Thursday, April 25, 2019

50 फीसद वीवीपैट सत्यापनः तंत्र पर मजबूत होगा लोक का विश्वास --- जीवेश चौबे


जहां सवाल लोकतांत्रिक प्रक्रिया की पारदर्शिता और विश्वसनीयता को बढ़ाने का हो, वहां संवैधानिक संस्थाओं के बीच किसी तरह का अहं का टकराव नहीं होना चाहिए । लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरी है । जनता का, जनता के लिए जनता के द्वारा सिद्धांत तभी जीवित रह सकते हैं जब तक तंत्र पर लोक की आस्था और विश्वास कायम है । लोकतांत्रिक मूल्यों और लोकतांत्रिक संस्थानो में विश्वासनीयता ही लोकतंत्र की जान है । रजनैतिक दलों से कहीं ज्यादा जनता में तंत्र पर विश्वास कायम रहना महत्वपूर्ण है । यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि एक बार फिर वीवीपैट मिलान को लेकर 21विपक्षी दलों ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष समीक्षा याचिका दायर की है । इस याचिका में इन पार्टियों ने अदालत से मांग की है कि वह चुनाव आयोग को ईवीएम से वीवीपीएटी के 50 फीसदी मिलान करने का निर्देश दे।
तीन चरण के मतदान पूरे हो चुके हैं तीनो चरण के मतदान के दौरान कई प्रदेशों में मशीनों की खराबी और दूसरी तरह की शिकायतें सामने आई हैं ।  ऐसे में देश में कई पार्टियों ने एक बार फिर चुनावों में ईवीएम से छेड़छाड़ का मुद्दा उठाया है । ईवीएम से छेड़छाड़ का मुद्दा खास है क्योंकि ईवीएम से छेड़छाड़ की संभावना ने आम लोगों में भी डर बना दिया है हालांकि ईवीएम के समर्थन में चुनाव आयोग द्वारा कहा जाता है कि ईवीएम में छेड़छाड़ संभव नहीं है मगर आम जन में संशय बना हुआ है । विगत 70 वर्षों से देश में आम जनता की उल्लेखनीय सहभागिता और जिम्मेदारी के चलते ही  लोकतंत्र लगातार विकसित व मजबूत हुआ है। जब भी तंत्र पर कोई खतरा हुआ है लोक ने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई है । इन 70 बरसों में देश में लोकतांत्रिक प्रणाली को मजबूत करने कई उपाय किए गए । इसमें सबसे महत्वपूर्ण है ईवीएम मशीनों का इस्तेमाल । नई सदी में तकनीकी के विस्तार के साथ ही इस प्रणाली को और मजबूती मिली मगर इसके साथ कुछ दुष्परिणामों की आशंका भी बलवती हुई है
ईवीएम का पहली बार इस्तेमाल 1982में केरल के परूर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र के 50 मतदान केन्द्रों पर हुआ। 1983 के बाद इन मशीनों का इस्तेमाल इसलिए नहीं किया गया कि चुनाव में वोटिंग मशीनों के इस्तेमाल को वैधानिक रुप दिये जाने के लिए उच्चतम न्यायालय का आदेश जारी हुआ था।  1988 में संसद ने इस कानून में संशोधन किया तथा जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951में नई धारा जोड़ी गई जो आयोग को वोटिंग मशीनों के इस्तेमाल का अधिकार देती है। संशोधित प्रावधान 15मार्च 1989 से प्रभावी हुआ। केन्द्र सरकार द्वारा 1990 में अनेक मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय दलों के प्रतिनिधियों वाली चुनाव सुधार समिति बनाई गई और सरकार ने ईवीएम के इस्तेमाल संबंधी विषय विचार के लिए चुनाव सुधार समिति को भेजा। 1992 को सरकार के विधि तथा न्याय मंत्रालय द्वारा चुनाव कराने संबंधी कानूनों, 1961 में आवश्यक संशोधन की अधिसूचना जारी की गई। नवम्बर, 1998 के बाद से आम चुनाव एवं उप-चुनावों में प्रत्येक संसदीय तथा विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र में ईवीएम का इस्तेमाल विधिवत प्रारंभ किया गया और 2004 के आम चुनाव में देश के सभी मतदान केन्द्रों पर ईवीएम के इस्तेमाल के साथ भारत ई-लोकतंत्र में परिवर्तित हो गया। तब से सभी चुनावों में ईवीएम का इस्तेमाल किया जा रहा है। मगर मतों के सत्यापन की कोई व्यवस्था नहीं होने से एक अविश्वास भी कहीं पनपता रहा ।  

