Thursday, August 29, 2019

भारतीय लोकतंत्र: कमजो़र विपक्ष के चलते पनपता अधिनायकवाद----जीवेश चौबे

एक सशक्त विपक्ष किसी भी लोकतंत्र की जीवंतता और मूल्यों की रक्षा के लिए बहुत जरूरी है।
भारत में मोदी सरकार की वापसी के पश्चात विपक्ष एकदम बिखर सा गया है और देश में विकल्पहीनता की स्थिति सी पैदा हो गई है।  देखा जाए तो आजादी के पश्चात से ही देश में सशक्त विपक्ष का घोर अभाव रहा। शुरुआती दौर में पं. नेहरू के व्यक्तित्व के सामने पूरा देश नतमस्तक था और युवा वर्ग  पं. नेहरू के करिश्माई नेतृत्व  से जबरदस्त उम्मीदें बांधे हुए था। ऐसे दौर में ऐसे नेतृत्व के सामने विपक्ष की हैसियत या अस्तित्व क्या हो सकता था।
 फिर भी उस दौर में वैचारिक मतभिन्नता को पं. नेहरू द्वारा सम्मान दिया जाता था। उस दौर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी लोकतंत्र में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी थी। यहां तक कि कांग्रेस से अलग हुए समाजवादी कांग्रेस को भी काफी तवज्जो मिलती रही। कहा जाता है लोहिया और नेहरू की संसदीय बहसें तब आमजन में चर्चा का विषय हुआ करती थीं। बाद में अटल बिहारी वाजपेयी ने भी अपने ओजस्वी व्याख्यानों से संसदीय बहस की उत्कृष्ट परंपरा में अविस्मरणीय योगदान दिया जिसे  पं. नेहरू ने भी प्रोत्साहित किया।
भारतीय लोकतंत्र की शुरुआत कमजोर विपक्ष से हुई और दशकों ये परंपरा बनी रही। देखा जाए तो कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़कर  समाजवादी नेता राम मनोहर  लोहिया ही थे जिन्होंने भारतीय लोकतंत्र में संयुक्त विपक्ष की कल्पना को साकार किया और सिखाया कि संयुक्त विपक्ष क्या होता है और उसे क्या करना चाहिए। लोहिया शुरू-शुरू में  गांधी की तुलना में नेहरू से ज्यादा प्रभावित थे मगर बाद में नेहरू से उनका मोहभंग होता गया और गांधी के सिद्धांतों और कार्यनीतियों पर उनका भरोसा बढ़ता गया। उन्होंने आजादी के बाद एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस के खिलाफ खुलकर कांग्रेस हटाओ देश बचाओ का नारा बुलंद किया। हालांकि पं. जवाहर लाल नेहरू के जीते जी वे अपनी मुहिम में कामयाब नहीं हो सके मगर उनके लगातार संघर्ष के परिणामस्वरूप आजादी के लगभग दो दशक बाद पहली बार कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी और  कई राज्यों में  संविद सरकारें बनीं।
 पं. नेहरू के पश्चात इंदिरा गांधी के दौर में ही विपक्षविहीन निरंकुश सत्ता की परिकल्पना फलीभूत हुई जिसकी परिणीति दमनकारी आपातकाल के रूप में हुई। आपातकाल से मुक्ति के लिए देश का लगभग  सारा विपक्ष जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एकजुट हुआ और लोकतांत्रिक मूल्यों व जनतंत्र के अस्तित्व की लड़ाई में विपक्ष की महत्ता को रेखांकित करते हुए देश की जनता को जागरूक  किया। अंत में संयुक्त विपक्ष के साथ जुटे व्यापक जनसमर्थन के सामने निरंकुश सत्ता ने घुटने देक दिए। देश में लोकतंत्र की पुर्नस्थापना में आपातकाल के दौरान विपक्ष की भूमिका एक  अतुलनीय उदाहरण है। यह बात गौरतलब है कि तमाम दलगत बुराइयों के बावजूद उस कठिन परिस्थितियों में संपूर्ण विपक्ष ने जिस जिम्मेदारी और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता का परिचय दिया वो भारतीय राजनीति व लोकतंत्र के इतिहास में एक अद्वितीय मिसाल है।
