Tuesday, October 13, 2015

सांस्कृतिक सत्याग्रह है यह रचनाकारों का फासिस्म के खिलाफ

संकट सचमुच गंभीर और बड़ा ही है ।बड़े बड़े विद्वान रचनाकार , जो मेरे पसंदीदा रचनाकारों में शुमार रहे हैं, अपने सम्मान और पुरस्कार लौटा रहे हैं। मुझ जैसै थोड़ा बहुत पढ़ने वाले भी अब इसे महसूस करने लगे हैं । 

एक लोकतांत्रिक प्रणाली में , जो शायद अभी थोड़ी बहुत बाकी है , बौद्धिक प्रतिरोध का यह एक बेहतरीन तरीका है । इसे सांस्कृतिक सत्याग्रह कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । विरोध का स्वप्रेरित निजि औजार , जिसे गांधी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह का नाम दिया था । आज इस दौर में रचनाकार इसे बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं । 
फासिस्म के बढ़ते खतरों के खिलाफ इस बड़ी तादात में रचनाकारों का विरोध स्वरूप राष्ट्रीय पुरस्कार व सम्मान लौटाने की पहल संभवतः भारत के इतिहास में पहली बार सामने आ रही है । मैं इतिहास उतना नहीं जानता मगर संभवतः आपातकाल में भी ऐसी बेचैनी और खिलाफत नहीं देखी गई ।
हालांकि एक मंत्री ने इस पर भी सवाल उठाते हुए इसे सुनियोजित षड़यंत्र करार देने की कोशिश की है जो उनकी व उनकी पार्टी की बौखलाहट को प्रदर्शित करती है । मगर निश्चित रूप से ये तमाम पूर्वाग्रहों दुराग्रहों से इतर चेतन मस्तिष्क से लिया गया एक विवेकपूर्ण व साहसिक फैसला है जो भीतरी करंट की तरह सभी बुद्धिजीवीयों में पिछले काफी समय से कुलबुला रहा था जो उदय प्रकाश जी ( कम से कम हिन्दी में तो ) की एक चिंगारी से फट पड़ा । ज़रूरत इस बात की है कि ये जज्बा बरकरार रहे । कुछ विघ्नसंतोषी और विध्वंसक तत्व भी हैं इसी जमात में जो भावनाओं और अहं भड़काकर या अलग अलग तरीकों से इस मुहिम को नेस्तनाबूद करने में लगे हैं । आप लोगों को इससे सावधान रहना होगा। 
कुछ लोग जो हिन्दी लेखकों को कमतर और उनकी जनस्वीकृति को न्यूनतम आंकते हैं वे अभी इसे बहुत हल्के में ले रहे हैं मगर इसका असर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होगा । एक सुखद आश्चर्य की बात ये है कि हाल के दिनों में पाठक वर्ग , बहुत छोटा ही सही , भी रचनाकारों के इस प्रतिरोध में खुद को शामिल समझने लगा है । हालांकि उसके पास अभिव्यक्ति का कोई सशक्त माध्यम नहीं है मगर आपस में रचनाकारों के इस प्रतिरोध की चर्चा होना ही अपने आप में समर्थन का परिचायक है और साथ साथ एक सकारात्मक बदलाव का प्रतीक भी होता जा रहा है
बकौल साहिर बस इतना ही कह सकते हैं...
ले दे के अपने पास,
फकत इक नज़र तो है
क्यों देखें ज़िंदगी को
किसी की नज़र से हम


जीवेश प्रभाकर

Monday, June 29, 2015

प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर द्वारा आयोजित गोष्ठी में "छत्तीसगढ़ी में आधुनिक रंगकर्म : चुनौतियां और संभावनाएं "विषय पर वरिष्ठ रंगकर्मी राजकमल नायक का व्याख्यान


सभी कलाप्रेमियों को यह समझना भी जरुरी है कि केवल लोक रंगमंच या लोक संस्कृति ही सर्वोपरी नहीं है, आधुनिक रंगमंच भी एक उच्च स्तरीय कलाकर्म है, जो भाषा को गढ़ने और उसकी प्रौन्नति में अपनी महती भूमिका निभाता है| समकालीनता, प्रस्तुतीकरण का ढंग, नयी व्याख्या, खोज, रूप एवं कथ्य का समकालीन प्रयोग, विद्यमान मूल्य, एवं बदलते मूल्यों के प्रति प्रश्नाकुलता या प्रश्न वाचकता, सजगता, नए विषय, नई शैली आदि का समावेश हो उसे ही आधुनिक रंगमंच कहा जा सकता है| आधुनिक रंगमंच में टेकनॉलाजी का सृजनात्मक एवं कल्पनाशील उपयोग भी किया जा रहा है लेकिन केवल टेकनॉलाजी के बल पर कोई रंगमंच आधुनिक नहीं हो जाता| टेकनॉलाजी या नेपथ्य कला नाटक का अलंकरण नहीं बल्कि नाटक का अंग या कहें उपांग ही है| उपरोक्त विचार प्रदेश ही नहीं देश के वरिष्ठ रंगकर्मी राजकमल नायक ने प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा 28 जून रविवार को वृन्दावन सभागृह में छत्तीसगढ़ी में आधुनिक रंगकर्म : चुनौतियां और संभावनाएंविषय पर आयोजित विचार गोष्ठी में प्रकट किये| गोष्ठी के प्रारम्भ में मुख्य वक्ता श्री राजकमल नायक का प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष संजय साम एवं कोषाध्यक्ष नंद कुमार कंसारी ने पुष्प गुच्छ से स्वागत किया । तत्पश्चात प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर के सचिव जीवेश प्रभाकर ने आज के विषय पर प्रकाश डालते हुए कहा कि आज अमूमन हर विधा में छत्तीसगढ़ी का दखल हो गया है। मगर यह दुख की बात है कि छत्तीसगढ़ी में आधुनिक नाटकों के क्षेत्र में कुछ खास उपलब्धि नहीं हो सकी है । हालांकि नाचा गम्मत और अन्य लोक मंच में काफी हासिल है और इसे हबीब तनवीर ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित प्रसारित करने में अमूल्य योगदान दिया मगर जिस तरह मराठी, बंगाली , तमिल , कन्नड़ गुजराती आदि अन्य क्षेत्रीय या दूसरी जनपदीय भाषाओं में आधुनिक रंगमंच हो रहा है उस तरह छत्तीसगढ़ी में नहीं हो पा रहा है । इन्हीं चिंताओं को लेकर प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर छत्तीसगढ़ी भाषा के विकास में एक नई पहल कर रहा है ताकि रंगमंच जैसी महत्वपू्र्ण विधा में भी छत्तीसगढ़ी भाषा का दखल हो । श्री राजकमल नायक ने अपने सारगर्भित व्याख्यान में आगे कहा कि अनेक संस्कृत नाटकों में संस्कृत के अलावा प्राकृत का भी प्रयोग किया गया है, भले ही वह निम्न वर्ग के पात्रों के लिए प्रयोग की गयी है| शनैः शनैः संस्कृत के रंगमंच का ह्रास होने के बाद जब संस्कृत शैली के अनेक तत्व विच्छिन होकर लोक रंगमंच में गए तब प्राकृत का स्थान अन्य बोलियों को ले लेना था, पर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया| उन्होंने कहा कि रंगमंच कोई ठहरी हुई विधा नहीं है| समय काल परिस्थिति के अनुसार इसमें भी परिवर्तन होते रहते हैं| लेकिन किसी भी कला में त्वरित बदलाव नहीं होता या नहीं होना भी चाहिए| कलाएं धीरे धीरे अपना आकार गढ़ती हैं| रंगमंच ने समय-समय पर यथार्थवादी, प्रकृतवादी, रीतिबद्ध, लोकशैली, एब्सर्ड, मनोशारीरिक, प्रयोगात्मक रंगमंच आदि शैलियों का सहारा लिया और इससे थियेटर रिच हुआ| छत्तीसगढ़ में आधुनिक रंगमंच के एकमात्र उदाहरण प्रख्यात रंगकर्मी हबीब तनवीर रहे हैं| उनके नाटक लोक की आधुनिकताऔर आधुनिकता के लोकके उत्कृष्ट उदाहरण कहे जा सकते हैं| उन्होंने अपना एक व्यक्तिगत अनुभव सुनाते हुए बताया कि जब वे भारत भवन में थे तब हमारी एक परीक्षा हुई थी और उसमें एक प्रश्न पूछा गया था कि हबीब तनवीर का थियेटर फ़ोक थियेटर है या मार्डन थियेटर| ज्यादातर कलाकारों ने इसका जबाब दिया था फ़ोक थियेटर| जबकि यह गलत उत्तर था| हबीब तनवीर का थियेटर मार्डन थियेटर है| हबीब तनवीर के इस काम को उन्हीं की परिपाटी या उनके बाद के रंगकर्मियों को उसी या उनसे भिन्न तर्ज पर आगे बढ़ाना था, पर दुर्भाग्य से यह हो नहीं पाया| बहुत देखना, गहराई से देखना, खोजना, खंगालना, तराशना, पढ़ना हमेशा नए सृजन को जन्म और धार देता है| हबीब तनवीर इसमें लिप्त रहे| विडंबना है, हबीब तनवीर को छोड़कर छत्तीसगढ़ी में आधुनिक रंगलेखन के विषय में कभी सोचा ही नहीं गया| हिन्दी नाटककार शंकर शेष या विभु कुमार ने राष्ट्रीय स्तर पर तो बहुत ख्याति अर्जित की लेकिन छत्तीसगढ़ी भाषा का कोइ नाटक राष्ट्रीय स्तर तो छोड़िये राज्य स्तर पर भी प्रतिष्ठा अर्जित नहीं कर पाया| उन्होंने बताया कि छत्तीसगढ़ी में नाट्य लेखन की प्रक्रिया विच्छिन रही है उसमें निरंतरता कभी नहीं रही| खूबचंद बघेल, डॉ. प्यारेलाल गुप्त, डॉ. नरेंद्र देव वर्मा, शुकलाल पांडे और अनेक लोगों ने छत्तीसगढ़ी में नाटक लिखे लेकिन निरंतर नाट्य लेखन या कालजयी रचना के अभाव में छत्तीसगढ़ी आधुनिक रंगमंच पनप नहीं पाया| स्वतन्त्र नाटककार जिनका आधुनिक रंगमंच से नाता रहा हो तथा जो छत्तीसगढ़ी में निरंतर नाट्य लेखन में संलिप्त रहे हों, ऐसा कोई नाम सामने नहीं आता| उन्होंने कहा कि इसके बावजूद हमें आशावादी होना चाहिये| संभावनाओं के द्वार हमेशा खुले रहते हैं| छत्तीसगढ़ के संस्कृति विभाग, अन्य कला संगठनों, लेखक संगठनों को छत्तीसगढ़ी में आधुनिक रंगमंच को प्रश्रय देने, बढ़ावा देने का प्रयास करना चाहिए| उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ी में आधुनिक रंगमंच को बढ़ावा देने के लिए सभी कलाप्रेमियों को यह समझना भी जरुरी है कि केवल लोक रंगमंच या लोक संस्कृति ही सर्वोपरी नहीं है, आधुनिक रंगमंच भी एक उच्च स्तरीय कलाकर्म है, जो भाषा को गढ़ने और उसकी प्रौन्नति में अपनी महती भूमिका निभाता है| गोष्ठी में प्रलेस रायपुर के उपाध्यक्ष अरुण कान्त शुक्ला ने कहा कि छत्तीसगढ़ी में लिखा रचा गया रंगकर्म साहित्य पांच दशक के लगभग पुराना है| छत्तीसगढ़ी में आधुनिक का प्रश्न छत्तीसगढ़ी भाषा में आधुनिक साहित्य की रचना से भी जुड़ा है, जिसमें आज की, आज के समाज की समस्याओं और उनके समाधानों का समावेश हो| वरिष्ठ साहित्यकार प्रभाकर चौबे ने कहा कि आधुनिकता से मतलब आधुनिक बोध से है| पांच छै दशक पूर्व लिखे गए नाटक आज की समस्याओं से मेल नहीं खाते और आज की पीढ़ी की समस्याओं के हल नहीं हैं| उन्हें आज के अनुरूप रूपांतरित करना होगा| उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के समय की साम्प्रदायिकता का उल्लेख करते हुए कहा कि आज साम्प्रदायिकता का रूप काफी बदला हुआ है और यदि इस पर नाटक खेलना है तो उसका कलेवर अलग होगा| गोष्ठी में वरिष्ठ साहित्यकार श्री तेजेन्दर ने भी अपने विचार व्यक्त करते हुए भाषा पर हो रहे सुनियोजित हमले को अंग्रेजी भाषा लादने का षड्यंत्र करार देते हुए लोकभाषा को समृद्ध करने की आवश्यकता पर बल दिया। गोष्ठी में रंगकर्मी निसार अली एवं योगेंद्र चौबे ने भी अपने विचार रखे । इस अवसर पर बड़ी संख्या में साहित्यकार रंगकर्मी एवं बुद्धिजीवी उपस्थित थे । सभी ने आयोजन के विषय की सराहना करते हुए इसे आगे जारी रखने की आवश्यकता महसूस की । गोष्ठी का संचालन प्रगतिशील लेखक संघ के सचिव जीवेश प्रभाकर ने किया एवं अंत में प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष संजय शाम ने आभार प्रदर्शन किया ।



