Thursday, April 19, 2018

रायपुर - स्मृतियों में झरोखे से 12----प्रभाकर चौबे


      रायपुर शहर एक छोटे से कस्बे से धीरे धीरे आज छत्तीसगढ़ की राजधानी के रूप में लगातार विकसित हो रहा है । इत्तेफाक ये भी है कि इस वर्ष हम अपने नगर की पालिका का150 वॉ वर्ष भी मना रहे हैं ।
         हमारी पीढ़ी अपने शहर के पुराने दौर के बारे में लगभग अनभिज्ञ से हैं । वो दौर वो ज़माना जानने की उत्सुकता और या कहें नॉस्टेलजिया सा सभी को है । कुछ कुछ इधर उधर पढ़ने को मिल जाता है। सबसे दुखद यह है कि कुछ भी मुकम्मल तौर पर नहीं मिलता। 
        बड़े बुज़ुर्गों की यादों में एक अलग सा सुकूनभरा वो कस्बा ए रायपुर अभी भी जिंदा है । ज़रा सा छेड़ो तो यादों के झरोखे खुल जाते हैं और वे उन झरोखों से अपनी बीते हुए दिनों में घूमने निकल पड़ते हैं। इस यात्रा में हम आप भी उनके सहयात्री बनकर उस गुज़रे जमाने की सैर कर सकते हैं।
   इसी बात को ध्यान में रखकर हम अपने शहर रायपुर को अपने बुज़ुर्गों की यादों के झरोखे से जानने का प्रयास कर रहे हैं । इस महती काम के लिए छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रभाकर चौबे अपनी यादों को हमारे साथ साझा करने राजी हुए हैं । वे  रायपुर से जुड़ी अपनी स्मृतियों को साझा कर रहे हैं । एक बात स्पष्ट करना जरूरी है कि ये कोई रायपुर का अकादमिक इतिहास नहीं है ये स्मृतियां हैं । जैसा श्री प्रभाकर चौबे जी ने रायपुर को जिया । एक जिंदा शहर में गुज़रे वो दिन और उन दिनों से जुड़े कुछ लोगघटनाएंभूगोलसमाज व कुछ कुछ राजनीति की यादें ।  और इस तरह गुजश्ता ज़माने की यादगार तस्वीरें जो शायद हमें हमारे अतीत का अहसास कराए और वर्तमान को बेहतर बनाने में कुछ मदद कर सके।
        आपकी प्रतिक्रियाओं और सुझावों का भी स्वागत रहेगा।
जीवेश प्रभाकर
अपनी बात
        मन हुआ रायपुर पर लिखा जाए - बहुत पहले देशबन्धु का साप्ताहिक संस्करण भोपाल से प्रकाशित हो रहा था तब 12 कड़ियों में रायपुर पर लिखा थाखो गया । पुन: कोशिश कर रहा हूँ - इसमें कुछ छूट रहा हो तो पाठक जोड़ने का काम कर सकते हैं । रायपुर के बारे में  एक जगह जानकारी देने का मन है - अपना रायपुर पहले क्या कैसा रहा ...।   
-प्रभाकर चौबे