विगत लोकसभा चुनाव में  कारपोरेट पूंजी के भारी समर्थन और  मोदी मिथ के जबरदस्त महिमामंडन के चलते भाजपा को अपार चुनावी सफलता हासिल हुई है। मोदी  सरकार  के पहले कार्यकाल के  आखिरी महीनों में लगभग पूरे देश में ऐसा माहौल बन पड़ा था कि मोदी सरकार बस अब जाने ही वाली है। मगर पुलवामा हमले ने पूरा परिदृश्य बदल दिया।  शुरुआत में हालांकि कांग्रेस ने हमले के लिए जांच समिति बिठाने की बात करते हुए मोदी सरकार को घेरने का प्रयास किया मगर भाजपा की सधी-बधी मुकम्मल रणनीति के सामने कांग्रेस सहित समूचा विपक्ष दिशाहीन व अकर्मण्य सा राष्ट्रवाद की रौ में बहता चला गया।
इस पूरे प्रकरण में समूचे विपक्ष ने मोदी सरकार के साथ खड़े होकर अपनी राजनीतिक पहलकदमी के साथ सत्ता में आने का मौका भी खो दिया। आज भी मुख्य धारा की विपक्षी पार्टियों के पास मोदी सरकार के खिलाफ न तो कोई कार्यक्रम है और न ही सुनियोजित रणनीति। संसद के हालिया सत्र में भी विपक्ष की बहसें बेहद लचर रहीं, यहां तक कि बजट में पेट्रोल और डीजल का दाम बढ़ा दिया गया, बावजूद इसके उसका कोई भी विरोध संसद और संसद के बाहर नहीं दिखा।  370 व 35ए पर बहस के दौरान भी विपक्ष की कोई सशक्त तैयारी नजर नहीं आई। कांग्रेस सहित किसी भी विपक्षी दल से कोई ठोस तर्कपूर्ण बहस कर पाने में सक्षम नहीं दिखा।
चुनावी असफलता के पश्चात मुख्य विपक्षी दल व बड़ी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस के युवा अध्यक्ष राहुल गांधी का रवैया काफी निराशाजनक रहा। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि राहुल गांधी ने बहुत मेहनत की मगर आशातीत सफलता नहीं हासिल कर पाए। अब इस पर बहस से कोई फायदा नहीं मगर यह बहुत गंभीर सवाल है आज भी अनुत्तरित है कि कांग्रेस अपने ही शासित राज्यों की लोकसभा सीटों में से मात्र 10 फीसदी सीटें ही जीत पाई। निश्चित रूप से यह घोर निराशाजनक परिणाम था खासकर तब जबकि कुछ माह पूर्व हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी ने शानदार सफलता हासिल की हो।  कमजोर विपक्ष व सशक्त विकल्प के अभाव के चलते अधिनायकवादी विचारों को फलने फूलने का मौका मिलता है। मौजूदा हालात में देश की विपक्षी पार्टियां इन्हीं कमजोरियों से ग्रसित होकर जनता में लगातार अपनी विश्वसनीयता और विकल्प दे पाने का भरोसा खोती जा रही हैं।
आज देश में विकल्पहीनता व अविश्वास के चलते  बहुत तेजी से अधिनायकवाद न सिर्फ पनप रहा है बल्कि जड़ें भी जमा रहा है।  जनसंघर्ष और जन आंदोलनों के अभाव में सामूहिक संघर्ष व सामूहिक चेतना लगातार कुंद होती जा रही है।  एक सशक्त विपक्ष द्वारा शासक की जनविरोधी और निरंकुश नीतियों का समुचित विरोध का भय शासकों को मनमानी करने से रोक सकता है। मगर सशक्त विपक्ष के अभाव में अक्सर शासक निरंकुश व मदमस्त होने लगता है। सरकार द्वारा जनता के हितों के विपरीत लिए जा रहे निर्णयों पर विपक्ष द्वारा चुप रह जाना एक तरह से सरकार का मौन समर्थन करना होता है। जनता की अदालत में दोनों ही बराबर के गुनहगार माने जाते हैं क्योंकि जनविरोधी निर्णय का सशक्त विरोध करना उनका नैतिक कर्तव्य है।
