Tuesday, July 16, 2019

पुनर्गठन के दौर में कॉंग्रेस---- जीवेश चौबे

केन्द्र सरकार अपनी दूसरी पारी में आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक व सांस्ककृतिक क्षेत्रों में पूर्व तयशुदा एजेंडे पर पूरी शिद्दत व ताकत से लग गई है । सदन में कोई सशक्त विरोध बचा नहीं ये तो सीटों से साफ है  मगर जमीन पर भी विरोध न रहे तो फिर लोकतंत्र में क्या रह जाएगा । मुख्य विपक्षी दल कॉंग्रेस पूरी ताकत से लड़ी मगर   तमाम कोशिशों के बावजूद जनता का विश्वास हासिल कर पाने में नाकामयाब रही ।तमाम अटकलों के बावजूद देश का सबसे बड़ा विपक्षी दल कॉंग्रेस जिसे एक बड़ा वर्ग विकल्प के रूप में देख व पेश कर रहा था अपना विश्वास जमा पाने में सफल नहीं हो सका । विकल्प के रूप में कॉंग्रेस की संभावनाओं पर देश विदेश के कई विशेषज्ञों ने विश्लेषण कर अपनी अपनी राय दी, उम्मीद जताई  मगर जनता ने जो अपना फैसला दिया वो अब भी किसी की समझ में नहीं   रहा है  ।