Tuesday, June 9, 2015

हबीब तनवीर को समर्पित-रंगकर्म का सरोकार

रायपुर टॉकीजः सरोकार का सिनेमा -
हबीब तनवीर को समर्पित-रंगकर्म का सरोकार

इस बार थिएटर और फिल्मों की प्रसिद्ध मराठी अदाकारा हंसा वा़डकर की रचना "'सांगतो एका" पर आधारित फिल्म-

--भूमिका--

निर्देशक- श्याम बेनेगल

मुख्य कलाकार- स्मिता पाटिल,सुलभा देशपांडे, अमोल पालेकर, नसीरुद्दीन शाह,ओम पुरी, अनंत नाग.

Monday, May 25, 2015

भारतीय जन नाट्य संघ ( इप्टा) का स्थापना दिवस-25 मई

25मई: भारतीय जन नाट्य संघ ( इप्टा) का स्थापना दिवस
LONG LIVE IPTA, The Cultural Revolution

आज भारतीय जन नाट्य संघ यानि इप्टा का स्थापना दिवस है । औपचारिक रूप से आज ही के दिन 25 मई 1943 को औपनीवेशीकरण, फासीवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ  स्थापित बंबई (आज की मुंबई) में इप्टा की स्थापना हुई थी । उल्लेखनीय है कि इप्टा की स्थापना के स्वर्ण  जयंती के अवसर पर भारत सरकार ने डाक टिकट भी जारी किया था ।  आज की पीढ़ी को यह जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि भारतीय जन नाट्य संघ का नाम मशहूर वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा ने रखा था ।   इप्टा ने सन 1942- 43 के दौर में बंगाल के अकाल में अपनी जबरदस्त भूमिका निभाई।
   आज देश भर में इप्टा की लगभग 600 इकाइयां कार्यरत हैं और इनमें से अनेक स्थानो पर इप्टा का स्थापना दिवस मनाया जाता है । छत्तीसगढ़ की भिलाई, रायगढ़ डोंगरगढ़  की इकाइयों में भी स्थापना दिवस मनाए जाने की खबरें हैं जो सुखद है मगर राजधानी रायपुर में खामोशी होना दुखद है । राजधानी के आयोजन का पूरे प्रदेश में असर होता है ।
           इप्टा शुरूवाती दौर से ही वैचारिक रूप से भारत के वामपंथी आंदोलन से  से जुड़ गई । भारतीय वामपंथी आंदोलन में सांस्कृतिक आंदोलन का हिस्सा बनी इप्टा से शुरुवाती दौर से ही रंगमंच और फिल्मों की अनेक नामी गिरामी हस्तियां जुड़ीं । जिनमें से कुछ प्रमुख हैं- ए. के. हंगल, ख्वाजा अहमद अब्बास, राजेन्द्र सिंह बेदी, कृष्ण चंदर, पं. रविशंकर, कैफी आज़मी, हबीब तनवीर, सलिल चौधरी,शैलेन्द्र ,साहिर लुधियानवी,मज़ाज, मख्दूम, बलराज साहनी, भीष्म साहनी, एम.एस. सथ्यू, शबाना आजमी, फारूख शेख, राजेन्द्र रघुवंशी, जैसे कई नामचीन कलाकार इप्टा से जुड़े रहे । एक समय फिल्म जगत में इप्या से जुड़े कलाकारों का काफी मान सम्मान हुआ करता था । धीरे धीरे पिल्मों के व्यवसायीकरण और फिर बाजारीकरण की अंधी दौड़ के चलते वैचारिकता एवं प्रतिबद्धता कहीं हाशिए पर जाती गई। इसमें इप्टा के आंदोलन का धीमापन  भी उतना ही दोषी रहा।
आजादी के एक लम्बे समय के पश्चात जब 7 वें 8वें दशक में जनआंदोलन अपने पूरे शबाब पर था, इप्टा ने फिर अहम भूमिका निभाई और देश में जनसरोकारों के प्रति अपनी सांस्कृतिक भूमिका का पूरी जिम्मेदारी से निर्वहन करते हुए देश में अपनी साख जमाई । मगर नौबें दशक की शुरुवात से काफी परिवर्तन महसूस होने लगे । विश्व में साम्यवादी आंदोलनो की गिरावट,एनजीओ के उभार के साथ ही तेजी से एकध्रुवीय  उदारीकरण एवं वैश्वीकरण का सीधा असर इप्टा पर भी दिखाई देने लगा । जन सरोकारों पर काम करने वाली इप्टा में भी जन की जगह धन के सरोकार ने कई लोगों को विचलित किया । ऐसे में इप्टा से अलग होकर अनेक नाट्य संस्थाएं उभरीं । इनमें से कुछ इप्टा के सिद्धांतों पर चलती रहीं मगर अधिकांश नए ज़माने और बाजारवाद के प्रभाव से खुद को बचा नहीं पाई और वैश्वीकरण के रंग ढंग में घुलमिल गईं ।
इवेन्ट मैनेजमैंट और महोत्सवों के जमाने में जनसरोकारों के प्रति कटिबद्धता वाकई आसान नहीं है मगर इस कठिन दौर में देश के कई हिस्सों में प्रतिबद्ध व जुझारू रंगकर्मियों ने इप्टा की अलख जगाए रखी और इसके जनपक्ष को कायम रखने में अपनी अहम भूमिका निभाही । भी कम ही सही मगर समर्पित और जुझारू साथियों की सक्रिय भागीदारी और मजबूत इरादों के बल पर इप्टा लगातार  संघर्ष व कठिन  दौर से गुजर जूझकर भी अपनी उपस्थिति कायम रखने में कामयाब रही है । इसके लिए कामरेड जितेन्द्र रघुवंशी, जिनकी विगत दिनो बड़ी ही दुर्भाग्यजनक स्थिति में उनकी मृत्यु हो गई , के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता
   आज कई स्थानो पर इप्टा का स्थापना दिवस मनाया जा रहा है । हाल के वर्षों में एक बार फिर इप्टा सक्रिय होकर उबर रही है और कई स्थानो पर युवा वर्ग इप्टा से आकर्षित हो रहा है । यह संतोष की बात है .। आज जब नवपूंजीवाद, नवसा्राज्यवाद और वैश्वीकरण रोज नए रूप में सामने आ रहे हैं   , सांप्रदायिकता  पूरे विश्व में नंगा नाच कर रही है और पूंजीवादी ताकतें पूरे विश्व को युद्ध और अराजकता के भंवर में फंसाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं , जन सरोकारों से जुड़ी तमाम संस्थाओं को और सक्रिय व एकजुट होकर संघर्ष करने की आवश्यकता है । ऐसे दौर में इप्टा की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है ।
हम आशा करते हैं कि विपरीत परिस्थितियों और संघर्ष के इस दौर में भी इप्टा अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता कायम रखते हुए जनसरोकार के प्रति समर्पित रहेगी और लगातार वैज्ञानिक व सांस्कृतिक सोच विकसित करती रहेगी ।

(जीवेश प्रभाकर)