यह बात गौरतलब है कि भारत में हमेशा से कुल मतदान का आधे से अधिक प्रतिशत मत विपक्षी दलों के पास रहा, लेकिन खण्ड-खण्ड में विभाजित होने के कारण विपक्ष की आवाज नकारी जाती रही है।  हाल के दशकों में क्षेत्रीय छत्रपों के बढ़ते प्रभाव व रुतबे के चलते छोटे-छोटे दल भी बड़ा खेल करने की स्थिति में आ गए हैं। इस प्रवृत्ति के चलते राष्ट्रीय दल इन क्षेत्रीय दलों के साथ तालमेल को मजबूर होते जा रहे हैं। छोटे दायरे में सिकुड़ते चले जाने के कारण केन्द्रीकृत विपक्ष की ताकत व समग्रता में भारी कमी आने लगी है। इसके साथ ही राजनीतिक चिंतन एवं वैचारिक विचलन के कारण देश की राजनीति में एक संगठित एवं सशक्त विपक्ष आकार नहीं ले पा रहा है।
एक सशक्त विपक्ष की भूमिका के अभाव में भारतीय लोकतंत्र में विपक्ष शून्यता की स्थिति पैदा हो गई है। देश के प्रमुख विपक्षी दलों, विशेष कर कांग्रेस को भविष्य में न केवल अनेकों चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है बल्कि उन्हें मौजूदा राजनीति में इस शून्यता को भरने का समाधान भी ढूंढना होगा। एक सशक्त विपक्ष के रूप में खुद को साबित करना ही दरअसल जनता का विश्वास हासिल करने की कुंजी है। अपने पुराने ढर्रे पर सियासत करने वाली राजनैतिक पार्टियां विपक्षी दल के विकल्प के तौर पर देश की मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में बदलते हुए भारत के युवा वर्ग की आकांक्षाओं पर कितना खरा उतरेगी उसी में लोकतंत्र की मजबूती निर्भर करेगी। 
(देशबन्धु में 30 अगस्त 2019 को प्रकाशित)

Sunday, August 18, 2019

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का आरक्षण कार्ड ---जीवेश चौबे

आजादी के दिन छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अन्य पिछड़े वर्ग का आरक्षण कोटा बढाकर    साधने का प्रयास किया है । विगत कई वर्षों से छत्तीसगढ़ का अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण में अपनी भागीदारी बढ़ाने को लेकर संघर्षरत था । विदित हो कि छत्तीसगढ़ राज्य में अब तक एसटी को 32, एससी को 12 और ओबीसी को 14 फीसदी आरक्षण मिल रहा था। भूपेश बघेल की घोषणा के बाद अब क्रमश: 32, 13 और 27 फीसदी हो जाएगा ।  यानी इस फैसले से सबसे अधिक फायदा ओबीसी को मिला है, जिसके कोटे में करीब दोगुना बढ़ोतरी की गई है । छत्तीसगढ़ में आबादी के हिसाब से आरक्षण की मांग को लेकर अपनी लड़ाई लड़ रहा अन्य पिछडा वर्ग इस घोषणा से कितना संतुष्ट होगा ये वक्त ही बताएगा क्योंकि कई संगठन इसे कम ही बता रहे हैं ।  
छत्तीसगढ़ में अनुसूचित जाति की जनसंख्या लगभग 13 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या 30 प्रतिशत तथा अन्य पिछड़ा वर्ग  की आबादी लगभग 47 प्रतिशत है मुख्यमंत्री की घोषणा के मुताबिक अनुसूचित जाति व जनजाति को तो आबादी के अनुपात के मुताबिक आरक्षण मिल जाएगा मगर अन्य पिछड़ा वर्ग अभी भी अपने अनुपात के मुताबिक आरक्षण नहीं पा सका है । नई घोषणा के अनुसार इसे 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा हालांकि अन्य पिछड़ा वर्ग के कोटे को पूर्व से लगभग दोगुना कर दिया गया है मगर अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी के अनुपात से देखा जाए तो यह आधा ही है ।