हार के पश्चात कॉग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस्तीफा दे दिया और कॉंग्रेस में नेतृत्वशून्यता का दौर अब तक जारी है । निश्चित रूप से जीत या हार की नैतिक जिम्मेदारी अध्यक्ष की ही होती है । जहां एक ओर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को जीत का श्रेय मिला तो कॉंग्रेस में हार की जिम्मेदारी भी अध्यक्ष पर ही होगी । राहुल गांधी की बहादुरी या कहें नैतिक साहस की तारीफ तो करनी ही होगी कि उन्होंने हार की जिम्मेदारी स्वीकारी और पद से इस्तीफा दिया । यह शायद आजादी के बाद कॉग्रेस के इतिहास में पहली बार है जब गांधी परिवार से संबंधित किसी व्यक्ति ने हार की जिम्मेदारी स्वीकारते हुए इस्तीफा दिया है । अब तक हार के बाद न तो कॉंग्रेस में न तो कभी इस्तीफा दिया जाता रहा और न किसी की अपने पार्टी अध्यक्ष से इस्तीफा मांगने की हिम्मत ही होती थी । आज राहुल के इस्तीफे को भी महीने भर से ज्यादा हो चुका है मगर कॉंग्रेस में कोई नवाचार की आहट सुनाई नहीं दे रही है । सुविधाभोगी कॉंग्रेसी अपने वातानुकूलित ऐशगाहों में पड़े हुए राहुल गांधी को मनाने में लगे है । राजीव गांधी की हत्या के पश्चात भी जब सोनिया गांधी ने सक्रिय राजनीति से अपने व अपने परिवार को दूर कर लिया था तब भी कॉंग्रेस में लगभग ऐसी ही स्थिति बन पड़ी थी । फर्क ये था कि तब कॉंग्रेस के पास बहुमत आ चुका था परिणामस्वरूप किसी ने कोई ज्यादा हल्ला नहीं मचाया और 5 साल आराम से सरकार चलाई । इस बीच कॉंग्रेस अध्यक्ष भी गांधी परिवार का नहीं रहा । मगर कॉंग्रेस अगले चुनाव में अपनी साख नहीं बचा पाई और चुनाव हार गई । चुनाव हारते ही फिर कॉंग्रेस को गांधी परिवार की याद आई और बहुत प्रयासों के पश्चात सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनने राजी कर लिया गया जिन्होने ठंडी शुरुवात के पश्चात 2004 में कॉंग्रेस को वापस सत्ता में लाने में कामयाबी हासिल की और 10 साल तक केन्द्र में गांधी परिवार के नेतृत्व बिना कॉंग्रेस की सरकार चलाई ।
कॉंग्रेस की हार से कॉंग्रेस को तो बड़ा झटका लगा ही साथ ही धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील वर्ग भी सदमें में आ गया । फासीवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ खामोश लड़ाई में सक्रिय व विकल्प के रूप में कॉंग्रेस और विशेष रूप से राहुल गांधी से उम्मीदे लगाए इस वर्ग को चुनावी नतीजे ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या आज की जनता को   कबीर नहीं कबीर सिंह चाहिए , देवदास नहीं देव डी पसंद है ?  क्या 21 वीं सदी में   पिछली सदी के औजारों से नहीं लड़ाई जारी रख सकते हैं ? निश्चित रूप से  आज बदलते परिवेश में जन्मती नई चुनौतियों से निपटने नए औजार और उपकरण चाहिए , मगर हर दौर में जनता तक पहुंचने के लिए   आभासी दुनिया से निकलकर सशरीर जनता के बीच ही जाना होगा सोशल मीडिया के भरोसे आप सोसायटी की लड़ाई नहीं जीत सकते ।