Monday, March 23, 2015

भगत सिंह का लेख - बम का दर्शन

          भगतसिंह (1930) 
          बम का दर्शन

राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान क्रांतिकारियों की निंदा में गाँधी जी ब्रिटिश सरकार से एक कदम आगे रहते थे। 23 दिसंबर, 1929 को क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के स्तम्भ वाइसराय की गाड़ी को उड़ाने का प्रयास किया, जो असफल रहा। गाँधी जी ने इस घटना पर एक कटुतापूर्ण लेख बम की पूजालिखा, जिसमें उन्होनें वाइसराय को देश का शुभचिंतक और नवयुवकों को आजादी के रास्ते में रोड़ा अटकाने वाले कहा। इसी जवाब में हिसप्रस की ओर से भगवतीचरण वोहरा ने बम का दर्शनलेख लिखा, जिसका शीर्षक हिंदुस्तान प्रजातन्त्र समाजवादी सभा का घोषणापत्ररखा। भगतसिंह ने जेल में इसे अन्तिम रूप दिया। 26 जनवरी, 1930 को इसे देशभर में बाँटा गया।-
हाल ही की घटनाएँ। विशेष रूप से 23 दिसंबर, 1929 को वाइसराय की स्पेशल ट्रेन उड़ाने का जो प्रयत्न किया गया था, उसकी निन्दा करते हुए कांग्रेस द्वारा पारित किया गया प्रस्ताव तथा यंग इण्डिया में गाँधी जी द्वारा लिखे गए लेखों से स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने गाँधी जी से साँठ-गाँठ कर भारतीय क्रांतिकारियों के विरुद्ध घोर आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया है। जनता के बीच भाषणों तथा पत्रों के माध्यम से क्रांतिकारियों के विरुद्ध बराबर प्रचार किया जाता रहा है। या तो यह जानबूझकर किया गया या फिर केवल अज्ञान के कारण उनके विषय में गलत प्रचार होता रहा है और उन्हें गलत समझा जाता रहा। परन्तु क्रांतिकारी अपने सिद्धान्तों तथा कार्यों की ऐसी आलोचना से नहीं घबराते हैं। बल्कि वे ऐसी आलोचना का स्वागत करते हैं, क्योंकि वे इसे इस बात का स्वर्णावसर मानते हैं कि ऐसा करने से उन्हें उन लोगों को क्रांतिकारियों के मूलभूत सिद्धान्तों तथा उच्च आदर्शों को, जो उनकी प्रेरणा तथा शक्ति के अनवरत स्रोत हैं, समझाने का अवसर मिलता है। आशा की जाती है कि इस लेख द्वारा आम जनता को यह जानने का अवसर मिलेगा कि क्रांतिकारी क्या हैं, उनके विरुद्ध किए गए भ्रमात्मक प्रचार से उत्पन्न होने वाली गलतफहमियों से उन्हें बचाया जा सकेगा।
पहले हम हिंसा और अहिंसा के प्रश्न पर ही विचार करें। हमारे विचार से इन शब्दों का प्रयोग ही गलत किया गया है, और ऐसा करना ही दोनों दलों के साथ अन्याय करना है, क्योंकि इन शब्दों से दोनों ही दलों के सिद्धान्तों का स्पष्ट बोध नहीं हो पाता। हिंसा का अर्थ है कि अन्याय के लिए किया गया बल प्रयोग,परन्तु क्रांतिकारियों का तो यह उद्देश्य नहीं है, दूसरी ओर अहिंसा का जो आम अर्थ समझा जाता है वह है आत्मिक शक्ति का सिद्धान्त। उसका उपयोग व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय अधिकारों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। अपने आप को कष्ट देकर आशा की जाती है कि इस प्रकार अन्त में अपने विरोधी का हृदय-परिवर्तन सम्भव हो सकेगा।
एक क्रांतिकारी जब कुछ बातों को अपना अधिकार मान लेता है तो वह उनकी माँग करता है, अपनी उस माँग के पक्ष में दलीलें देता है, समस्त आत्मिक शक्ति के द्वारा उन्हें प्राप्त करने की इच्छा करता है, उसकी प्राप्ति के लिए अत्यधिक कष्ट सहन करता है,इसके लिए वह बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए प्रस्तुत रहता है और उसके समर्थन में वह अपना समस्त शारीरिक बल प्रयोग भी करता है। इसके इन प्रयत्नों को आप चाहे जिस नाम से पुकारें,परंतु आप इन्हें हिंसा के नाम से सम्बोधित नहीं कर सकते,क्योंकि ऐसा करना कोष में दिए इस शब्द के अर्थ के साथ अन्याय होगा। सत्याग्रह का अर्थ है, सत्य के लिए आग्रह। उसकी स्वीकृति के लिए केवल आत्मिक शक्ति के प्रयोग का ही आग्रह क्यों? इसके साथ-साथ शारीरिक बल प्रयोग भी [क्यों] न किया जाए?क्रांतिकारी स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अपनी शारीरिक एवं नैतिक शक्ति दोनों के प्रयोग में विश्वास करता है परन्तु नैतिक शक्ति का प्रयोग करने वाले शारीरिक बल प्रयोग को निषिद्ध मानते हैं। इसलिए अब यह सवाल नहीं है कि आप हिंसा चाहते हैं या अहिंसा,बल्कि प्रश्न तो यह है कि आप अपनी उद्देश्य प्राप्ति के लिए शारीरिक बल सहित नैतिक बल का प्रयोग करना चाहते हैं, या केवल आत्मिक शक्ति का?
क्रांतिकारियो का विश्वास है कि देश को क्रांति से ही स्वतन्त्रता मिलेगी। वे जिस क्रांति के लिए प्रयत्नशील हैं और जिस क्रांति का रूप उनके सामने स्पष्ट है, उसका अर्थ केवल यह नहीं है कि विदेशी शासकों तथा उनके पिट्ठुओं से क्रांतिकारियों का केवल सशस्त्र संघर्ष हो, बल्कि इस सशस्त्र संघर्ष के साथ-साथ नवीन सामाजिक व्यवस्था के द्वार देश के लिए मुक्त हो जाएं। क्रांति पूँजीवाद, वर्गवाद तथा कुछ लोगों को ही विशेषाधिकार दिलाने वाली प्रणाली का अन्त कर देगी। यह राष्ट्र को अपने पैरों पर खड़ा करेगी,उससे नवीन राष्ट्र और नये समाज का जन्म होगा। क्रांति से सबसे बड़ी बात तो यह होगी कि वह मजदूर व किसानों का राज्य कायम कर उन सब सामाजिक अवांछित तत्त्वों को समाप्त कर देगी जो देश की राजनीतिक शक्ति को हथियाए बैठे हैं।
आज की तरुण पीढ़ी को मानसिक गुलामी तथा धार्मिक रूढ़िवादी बंधन जकड़े हैं और उससे छुटकारा पाने के लिए तरुण समाज की जो बैचेनी है, क्रांतिकारी उसी में प्रगतिशीलता के अंकुर देख रहा है। नवयुवक जैसे-जैसे मनोविज्ञान आत्मसात् करता जाएगा, वैसे-वैसे राष्ट्र की गुलामी का चित्र उसके सामने स्पष्ट होता जाएगा तथा उसकी देश को स्वतन्त्र करने की इच्छा प्रबल होती जाएगी। और उसका यह क्रम तब तक चलता रहेगा जब तक कि युवक न्याय, क्रोध और क्षोभ से ओतप्रोत हो अन्याय करनेवालों की हत्या न प्रारम्भ कर देगा। इस प्रकार देश में आतंकवाद का जन्म होता है। आंतकवाद सम्पूर्ण क्रांति नहीं और क्रांति भी आतंकवाद के बिना पूर्ण नहीं। यह तो क्रांति का एक आवश्यक अंग है। इस सिद्धान्त का समर्थन इतिहास की किसी भी क्रांति का विश्लेषण कर जाना जा सकता है। आतंकवाद आततायी के मन में भय पैदा कर पीड़ित जनता में प्रतिशोध की भावना जाग्रत कर उसे शक्ति प्रदान करता है। अस्थिर भावना वाले लोगों को इससे हिम्मत बँधती है तथा उनमें आत्मविश्वास पैदा होता है। इससे दुनिया के सामने क्रांति के उद्देश्य का वास्तविक रूप प्रकट हो जाता है क्योंकि यह किसी राष्ट्र की स्वतन्त्रता की उत्कट महत्त्वाकांक्षा का विश्वास दिलाने वाले प्रमाण हैं, जैसे दूसरे देशों में होता आया है, वैसे ही भारत में आतंकवाद क्रांति का रूप धारण कर लेगा और अन्त में क्रांति से ही देश को सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी।