उल्लेखनीय है  कि  2012 में तत्कालीन रमन सरकार ने   आरक्षण नीति में बदलाव करते हुए अधिसूचना जारी की थी, इसके तहत अनुसूचित जनजाति वर्ग को 32 फीसदी, अनुसूचित जाति वर्ग को 12 फीसदी और अन्य पिछड़ा वर्ग को 14 फीसदी आरक्षण देना तय किया गया था  जिससे कुल आरक्षण 58 फीसदी हो गया था   विगत 15 अगस्त को भूपेश बघेल  की घोषणा के बाद अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण अब 58 से बढ़ाकर 72 फीसदी कर दिया गया है । हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तक सीमित रखने का आदेश दे रखा है मगर  आज सत्ता प्रधान राजनीति के  दौर में  आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तक सीमित रखने का मुद्दा जटिल है ऐसा नहीं है कि राज्यों ने 50 फीसदी की सीमा पार न की होहरियाणा, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में यह स्थिति लागू है   रमन सरकार के 58 फीसदी आरक्षण देने संबंधी निर्णय को 2012 में ही  चुनौती दी गई  ये आज तक  कोर्ट में सुनवाई हेतु लंबित हैं । भूपेश बघेल के इस फैसले को अदालत में चुनौती देने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि विगत दिनो मध्य प्रदेश की कमलनाथ  सरकार द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग का आरक्षण कोटा 27 प्रतिशत किए जाने पर मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने रोक लगा दी है। दूसरी ओर  संविधान के अनुच्छेद 15 (4) के अनुसार राज्य को यह अधिकार है कि अगर वह चाहे, तो अनुसूचित जनजाति के लिए विशेष प्रावधान कर सकता है. अनुच्छेद 16 (4) में कहा गया है कि यदि राज्य चाहे तो सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व के लिए आरक्षण ला सकता है
  
एक सवाल ये है कि  शहरी आबादी पर इस घोषणा का क्या असर होगा ?  छत्तीसगढ़  की कुल आबादी का लगभग 25 प्रतिशत शहर में रहता हैं शेष 75 प्रतिशत गांवों और कस्बों में हैं । अतः ये तो स्पष्ट है कि मुख्यमंत्री का सारा फोकस ग्रामीण आबादी पर है। इस बात पर भी गौर करना ज़रूरी है कि  शहरी आबादी में भी अन्य पिछड़ा वर्ग की बहुलता है जिसका फायदा भी उन्हें मिल सकता है । इसके साथ साथ यह भी समझना होगा कि ग्राम, नगर व जिला पंचायत के साथ ही नगरीय निकायों के निगम, पालिका  चुनावों में भी आबादी के मुताबिक जनप्रतिनिधयों के लिए आरक्षण का प्रावधान है । निश्चित रूप से इस घोषणा का असर मतदाताओं में देखने को मिल सकता है  । वैसे भी   छत्तीसगढ़ में  सामान्य वर्ग की जनसंख्या  महज 8  फीसदी के लगभग ही है  । इसमें ब्राह्मण 5 फीसदी, राजपूत 2.5 फीसदी और बनिया 0.5 फीसदी हैं । अतः सामान्य वर्ग के आक्रोश या  प्रतिक्रिया को ज्यादा तवज्जो देने की कोई मजबूरी नहीं रह जाती है । थोड़ा बहुत असंतोष उभरने पर तुष्टिकरण के लिए प्रदेश सरकार  निकट भविष्य में आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णो को साधने के लिए  केन्द्र द्वारा घोषित 10 प्रतिशत आरक्षण को भी लागू कर सकती है । प्रारंभ में  भूपेश बघेल ने सत्ता संभालते ही केन्द्र द्वारा घोषित सवर्ण आरक्षण के प्रति  अपनी प्रतिबद्धता जाहिर कर चुके हैं।