2013में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद  वोटर वेरीफाइड ऑडिट ट्रेल (वीवीपैट) कागजी
सत्यापन की व्यवस्था की गई । उस समय भी चुनाव आयोग वीवीपैट की शुरुआत करने का विरोध कर रहा था ।
वीवीपैट मशीन ईवीएम से जुड़ी होती है
जब मतदाता ईवीएम पर बटन दबाता है तब वीवीपैट मशीन से एक पर्ची निकलती है जिस पर उस पार्टी का चुनाव निशान और उम्मीदवार का नाम होता है जिसे मतदाता ने वोट दिया होता है । मतदाता को सात सेकेंड तक दिखने के बाद यह वीवीपैट मशीन में एक बक्से में गिर जाती है । इस व्यवस्था से कुछ तसल्ली हुई मगर अब भी इसे मशीनी गणना से मिलान करने कोई संतोषजनक प्रावधान नहीं किया गया। इसे लेकर ही भाजपा को छोड़कर अन्य राजनैतिक दल उद्वेलित हैं और एक विश्वसनीय व्यवस्था की मांग कर रहे हैं। यह पहली बार नहीं है कि भारत में ईवीएम पर सवाल उठ रहे हों ।  इसके पहले सत्ताधारी बीजेपी के ही नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने साल 2009 में ईवीएम पर सवाल उठाया था, हालांकि सुब्रमण्यम स्वामी तब बीजेपी में नहीं थे और देश में कांग्रेस की सरकार थी । मगर आज सत्ता में आने पर भाजपा  द्वारा मतदान और मतगणना की प्रक्रिया को ज्यादा पारदर्शी बनाने के इस प्रस्ताव का समर्थन न करना हैरत में डालनेवाला है ।

गौरतलब है कि पूर्व में 21 राजनीतिक दलों द्वारा ईवीएम की 50 फीसद वीवीपैट पर्चियों से मिलान संबंधी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में औचक रूप से पांच वीवीपैट का ईवीएम से मिलान किए जाने का आदेश दिया था। इसके पूर्व तक प्रत्येक विधान सभा में  सिर्फ एक ईवीएम की वीवीपैट पर्चियों का औचक मिलान होता रहा । विपक्षी दलों द्वारा दायर याचिका के जवाब में चुनाव आयोग ने दलील दी थी कि इससे चुनाव के नजीजों में 5 से 6 दिन लगेंगे । 21 विपक्षी पार्टियों के नेताओं ने कहा कि चुनाव के नतीजों की घोषणा में 5 से 6  दिनों की देर कोई गंभीर विलंबनहीं है, बशर्ते कि यह चुनाव प्रक्रिया की पवित्रता व पारदर्शिता सुनिश्चित करती हो। लोक विश्वास के नजरिए से भी यह सही है कि जब सुरक्षा के मद्दे नज़र चुनाव प्रक्रिया में दो से तीन माह लगाया जा सकता है तो देश की भावी सरकार को पांच साल दिए जाने के पूर्व लोकतांत्रिक पारदर्शिता सुनिश्चित करने 5-6 दिन का इंतजार क्यों नहीं किया जा सकता ।
विश्व में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन की टेक्नोलॉजी कई दशकों से मौजूद है लेकिन दुनिया के ज्यादातर लोकतांत्रिक देश अब भी मत पत्रों का ही इस्तेमाल करते हैं इन देशों में ब्रिटेन, अमेरिका से लेकर फ्रांस और जर्मनी तक शामिल हैमौजूदा समय में भारत के अलावा सिर्फ नामीबिया, अरमेनिया, भूटान, ऑस्ट्रेलिया, बुल्गारिया, एस्टोनिया, स्वीट्जरलैंड, इटली, कैनेडा, मैक्सिको, अर्जेंटीना, ब्राजील आदि कुछ ही देशों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन से मतदान होता है । लोकतंत्र की विश्वसनीयता के चलते जर्मनी, नीदरलैंड, आयरलैंड और अमेरिका जैसे कई विकसित लोकतांत्रिक राष्ट्र या तो कागज मत पत्रों की तरफ लौट गए हैं, या उसकी फिर से शुरुआत करने की प्रक्रिया में हैं,जबकि उनके पास सर्वोत्तम तकनीक उपलब्ध है। कई अन्य देशों में भी इसकी विश्वसनीयता को लेकर बहस जारी है।  
आज भारत में भी यह बहस उठी है जो लोकतंत्र की बेहतरी के लिए अच्छे संकेत हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया इतनी पारदर्शी होना चाहिए कि संदेह की सुई बराबर गुंजाइश भी न रहे। तंत्र की मजबूती लोक की आस्था और विश्वास पर ही निर्भर है । मतदाता का यह भरोसा कायम रहना चाहिए कि उसके ही मत से सरकारें बनती और बिगड़ती हैं मतदाता का यह भरोसा ही लोकतंत्र की बेहतरी के लिए न सिर्फ जरूरी बल्कि बेहद महत्वपूर्ण भी है और यही लोकतंत्र का सारतत्व है । चुनाव आयोग को निश्चित ही पारदर्शिता सुनिश्चित करने मौजूदा व्यवस्था की तुलना में ज्यादा बड़े सैंपल के वीवीपैट सत्यापन की मांग को स्वीकार करना चाहिए । जैसा कि मुख्य न्यायाधीश ने पूर्व में  कहा, ‘कोई भी संस्था, चाहे वह कितनी ही ऊंची क्यों न हो, उसे अपने में सुधार के लिए तैयार रहना चाहिए ।’  चुनाव आयोग को पारदर्शिता के हक़ में कदम में उठाते हुए मौजूदा व्यवस्था की तुलना में बूथों के ज्यादा बड़े सैंपल के वीवीपैट सत्यापन की मांग को स्वीकारना चाहिए ।  चुनाव आयोग का यह निर्णय लोगों की नजरों में उसकी विश्वसनीयता को बढ़ाएगा।
jeeveshprabhakar@gmail.com
(देशबन्धु 26 अप्रैल2019)