रायपुर - स्मृतियों में झरोखे से 12
1945 में आगे की पढ़ाई के लिए रायपुर आया उन दिनों बच्चों में बीच चकर बिल्ला, पिट्टुल, मंजा पतंग, छिपा- छिपाऊ खेल चलन में थे। वैसे छोटी रबर की गेंद (पुक) भी खूब खेलते। लड़कियां भी बिल्लस खेलती। लड़कियों के बिल्लस खेल के लिए जो घेरे बनाये जाते वे बालकों के घेरों की अपेक्षा छोटे होते वैसे छोटे भाई-बहन उसी में घर में कमरे या आंगन में खेलकर अपना मनोरंजन कर लेते। मंजा खूब लोकप्रिय था और डाट भी पड़ती थीं। दिन भर मंजा खेलता है स्कूल से आये नहीं कि चले मंजा खेलने । लोहे के छोटी -बड़ी रिंग भी बनती जिसे सड़क पर दौड़ाते, कुछ बच्चे सायकल का टायर दौड़ाते एक और खेल था - यह बरसात में खेला जाता नाली के किनारे गीली मिट्टी पर लोहे का टुकड़ा गडाना होता टुकडा न गड़े तो लंगड़े होकर दौड़ना पड़ता पीछे बच्चे चिलाते लंगड़ी घोड़ी टांग तोड़ी बारह बच्चे लेकर दौड़ी ....?
स्कूल टुर्नामेंट में बच्चों के लिए केला दौड़, चम्मच दौड़, टिटंगी दौड़ थ्रो लेगेड़ रेस, बोरा दौड़ की प्रतियोगिता थी।  छोटी खो, कबड्डी , डकबेस का ड्रिल थी। स्कूल में भी रिसेस में या पूरी छुट्टी होने पर रामरस या पिट्टुल या छुआ-छुआइल खेल लेते।  घर के छोटे-मोटे काम जैसे बाजार जाकर दौड़कर धनिया-मिर्च टमाटर ले आने का काम या गर्मी में नीबू खरीदकर लाना । प्राथमिक विद्यालय के कुछ गुरुजी बच्चों के बीच खेल सिखाने (ड्रिल टीचर) के लिए प्रसिध्द रहे एक थे छोटे लाल गुरुजी ...छोटे पारा प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे। प्राय हर मोहल्ला में एक प्राथमिक शाला थी एक खान गुरुजी थे जो उर्दू प्राथमिक शाला तात्यापारा में पढ़ाते थे। जहां आज नवीन बाजार है वहीं उन दिनों एक  तरफ हिन्दी प्राथमिक शाला व दूसरी तरफ उर्दू प्राथमिक शाला के भवन थे। शिक्षा अधिकारी के रूप में गोरे सर प्रसिध्द थे -वे कभी कभी शनिवार को किसी स्कूल में मासड्रिल लेने पहुंच जाते उनका रूतबा था। संभागीय शिक्षा अधिकारी के रूप में लाला दीनानाथ का नाम था। वे स्कूली टुर्नामेंट में पूरी व्यवस्था खुद र्जज लेकर करते और गोरे सर का पूरा सहयोग मिलता कभी-कभी जरूरत महसूस करते तो मैदान में चूने से ट्रेक भी बनाने भिड़ जाते। 1946 में यहां केरेवाल कलेक्टर थे । उन्होंने सम्भागीय टुर्नामेंट में चैम्पियन रहे स्कूल एवीएम स्कूल (अब लाखे स्कूल) को सम्मनित किया था।
हर रविवार को बालकटाना अनिवार्य होता था। कुछ घरों में बाल काटने वाले बंधे थे- हर रविवार को सुबह पहुंच जाते स्कूलों में कोई यूनिफार्म निर्धारित नहीं था और किताब कापी के लिए यह नियम भी नहीं था कि खास चिकने कागज का ही जिल्द ला गया जाए... अधिकतर पुराने अखबार का जिल्द लगाते । पुस्तक को साफ सुथरी रखने पर जोर दिया जाता था क्योंकि आधे कीमत में किताबे बिक जाती कोई-कोई किसी जरूरतमंद को दे देता था। छोटे भाई के काम आती । मध्यवर्ग बड़े ही मितव्ययिता से काम लेता ।  घरों में डबलरोटी बिस्कुट का चलन नहीं था। सुबह रात की रोटी तल कर नास्ता कर लिया जाता शाम को स्कूल से आने पर रोटी की पूंगी घी लगाकर शक्कर या नमक मलकर कर नास्ता होता। मेट्रिक तक हाफपेंट पहनकर स्कूल जाते शिक्षक ही फुलपेंट में आते।
दीपावली के बाद बाहर से रामलीला मंडली आती और एक-एक माह तक रामलीला चलती। उन दिनों बाहर की नाटक मंडली आती 1947-1948 के बाद नाटक मंडली का आना बंद हो गया था। दूधाधारी मठ में एक माह तक चलने वाली रामलीला होती और शहर में तथा आस-पास गांवों में इस की अच्छी ख्याति थी। रामलीला मंडली आती और रोज एक खेल के बाद मंडली का मुखिया दर्शकों से निवेदन करता कि कल मंडली का भोजन किसकी ओर से .... ? कोई न कोई खड़े होकर मुखिया के हाथ की माला लेकर भगवान राम के गले में डालता मतलब मंडली का कल का भोजन उसकी तरफ से ... दूसरे दिन दोपहर के भोजन के लिए पूरी साज-सज्जा के साथ टांगे में बैठकर मंडली भोजन करने जाती ... रास्ते में कुछ श्रध्दालु आरती उतारते कुछ चढाते भी। रामसागकर पारा में जहां आज रामचन्द सीता दास सिंधी हाई स्कूल है वहीं बाडा था जहां रामलीला खेली जाती रही।
कभी कभार कोई बालक बालिका माता के पिता के साथ कोई फिल्म देख आता तो वह अपने मित्रों को उसकी कहानी सुनाता यह एक तरह का उनका मनोरंजन था। सर्कस काफी सालो तक आते रहे रजबंधा मैदान में सर्कस लगता दोपहर को बच्चे जानवर देखने जाते थे।
जारी.....