यहां एक  बात पर गौर करना जरूरी हो जाता है कि यदि  सवर्ण गरीबों के लिए भी  10 प्रतिशत आरक्षण  लागू कर दिया जाता है तो  प्रदेश में आरक्षण का कुल प्रतिशत 82 हो जाएगा । इन परिस्थितियों में छत्तीसगढ़ की इस नीति पर क्या संवैधानिक व राजनैतिक प्रतिक्रिया सामने आएगी ये देखना होगा ,यह भी देखना होगा कि सरकार रोजगार सृजन के प्रति कितनी गंभीर है । आरक्षण का लाभ तो आखिरकार रोजगार की उपलब्धता पर ही निर्भर करता है । इन सब प्रश्नो पर जनता व खासकर युवा वर्ग को सोचना विचारना होगा । आज के दौर में यह समझना ज्यादा मुश्किल नहीं रह गया है कि मुख्यमंत्री ने ये दांव क्यों चला । मतदाता पत्र बनाने की उम्र का हर व्यक्ति जानता है कि निकट भविष्य में प्रदेश में निकाय चुनाव हैं और लोकसभा चुनाव में बुरी कदर पटखनी खा चुकी कॉंग्रेस अपनी साख बचाने के लिए सभी दांव आजमाएगी । पिछड़े वर्ग को दिया गया यह तोहफा उसी मिशन को हासिल करने की दिशा में उठाया गया कदम है । मुख्यमंत्री के इस निर्णय का कॉंग्रेस को आने वाले निकाय चुनावों में कितना और किस रूप में फायदा होगा इसका आकलन चुनाव के पश्चात ही किया जा सकेगा मगर फिलहाल भूपेश बघेल का यह दांव आगामी निकाय चुनावों के लिए कॉंग्रेस के लिए शुरुवाती बढ़त माना जा सकता है

जीवेश चौबे   
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में समसामयिक विषयों पर लेख, कहानी कविताएं  प्रकाशित
प्रकाशक संपादक - विकल्प विमर्श एवं उप संपादक साहित्यिक पत्रिका  "अकार"
ई मेल: jeeveshprabhakar@gmail.com


Friday, August 9, 2019

कश्मीरियत न खो जाए कहीं इस जश्न में ---जीवेश चौबे-

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था , भारत की एकता भावनात्मक एकता में ही नीहित है। अब जबकि कश्मीर से 370 की दो उप धाराएं खत्म हो चुकी हैं और कश्मीर के सारे विशेषाधिकार खत्म हो चुके हैं इस बात पर ग़ौर करना जरूरी हो जाता है कि इसमें कश्मीरी अवाम का मन या सहमति कहां है । गौरतलब है कि मुख्य रूप से  370 को समाप्त करने के लिए संविधान सभा के माध्यम से कश्मीरी अवाम की भूमिका को महत्वपूर्ण बनाकर उनकी सहमति व जनमत की भूमिका सुनिश्चित की गई थी ।  एक ओर जहां कश्मीर के सभी शीर्ष नेता नज़रबंद हैं वहीं  पूरे प्रदेश में कर्फ्यू लगाकर अवाम की आवाज़ को भी संगीनों के साए में दबा कर रख दिया गया है । इसे  संवैधानिक प्रावधानो को बुरी तरह कुचलकर दस्तावेजी हेरफेर व धोखेबाजी कर कश्मीर को हड़प लिया गया कहना बेहतर होगा । कश्मीर में जो हुआ उसमें जन गायब है, जन मन ग़ैरहाज़िर है   जैसे किसी पंचायत में समर्थ और बाहुबली किसी असहाय का हुक्कापानी बंद कर उसकी कीमती जमीन हड़प लें उसी तरह देश की सबसे बड़ी पंचायत ने कश्मीर को हड़प लिया । आपने कश्मीर की ज़मीन पर तो कब्जा कर लिया मगर कश्मीरी अवाम का दिल जीतकर आपसी विश्वास का पुल बनाने की बजाय  नफरत की एक लम्बी खाई खोद दी जिसे पाट पाना बहुत मुश्किल होगा ।