Thursday, April 18, 2019

राष्ट्रवाद ः बहुसंख्यक ध्रुवीकरण का नया आख्यान

इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी एक नई रणनीति के तहत बहुलतावाद को दरकिनार कर बहुसंख्यक ध्रवीकरण को प्राथमिकता के साथ विमर्श के केन्द्र में ला रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के स्टार प्रचारक कहे जाने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ साफ तौर पर अपने प्रचार को बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक ध्रुवीकरण पर ले जाते हुए दिख रहे हैं । यह संसदीय लोकतंत्र के लिए एक ख़तरनाक संकेत है । बहुलता  ही भारतीय लोकतंत्र की जान है ।  धर्म, जाति,भाषा और संस्कृति  की विविधता से भरे भारत जैसे देश में संविधान बनाते समय तात्कालीन नेताओं ने बहुत सोच समझकर संविधान सभा के माध्यम से देश में संसदीय लोकतंत्र की स्थापना की थी, ताकि किसी एक धर्म , संप्रदाय या वर्ग का या कहें बहुसंख्यक समुदाय के नाम पर किसी का बोलबाला या एकाधिकार न हो, सरकार बनाने और  देश के विकास में  सभी को बराबरी का  प्रतिनिधित्व मिले । उस समय स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों से ओत-प्रोत भारतीय समाज ने  बहुसंख्यक  'हिंदू राष्ट्र' की बात करने वालों को दरकिनार कर दिया था । एक लम्बे अरसे तक या कहें आजादी के आंदोलन की गवाह उस पिछली पीढ़ी तक तो ये धारणा लगभग बनी रही मगर धीरे धीरे धनबल बाहुबल के बढ़ते प्रभाव के चलते  सत्ताप्रधान राजनीति का बोलबाला होता गया और सिद्धांत व नैतिकता हाशिए पर चली गईं । सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय की भावना कागजों में सिमटकर रह गई ।
 विगत कुछ दशकों के दौरान देश में लोकतंत्र की बुनियाद बहुलता की अवधारणा को दरकिनार कर कुछ दलों ने बहुसंख्यक ध्रुवीकरण को बढावा देकर सत्ता हासिल करने की राह पकडी । ध्रुवीकरण के लिए एक  घृणा के प्रतीक की आवश्यकता होती है । एक आख्यान गढ़ा जाता है ।  90 के दशक में  बाबरी मस्जिद को इसका प्रतीक बनाया गया, बहुसंख्यक हिन्दू आबादी की उपेक्षा और अल्पसंख्यक मुस्लिम तुष्टीकरण का आख्यान गढ़ा गया । बहुसंख्यक धार्मिक भावनाओं को भड़काकर बाबरी मस्जिद बनाम राम मंदिर के आख्यान में सांप्रदायिकता का ज़हर इस तरह घोल दिया गया जिसकी परिणीति अंततः बाबरी मस्जिद के विध्वंस के रूप में हुई । सांप्रदायिकता के इस आख्यान के चलते कॉंग्रेस  को बहुत नुकसान हुआ क्योंकि संगठनात्मक रूप से कमजोर कॉंग्रेस भाजपा के इस बहुसंख्यक ध्रवीकरण का कोई जवाब दे पाने में सफल नहीं हो सकी और धीरे धीरे हिन्दी प्रदेशों में  कॉंग्रेस की पकड़ कमजोर होती चली गई जिसका खामियाजा आज तक भुगतना पड़ रहा है ।
बहुसंख्यक अस्मिता के पुनर्रोत्थान के नाम पर गढ़े गए आख्यान का हिंदी प्रदेशों के एक बड़े भूभाग की जनता में   असर  तो हुआ  मगर भाजपा उस दौर में  देश के बहुसंख्यक आम मतदाता को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिए इतना प्रभावित कर पाने में नाकाम रही । फिर गुजरात बहुसंख्यक राजनीति की प्रयोगशाला बना और 2014 के पिछले लोकसभा चुनाव में इसका विस्तार अखिल भारतीय स्तर पर देखा गया जिसके चलते भाजपा ने पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता हासिल कर इस अवधारणा को और बल प्रदान किया । इस सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के गढ़े गए आख्यान के चलते ही भाजपा बहुसंख्यक तबके में अपना एक स्थायी वोट बैंक बनाने में कामयाब रही।