                           

Friday, April 13, 2018

रायपुर स्मृतियों के झरोखे से- 11- - प्रभाकर चौबे

        रायपुर शहर एक छोटे से कस्बे से धीरे धीरे आज छत्तीसगढ़ की राजधानी के रूप में लगातार विकसित हो रहा है । इत्तेफाक ये भी है कि इस वर्ष हम अपने नगर की पालिका का150 वॉ वर्ष भी मना रहे हैं ।
         हमारी पीढ़ी अपने शहर के पुराने दौर के बारे में लगभग अनभिज्ञ से हैं । वो दौर वो ज़माना जानने की उत्सुकता और या कहें नॉस्टेलजिया सा सभी को है । कुछ कुछ इधर उधर पढ़ने को मिल जाता है। सबसे दुखद यह है कि कुछ भी मुकम्मल तौर पर नहीं मिलता। 
        बड़े बुज़ुर्गों की यादों में एक अलग सा सुकूनभरा वो कस्बा ए रायपुर अभी भी जिंदा है । ज़रा सा छेड़ो तो यादों के झरोखे खुल जाते हैं और वे उन झरोखों से अपनी बीते हुए दिनों में घूमने निकल पड़ते हैं। इस यात्रा में हम आप भी उनके सहयात्री बनकर उस गुज़रे जमाने की सैर कर सकते हैं।
   इसी बात को ध्यान में रखकर हम अपने शहर रायपुर को अपने बुज़ुर्गों की यादों के झरोखे से जानने का प्रयास कर रहे हैं । इस महती काम के लिए छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रभाकर चौबे अपनी यादों को हमारे साथ साझा करने राजी हुए हैं । वे  रायपुर से जुड़ी अपनी स्मृतियों को साझा कर रहे हैं । एक बात स्पष्ट करना जरूरी है कि ये कोई रायपुर का अकादमिक इतिहास नहीं है ये स्मृतियां हैं । जैसा श्री प्रभाकर चौबे जी ने रायपुर को जिया । एक जिंदा शहर में गुज़रे वो दिन और उन दिनों से जुड़े कुछ लोगघटनाएंभूगोलसमाज व कुछ कुछ राजनीति की यादें ।  और इस तरह गुजश्ता ज़माने की यादगार तस्वीरें जो शायद हमें हमारे अतीत का अहसास कराए और वर्तमान को बेहतर बनाने में कुछ मदद कर सके।
        आपकी प्रतिक्रियाओं और सुझावों का भी स्वागत रहेगा।
जीवेश प्रभाकर
अपनी बात
        मन हुआ रायपुर पर लिखा जाए - बहुत पहले देशबन्धु का साप्ताहिक संस्करण भोपाल से प्रकाशित हो रहा था तब 12 कड़ियों में रायपुर पर लिखा थाखो गया । पुन: कोशिश कर रहा हूँ - इसमें कुछ छूट रहा हो तो पाठक जोड़ने का काम कर सकते हैं । रायपुर के बारे में  एक जगह जानकारी देने का मन है - अपना रायपुर पहले क्या कैसा रहा ...।   
-प्रभाकर चौबे
                                                                