जब अंग्रेज देश की तमाम रियासतों को आजाद कर गए थे और संविलन के लिए स्वतंत्र कर दिया था ।इतिहासकार रामचंद गुहा की किताब इंडिया आफ्टर गांधी में बताया गया है कि आज़ादी से दो हफ्ते पहले लॉर्ड माउंटबेटन ने राजाओं और नवाबों को  आधिकारिक संबोधन में इंडिया इंडिपेंडेंस एक्टके पारित होने की जानकारी देते हुए कहा कि अब उनकी ब्रिटेन की महारानी के प्रति वफ़ादारी ख़त्म होती है और अब वे अपने और अपनी रियाया के भविष्य के लिए ख़ुद ज़िम्मेदार रहेंगे । इसके साथ ही माउंटबेटेन ने एक प्रकार से उन्हें चेतावनी देते हुए कहा था कि  मगर आप आज़ाद रहने का खवाब न देखें, यदि आप हिंदुस्तान में विलय को स्वीकार करते हैं, तो मैं कांग्रेस की निर्वाचित सरकार से आपके लिए कुछ बेहतर शर्तों मनवाने की कोशिश करूंगा । इसका असर यह हुआ कि 15 अगस्त 1947 आते-आते अधिकांश राजाओं और नवाबों ने विलय की संधि पर दस्तख़त कर दिए , फिर भी कुछ बड़े राज्य जैसे कश्मीर, जूनागढ़, हैदराबाद  आज़ाद रहने का ख़्वाब पाल रहे थे । 
उन परिस्थितियों में सरदार पटेल और जवाहर लाल नेहरू ने और मिलकर ही संघीय भारत की परिकल्पना को अंजाम दिया था । ये नेहरू ही थे जिन्होंने दलगत भावना, राजनैतिक वैचारिक मतभेदों से ऊपर उठकर देश की  संविधान सभा में सभी को शामिल किया। जो नेहरू पटेल आंबेडकर के बीच संबंधों को जानबूझकर कटु सिद्ध कर जनता को गुमराह करने की कोशिश करते हैं वो अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए देश की जनता में भ्रम फैला रहे हैं। आज संसद हो या सड़क सब ओर नेहरू, पटेल, आंबेडकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी या उस दौर के नेताओं पर अपनी सुविधानुसार आरोप प्रत्यारोप कर ताजा हालात से आम जन को बेखबर रखने की कोशिश कर रहे हैं । आजादी के वक्त जिन रियासतों ने भारत में विलय से बचना चहा उन्हें शामिल करने रणनीति व दबाव का भी सहारा लिया गया । यह मगर वहां की जनता की मंशा और सहयोग के चलते ही संभव हो पाया । गौ़रतलब है कि जूनागढ़  में तो जनमत भी कराया गया । जूनागढ़ का नवाब  पाकिस्तान में शामिल होना चाहता था मगर अवाम भारत के पक्ष में थी । अततः  जनमत का सहारा लिया गया और जनता ने प्रचंड बहुमत से  भारत के साथ विलय के पक्ष में मत किया ।
ऐसा भी नहीं है कि 1947 के बाद  भारत में किसी राज्यों का विलय नहीं किया गया हो मगर उनमें हमेशा वहां की जनता की सहमति व इच्छा को प्राथमिकता दी गई । इसमें गोवा का भारत में विलय एक नजीर की तरह देखा जा सकता है ।  गोवा को भारत में शामिल करने के लिए के लिए तो बाकायदा एक लम्बा जनसंघर्ष चला और लोगों ने कुर्बानियां भी दीं तब जाकर आज़ादी के लगभग दो दशक बाद जनमत को अपने पक्ष में करके ही गोवा को भारत का अभिन्न अंग बनाया गया । यह भी समझना होगा कि आजादी के 28 बरस बाद 1975 में सिक्किम के  सामरिक महत्व को देखते हुए पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रणनीति के तहत आजाद सिक्किम को भारत के साथ विलय किया । । इसमें भी सिक्किम के जनमत की  भूमिका ही अहम रही । हालांकि सिक्किम के भारत के साथ विलय में राजनयिकों के साथ साथ भारत की ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ ने भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई मगर अपनी बेहतरीन कूटनीति के बल पर इंदिरा गांधी ने सिक्किम की जनता को राजा के खिलाफ कर  अपने पक्ष में किया । जिससे जनमत संग्रह में सिक्किम की लगभग 98 प्रतिशत जनता ने भारत के साथ विलय को पसंद किया और सिक्किम को  भारत का अंग बना लिया गया