भाजपा बहुसंख्यक ध्रवीकरण के जरिए संगठित इस बहुत बड़े वोट बैंक को यूं ही हाथ से नहीं गंवाना चाहती और इस बार भी  इसी बहुसंख्यक ध्रुवीकरण के सहारे सत्ता हासिल करना चाहती है । समस्या ये है कि पांच वर्ष के शासन के बाद आज भाजपा के पास विकास और रोज़गार के नाम पर ज़्यादा कुछ बताने लायक नही है ।  मुख्य रूप से यही वजह है कि आज भाजपा को एक बार फिर बहुसंख्यक ध्रुवीकरण को ही अपना औजार बनाना पड़ रहा है । बाबरी मस्जिद राम मंदिर आख्यान को वर्षों से भुनाया जाता रहा है मगर राम मंदिर अब तक नहीं बनाया गया,  जिससे अब सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के नाम पर संगठित एक बड़ा तबका भाजपा से छिटक रहा है । हालांकि आज भी भाजपा ने राम मंदिर का मुद्दा अपने संकल्प पत्र में जिंदा रखा है । बहुसंख्यक ध्रवीकरण से संगठित वोट बैंक  को बचाने व भुनाने के लिए अब राष्ट्रवाद के नाम पर नया  आख्यान गढ़ा जा रहा है जो  सांप्रदायिक ध्रवीकरण का ही नया रूप है । अब पाकिस्तान के नाम पर नया खलनायक गढ़ा गया है  जिसके सहारे राष्ट्रवाद और 'आतंकवाद' के नाम पर सीधे अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है । भाजपा अपनी इस रणनीति पर बड़े ही सुनियोजित ढंग से काम कर रही है । इसी के चलते अचानक महबूबा सरकार से समर्थन वापस लिया गया ,गाय गोबर के नाम पर मुसलमानों को निशाना बनाया गया और फिर सर्जिकल स्ट्राइक व पुलवामा जैसे आख्यान गढ़े गए । इन आख्यानो की आड़ में प्रमुख मुद्दे विमर्श से गायब हो गए और राष्ट्रवाद को बहस के केन्द्र में ला दिया गया । मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो सहारनपुर में चुनाव प्रचार करते हुए कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार को पाकिस्तानी चरमपंथी मसूद अज़हर का 'दामाद'  तक कह डाला  जो इसी बहुसंख्यक ध्रुवीकरण की रणनीति का हिस्सा है । दूसरी ओर अनेक  सभाओं में प्रधानमंत्री  व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह सर्जिकल स्ट्राइक और पुलवामा हमले को केन्द्र में  रखकर राष्ट्रीय सुरक्षा व राष्ट्रवाद के नाम पर ध्रुवीकरण की कोशिश कर रहे हैं साथ ही भी बहुसंख्यकों के ध्रुवीकरण के तमाम उपकरण व उपक्रम पर लगातार जोर दे रहे हैं ।
राजनैतिक स्तर पर की जा रही कोशिशों के साथ साथ भाजपा मीडिया के सहारे भी अपनी रणनीति को जनता तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है । कॉंग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के केरल की वायनाड सीट से चुनाव लड़ने पर  पत्रकार  एम.जे. अकबर ने अपने लेख में खुलकर कहा, "ये इतिहास में पहली बार होगा, जब कोई कांग्रेस अध्यक्ष जीत के लिए मुस्लिम लीग पर निर्भर होगा. ज़रा इसके सम्भावित असर के बारे में विचार करें ।" इस तरह की टिप्पणियां बहुसंख्यक ध्रुवीकरण की एक सोची समझी रणनीति के तहत ही की जा रही हैं । हिन्दी पट्टी के बड़े राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार इस चुनाव में भाजपा के साथ साथ तमाम विपक्षी दलों के लिए भी अहम हो गए हैं । बहुसंख्यक ध्रवीकरण के लिए पूरी ताकत भी इन्हीं प्रदेशों में झोंकी जा रही है । भाजपा की इस रणनीति के जवाब में आज भी कॉंग्रेस के पास कोई ठोस विकल्प या पुख्ता रणनीति नहीं है । इस चुनाव में हालांकि कॉंग्रेस  सॉफ्ट हिन्दुत्व की राह अपना रही है जो बहुसंख्यक समुदाय के भाजपा विरोधी तबके को कुछ हद तक संतुष्ट कर सकता है मगर इसके अपने खतरे भी हैं । बहुसंख्यक ध्रुवीकरण के खतरों के विरुद्ध तमाम विपक्षी दल भी चिंता जता रहे हैं मगर अपने अपने दलगत हितों के चलते एकजुट नहीं हो पा रहे हैं । इन परिस्थितियों में 2019 के चुनाव देश के संसदीय लोकतंत्र के लिए काफी अहम साबित होंगे और इसमें मतदाताओं की ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है ।

