रपति ने इसी हॉल में कल कुछ बातें कही थीं। मैं उनका वक्तव्य दुहराता हूं, "आप जहां कहीं भी नजर दौड़ायें, आपको उग्रवादियों की बात सुनने को मिलेंगी जो कहते हैं कि आप हिंसा, आतंक और शहादत से अपनी तकलीफों से छुटकारा पा सकते हैं और अपना आत्मसम्मान हासिल कर सकते हैं।' वे जिधर भी नजर दौड़ाते हैं, उन्हें उग्रवादी ही दिखते हैं। मुझे पता है भाइयो, वे आपको देखते हैं, आपकी चमड़ी के रंग से देखते हैं और सोचते हैं कि आप एक उग्रवादी हैं। रंग के आधार पर ही बोलीविया के सम्मानित राष्ट्रपति एवो मोरालेस, जो कल यहां मौजूद थे, एक उग्रवादी हैं। साम्राज्यवादियों को हर तरफ उग्रवादी ही नजर आते हैं। ऐसा नहीं है कि हम उग्रवादी हैं। हो यह रहा है कि दुनिया अब जाग गयी है। चारों तरफ लोग उठ खड़े हो रहे हैं। मिस्टर साम्राज्यवादी तानाशाह, मुझे लगता है कि आप अपने शेष दिन दुःस्वप्न में ही गुजारेंगे क्योंकि इसमें संदेह नहीं कि आप जहां कहीं भी नजर दौड़ायेंगे, हम अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ खड़े नजर आयेंगे।हां, वे हमें उग्रवादी कहते हैं, क्योंकि हमने विश्व में संपूर्ण स्वतंत्रता की मांग की है, लोगों के बीच समानता और राष्ट्रीय संप्रभुता की गरिमा की मांग की है। हम साम्राज्य के खिलाफ उठ खड़े हो रहे हैं, आधिपत्य के मॉडल के खिलाफ खड़े हो रहे हैं। 
सौज. पब्लिक एजेंडा

Tuesday, March 19, 2013

मैं नास्तिक क्यों हूँ---शहीद भगत सिंह
यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था और यह 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार “ द पीपल “ में प्रकाशित हुआ । स्वतन्त्रता सेनानी बाबा रणधीर सिंह 1930-31के बीच लाहौर के सेन्ट्रल जेल में कैद थे। वे एक धार्मिक व्यक्ति थे जिन्हें यह जान कर बहुत कष्ट हुआ कि भगतसिंह का ईश्वर पर विश्वास नहीं है। वे किसी तरह भगत सिंह की कालकोठरी में पहुँचने में सफल हुए और उन्हें ईश्वर के अस्तित्व पर यकीन दिलाने की कोशिश की। असफल होने पर बाबा ने नाराज होकर कहा, “प्रसिद्धि से तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है और तुम अहंकारी बन गए हो जो कि एक काले पर्दे के तरह तुम्हारे और ईश्वर के बीच खड़ी है। इस टिप्पणी के जवाब में ही भगतसिंह ने यह लेख लिखा।....पूरा पढ़ें...
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Monday, March 4, 2013

कहानी-एक आदिम रात्रि की महक -- फणीश्वरनाथ 'रेणु'

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एक आदिम रात्रि की महक -- फणीश्वरनाथ 'रेणु'
करमा पूछना चाहता था कि नए 'पोख्ता' मकान में बाबू को भी चूने की गंध लगती है क्या? कनपटी के पास दर्द रहता है हमेशा क्या?...बाबू कोई गीत गुनगुनाने लगे। एक कुत्ता गश्त लगाता हुआ सिगनल-केबिन की ओर से आया और बरामदे के पास आ कर रुक गया। करमा चुपचाप कुत्ते की नीयत को ताड़ने लगा। कुत्ते ने बाबू की खटिया की ओर थुथना ऊँचा करके हवा में सूँघा। आगे बढ़ा। करमा समझ गया - जरूर जूता-खोर कुत्ता है, साला!... नहीं, सिर्फ सूँघ रहा था। कुत्ता अब करमा की ओर मुड़ा। हवा सूँघने लगा। फिर मुसाफिरखाने की ओर ...पूरा पढ़ें.