          एनडीए सरकार के मंत्री कह रहे हैं कि उन्होने नेहरू की 370 को लेकर घिसते घिसते घिस जाने वाली  मंशा को ही मूर्तरूप दिया है , मगर क्या नेहरू अपनी मंशा को इस तरह पूरी होते देखना चाहते थे ?  निश्चित रूप से नहीं । नेहरू का आशय कश्मीर और भारत के अवाम की आपस में भवनात्मक एकता से था जिसे गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ने पूरे भारत के परिप्रक्ष्य में कहा था । यदि इन वर्षों में ऐसा हो पाता तो धारा 370 खत्म करने में कश्मीर की जनता सबसे आगे होती और पूरे देश के साथ जश्न मनाती । आज कश्मीरी अवाम जिसका  370 से सबसे गहरा ताल्लुक है इस ऐतिहासिक फैसले से अवाक है ।
अहम सवाल ये है कि 370 हटा देने के पश्चात क्या कश्मीरी अवाम की मूलभूत समस्याएं दूर हो जायेंगी ? क्या वहां का आम आदमी घाटी में बरसों से चली आ रही हिंसा और आतंक से निजात पा सकेगा ।  सरकार  इस मसले पर कश्मीरी अवाम को केन्द्र सरकार पर भरोसा करने की बात कर रही है जो ऐसे हालात में काफी मुश्किल लगता है । जब आप इतने बड़े और अहम फैसले के वक्त कश्मीरी अवाम को ही भरोसे में नहीं ले पा रहे हैं तो कश्मीर का अवाम आप पर कैसे भरोसा कर सकता है । अवाम का भरोसा हासिल किया जाता है न कि मांगा जाता है । यानि आपकी नीति व नीयत में फर्क हो तो अवाम आप पर भरोसा नहीं कर सकता । क्यों आज सरकार कश्मीरी अवाम को साथ ले पाने में कामयाब नहीं हो पाई । यह एक गंभीर प्रश्न है । पिछले तीन दशकों में कश्मीरी अवाम में हिन्दस्तान के प्रति लगातार गुस्सा व अविश्वास बढ़ता गया है और किसी भी सरकार ने इस पर सहानुभूति या गंभीरता से कोई नीति नहीं बनाई । इसके उलट हर सरकार ने कश्मीरी अवाम को सिर्फ सेना के बल पर काबू में करने का प्रयास किया है। यह बात भी समझनी होगी कि जितना सेना का दखल बढ़ा उतना ही अवाम का आक्रोश भी बढ़ता गया ।
  विगत वर्षों पर ग़ौर किया जाए तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि 370 काफी हद तक कमजोर हो चुकी थी मगर सबको जो परेशानी थी वो 35अ से थी, विशेष रूप से उन भूमाफियाओं को और कॉर्पोरेट को जो जन्नत को जहन्नुम बनाने के लिए बेताब हुए जा रहे हैं । आज संगीनो के साए में कश्मीरी अवाम कैद है मगर इसे बहुत दिन दबाया नहीं जा सकता है । दूसरी ओर अलगाववादी ताकतें इस फैसले को लेकर अपने मंसूबों को पूरा करने कश्मीरी अवाम को भड़काने की पूरी कोशिश करेंगे । भविष्य में इन फिरकापरस्त और आतंकी संगठनों से निपटने के लिए देशभर से ज्यादा कश्मीरी जनमानस को अपने भरोसे में लेना होगा जो  सरकार के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है । इस चुनौती पर तभी खरा उतर पायेंगे जब  हम कश्मीरी अवाम को भावनात्मक रूप से पूरे देश के साथ जोड़  सकेंगे ।

(देशबंधु में 9 अगस्त 2019 को प्रकाशित)

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