(देशबन्धु 19 अप्रैल 2019)

Thursday, April 11, 2019

असहमति का हक ही लोकतंत्र की जान है –जीवेश चौबे

नागरिक अधिकार व अभिव्यक्ति की आज़ादी ही एक सभ्य व परिपक्व लोकतंत्र की पहचान होती है । सहमति का विवेक और असहमति का अधिकार ही लोकतंत्र की असली ताकत है । आज कॉंग्रेस अपने घोषणा पत्र में यदि धारा 124 ए को समाप्त करने व सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (आफस्पा) पर पुनर्विचार की बात कर रही है तो इसे  अच्छा संकेत कहा जा सकता है । राहुल गांधी की यह पहल 100 साल पहले अंग्रेजों द्वारा रॉलेट एक्ट के जरिए नागरिक अधिकारों पर पाबंदी लगाने की मंशा के खिलाफ कॉंग्रेस के पुरजोर विरोध की याद दिलाता है जिसके चलते जालियांवाला बाग नरसंहार हुआ था । 100 बरस हो गए जालियांवाला बाग निर्मम हत्याकांड को। जालियांवाला बाग हमारे स्वतंज्ञता संग्राम की सबसे दर्दनाक घटना है और अंग्रेजों की क्रूरता और जुल्म के सबसे शर्मनाक एपीसोड में एक है। जालियांवाला बाग की 100वीं बरसी को याद करते हैं तो इसके मूल में नागरिक अधिकार एवं अभिव्यक्ति की आजादी व असहमति का हक ही मुख्य मुद्दा कहा जा सकता है जिसकी रक्षा के लिए लोगों ने कुर्बानियां दीं ।
  100 साल पहले 1919 में इस रॉलेट एक्ट के तहत अंग्रेजी हुकूमत को यह अधिकार प्राप्त हो जाता कि वह किसी भी भारतीय पर अदालत में बिना मुकदमा चलाए और बिना सुनवाई उसे जेल में बंद कर सकती थी। इस क़ानून के तहत अपराधी को उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज करने वाले का नाम जानने का अधिकार भी समाप्त कर दिया गया था । आज से 100 साल पहले महात्मा गांधी के नेतृत्व में रॉलेट एक्ट का कॉंग्रेस ने देशव्यापी विरोध किया था । रॉलेट एक्ट के खिलाफ पंजाब में जबरदस्त विरोध हुआ और जालियांवाला बाग के पहले कुछेक स्थानो पर अंग्रेजों ने आंदोलनकारियों पर गोलियां भी चलाईं थीं । इसी का जायजा लेने जब महात्मा गांधी पंजाब जा रहे थे तो उन्हें रोककर गिरफ्तार कर लिया गया। यहां यह जानना भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि भारत की आज़ादी के आंदोलन में गांधीजी की यह पहली गिरफ्तारी थी । रॉलेट एक्ट के देशव्यापी विरोध की कड़ी में पंजाब में कॉंग्रेस के अग्रणी नेता सैफुद्दीन किचलू और डॉ सत्यपाल को भी गिरफ्तार कर लिया गया था । नेताओं की गिरफ्तारी और रॉलेट एक्ट के खिलाफ अमृतसर के जालियांवाला बाग में 13 अप्रैल बैसाखी के दिन विरोध प्रगट करने आहूत आम सभा के लिए बड़ी संख्या में लोग जमा हुए थे । यह आदोलन पूरी तरह अहिंसक था मगर जनरल डायर ने चारों ओर से घेरकर चेतावनी दिए बिना निहत्थी व अहिंसक भीड़ पर अंधाधुंध गोलियां चलवाई जिसमें लगभग हज़ार से ज्यादा लोग शहीद हो गए थे और हजारों घायल हुए थे। उल्लेखनीय है कि जालियांवाला बाग नरसंहार के विरोध में ही गुरुवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अंग्रजों द्वारा प्रदत्त सरकी उपाधि वापस की थी। आज भी अंग्रेज इस घटना के लिए नैतिक रूप से माफी मांगने तैयार नहीं हैं। घचना के 60 साल बाद महारानी एलिजाबेथ ने और कुछ साल पहले ही प्रधानमंत्री कैमरून ने शहीदों को श्रद्धांजली देकर औपचारिकता निभाई।
ऐसा नहीं है कि इसके पहले अभिव्यक्ति की आजादी व नागरिक अधिकारों को कुचलने के लिए कोई कानून नहीं था । धारा 124ए तब भी थी ,वही धारा 124ए जिसे आज कॉंग्रेस अपने घोषणा पत्र में प्रमुखता से समाप्त करने का वादा कर रही है। धारा 124 ए दंड संहिता में 1870 में शामिल की गई । धारा 124ए के बारीक पहलुओं व महीन व्याख्याओं पर तो कानूनविद व विद्वान ही अपनी राय दे सकेंगे मगर मोटे तौर पर एक आमजन के लिए यह समझना काफी है कि यह धारा  कहती है कि अगर कोई भी व्यक्ति भारत की सरकार के विरोध में सार्वजनिक रूप से ऐसी किसी गतिविधि को अंजाम देता है जिससे देश के सामने सुरक्षा का संकट पैदा हो सकता है तो उसे उम्र कैद तक की सजा दी जा सकती है साथ ही इन गतिविधियों का समर्थन करने ,प्रचार-प्रसार करने पर भी किसी को देशद्रोह का आरोपी माना जा सकता है। इन गतिविधियों में लेख लिखना, पोस्टर बनाना और कार्टून बनाना जैसे वे रचनात्मक काम शामिल हैं जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बुनियादी आधार हैं । यह सबसे पहले  जन चर्चा में  तब  आई जब 1908 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने अपने समाचार पत्र केसरी में एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था- देश का दुर्भाग्य, जिस पर इस धारा के तहत उन्हें छह साल की सजा सुनाई गई । आज़ादी के आंदोलन के दौरान  इस धारा का इस्तेमाल  महात्मा गांधी, भगत सिंह जैसे कई सेनानियों पर किया जाता रहा । आश्यर्य की बात है कि इस धारा से लगातार जूझने के बावजूद आजा़दी के पश्चात भी इसे समाप्त नहीं किया गया । शासित से शासकों में तब्दील होते ही आजाद भारत में भी सभी सत्तासीन ताकतों ने अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए इस धारा का बहुत बेदर्दी से इस्तेमाल किया है ।  
 कुछ समय पहले छात्र नेता कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के बाद इस धारा को लेकर एक
बार फिर देश भर में बहस उठी । दरअसल धारा124 ए में प्रावधान इतने अस्पष्ट हैं कि इनकी आड़ लेकर लोगों को आसानी से देशद्रोह का आरोपी बनाया जा सकता है । आजादी के बाद भी  इस धारा के तहत बहुत से लोगों को इन्हीं अस्पष्ट प्रावधानों की आड़ में गिरफ्तार किया जा चुका है। इनमें सामाजिक कार्यकर्ता, नेता, आंदोलनकारी, पत्रकार, अध्यापक, छात्र छत्तीसगढ़ में तो  सबसे ज्यादा प्रभावित आदिवासी क्षेत्रों के निरीह व निर्दोष आदिवासी शामिल हैं। ये लोग बरसों जेल में सड़ते रहते हैं और गरीब आदिवासियों की तो कोई सुनवाई भी नहीं होती ।  सवाल ये है कि इन गतिविधियों से पैदा होने वाले खतरे का आंकलन कैसे किया जाय। हालांकि 1962 में  सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला धारा 124 ए के दायरे को लेकर कई बातें साफ कर चुका है, लेकिन आज भी इस धारा को लेकर अंग्रजों की राह का ही अनुसरण किया जा रहा है । इससे यह स्पष्ट होता है कि इस धारा को जारी रखने का उद्देश्य सरकार के खिलाफ बोलने वालों को सबक सिखाना ही है जो अंग्रेजों से लेकर आज तक बदस्तूर जारी है ।

