Wednesday, February 21, 2018

रायपुर स्मृतियों के झरोखे से- 10- - प्रभाकर चौबे

        रायपुर शहर एक छोटे से कस्बे से धीरे धीरे आज छत्तीसगढ़ की राजधानी के रूप में लगातार विकसित हो रहा है । इत्तेफाक ये भी है कि इस वर्ष हम अपने नगर की पालिका का150 वॉ वर्ष भी मना रहे हैं ।
         हमारी पीढ़ी अपने शहर के पुराने दौर के बारे में लगभग अनभिज्ञ से हैं । वो दौर वो ज़माना जानने की उत्सुकता और या कहें नॉस्टेलजिया सा सभी को है । कुछ कुछ इधर उधर पढ़ने को मिल जाता है। सबसे दुखद यह है कि कुछ भी मुकम्मल तौर पर नहीं मिलता। 
        बड़े बुज़ुर्गों की यादों में एक अलग सा सुकूनभरा वो कस्बा ए रायपुर अभी भी जिंदा है । ज़रा सा छेड़ो तो यादों के झरोखे खुल जाते हैं और वे उन झरोखों से अपनी बीते हुए दिनों में घूमने निकल पड़ते हैं। इस यात्रा में हम आप भी उनके सहयात्री बनकर उस गुज़रे जमाने की सैर कर सकते हैं।
   इसी बात को ध्यान में रखकर हम अपने शहर रायपुर को अपने बुज़ुर्गों की यादों के झरोखे से जानने का प्रयास कर रहे हैं । इस महती काम के लिए छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रभाकर चौबे अपनी यादों को हमारे साथ साझा करने राजी हुए हैं । वे  रायपुर से जुड़ी अपनी स्मृतियों को साझा कर रहे हैं । एक बात स्पष्ट करना जरूरी है कि ये कोई रायपुर का अकादमिक इतिहास नहीं है ये स्मृतियां हैं । जैसा श्री प्रभाकर चौबे जी ने रायपुर को जिया । एक जिंदा शहर में गुज़रे वो दिन और उन दिनों से जुड़े कुछ लोगघटनाएंभूगोलसमाज व कुछ कुछ राजनीति की यादें ।  और इस तरह गुजश्ता ज़माने की यादगार तस्वीरें जो शायद हमें हमारे अतीत का अहसास कराए और वर्तमान को बेहतर बनाने में कुछ मदद कर सके।
        आपकी प्रतिक्रियाओं और सुझावों का भी स्वागत रहेगा।
जीवेश प्रभाकर
अपनी बात
        मन हुआ रायपुर पर लिखा जाए - बहुत पहले देशबन्धु का साप्ताहिक संस्करण भोपाल से प्रकाशित हो रहा था तब 12 कड़ियों में रायपुर पर लिखा थाखो गया । पुन: कोशिश कर रहा हूँ - इसमें कुछ छूट रहा हो तो पाठक जोड़ने का काम कर सकते हैं । रायपुर के बारे में  एक जगह जानकारी देने का मन है - अपना रायपुर पहले क्या कैसा रहा ...।   
-प्रभाकर चौबे
                                                                