तो यह हैं क्रांतिकारी के सिद्धान्त, जिनमें वह विश्वास करता है और जिन्हें देश के लिए प्राप्त करना चाहता है। इस तथ्य की प्राप्ति के लिए वह गुप्त तथा खुलेआम दोनों ही तरीकों से प्रयत्न कर रहा है। इस प्रकार एक शताब्दी से संसार में जनता तथा शासक वर्ग में जो संघर्ष चला आ रहा है, वही अनुभव उसके लक्ष्य पर पहुंचने का मार्गदर्शक है। क्रांतिकारी जिन तरीकों में विश्वास करता है, वे कभी असफल नहीं हुए।
इस बीच कांग्रेस क्या कर रही थी? उसने अपना ध्येय स्वराज्य से बदलकर पूर्ण स्वतन्त्रता घोषित किया। इस घोषणा से कोई भी व्यक्ति यही निष्कर्ष निकालेगा कि कांग्रेस ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा न कर क्रांतिकारियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी है। इस सम्बन्ध में कांग्रेस का पहला वार था उसका वह प्रस्ताव जिसमें 23 दिसम्बर, 1929 को वाइसराय की स्पेशल ट्रेन उड़ाने के प्रयत्न की निन्दा की गई। और प्रस्ताव का मसौदा गाँधी जी ने स्वयं तैयार किया था और उसे पारित करने के लिए गाँधी जी ने अपनी सारी शक्ति लगा दी। परिणाम यह हुआ कि 1913 की सदस्य संख्या में वह केवल 31 अधिक मतों से पारित हो सका। क्या इस अत्यल्प बहुमत में भी राजनीतिक ईमानदारी थी?इस सम्बन्ध में हम सरलादेवी चौधरानी का मत ही यहाँ उद्धृत करें। वे तो जीवन-भर कांग्रेस की भक्त रही हैं। इस सम्बन्ध में प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा है- मैंने महात्मा गाँधी के अनुयायियों के साथ इस विषय में जो बातचीत की, उससे मालूम हुआ कि वे इस सम्बन्ध में स्वतन्त्र विचार महात्माजी के प्रति व्यक्तिगत निष्ठा के कारण प्रकट न कर सके, तथा इस प्रस्ताव के विरुद्ध मत देने में असमर्थ रहे, जिसके प्रणेता महात्मा जी थे। जहाँ तक गाँधी जी की दलील का प्रश्न है, उस पर हम बाद में विचार करेंगे। उन्होंने जो दलीलें दी हैं वे कुछ कम या अधिक इस सम्बन्ध में कांग्रेस में दिए गए भाषण का ही विस्तृत रूप हैं।
इस दुखद प्रस्ताव के विषय में एक बात मार्के की है जिसे हम अनदेखा नहीं कर सकते, वह यह कि यह सर्वविदित है कि कांग्रेस अहिंसा का सिद्धान्त मानती है और पिछले दस वर्षों से वह इसके समर्थन में प्रचार करती रही है। यह सब होने पर भी प्रस्ताव के समर्थन में भाषणों में गाली-गलौज़ की गई। उन्होंने क्रांतिकारियों को बुजदिल कहा और उनके कार्यों को घृणित। उनमें से एक वक्ता ने धमकी देते हुए यहाँ तक कह डाला कि यदि वे (सदस्य) गाँधी जी का नेतृत्व चाहते हैं तो उन्हें इस प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पारित करना चाहिए। इतना सब कुछ किए जाने पर भी यह प्रस्ताव बहुत थोड़े मतों से ही पारित हो सका। इससे यह बात निशंक प्रमाणित हो जाती है कि देश की जनता पर्याप्त संख्या में क्रांतिकारियों का समर्थन कर रही है। इस तरह से इसके लिए गाँधी जी हमारे बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने इस प्रश्न पर विवाद खड़ा किया और इस प्रकार संसार को दिखा दिया कि कांग्रेस, जो अहिंसा का गढ़ माना जाता है, वह सम्पूर्ण नहीं तो एक हद तक तो कांग्रेस से अधिक क्रांतिकारियों के साथ हैं।
इस विषय में गाँधी जी ने जो विजय प्राप्त की वह एक प्रकार की हार ही के बराबर थी और अब वे दि कल्ट ऑफ दि बमलेख द्वारा क्रांतिकारियों पर दूसरा हमला कर बैठे हैं। इस सम्बन्ध में आगे कुछ कहने से पूर्व इस लेख पर हम अच्छी तरह विचार करेंगे। इस लेख में उन्होंने तीन बातों का उल्लेख किया है। उनका विश्वास, उनके विचार और उनका मत। हम उनके विश्वास के सम्बन्ध में विश्लेषण नहीं करेंगे, क्योंकि विश्वास में तर्क के लिए स्थान नहीं है। गाँधी जी जिसे हिंसा कहते हैं और जिसके विरुद्ध उन्होंने जो तर्कसंगत विचार प्रकट किए हैं, हम उनका सिलसिलेवार विश्लेषण करें।
गाँधी जी सोचते हैं कि उनकी यह धारणा सही है कि अधिकतर भारतीय जनता को हिंसा की भावना छू तक नहीं गई है और अहिंसा उनका राजनीतिक शस्त्र बन गया है। हाल ही में उन्होंने देश का जो भ्रमण किया है उस अनुभव के आधार पर उनकी यह धारणा बनी है, परन्तु उन्हें अपनी इस यात्रा के इस अनुभव से इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। यह बात सही है कि (कांग्रेस) नेता अपने दौरे वहीं तक सीमित रखता है जहां तक डाक गाड़ी उसे आराम से पहुँचा सकती है, जबकि गाँधी जी ने अपनी यात्रा का दायरा वहाँ तक बढ़ा दिया है जहाँ तक मोटरकार द्वारा वे जा सकें। इस यात्रा में वे धनी व्यक्तियों के ही निवास स्थानों पर रुके। इस यात्रा का अधिकतर समय उनके भक्तों द्वारा आयोजित गोष्ठियों में की गयी उनकी प्रशंसा, सभाओं में यदा-कदा अशिक्षित जनता को दिए जाने वाले दर्शनों में बीता, जिसके विषय में उनका दावा है कि वे उन्हें अच्छी तरह समझते हैं, परंतु यही बात इस दलील के विरुद्ध है कि वे आम जनता की विचारधारा को जानते हैं।
कोई व्यक्ति जनसाधारण की विचारधारा को केवल मंचों से दर्शन और उपदेश देकर नहीं समझ सकता। वह तो केवल इतना ही दावा कर सकता है कि उसने विभिन्न विषयों पर अपने विचार जनता के सामने रखे। क्या गाँधी जी ने इन वर्षों में आम जनता के सामाजिक जीवन में कभी प्रवेश करने का प्रयत्न किया? क्या कभी उन्होंने किसी सन्ध्या को गाँव की किसी चौपाल के अलाव के पास बैठकर किसी किसान के विचार जानने का प्रयत्न किया? क्या किसी कारखाने के मजदूर के साथ एक भी शाम गुजारकर उसके विचार समझने की कोशिश की है? पर हमने यह किया है इसलिए हम दावा करते हैं कि हम आम जनता को जानते हैं। हम गाँधी जी को विश्वास दिलाते हैं कि साधारण भारतीय साधारण मानव के सामने ही अहिंसा तथा अपने शत्रु से प्रेम करने की आध्यात्मिक भावना को बहुत कम समझता है। संसार का तो यही नियम है- तुम्हारा एक मित्र है, तुम उससे स्नेह करते हो, कभी-कभी तो इतना अधिक कि तुम उसके लिए अपने प्राण भी दे देते हो। तुम्हारा शत्रु है, तुम उससे किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखते हो। क्रांतिकारियों का यह सिद्धान्त नितान्त सत्य, सरल और सीधा है और यह ध्रुव सत्य आदम और हौवा के समय से चला आ रहा है तथा इसे समझने में कभी किसी को कठिनाई नहीं हुई। हम यह बात स्वयं के अनुभव के आधार पर कह रहे हैं। वह दिन दूर नहीं जब लोग क्रांतिकारी विचारधारा को सक्रिय रूप देने के लिए हजारों की संख्या में जमा होंगे।
गाँधी जी घोषणा करते हैं कि अहिंसा के सामर्थ्य तथा अपने आप को पीड़ा देने की प्रणाली से उन्हें यह आशा है कि वे एक दिन विदेशी शासकों का हृदय परिवर्तन कर अपनी विचारधारा का उन्हें अनुयायी बना लेंगे। अब उन्होंने अपने सामाजिक जीवन के इस चमत्कार के प्रेम संहिता के प्रचार के लिए अपने आप को समर्पित कर दिया है। वे अडिग विश्वास के साथ उसका प्रचार कर रहे हैं, जैसा कि उनके कुछ अनुयायियों ने भी किया है। परंतु क्या वे बता सकते हैं कि भारत में कितने शत्रुओं का हृदय-परिवर्तन कर वे उन्हें भारत का मित्र बनाने मे समर्थ हुए हैं? वे कितने ओडायरों, डायरों तथा रीडिंग और इरविन को भारत का मित्रा बना सके हैं? यदि किसी को भी नहीं तो भारत उनकी विचारधारा से कैसे सहमत हो सकता है कि वे इग्लैंड को अहिंसा द्वारा समझा-बुझाकर इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार करा लेंगे कि वे भारत को स्वतन्त्रता दे दे।
