कार्ल मार्क्स की 200 वीं जयंती पर एक फुरसतिया चिंतन---
मार्क्सवाद के साथ गांधी मार्ग का
समन्वय समय की मांग है— जीवेश प्रभाकर
मार्क्सवाद के समग्र चिंतन का
केंद्रीय चरित्र या धूरी जिसे कह सकते हैं वो है ‘द्वंद्वात्मकता’। मार्क्स
की द्वंद्वात्मक दृष्टि में विश्व की तमाम वस्तुएं यहां तक कि घटनाएं व गतिविधियां
भी उनकी गति, उनके
द्वंद्व और परिर्वतन पर निहित है जिसके अंतर्विरोधों को मानवीय संदर्भ में हल करने
के लिये ‘द्वंद्वात्मकता’ एक अनिवार्य दृष्टि है।
मार्क्सवाद के साथ गांधी मार्ग का समन्वय समय की मांग है जिस पर
मार्क्सवादियों को गंभीरता से विचार करना चाहिए। सैद्धांतिक रूप से गांधीवाद के
साथ समन्वय निश्चित रूप से काफी कठिन है मगर यदि इससे आपके आंदोलन को स्वीकृति व
समर्थन हासिल होती हो तो जमीनी लड़ाई के लिए गांधी मार्ग को अपनाने में कोई दुविधा
भी नहीं होनी चाहिए ।
हमारे देश मे मार्क्सवाद अभी भी आम जनता के लिए रहस्यमई बना हुआ है
। वो पार्टियां जो मार्क्सवादी हैं सैद्धांतिक रूप से तो सर्वहारा वर्ग की पैरोकार
होने की कोशिश करती हैं मगर व्यवहारिक रूप से उनसे जुड़ नही पाई हैं । सर्वहारा
वर्ग के बीच वे जिस बौद्धिक आतंक के साथ जुड़ना चाहती हैं वो उनसे इसी भय से दूर
होता जाता है । भारतीय परिस्थितियों में ये द्वंद्वात्मकता ही इन पार्टियों की
सबसे बड़ी समस्या है ।
हाल ही में नाशिक किसान आंदोलन की पूरे देश में काफी चर्चा हुई ।
एक सप्ताह का यह मोर्चा एक नया इतिहास रच गया जिसके भीतर से उठती ध्वनियों में एक
नई स्वरलहरी की अनुगूंज है जिसे समझना ज़रूरी है । 25-30 वर्षों में पली बढ़ी नौजवान पीढ़ी
के वैश्विक नवउदारवाद व मुक्त बाज़ार से स्वप्नभंग हाशिए पर जाती मार्क्सवादी
पार्टियों को मार्क्सवाद का गांधी मार्ग के जरिए क्रियान्वयन संभवतः नई संजीवनी दे
सकती है ।
जीवेश प्रभाकर