भाजपा के लिए यह भूमिका राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ निभा रहा है । इस बात को स्वीकारना ही होगा कि आज  संघ ने समाज के हर तबके में अपनी पैठ बना ली है । ये तल्ख हकीकत है किसी को हजम हो हो संघ व भाजपा से हर तरह के वैचारिक मतभेदों के बावजूद लक्ष्य प्रप्ति के लिए समाज व लोगों के बीच संघ की  निरंतर सक्रिय बने रहने की रणनीति की सफलता से  इंकार नहीं किया जा सकता । वैचारिक संघर्ष में पार्टी गौण हो जाती है इस बात को समझना होगा ।  अपनी इसी रणनीति के चलते तमाम विपरीत परिस्थितियों एवं अपनी मूल पार्टी जनसंघ की बलि चढ़ाने के बाद संघ पोषित नई पार्टी भाजपा अन्ततः सत्ता हासिल करने में कामयाब हुई । इस सफलता के लिए हालांकि 50 साल लग गए । इस उपलब्धि में अटल बिहारी बाजपेयी की अनवरत मेहनत व संघर्ष  किसी भी राजनैतिक कार्यकर्ता के लिए एक आदर्श हो सकता है । दूसरी ओर कॉंग्रेस का सेवादल जो पहले आम जन को कॉंग्रेस से जोड़े रखता था आज बदतर हालत में है , कोई नामलेवा तक नहीं बचा है । गांव गांव तक फैले सेवादल के कार्यकर्ता जनता व कॉंग्रेस के बीच एक पुल का काम करते थे , एक तरह से यही कॉंग्रेस का जमीनी कैडर था जिससे कॉंग्रेस जनता की मनःस्थिति और मंशा से पूरी तरह अपडेट रहा करती थी । आजादी के बाद सत्ता की राजनीति के चलते कॉंग्रेस ने इस निचले स्तर के कैडर को पूरी तरह अनदेखा वउपेक्षित कर अन्ततः खत्म सा ही कर दिया । यहां यह बात भी याद रखनी होगी कि संघ के संस्थापक हेड्गेवार कॉंग्रेस सेवादल से जुड़े हुए थे । उसी तर्ज पर उन्होंने संघ की बुनियाद रखी और आज यही भाजपा के लिए एक सशक्त जमीनी कैडर बनकर सत्ता की राह मजबूत कर रहा है साथ ही पार्टी के माध्यम से अपनी नीतियों को समाज में अपने तरीके से स्वीकार कराने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है ।
सवाल ये है कि क्या राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा  देने से पार्टी के फिर से मजबूत होने में मदद मिल सकती है । पार्टी के प्रमुख की निराशा पूरी पार्टी के मनोबल को प्रभावित करती है । यह बात भी गौरतलब है कि नेतृत्व की गैर मौजूदगी में संकट का सामना कर रही है कांग्रेस पार्टी के लिए  ऐसी स्थिति ठीक नहीं है क्योंकि  कुछ महीने बाद ही तीन राज्यों में विधानसभा चुनावों का सामना करना हैयह मानना भी उचित नहीं है कि अगर परिवार से बाहर कोई अध्यक्ष बनेगा तो पार्टी खत्म हो जाएगीउनके इस्तीफे से शायद पार्टी को नया स्वरूप मिलने में मदद मिले । वर्तमान परिस्तियों में हालांकि इसके लिए जरूरी है कि  राहुल गांधी  पार्टी में सक्रिय रहें और पार्टी के नेता एवं कार्यकर्ता नए अध्यक्ष को स्वीकार करें। इसके लिए राहुल गांधी को पलायन की बजाय  पार्टी में सक्रिय रहना होगा , कॉंग्रेस के अपने कैडर या कहें अपने  सेवादल को पुनः मजबूत व महत्वपूर्ण बनाना होगा । राहुल गांधी इस दिशा में काम करें तो संभव है कि जनता में उनकी एक नई छवि बने और भविष्य में अपने कैचरों के बल पर ही उनकी लोकप्रियता जनस्वीकार्यता में तब्दील हो सके ।
इसके साथ ही इन परिस्थितियों में राहुल गांधी को अपनी दादी स्व इंदिरा गांधी की जुझारू प्रवृत्ति को आत्मसात करना होगा। उन्हें याद करना होगा कि 1977 की हार के पश्चात इंदिरा जी बजाय निराश होने के दोगुनी ताकत से जनता के बीच गईं और अपनी खोई साख व सत्ता वापस हासिल करने में जबरदस्त रूप से कामयाब रहीं । अपने इस्तीफे में खुद राहुल गांधी ने कहा है कि लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कांग्रेस पार्टी को खुद को मौलिक रूप से बदलना होगा,  भारत कभी भी एक आवाज नहीं रहा है  यह हमेशा आवाजों का एक समूह रहा है  यही भारत का सच्चा सार है। राहुल की यह सोच सकारात्मक तो है मगर इसे सिद्धांत व विचार को व्यवहार में धरातल पर भी लाना होगा तभी कॉंग्रेस जनता का विस्वास व समर्थन वापस पासिल कर पाने में कामयाब हो सकेगी ।