रायपुर स्मृतियों के झरोखे से- 10
उन दिनों भर्रु से लिखने के दिन तो चले गए थे लेकिन फाऊंटेन पेन से लिखने का रिवाज़
आया नहीं था । होल्डर में निब लगाकर लिखा जाता था । एच.बी. निब सबसे अच्छी निब मानी जाती थी । 1946 में एक पैसे में दो एच.बी. निब, मिलती थी। पीतल की व एक अन्य मैटल की लम्बी निब भी मिलती थी। एक पैसे में स्याही की दो टिकिया मिलती थी जिसे दवात में घोलकर रखा जाता था और निब डुबोकर लिखा जाता था । स्याही सोख रखना जरुरी सा था । स्कूलों के डेस्क में मैटल के बने तीन दवात ठोक दिये जाते थे - स्कूल लगने से पूर्व स्कूल का चपरासी उनमें स्याही भरता था । स्याही सूख गई या खत्म हो गई तो चपरासी को कहने पर वह पुन: भर देता था । उन दिनों किसी भी स्कूली छात्र के पास फाउंटेन पेन नहीं होता - अफिसों में भी होल्डर से ही लिखा जाता ।
1945-47 में कागज को खोंसने के लिये लोहे के तार के पिन की कमी हुई (हो सकता है उन दिनों आज़ादी के आधाधापी के कारण पिन का बनाना बंद हो या और कोई कारण) लेकिन दफ्तरों में स्टील के पिन की सप्लाई बंद थी तो उसका विकल्प यह बतलाया गया कि कागजों को बबूल के कांटे से खोंचा जाए और दफ्तरों में बबूल के कांटों की खरीदी शुरु हुई । हर दफ्तर में बबूल के कांटे में कागज खांचे जाने लगे ।
उन दिनों स्कूलों में प्रतिवर्ष दिसम्बर माह की किसी तारीख को शिक्षा अधिकारियों का इंक्सपेक्शन अनिवार्य रूप से होता । इंक्पेक्शन के पहले दिन कक्षा को अच्छा सजाया जाता । कभी-कभी क्लास रुम में प्रवेश की शिक्षा अधिकारी किसी छात्र से कोई प्रश्न पूछ लेता । तीन दिन चलता इंक्सपेक्शन । मिडिल स्कूल का इंक्सपेक्शन जिला शिक्षा अधिकारी करते और हाई स्कूल का डी.एस.ई. (डिवीजन सुप्रिटेंडेंट ऑफ एजुकेशन ) उस समय छत्तीसगढ़ डिवीजन के डी.एस.ई. लाला दीनानाथ जी थे खूब गोरे, ऊँचे पूरे दबंग। वे टुर्नामेंट के लिए मैदान में घुसकर लाईन डालने में  मदद भी करते - ऐसा कहा जाता कि अपने समय के बढ़िया हाकी खिलाड़ी थे । कुछ सालों के लिये किसी स्कूल को सुव्यवस्थित करने वहाँ हेडमास्टर होकर चले गए - फिर रायपुर आए । जिला शिक्षा अधिकारी श्री गोरे थे - वे भी खूब गोरे थे और कड़क थे । एक श्री पुरोहित थे - ए.डी.आई.एस.। हमारे हेडमास्टर शर्मा सर बीच-बीच में स्कूल का राऊँड लगाते, कोई छात्र पढ़ाई के समय बाहर दिखता तो टोकते - कहाँ गए थे...सर पेशाब करने ......क्यों ? पानी पेशाब की छुट्टी मिलती है, काहे के लिये मिलती है । कल से तुम पानी-पेशाब की छुट्टी में क्लास में रहोगे .... । इतने कड़क.... इसलिए छात्र क्लास के समय बाहर निकलने से डरते थे ।
उन दिनों भी छात्र आपस में एक-दूसरे से अजीब-से सवाल पूछकर परीक्षा -सा लेते जैसे- इफ यदि इज है, बट परन्तु वाट क्या ? सामने वाला चकरा जाए । औरंगजेब का अंग्रेजी में अनुवाद करो....नहीं कर सकते तो सुनो - औरंगजेब - एंड कलर पॉकेट । सनलाईट सोप का हिन्दी करो ...सूर्य प्रकाश साबुन । अंग्रेजी पढ़ाने वाले एक शिक्षक थे मिस्टर गाडलिब । वे अंग्रेजी पिरियेड में अंग्रेजी बोलने कहा करते ।
एक मजाक चला था यह कि एक दिन बरसात में एक बालक स्कूल नहीं आया । सर ने दूसरे दिन क्लास में उसे देखकर पूछा व्हाय डिड यू नाट कम यस्टर डे ...  छात्र ने उत्तर दिया इट वाज रेनिंग झम-झमा-झम बगल में बस्ता लिए दो-दो हम । लेग फिसल गया गिर गए हम सो माई डियर सर आई कुड नाट कम ....
ग्रामर पर बहुत ध्यान दिया जाता।अंग्रेजी के तीन पेपर होते -पहला टेक्स बुक सम्बन्धी ( प्रोज-पोयट्री) दूसरा अनसीन पेजेस व व्याकरण का तथा तीसरा 25 नम्बर का पेपर निबंध का ... हमारे एक शिक्षक थे श्री आर.आर दुबे, वे ग्रामर पर जोर देते उन्हें ग्रामर का कीड़ा कहा जाता ।
उन दिनों एक कक्षा में पैतीस छात्र रखने का नियम था और इसका कड़ाई से पालन किया जाता था - स्कूल में खेल का मैदान होना जरुरी था और कमरों के लम्बाई चौड़ाई के नियम थे - खिड़कियाँ कितनी और किस साइज की होगी यहभी तय था - पुराने स्कूल इसी मापदंड के मिलेंगे। भेड़ बकरी की तरह क्लास में ठूसने का काम बाद में होता गया ... ।

जारी.....