ऐसा भी नहीं है कि देशद्रोह या आतंकवाद के खिलाफ इसके अलावा कोई और धारा भी नहीं है । रासुका, पोटा के अलावा सीमावर्ती प्रांतों में तो सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (आफस्पा) जैसी प्रभावशाली धाराएं लगातार जारी हैं ,जिसे लेकर शर्मिला इरोम लगातार 16 वर्षों तक अनशन करती रहीं मगर किसी भी सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगीं ।  अतः भाजपा की इस दलील में कोई दम नहीं कि 124 ए खत्म कर देने या सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (आफस्पा) पर पुनर्विचार से आतंकवाद व देशद्रोहियों को मदद मिलेगी ।  अपने जन्म से ही धारा 124ए   शासकों के लिए मुफीद ,सुविधाजनक व आसान हथियार की तरह रही है जिस पर शासक वर्ग को  कोई ज्यादा विरोध का सामना नहीं करना पड़ता।   इसके बावजूद यदि राहुल गांधी नए परिदृश्य व परिस्थितियों में एक नई सोच के साथ  धारा 124ए  को समाप्त करने व सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (आफस्पा) पर पुनर्विचार की बात कर रहे हैं तो हर समझदार व संवेदनशील व्यक्ति को इसका स्वागत तो करना ही चाहिए साथ साथ इसे समाप्त करने के लिए दबाव भी बनाना चाहिए क्योंकि ये धाराएं संविधान की उस भावना के खिलाफ भी है, जिसके तहत लोकतंत्र में किसी भी व्यक्ति को अपनी असहमति जताने का हक हासिल है। महज बाजारीकरण के ही सारे रास्ते खोल देने से ही नहीं बल्कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों, असहमति का हक व अभिव्यक्ति की आजादी के संरक्षण से ही नए भारत में स्वस्थ लोकतंत्र की राह मजबूत हो सकेगी। 

jeeveshprabhakar@gmail.com

(देशबन्धु- 12 अप्रैल 2019)