जीवेश चौबे
( देशबन्धु ,17 जुलाई 2019 को प्रकाशित)

गुरु पूर्णिमा पर पढ़िएः तरह तरह के गुरु -प्रभाकर चौबे

सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार प्रभाकर चौबे का व्यंग्य-
 

चेला के साथ चांटी लगे रहते हैं, इसलिए कहा जाता है - गुरु के चेला चांटी बहुत हैं। चेला का मतलब तो समझ मे आया। चांटी का क्या अर्थ। खींच-कींचकर अर्थ निकाला छत्तीसगढ़ी मे चींटी के चांटी कहते हैं। तो चेला का मतलब प्रमुख चेला और उसके साथ-साथ जो छोटे-छोटे लोग आएं, वे चांटी, इसका मतलब यह भी हुआ कि चेला कभी अकेला नहीं होता, चांटी के साथ होता है। होना जरूरी है क्योंकि अकेला चेला अपने गुरु की कितनी सेवा करे, थक जाएगा, मुख्य सेवा चेला करता है, बाकी सहायक कार्य चांटी करते है। जैसे धोना है। चेला चरण धोए तो चांटी गमछा लेकर बाजू में खड़ा रहे। चेला कहे- ला गमछा गुरु के चरण पोछना है। गुरु स्नान करे तो चांटी पानी की व्यवस्था करें। चेला यह काम नहीं करेगा। चेला का ओहदा चांटी से ऊपर है। जैसे मुख्तियार के नीचे कमइया। चेला अपने गुरु के लिए भोजन की सामग्री दे और चांटी भोजन बनाएं। गुरु लेंटे तो चांटी पैर चापन करें। चांटी धुनी बनाए। चिलम भरे। गुरु चेला चिलम का सोंटा मारें। गुरु प्रवचन दे तब चांटी पंखा झले और चेला हाथ जोड़े ज्ञान की बातें सुनें। जिस चेले के पास जितने यादा चांटी, गुरु की नजरों में उस चेला की उतनी इात बढ़ जाती है। गुरु कहें - इस चेला का बड़ा प्रताप है। बड़ा प्रभाव है। इसके बीस चांटी है। गुरु उस चेला के पास सुख पाता है, उसके पास जाने को प्राथमिकता देता है जिसके चांटी यादा होते हैं। गुरु कहे - भक्त जयवर्धनकी कोठी में चलें, दो महा वहां रमन करेंगे। जयवर्धन केपास बीस चांटी हैं। हर्षवर्धन के घर नहीं जाना। उसके पास केवल पांच चांटी है। लेकिन एक बात तय है कि बिना चांटी के चेला का कोई अस्तित्व नहीं। चेला बनते ही चेला की तलाशना पड़ता है। गुरु की नजरों में चढ़ना है तो चांटी चाहिए।
गुरु और चेला चांटी का रिवाज आज तक चल रहा है। पहले कान फुंकाएं और चेला बन जाते । कान फूंकने वाला गुरु बन जाता। आज गुरु- चेला बनना जरा टेढ़ा काम हो गया। विश्वविद्यालयों के गुरु अब चेला बनाने लगे हैं। अब जो कुछ दे सकता है, वह गुरु। उसी को गुरु बनाना है। रही तो बातें पुस्तकों में भरा पड़ा है। ज्ञान उसके लिए गुरु की क्या जरूरत। आज तो नेट में सब है। बटन क्लिक करो, नेट गुरु से जानकारी चाहो वह प्राप्त करो। विश्वविद्यालयों में सच्चा चेला तलाशता है। क्योंकि वह अनुभवी होता है
इसलिए एक - दो भेंट में सच्चा चेला पकड़ा लेता है। सच्चा गुरु वह जो मैरिट में स्थान दिलाए। उसके बाद फेलोशिप दिलवाए। पीएचडी करो और कहीं अपाइंट करा दे। सच्चा चेला सच्चा गुरु की तलाश में भिड़ते ही पता लगाने लगता है। कि किस गुरु की पहुंच कितनी कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में है। जिसकी पैठ जितने यादा विश्वविद्यालयों में वह उतना सच्चा गुरु । अरे। फलां की पैठ बीस विद्यापीठो में है, पकड़ ले चरण। फुंकवा ले कान और डाल ले कंठी- ऐसी सलाह पूर्व चेला दे सकता है। 
''ऐसा, उसकी पैठ बीस विश्वविद्यालयों में है।''
 ''हां। लेकिन उसे तगड़ा चेला चाहिए। ऐसा चेला चाहिए जिसके चांटी भी अच्छे खासे हों।''
एक बार गुरु मिल गया, गुरु को चेला मिल गया उसके बाद ताजनम गुरु की चिंता मिटी । जिस शहर में जा रहे है वह चेले है। बढ़िया होटल में रूकवा रहे हैं। बढ़िया खान पान की व्यवस्था कर रहे हैं। गुरु घर से एक पैसा लेकर नहीं निकलते। पूरा देश घूम आते हैं। न टिकट की चिंता, न खाने -पीने की, न टैक्सी भाड़े की, न कुली को पैसे देने की चिंता । चेला कर रहा है। चेला के साथ चांटी भी लगे हैं। गुरु प्रसन्न होकर गए।
 ''महागुरु कहीं फिट करा देंगे, लगे रहे।''
 ''सेवा में कमी न आए''
 ''नहीं ला रहा कमी। अभी अपने शहर बुलाया था। एक गोष्ठी में प्रधान वक्ता बनाया। दस मिनट बोले। मैंने समाचार पत्रों में ऐसी विज्ञप्ति दी तीन कॉलम में भाषण छपा। खातिरदारी में कमी नहीं की। विदेशी पिलाते रहा और जाते समय पांच हजार का लिफाफा भी थमाया ।''
विश्वविद्यालयों में समीक्षक गुरु मिलते हैं, इसलिए लेखक चेलों की सेवा पाते हैं। कुछ संपादक भी गुरु का दर्जा प्राप्त कर लेते हैं। हर शहर में ऐसे गुरु के चेले होते हैं और चांटी के साथ सेवा धर्म निभाते हैं। चेला अपने चांटी से कहे-  ''कल वह संपादक पधार रहे हैं चलना। सेवा करें तो कुछ फल मिलेगा। '' ऐसा गुरु खाने-पीने, घूमने के साथ विज्ञापन पा जाएं तो परम सुख देते हैं- अगले अंक में रचना छप गई।
 ''कुछ संपादक गुरु झटके दे जाते हैं।''
 ''यह आदिकाल से चला आ रहा है।''
 ''कबीर ने ऐसों के लिए पहले ही कह रखा है- जैसा गुरु, वैसा चेला, नरक मे हो गया ठेलम-ठेला।''
ऐसा नहीं कि विश्वविद्यालयों में और संपादकों में ही गुरु हो। और भी जगह गुरु हैं। किताब छपवां दें और गुरु बन जाएं। सीएम से मिलवा देने वाले गुरु। गवर्नर से भेंट करवा देने वाले गुरु। लेकिन ये चेला नहीं बनाते। राजनीति में जिस तरह पट्ठा तैयार किया जाएं। उसी तरह ऐसे लोग पठ्ठा तैयार करते हैं-  ''आओ, मंत्री जी से मिलवा दें।'' मिला दिया और  पठ्ठा बना लिया। राजनीति भी एक अखाड़ा है, इसलिए राजनीति में अखाड़ों की तरह पठ्टे तैयार होते हैं। बाद में कुछ पठ्ठे अपने गुरु को ही पटकनी देते दिख हैं। मंत्री से मिलवा देने वाला बाद में अपने पठ्ठे से पिछड़ जाता है। उसके मार्फत मंत्री से मिला अबप सीधे सीएम का खास बन बैठा। उसका गुरु, जिसने मंत्री से मिलवाया था, नये पठ्ठे की तलाश में है गुरु- चेला, चेला चांटी गुरु- पठ्ठा यह आदिकाल से चल आ रहा है। रूप- रंग में जरूर अंतर आ गया है। कुछ अतिरिक्त पा जाने का मोह कान फूंकवा कर चेला बनने विवश कर देता है। ऐसे ही चेले आगे गुरुपद प्राप्त कर चेला चांटी बनते हैं- यह क्रम चल रहा है।

(प्रभाकर चौबे के शीघ्र प्रकाश्य व्यंग्य संकलन से)