यदि वाइसराय की गाड़ी के नीचे बमों का ठीक से बिस्फोट हुआ होता तो दो में से एक बात अवश्य हुई होती, या तो वाइसराय अत्यधिक घायल हो जाते या उनकी मृत्यु हो गयी होती। ऐसी स्थिति में वाइसराय तथा राजनीतिक दलों के नेताओं के बीच मंत्रणा न हो पाती, यह प्रयत्न रुक जाता उससे राष्ट्र का भला ही होता। कलकत्ता कांग्रेस की चुनौती के बाद भी स्वशासन की भीख माँगने के लिए वाइसराय भवन के आस-पास मंडराने वालों के लिए घृणास्पद प्रयत्न विफल हो जाते। यदि बमों का ठीक से विस्फोट हुआ होता तो भारत का एक शत्रु उचित सजा पा जाता। मेरठ तथा लाहौर-षड्यन्त्र और भुसावल काण्ड का मुकदमा चलानेवाले केवल भारत के शत्रुओं को ही मित्र प्रतीत हो सकते हैं। साइमन कमीशन के सामूहिक विरोध से देश में जो एकजुटता स्थापित हो गई थी,गाँधी तथा नेहरू की राजनीतिक बुद्धिमत्ता के बाद ही इरविन उसे छिन्न-भिन्न करने में समर्थ हो सका। आज कांग्रेस में भी आपस में फूट पड़ गई है। हमारे इस दुर्भाग्य के लिए वाइसराय या उसके चाटुकारों के सिवा कौन जिम्मेदार हो सकता है। इस पर भी हमारे देश में ऐसे लोग हैं जो उसे भारत का मित्र कहते हैं।
देश में ऐसे भी लोग होंगे जिन्हें कांग्रेस के प्रति श्रद्धा नहीं,इससे वे कुछ आशा भी नहीं करते। यदि गाँधी जी क्रांतिकारियों को उस श्रेणी में गिनते हैं तो वे उनके साथ अन्याय करते हैं। वे इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि कांग्रेस ने जन जागृति का महत्वपूर्ण कार्य किया है। उसने आम जनता में स्वतन्त्रता की भावना जाग्रत की है क्योंकि उनका यह दृढ़ विश्वास है कि जब तक कांग्रेस में सेन गुप्ता जैसे अद्भुतप्रतिभाशाली व्यक्तियों का, जो वाइसराय की ट्रेन उड़ाने में गुप्तचर विभाग का हाथ होने की बात करते हैं तथा अन्सारी जैसे लोग, जो राजनीति कम जानते और उचित तर्क की उपेक्षा कर बेतुकी और तर्कहीन दलील देकर यह कहते हैं कि किसी राष्ट्र ने बम से स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं की- जब तक कांग्रेस के निर्णयों में इनके जैसे विचारों का प्राधान्य रहेगा,तब तक देश उससे बहुत कम आशा कर सकता है। क्रांतिकारी तो उस दिन की प्रतीक्षा में हैं जब कांग्रेसी आन्दोलन से अहिंसा की यह सनक समाप्त हो जाएगी और वह क्रांतिकारियों के कन्धे से कन्धा मिलाकर पूर्ण स्वतन्त्रता के सामूहिक लक्ष्य की ओर बढ़ेगी। इस वर्ष कांग्रेस ने इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया है, जिसका प्रतिपादन क्रांतिकारी पिछले 25 वर्षों से करते चले आ रहे हैं। हम आशा करें कि अगले वर्ष वह स्वतन्त्रता प्राप्ति के तरीकों का भी समर्थन करेगी।
गाँधी जी यह प्रतिपादित करते हैं कि जब-जब हिंसा का प्रयोग हुआ है तब-तब सैनिक खर्च बढ़ा है। यदि उनका मंतव्य क्रांतिकारियों की पिछली 25 वर्षों की गतिविधियों से है तो हम उनके वक्तव्यों को चुनौती देते हैं कि वे अपने इस कथन को तथ्य और आँकड़ों से सिद्ध करें। बल्कि हम तो यह कहेंगे कि उनके अहिंसा और सत्याग्रह के प्रयोगों का परिणाम, जिनकी तुलना स्वतन्त्रता संग्राम से नहीं की जा सकती, नौकरशाही अर्थव्यवस्था पर हुआ है। आंदोलनों का फिर वे हिंसात्मक हों या अहिंसात्मक,सफल हों या असफल, परिणाम तो भारत की अर्थव्यवस्था पर होगा ही। हमें समझ नहीं आता कि देश में सरकार ने जो विभिन्न वैधानिक सुधार किए, गाँधी जी उनमें हमें क्यों उलझाते हैं? उन्होंने मार्लेमिण्टो रिफार्म, माण्टेग्यू रिफार्म या ऐसे ही अन्य सुधारों की न तो कभी परवाह की और न ही उनके लिए आन्दोलन किया। ब्रिटिश सरकार ने तो यह टुकड़े वैधानिक आन्दोलनकारियों के सामने फेंके थे, जिससे उन्हें उचित मार्ग पर चलने से पथ भ्रष्ट किया जा सके। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें तो यह घूस दी थी, जिससे वे क्रांतिकारियों को समूल नष्ट करने की उनकी नीति के साथ सहयोग करें। गाँधी जी जैसा कि इन्हें सम्बोधित करते हैं, कि भारत के लिए वे खिलौने-जैसे हैं, उन लोगों को बहलाने-फुसलाने के लिए जो समय-समय पर होम रूल, स्वशासन,जिम्मेदार सरकार, पूर्ण जिम्मेदार सरकार, औपनिवेशिक स्वराज्य जैसे अनेक वैधानिक नाम जो गुलामी के हैं, माँग करते हैं। क्रांतिकारियों का लक्ष्य तो शासन-सुधार का नहीं है, वे तो स्वतन्त्रता का स्तर कभी का ऊँचा कर चुके हैं और वे उसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बिना किसी हिचकिचाहट के बलिदान कर रहे हैं। उनका दावा है कि उनके बलिदानों ने जनता की विचारधारा में प्रचण्ड परिवर्तन किया है। उसके प्रयत्नों से वे देश को स्वतन्त्रता के मार्ग पर बहुत आगे बढ़ा ले गए हैं और यह बात उनसे राजनीतिक क्षेत्र में मतभेद रखने वाले लोग भी स्वीकार करते हैं।
गाँधी जी का कथन है कि हिंसा से प्रगति का मार्ग अवरुद्ध होकर स्वतन्त्रता पाने का दिन स्थगित हो जाता है, तो हम इस विषय में अनेक ऐसे उदाहरण दे सकते हैं, जिनमें जिन देशों ने हिंसा से काम लिया उनकी सामाजिक प्रगति होकर उन्हें राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। हम रूस तथा तुर्की का ही उदाहरण लें। दोनों ने हिंसा के उपायों से ही सशस्त्र क्रांति द्वारा सत्ता प्राप्त की। उसके बाद भी सामाजिक सुधारों के कारण वहां की जनता ने बड़ी तीव्र गति से प्रगति की। एकमात्र अफगानिस्तान के उदाहरण से राजनीतिक सूत्र सिद्ध नहीं किया जा सकता। यह तो अपवाद मात्र है।
गाँधी जी के विचार में असहयोग आन्दोलन के समय जो जन जागृति हुई है, वह अहिंसा के उपदेश का ही परिणाम था'परन्तु यह धारणा गलत है और यह श्रेय अहिंसा को देना भी भूल है, क्योंकि जहाँ भी अत्यधिक जन जागृति हुई वह सीधे मोर्चे की कार्रवाई से हुई। उदाहरणार्थ, रूस में शक्तिशाली जन आन्दोलन से ही वहाँ किसान और मजदूरों में जागृति उत्पन्न हुई। उन्हें तो किसी ने अहिंसा का उपदेश नहीं दिया था, बल्कि हम तो यहाँ तक कहेंगे कि अहिंसा तथा गाँधी जी की समझौता-नीति से ही उन शक्तियों में फूट पड़ गयी जो सामूहिक मोर्चे के नारे से एक हो गई थीं। यह प्रतिपादित किया जाता है कि राजनीतिक अन्यायों का मुकाबला अहिंसा के शस्त्र से किया जा सकता है, पर इस विषय में संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि यह अनोखा विचार है,जिसका अभी प्रयोग नहीं हुआ है।
दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के जो न्यायोचित आधिकार माँगे जाते थे, उन्हें प्राप्त करने में अहिंसा का शस्त्र असफल रहा। वह भारत को स्वराज्य दिलाने में भी असफल रहा, जबकि राष्ट्रीय कांग्रेस स्वयंसेवकों की एक बड़ी सेना उसके लिए प्रयत्न करती रही तथा उस पर लगभग सवा करोड़ रुपया भी खर्च किया गया। हाल ही में बारदोली सत्याग्रह में इसकी असफलता सिद्ध हो चुकी है। इस अवसर पर सत्याग्रह के नेता गाँधी और पटेल ने बारदोली के किसानों को जो कम-से-कम अधिकार दिलाने का आश्वासन दिया था, उसे भी वे न दिला सके। इसके अतिरिक्त अन्य किसी देशव्यापी आन्दोलन की बात हमें मालूम नहीं। अब तक इस अहिंसा को एक ही आशीर्वाद मिला वह था असफलता का। ऐसी स्थिति में यह आश्चर्य नहीं कि देश ने फिर उसके प्रयोग से इन्कार कर दिया। वास्तव में गाँधी जी जिस रूप में सत्याग्रह का प्रचार करते हैं, वह एक प्रकार का आन्दोलन है, एक विरोध है जिसका स्वाभाविक परिणाम समझौते में होता है, जैसा प्रत्यक्ष देखा गया है। इसलिए जितनी जल्दी हम समझ लें कि स्वतन्त्रता और गुलामी में कोई समझौता नहीं हो सकता, उतना ही अच्छा है।
गाँधी जी सोचते हैं हम नये युग में प्रवेश कर रहे हैं। परंतु कांग्रेस विधान में शब्दों का हेर- फेर मात्र कर, अर्थात् स्वराज्य को पूर्ण स्वतन्त्रता कह देने से नया युग प्रारम्भ नहीं हो जाता। वह दिन वास्तव में एक महान दिवस होगा जब कांग्रेस देशव्यापी आन्दोलन प्रारम्भ करने का निर्णय करेगी, जिसका आधार सर्वमान्य क्रांतिकारी सिद्धान्त होंगे। ऐसे समय तक स्वतन्त्रता का झंडा फहराना हास्यास्पद होगा। इस विषय में हम सरलादेवी चौधरानी के उन विचारों से सहमत हैं जो उन्होंने एक पत्र-संवाददाता को भेंट में व्यक्त किए। उन्होंने कहा- 31 दिसंबर, 1929 की अर्धरात्रि के ठीक एक मिनट बाद स्वतन्त्रता का झंडा फहराना एक विचित्र घटना है। उस समय जी. ओ. सी., असिस्टेंट जी. ओ. सी. तथा अन्य लोग इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि स्वतन्त्रता का झंडा फहराने का निर्णय आधी रात तक अधर में लटका है, क्योंकि यदि वाइसराय या सैक्रेटरी ऑफ स्टेट का कांग्रेस को यह संदेश आ जाता है कि भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य दे दिया गया है, तो रात्रि को 11 बजकर 59 मिनट पर भी स्थिति में परिवर्तन हो सकता था। इससे स्पष्ट है कि पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्ति का ध्येय नेताओं की हार्दिक इच्छा नहीं थी, बल्कि एक बालहठ के समान था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए उचित तो यही होता कि वह पहले स्वतन्त्राता प्राप्त कर फिर उसकी घोषणा करती। यह सच है कि अब औपनिवेशिक स्वराज्य के बजाय कांग्रेस के वक्ता जनता के सामने पूर्ण स्वतन्त्रता का ढोल पीटेंगे। वे अब जनता से कहेंगे कि जनता को संघर्ष के लिए तैयार हो जाना चाहिए जिसमें एक पक्ष तो मुक्केबाजी करेगा और दूसरा उन्हें केवल सहता रहेगा, जब तक कि वह खूब पिटकर इतना हताश न हो जाए कि फिर न उठ सके? क्या उसे संघर्ष कहा जा सकता है और क्या इससे देश को स्वतन्त्रता मिल सकती है? किसी भी राष्ट्र के लिए सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्ति का ध्येय सामने रखना अच्छा है, परन्तु साथ में यह भी आवश्यक है इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए उन साधनों का उपयोग किया जाए जो योग्य हों और जो पहले उपयोग में आ चुके हों,अन्यथा संसार के सम्मुख हमारे हास्यासपद बनने का भय बना रहेगा।
गाँधीजी ने सभी विचारशील लोगों से कहा कि वे लोग क्रांतिकारियों से सहयोग करना बन्द कर दें तथा उनके कार्यों की निन्दा करें, जिससे हमारे इस प्रकार उपेक्षित देशभक्तों की हिंसात्मक कार्यों से जो हानि हुई, उसे समझ सकें। लोगों को उपेक्षित तथा पुरानी दलीलों के समर्थक कह देना जितना आसान है, उसी प्रकार उनकी निन्दा कर जनता से उनसे सहयोग न करने को कहना, जिससे वे अलग-अलग हो अपना कार्यक्रम स्थगित करने के लिए बाध्य हो जाएं, यह सब करना विशेष रूप से उस व्यक्ति के लिए आसान होगा जो कि जनता के कुछ प्रभावशाली व्यक्तियों का विश्वासपात्र हो। गाँधी जी ने जीवनभर जनजीवन का अनुभव किया है, पर वह बडे दुःख की बात है कि वे भी क्रांतिकारियों का मनोविज्ञान न तो समझते हैं और न समझना ही चाहते हैं। वह सिद्धान्त अमूल्य है, जो प्रत्येक क्रांतिकारी को प्रिय है। जो व्यक्ति क्रांतिकारी बनता है, जब वह अपना सिर हथेली पर रखकर किसी क्षण भी आत्मबलिदान के लिए तैयार रहता है तो वह केवल खेल के लिए नहीं। वह यह त्याग और बलिदान इसलिए भी नहीं करता कि जब जनता उसके साथ सहानुभूति दिखाने की स्थिति में हो तो उसकी जयजयकार करे। वह इस मार्ग का इसलिए अवलम्बन करता है कि उसका सद्विवेक उसे इसकी प्रेरणा देता है,उसकी आत्मा उसे इसके लिए प्रेरित करती है।
एक क्रांतिकारी सबसे अधिक तर्क में विश्वास करता है। वह केवल तर्क और तर्क ही विश्वास करता है। किसी प्रकार का गाली-गलौच या निन्दा, चाहे फिर वह ऊँचे-से-ऊँचे स्तर से की गई हो,उसे वह अपनी निश्चित उद्देश्य प्राप्ति से वंचित नहीं कर सकती। यह सोचना कि यदि जनता का सहयोग न मिला या उसके कार्य की प्रशंसा न की गई तो वह अपने उद्देश्य को छोड़ देगा, निरी मूर्खता है। अनेक क्रांतिकारी, जिनके कार्यों की वैधानिक आंदोलनकारियों ने घोर निन्दा की, फिर भी वे उसकी परवाह न करते हुए फाँसी के तख्ते पर झूल गए। यदि तुम चाहते हो कि क्रांतिकारी अपनी गतिविधियों को स्थगित कर दें तो उसके लिए होना तो यह चाहिए कि उनके साथ तर्क द्वारा अपना मत प्रमाणित किया जाए। यह एक और केवल यही एक रास्ता है, और बाकी बातों के विषय में किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। क्रांतिकारी इस प्रकार की डराने-धमकाने से कदापि हार मानने वाला नहीं।
हम प्रत्येक देशभक्त से निवेदन करते हैं कि वह हमारे साथ गम्भीरतापूर्वक इस युद्ध में शामिल हो। कोई भी व्यक्ति अहिंसा और ऐसे ही अजीबोगरीब तरीकों से मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर राष्ट्र की स्वतन्त्रता के साथ खिलवाड़ न करे। स्वतन्त्रता राष्ट्र का प्राण है। हमारी गुलामी हमारे लिए लज्जास्पद है, न जाने कब हममें यह बुद्धि और साहस होगा कि हम उससे मुक्ति प्राप्ति कर स्वतन्त्र हो सकें? हमारी प्राचीन सभ्यता और गौरव की विरासत का क्या लाभ, यदि हममें यह स्वाभिमान न रहे कि हम विदेशी गुलामी, विदेशी झण्डे और बादशाह के सामने सिर झुकाने से अपने आप को न रोक सकें।
क्या यह अपराध नहीं है कि ब्रिटेन ने भारत में अनैतिक शासन किया? हमें भिखारी बनाया, हमारा समस्त खून चूस लिया?एक जाति और मानवता के नाते हमारा घोर अपमान तथा शोषण किया गया है। क्या जनता अब भी चाहती है कि इस अपमान को भुलाकर हम ब्रिटिश शासकों को क्षमा कर दें। हम बदला लेंगे, जो जनता द्वारा शासकों से लिया गया न्यायोचित बदला होगा। कायरों को पीठ दिखाकर समझौता और शान्ति की आशा से चिपके रहने दीजिए। हम किसी से भी दया की भिक्षा नहीं माँगते हैं और हम भी किसी को क्षमा नहीं करेंगे। हमारा युद्ध विजय या मृत्यु के निर्णय तक चलता ही रहेगा। क्रांति चिरंजीवी हो।