रायपुर स्मृतियों के झरोखे से- 11
सीपी एंड बरार मध्यप्रदेश उन दिनों इसी नाम का प्रदेश था । इसके प्रथम मुख्यमंत्री मतलब
अंतरिम सरकार के मुख्य मंत्री पं. रविशंकर शुक्ल के जन्म दिन पर कांग्रेस भवन के गाँधी चौक (मैदान) में एक बड़ी सभी हुई थी । इसमें स्कूली बच्चे भी शामिल थे । उस दिन खूब वर्षा हो रही थी । पं. रविशंकर शुक्ल का नगरिक सम्मान किया गया हम छोटे थे कौतुहल से सब देख रहे थे ।
मैंने पहली बार पं. रविशंकर शुक्ल जी को देखा - मुझे पता नहीं था कि वे प्रेदेश के मुख्यमंत्री हैं - स्कूल के बच्चों को बुलाया गया था । सो मैं भी उनमें शामिल था । लेकिन मुजे उनका यह कथन याद है कि देश जल्द आजाद हो जाएगा .।
उन दिनों स्कूल खुलते ही हैजे का टीका लगवाना अनिवार्य था - स्कूल -स्कूल टीका लगाने वाले आते । नगरपालिका की ओर से मुनादी कराई जाती कि नागरिक कांकाली अस्पताल काली बाड़ी चौक स्थित आईसोलेशन अस्पताल में जाकर हैजा का टीका लगा लें । यह भी मुनादी की जाती कि सड़े गले फल न खाये- बासा अन्न ग्रहण न करें, मक्खियों को ना होने दें ... 1946 में हैजा फैला । स्कूल के बच्चों की टोली लेकर पालिका में कर्मचारी फु्रुट मार्केट जाते और बच्चों से कहते कि सड़े-गले फल पैरों से रौंद डालो मजा आता । बच्चे अच्छे फल भी पैरों से रौंदने लगते दुकान वाला अरे अरे अरे करते रह जाता । ... पानी को उबाल कर पीने की हिदायद भी दी जाती । उस साल हैजा के कारण 10 दिनों के लिेय ुजुलाई में विद्यालय बंद कर दिए गए थे । एक दहशत का वातावरण था । हैजा पर जल्दी काबू पा लिया गया .. लेकिन बाद में भी कुछ सालों तक जुलाई माह में हजा का टीका स्कूली बच्चों को लगाया जाता ।
 1946 में दिसम्बर माह में राजनांदगाँव में डिविजन स्कूल टूर्नामेंट हुआ - तीन दिनों का होता था यह टुर्नामेंट। हर साल अलग अलग जगह पर होता 1945 को रायपुर में हुआ था । मेरा हड्रेडयार्ट्स दौड़ में सिलेक्शन हुआ था और मेरे मित्र सुरेश देशलहरा (सुरेश देशलहरा छत्तीसगढ़ कॉलेज के प्राचार्य हुए बाद में) का सिलेक्शन 200 गज की दौड़ के लिये हुआ था सुरेश प्रथम आया मैं सफल नहीं हुआ था । हमारे स्कूल के ही प्लेयर टीम चैम्पियन बनी इसमें एक छात्र बाबूराव अंतिम  दौड़ में एक्सपर्ट था - तेज दौड़ता । हमारे शिक्षक भी पाद्धे सर स्कूल के प्लेयर छात्रों से रोज पूछते कि रेगुलर दौड़ रहे हो न ... । वे बड़ी रूचि लेते । रायपुर स्थित नार्मल स्कूल कबड्डबी और रस्सा खींच में हर साल चैम्पियन बनती । रायपुर तथा अन्य शहरों के लिए भी प्राथमिक विद्यालय स्तर के स्कूल टुर्नामेंट होते  - गुरुजी अपने बच्चों को तैयार कराते - अमीनपारा व बूढ़ापारा प्राथमिक स्कूल का उन दिनों स्कूली टुर्नामेंट में दबदबा था उनके दोनों में से कोई एक चैम्पियन ट्राफी भेंट की जाती जो टीम चैम्पियन बनती उसे यह प्रदान की जाती । बाद में चौबे कॉलोनी स्कूल लगातार इस पर कब्जा करती रही पता नहीं अब शील्ड कहां है, किस स्थिति में है । यह शील्ड खूब बड़ी थी ।
      1946 में घरों में महंगाई की चर्चा होने लगी - अनाज महंगा हुआ था - पहले बिड़ी का कट्टा एक पैसा था वह दो पैसा हो गया - घोड़ा छाप माचिस की कीमत भी बढ़ी थी - दूध और घी भी महंगे हुए थे । परमसुख धोती, जो उस दौर में काफी प्रसिद्ध थी, की कीमत आठ आने बढ़ी थी - घरों में मंहगांई पर चर्चा होने लगी  थी । राशन का सामान समय पर मिलता नहीं  था, लम्बी-लम्बी लाईन लगने लगी थी - स्कूल से आते ही बच्चों को राशन की लाईन में खड़ा होने भेजा जाने लगा था । उसी साल शहर में किसी कम्पनी ने मुफ्त में बनी चाय बांटने का काम शुरु किया - मोहल्ले के नुक्कड़ पर चाय का ठेला खड़ा होता । जितना चाय पीना हो वह बर्तन में डाल देता था । लगभग आठ नौ माह यह सिलसिला चला फिर बंद हो गया .. लोगों को चाय की लत हो गई - चाय का पेकेट खरीदकर घर में चाय बनाने लगे और इस तरह घर-घर चाय आई, लेकिन बच्चों को चाय नहीं दी जाती थी ... । एक रोचक बात यह कि स्कूलों में प्रतिवर्ष पुराने सामान जैसे फुटबाल, हॉकी स्टिक, रेकेट आदि की नीलामी की जाती ... जरा भी अच्छा हो तो बच्चे एकाध सामान खरीद लेते - जरा सुधराकर उससे खेलते ।

जारी......