Friday, April 5, 2019

आवारा भीड़ के ध्रुवीकरण की कोशिश--जीवेश चौबे

     2019 का चुनाव प्रचार पूरे शबाब पर है। सभी दल अपनी पूरी ताकत से देश भर में अपनी-अपनी पार्टियों के प्रचार-प्रसार में लगे हुए हैं। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी अपने 5 साल के शासनकाल की उपलब्धियां गिनाने की बजाय चुनाव को अन्य गैरजरूरी मुद्दों पर केन्द्रित करने की कोशिश कर रही है। सेना के पराक्रम को तो पहले ही भुनाने का प्रयास किया जा रहा था मगर हद तो तब हो गई जब देश में चुनावी आचार संहिता लागू होने के बावजूद तमाम मर्यादाओं को दरकिनार करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद वैज्ञानिकों की उपलब्धि को राष्ट्र के नाम संदेश की तरह कर लाइव कर देते हैं। अपने कार्यों में असफल सरकार ही इस तरह देशभक्ति की भावनात्मक संजीवनी का सहारा लेकर जनता के सामने आती है । प्रधानमंत्री का यह व्यवहार भले ही चुनाव आयोग को न खटका या चुनाव आयोग ने इसे आचार संहिता का उल्लंघन नहीं माना मगर भाजपा के समर्थकों को छोड़ दिया जाए तो आम जनता को यह अनैतिक ही लगा। 
     अपनी एक सभा में मोदीजी ने अपने प्रचार की मुख्य धारा को स्पष्ट करते हुए सरेआम कहा कि जनता को दुश्मनों पर हमला करने वाली सरकार चाहिए या दुम दबाकर बैठ जाने वाली सरकार। हालांकि पिछले पांच सालों में मोदी सरकार लगातार सीमा पार के आतंक व हमलों के मामलों में मनमोहन सरकार के मुकाबले बुरी तरह असफल रही है। प्रधानमंत्री मोदीजी की इस तरह हिंसक हुंकार कई प्रश्नों को सामने लाती है। सोचने वाली बात यह है कि मोदीजी निर्माण की बजाय विध्वंस को, हिंसा को क्यों प्राथमिकता दे रहे हैं। क्या हम देश में इस तरह का हिंसक समाज बनाना चाहते हैं? एक बड़ा वर्ग इस बात से सहमत नहीं होगा मगर हमें यह समझना होगा कि आखिर भाजपा या मोदीजी इस बात को क्यों अपने प्रचार का मुख्य मुद्दा बना रहे हैं। जब देश में बेरोजगारी अपने सर्वकालिक बदतर स्थिति में है, उद्योग-व्यापार लगातार घाटे में जा रहे हैं तो देश के चुनाव प्रचार में भाजपा द्वारा इन मुद्दों की बजाय सर्जिकल स्ट्राइक या सेना के शौर्य को क्यों प्रमुखता से सामने लाया जा रहा है? कहा जा रहा है कि 2018 में बेरोजगारी  पिछली सदी के सातवें दशक के बाद सबसे चरम पर आ गई है।
बेरोजगारी और अनिश्चितता से उपजी हताशा ने तब आक्रोश का रूप ले लिया था और पूरा युवा वर्ग सड़कों पर आ गया था। हताशा जब गुस्से में तब्दील होती है तो वह अराजक होकर हिंसा की ओर अग्रसर होती है मगर सही मार्गदर्शन मिले तो सकारात्मक प्रतिवाद के रूप में सामने आ सकती है। उस दौर में उस वर्ग को जयप्रकाश नारायण जैसे अनुभवी प्रखर व ओजस्वी नेता का सकारात्मक नेतृत्व मिला और उनके नेतृत्व ने उपजे जनाक्रोश के बल पर देश में पहली $गैरकांग्रसी सरकार के दिवास्वप्न को साकार किया जिसमें दक्षिणपंथी विचारधारा सहित अधिकतर गैरकांग्रेसी दल शामिल थे।
      इसके बाद भी लगभग हर दशक में ऐसे आक्रोश का एक दौर देखा जाता रहा है जो उन्मादी होकर आवारा भीड़ के रूप में तब्दील हो जाता है। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का लेख है 'आवारा भीड़ के खतरे'। परसाई जी लिखते हैं- ''एक नई पीढ़ी अपने से ऊपर की पीढ़ी से अधिक जड़ और दकियानूस हो गई है। यह शायद हताशा से उत्पन्न भाग्यवाद के कारण हुआ है। अपने पिता से अधिक तत्ववादी, बुनियादपरस्त (फंडामेंटलिस्ट) लड़का है।  दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है।