करतारसिंह
प्रेजीडेण्ट

Date Written: January 1930
Author: Bhagat Singh and Bhagawati Charan Vohra
Title: Philosophy of the Bomb (Bum ka darshan)
First Published: In December 1929, a bomb exploded under the Viceroy Irwin’s special train, from which he, however, escaped. Gandhiji thanked God for the Viceroy’s narrow escape and condemned the revolutionaries for the act in his article “The Cult of the Bomb.” It was in reply to Gandhiji’s article .This was written by Bhagawati Charan in consultation with Chandra Shekhar Azad. It was drafted in the room located above the Soloman Company, Aminabad, Lucknow. Bhagat Singh finalised the draft in jail.

Wednesday, March 18, 2015

रायपुर टॉकीज का आयोजन----

रायपुर टॉकीज का आयोजन---- सरोकार का सिनेमा....
आगामी 8- 9 अप्रैल को वृंदावन हॉल, रायपुर में....
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Friday, February 20, 2015

कामरेड गोविंद पानसारे के लिए ...........

कामरेड गोविंद पानसारे  ...........
मगर उनका ज़स्बा और विचारधारा अजर अमर है
कामरेड मरते नहीं हैं दुश्मन ये जान ले .....
कामरेड गोविंद पानसारे को लाल सलाम ...........
...

गोलियों से तेज चलते हैं विचार

मैं घिरा हुआ हूं
असंख्य आतताइयों से
जो भून देना चाहते हैं मुझे
पहले ही वार में ,
बारूद के असीमित जखीरे के मुकाबिल
विचारों से लैस हूं मैं,यथासंभव ।
जंग जारी है
विचार और औजार की
हर मोर्चे पर
सदियों से अनवरत,असमाप्य ।
मैं जानता हूं , कि ऊ र्जा
हुए जाते हैं विचार ,और
कहीं ज्यादा भयभीत हुए जाते हैं वो,
जो छलनी कर देना चाहते हैं मुझे ।
पर मैं आश्वस्त हूं
कि ऊर्जा अविनाशी है, और
गोलियों से तेज चलते हैं विचार ।
जीवेश प्रभाकर