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" रेणु " के जन्मदिवस पर पढ़ें...
एक आदिम रात्रि की महक -- फणीश्वरनाथ 'रेणु'
करमा पूछना चाहता था कि नए 'पोख्ता' मकान में बाबू को भी चूने की गंध लगती है क्या? कनपटी के पास दर्द रहता है हमेशा क्या?...बाबू कोई गीत गुनगुनाने लगे। एक कुत्ता गश्त लगाता हुआ सिगनल-केबिन की ओर से आया और बरामदे के पास आ कर रुक गया। करमा चुपचाप कुत्ते की नीयत को ताड़ने लगा। ....
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Friday, February 22, 2013


समकालीन विमर्श का एक महत्वपूर्ण पोर्टल

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दो नाक वाले लोग-- हरिशंकर परसाई
बात मैं उन सज्जन की कर रहा था जो मेरे सामने बैठे थे और लड़की की शादी पुराने ठाठ से ही करना चाहते थे। पहले वे रईस थे - याने मध्यम हैसियत के रईस। अब गरीब थे। बिगड़ा रईस और बिगड़ा घोड़ा एक तरह के होते हैं - दोनों बौखला जाते हैं। किससे उधार लेकर खा जाएँ, ठिकाना नहीं। उधर बिगड़ा घोड़ा किसे कुचल दे, ठिकाना नहीं। आदमी को बिगड़े रईस और बिगड़े घोड़े, दोनों से दूर रहना चाहिए। मैं भरसक कोशिश करता हूँ। मैं तो मस्ती से डोलते आते साँड़ को देखकर भी सड़क के किनारे की इमारत के बरामदे में चढ़ जाता हूँ - बड़े भाई साहब आ रहे हैं। इनका आदर करना चाहिए।... पूरा पढ़ें....

Wednesday, February 20, 2013

गंगा और देश की नदियां--प्रभाकर चौबे

www.vikalpvimarsh.in में...
गंगा और देश की नदियां--प्रभाकर चौबे
गंगा के जल को प्रदूषित किसने किया। गंगाजल तो निर्मल था, सालों बंद बोतल में रखे रहने पर भी गंदा नहीं होता था। अब घोर आस्थावान, साधू, महंत, मठाधीश भी ऐसा कह रहे हैं कि गंगा का पानी अब स्नान के लायक नहीं रहा। गंगाजल को मुंह में रखने की इच्छा नहीं होती। इस स्वच्छ जल को गंदा किसने किया। आम जनता ने तो किया नहीं। सबको पता है, कि गंगाजल को गंगा किनारे बसे बड़े-बड़े शहरों में स्थापित उद्योगों ने प्रदूषित किया है। ...पूरा पढ़ें...

गंगा और देश की नदियां--प्रभाकर चौबे


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गंगा और देश की नदियां--प्रभाकर चौबे
गंगा के जल को प्रदूषित किसने किया। गंगाजल तो निर्मल था, सालों बंद बोतल में रखे रहने पर भी गंदा नहीं होता था। अब घोर आस्थावान, साधू, महंत, मठाधीश भी ऐसा कह रहे हैं कि गंगा का पानी अब स्नान के लायक नहीं रहा। गंगाजल को मुंह में रखने की इच्छा नहीं होती। इस स्वच्छ जल को गंदा किसने किया। आम जनता ने तो किया नहीं। सबको पता है, कि गंगाजल को गंगा किनारे बसे बड़े-बड़े शहरों में स्थापित उद्योगों ने प्रदूषित किया है।.....पढ़ें...
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Saturday, February 16, 2013

लखनऊ में वयस्कों का नाटक


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लखनऊ ने वयस्कों के नाटक को अपनाया
ओके टाटा बाई बाई नाम के नाटक में जैसे डायलॉग हैं, वे अगर बंबईया फिल्मों में होते, तो सिर्फ फर्स्ट क्लास के दर्शकों से सीटी और हूटिंग का सामना करना पड़ता. लेकिन नजाकत और नफासत की परंपरा वाले लखनऊ के संजीदा दर्शकों ने बारीकी से इस ड्रामे को समझने की कोशिश की. इप्टा के रंगकर्मी राकेश कहते हैं कि दर्शक समझदार हो रहा है और नाटक इसमें अहम भूमिका निभा रहे हैं, "रंगमंच हमेशा से परिपक्वता का परिचय देता है.".............पढ़ें...www.vikalpvimarsh.in

यथास्थितिवाद से मुठभेड़--प्रभाकर चौबे का लेख

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यथास्थितिवाद से मुठभेड़--प्रभाकर चौबे
लोकतंत्र का मतलब नियमित चुनाव और जनता के अधिकार का मतलब चुनाव में वोट देने तक सीमित कर दिया गया। और जनता ने वोट देने तथा सरकार बनाने के प्रति एक तरह से उदासीनता ओढ़ ली। देश में हर निर्माण कार्य में भ्रष्टाचार घुसा और हर काम में कमीशन की पैठ मजबूत होती गई। इसका नतीजा यह हुआ कि मेहनतकश तो तकलीफ में रहे आए लेकिन बिचौलियों की खुशहाली बढ़ी।
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