इसका उपयोग खतरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं। इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया। यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है। यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उन्माद और तनाव पैदा कर दे। फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं। यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है। हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है। इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है।'' दशकों पहले परसाईजी का यह आकलन आज भी प्रासंगिक है। 
     मोदीजी इसी वर्ग को ध्यान में रखकर इस चुनाव में अपने प्रचार की दिशा तय कर चुके हैं। इसी एजेंडा के तहत वे लगातार इस आवारा भीड़ के ध्रुवीकरण की कोशिश कर जीत की राह तय कर रहे हैं।  इसी तर्ज पर 90 के दशक की शुरुआत में भाजपा ने धर्म की घुट्टी पिलाकर इस भीड़ का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर पूरे देश में नफरत व हिंसा का ऐसा उन्माद फैलाया जिसकी आग आज तक बुझ नहीं पाई है। इसी के बल पर भाजपा ने सत्ता की एक-एक सीढ़ी चढ़ी। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की सफलता के साथ ही भाजपा ने कॉर्पोरेट को साधा और भाजपा की उम्मीदें परवान चढ़ीं जिसके परिणामस्वरूप 2014 में भाजपा पूर्ण बहुमत से सत्ता हासिल करने में कामयाब रही। 
     चुनावों में ऐसे संगठित वर्ग की भूमिका तेजी से बढ़ी है और सत्तासीन भाजपा इन्हें ही भुनाने के प्रयास में हैं। हाल के इन वर्षों में पूरे देश में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ी है जो अपनी लूट व वर्चस्व को कायम रखने के लिए ऐसी सरकारों को सत्ता में बने रहने देने पूरी तरह समर्पित होता है। पंच से लेकर प्रधान तक लाखों की तादाद में धनबल व बाहुबल से लैस अपराधियों व हिंसक मनोवृत्ति के उन्मादियों का एक संगठित गिरोह देश के लोकतांत्रिक ढांचे पर अपना वर्चस्व स्थापित करने में काफी हद तक कामयाब हो चुका है। ऐसे में आम मतदाता की चुनाव के प्रति विरक्ति पैदा होती चली जाती है। आम मतदाता की विरक्ति व खामोशी से ऐसे लोगों को बल मिलता है और वे अपनी मंशा पूरी करने में कामयाब होते चले जाते हैं। 
      संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने संविधान सभा के भाषण में भविष्य में संभावित इन्हीं प्रवृत्तियों और खतरे के प्रति चिंता जाहिर करते हुए कहा था, ''मेरा दिमाग अपने देश के भविष्य (की चिंताओं) से भरा है, और मुझे  लगता है कि इस पर अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए मुझे इस मौके का प्रयोग करना चाहिए। मुझे जो बेहद परेशान करती है, वह यह सच्चाई है कि भारत ने पहले एक बार सिर्फ अपनी स्वतंत्रता ही नहीं खोई, बल्कि इसे अपने ही कुछ लोगों की गद्दारी और निष्ठा भंग करने से खोया। ... क्या इतिहास इसे दोहराएगा? यह विचार मुझे परेशान करता है। यह परेशानी इस सच्चाई को महसूस करके और गहरी हो जाती है कि जाति और धर्मों के अपने पुराने दुश्मनों के साथ, अब हमारे पास /साथ बहुत से राजनैतिक दल (भी) हैं जिनके विभिन्न और विपरीत राजनैतिक विचार/मान्यता एवं धर्म हैं।
     क्या भारत के लोग उनके धर्म से ऊपर देश को रखेंगे या फिर इनके धर्म को देश से ऊपर? मैं नहीं जानता। पर इतना तय है कि यदि राजनैतिक दलों ने देश से ऊपर अपने धर्ममत को रखा तो हमारी स्वतंत्रता दूसरी बार खतरे में पड़ जाएगी और संभवत: हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी। हम सबको, हर हालत में पूरी दृढ़ता के साथ ऐसा घटित होने के विरुद्ध इसकी रक्षा करनी चाहिए। हमें पूरी तरह दृढ़ होना चाहिए कि हम अपने खून की आखरी बूंद तक अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करें''।  आज हर मतदाता को डॉ. बाबा साहेब आम्बेडकर की इस चिंता पर गंभीरता से विचार करना होगा तभी हमारा देश और लोकतंत्र सुदृढ़ होकर कायम रह सकता है।   jeeveshprabhakar@gmail.com
( देशबंधु 4 अप्रैल2019 )