Friday, January 30, 2015

हाल- फिलहाल--- जीवेश प्रभाकर

तमाम व्यस्तताओं और नियमित झंझावतों से जूझते, हर साल की तरह यह साल भी निकल जाता मगर साल के मध्य में हुए आम चुनाव ने वर्ष 2014 की महत्ता बढ़ा दी । 30 वर्षों के पश्चात देश में किसी एक राजनैतिक दल ने केन्द्र में अपना स्पष्ट बहुतमत हासिल किया यह तो विशेष बात है ही मगर उससे भी यादा चौकानेवाली बात यह है कि देश के दो तिहाई मतदाओं की खिलाफत के बावजूद 30 प्रतिशत मत प्राप्त कर भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट बहुमत हासिल किया । लोकतंत्र में जनता द्वारा चुनी गई सरकार सभी को मान्य होनी ही चाहिए । कांग्रेसइतिहास में  अपने सबसे निम्नतम स्तर पर है और जनता में कांग्रेस को लेकर अब तक नाराजगी है । विगत 10 वर्षों से सत्ता में काबिज काँग्रेस सरकार आम जनता से यादा कॉर्पोरेट की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी ।वैश्वीकरण और उदारीकरण की रफ्तार कम होने से पूरा कॉर्पोरेट जगत नाराज था जिसका खामियाजा कॉग्रेस को भुगतना पड़ा ।
      अब भारतीय जनता पार्टी सत्ता मे ंहै और विगत 6महीने के कार्यकाल से  ये  कॉग्रेसों की ही नीतियों को आगे बढ़ा रही है । पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कॉग्रेस की जिन नीतियों की भारतीय जनता पार्टी जितनी आलोचना और विरोध करती रही वो सत्ता में आने के पश्चात उन्हीं नीतियों को कड़ाई से लागू करने पर आमादा हो गई है । आम जनता हतभ्रत है । उदारीकरण और वैश्वीकरण की प्रक्रिया को जिस तेजी से यह सरकार आगे बढ़ा रही है उसे देखते हुए लगता है कि शीघ्र ही देश के तमाम संसाधनों को निजी हाथों में सौंप दिया जाएगा । इन 6 महीनों में न तो संसद ठीक से चल पाई न किसी विधेयक पर चर्चा ही हो सकी मगर मौजूदा सरकार सभी सुधारों को अध्यादेश के जरिए लागू करने पर आमादा हो गई है । बीमा विधेयक हो या कोल विधेयक हर क्षेत्र में सरकार अध्यादेश लाकर हर क्षेत्र में कॉर्पोरेट के दबाव में दिखलाई दे रही है । कोल क्षेत्र में लगभग 35 वर्षों के पश्चात जबरदस्त हड़ताल शुरू हुई है इसका क्या नतीजा होगा यह आने वाला वक्त बताएगा ।
      इधर नए साल में छत्तीसगढ़ में विगत 11 वर्षों से सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को निकाय चुनावों में जबरदस्त झटका लगा है । प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह  के लिये निकाय चुनावों के परिणाम चिन्ताजनक हैं । चुनाव पूर्व प्रदेश से काँग्रेस का सफाया कर देने का दावा खोखला साबित हुआ । दूसरी ओर  काँग्रेस केदिग्गज नेता अजीत जोगी के लिये भी ये परिणाम कम चौंकाने वाले नहीं है । चुनाव के दौरान अजीत जोगी ने कांग्रेस प्रचार से खुद को दूर कर लिया था । हालांकि अब वे कह रहे हैं कि उन्होंने बिलासपुर से खुद को हटाया था मगर यह सच नहीं है । कांग्रेस के लिये यह चुनाव काफी दिनों बाद बहार की तरह आए हैं । प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल और नेता प्रतिपक्ष टी.एस. सिंहदेव के लिए यह काफी राहत की बात है कि जब पूरे देश में काँग्रेस का जनाधार कम हुआ है वही छत्तीसगढ़ में गत वर्ष हुए विधानसभा चुनाव के पश्चात काँग्रेस की पकड़ मजबूत हुई । इसे दोनों ही नेताओं की अपनी समझ और तालमेल का परिणाम कहा जा सक ता है । देखने वाली बात ये है कि वे इसे आगे कितना साधे रख पाते हैं । चूंकि पंचायत चुनावों के पश्चात आगामी 4 वर्षों तक कोई चुनाव नहीं होने वाले तो कांग्रेस के लिए इन चार वर्षों तक यह उत्साह व तालमेल बनाए रखना चुनौती होगी । हाल के महीनों में काँग्रेस ने पूरी एकजुटता में जनाहित के मुद्दों को उछालकर आम जनता में अपनी पैठ बनाने में कामयबी हासिल की है । जिसे लगातार जारी रखने की आवश्यकता होगी । सबसे चौकाने वाले परिणाम बिलासपुर के कहे जा सकेत है । बिलासपुर में हाल ही में हुए नसबंदी कांड और नवजात शिशुओं की लगातार मौतो ने पूरे प्रदेश को दिलाकर रख दिया और इसी मुद्दे को लेकर कांग्रेस ने पूरे प्रदेश में प्रदर्शनों के बल पर जनता में अपनी पैठ बनाई । मगर यह आश्चर्यजनक ही कहा जाएगा। कि बिलासपुर वासियों ने अपने शहर में सिर्फ महापौर बल्कि पार्षदों के रूप में भी बड़ी संख्या में भारतीय जनता पार्टी को चुनकर एक तरह से लगातार आरोप झेल रहे मंत्री अमर अग्रवाल को क्लीन चिट दे दी है । निश्चित रूप से इन परिणामों के आधार पर अमर अग्रवाल पर किसी तरह की संगठनात्मक कार्यवाही की अपेक्षा संभव नहीं है ।
      भारतीय जनता पार्टी और मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को सबसे बड़ा झटका तो राजधानी रायपुर में लगा जहाँ इस बार भी काँग्रेस का मेयर चुनकर आ गया । भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पसंदीदा प्रत्याशी सच्चिदानंद उपासने को काँग्रेस के युवा प्रत्याशी प्रमोद दुबे ने बड़े अन्तर से हराकर राजधानी में एक बार फिर मेयर पद पर काँग्रेस का कब्जा बरकरार रखा । प्रमोद दुबे की जीत निश्चित रूप से उनकी अपनी छवि के कारण ही हुई । चुनाव के दौरान कांटे का मुकाबला होने के कयास लगाए जा रहे थे मगर नतीजों ने तमाम पूर्वानुमानो को ध्वस्त करते हुए प्रमोद दुबे निर्विवाद रूप से मजबूती के साथ विजयी हुए । इस परिणाम को लेकर भारतीय जनता पार्टी में संगठन स्तर पर भीतरघात की आशंका पर मंथन किया जा रहा है जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता मगर यह मानना ही होगा कि इस बार काँग्रेस ने एकजुटता का परिचय दिया और संगठित होकर न रायपुर में जीत हासिल की ।
      राजनैतिक गतिविधियों से इतर गत माह सरकार द्वारा राजधानी में रायपुर साहित्य महोत्सव का आयोजन किया गया । इस 3 दिवसीय आयोजन में देश भर के साहित्यकारों ने हिस्सा लिया । अन्य महोत्सवों की तरह इस महोत्.व में भीआमंत्रितों को सभी तरह की  सरकारी सुविधाएं दी गईं। साथ ही सभी साहित्यकारों को संभवत: पहली बार मानदेय भी दिया गया । नए रायपुर के पुरखौती मुक्तांगन में आयोजित महोत्सव में कई सत्र आयोजित किए गए । इस महोत्सव की गूंज पूरे देश में रही । कुछ साहित्यकारों की उपस्थिति और कई नामचीन लोगों के न आने की चर्चा काफी दिनो तक होती रही । हालांकि छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों में ऐसे किसी विवाद को बल नहीं मिला मगर राष्ट्रीय स्तर पर इस आयोजन को लेकर लम्बे वाद- विवाद होते रहे और कमोबेश अभी तक जारी है । खैर यह सरकार की अपनी पहल और योजना है जिस पर कोई बहस की गुंजाइश नहीं है ,क्योंकि  हर निर्वाचित सरकार को अपनी योजनाओं पर अमल का अधिकार है । दूसरी ओर ऐसे महोत्सवों में शामिल होने  या न होने का निर्णय भी साहित्यकार की व्यक्तिगत सोच और समझ का मामला है । उम्मीद है सरकार इस तरह के आयोजन हर वर्ष करती रहेगी ।
      नए साल के आंगाज् ा के साथ ही कई स्मृतियां दिमाग में कौध जाती हैं । हर नए साल में सुप्रसिद्ब रंगकर्मी सफदर हाशमी की शहादत कौंध जाती है । और इस वर्ष सफदर की शहादत को 25 वर्ष हो रहे हैं । इन पच्चीस वर्षो में कट्टरपंथ और असहिष्णुता में लगातार इजाफा होता गया है । अभिव्यक्ति की आजादी पर संकट बढ़ता ही जा रहा है । हाल ही में फ्रांस में कट्टर मुस्लिम पंथियों ने मीडिया की आजादी या कहे अभियांत्रिकी स्वतंत्रता पर कातिलाना हमला करते हुए संपादक, पत्रकार एवं कार्टूनिस्टों सहित करीब 12 लोगों को बेतहाशा फायरिंग करते हुए मौत के घाट उतार दिया । हमलावर मुस्लिम कट्टरपंथी थे और वे पत्रिका में प्रकाशित कार्टून से खफा थे । एक सभ्य समाज की कल्पना को ऐसे सांप्रदायिक व कट्टरपंथी आतंक के साए में नेस्तनाबूद कर देना चाहते हैं । पूरे विश्व में धार्मिक कट्टरवाद और असहिष्णुता तेजी से पैर पसार रही है । 21 वीं सदी में जहां मानव विकास के नए नए आयाम गढ़े जा रहे हैं, विज्ञान रोजाना ्नई उँचाईयों को छू रहा है वही दूसरी ओर चंद साप्रदायिक, धार्मिक कट्टरपंथी पूरे विश्व व मानव समाज को पुन: अंधे व बर्बर युग की ओर धकेलने के प्रयास में लगे हैं । इस वक्त पूरी सभ्यता दो राहे पर खड़ी है । एक ओर समता व शांति के पक्षधर है जो तादाद में काफी कम है तो दूसरी ओर विशाले प्रतिगामी ताकते पूरी सभ्यता को तहसनहस कर देना चाहती हैं । खतरा सिर्फ सांप्रदायकि ताकतों से नहीं बल्कि आर्थिक ताकतों से भी है जो पूरे विश्व की दबी कुचली गरीब जनता को अंधी खाई में धकेलकर खुद समृद्ध हो जाना चाहती है । चंद मुट्ठी भर कॉपोरेट पूरी दुनिया में 85 प्रतिशत संसाधनों पर कब्जा जमाए बैठे हैं । उनकी भूख ख्तम होने की बजाय लगातार बढ़ती ही जा रही है । ऐसे दौर में सभी को एकजुट होकर प्रतिरोध में सामने आना होगा एक बेहतर दुनिया के निर्माण के लिए ...


Sunday, January 18, 2015

विकल्प विमर्श का अंक-- जनवरी 2015

विकल्प विमर्श का नया अंक प्रकाशित -- विकल्प विमर्शजनवरी 2015


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