Monday, February 12, 2018

रायपुर स्मृतियों के झरोखे से- 9- - प्रभाकर चौबे

        रायपुर शहर एक छोटे से कस्बे से धीरे धीरे आज छत्तीसगढ़ की राजधानी के रूप में लगातार विकसित हो रहा है । इत्तेफाक ये भी है कि इस वर्ष हम अपने नगर की पालिका का150 वॉ वर्ष भी मना रहे हैं ।
         हमारी पीढ़ी अपने शहर के पुराने दौर के बारे में लगभग अनभिज्ञ से हैं । वो दौर वो ज़माना जानने की उत्सुकता और या कहें नॉस्टेलजिया सा सभी को है । कुछ कुछ इधर उधर पढ़ने को मिल जाता है। सबसे दुखद यह है कि कुछ भी मुकम्मल तौर पर नहीं मिलता। 
        बड़े बुज़ुर्गों की यादों में एक अलग सा सुकूनभरा वो कस्बा ए रायपुर अभी भी जिंदा है । ज़रा सा छेड़ो तो यादों के झरोखे खुल जाते हैं और वे उन झरोखों से अपनी बीते हुए दिनों में घूमने निकल पड़ते हैं। इस यात्रा में हम आप भी उनके सहयात्री बनकर उस गुज़रे जमाने की सैर कर सकते हैं।
   इसी बात को ध्यान में रखकर हम अपने शहर रायपुर को अपने बुज़ुर्गों की यादों के झरोखे से जानने का प्रयास कर रहे हैं । इस महती काम के लिए छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रभाकर चौबे अपनी यादों को हमारे साथ साझा करने राजी हुए हैं । वे  रायपुर से जुड़ी अपनी स्मृतियों को साझा कर रहे हैं । एक बात स्पष्ट करना जरूरी है कि ये कोई रायपुर का अकादमिक इतिहास नहीं है ये स्मृतियां हैं । जैसा श्री प्रभाकर चौबे जी ने रायपुर को जिया । एक जिंदा शहर में गुज़रे वो दिन और उन दिनों से जुड़े कुछ लोगघटनाएंभूगोलसमाज व कुछ कुछ राजनीति की यादें ।  और इस तरह गुजश्ता ज़माने की यादगार तस्वीरें जो शायद हमें हमारे अतीत का अहसास कराए और वर्तमान को बेहतर बनाने में कुछ मदद कर सके।
        आपकी प्रतिक्रियाओं और सुझावों का भी स्वागत रहेगा।
जीवेश प्रभाकर

अपनी बात

        मन हुआ रायपुर पर लिखा जाए - बहुत पहले देशबन्धु का साप्ताहिक संस्करण भोपाल से प्रकाशित हो रहा था तब 12 कड़ियों में रायपुर पर लिखा थाखो गया । पुन: कोशिश कर रहा हूँ - इसमें कुछ छूट रहा हो तो पाठक जोड़ने का काम कर सकते हैं । रायपुर के बारे में  एक जगह जानकारी देने का मन है - अपना रायपुर पहले क्या कैसा रहा ...।   
-प्रभाकर चौबे

                                                                
रायपुर स्मृतियों के झरोखे से- 9
सीपी एंड बरार.... मध्यप्रदेश उन दिनों इसी नाम का प्रदेश था । इसके प्रथम मुख्यमंत्री मतलब अंतरिम सरकार के मुख्य मंत्री पं. रविशंकर शुक्ल के जन्म दिन पर कांग्रेस भवन के गाँधी चौक (मैदान) में एक बड़ी सभी हुई थी । इसमें स्कूली बच्चे भी शामिल थे । उस दिन खूब वर्षा हो रही थी । पं. रविशंकर शुक्ल का नगरिक सम्मान किया गया था, हम छोटे थे कौतुहल से सब देख रहे थे ।
मैंने तब पहली बार पं. रविशंकर शुक्ल जी को देखा - मुझे पता नहीं था कि वे प्रेदेश के मुख्यमंत्री हैं - स्कूल के बच्चों को बुलाया गया था , सो मैं भी उनमें शामिल था । लेकिन मुझे उनका यह कथन याद है कि देश जल्द आजाद हो जाएगा ... ।
उन दिनों स्कूल खुलते ही हैजे का टीका लगवाना अनिवार्य था - स्कूल -स्कूल टीका लगाने वाले आते । नगरपालिका की ओर से मुनादी कराई जाती थी .....  नागरिक कांकाली अस्पताल, काली बाड़ी चौक स्थित आईसोलेशन अस्पताल में जाकर हैजा का टीका लगा लें । यह भी मुनादी की जाती कि सड़े गले फल न खाये..... बासा अन्न ग्रहण न करें ....... मक्खियां ना होने दें ... 1
1946 में हैजा फैला । स्कूल के बच्चों की टोली लेकर पालिका के कर्मचारी फ्रूट मार्केट जाते और बच्चों से कहते कि सड़े-गले फल पैरों से रौंद डालो...बड़ा मजा आता । बच्चे अच्छे फल भी पैरों से रौंदने लगते दुकान वाला अरे अरे अरे करते रह जाता । पानी को उबाल कर पीने की हिदायद भी दी जाती । उस साल हैजा के कारण 10 दिनों के लिए जुलाई में विद्यालय बंद कर दिए गए थे । एक दहशत का वातावरण था । हैजा पर जल्दी काबू पा लिया गया .. लेकिन बाद में भी कुछ सालों तक जुलाई माह में हजा का टीका स्कूली बच्चों को लगाया जाता रहा
1946 में दिसम्बर माह में राजनांदगाँव में डिविजन स्कूल टूर्नामैंट हुआ - तीन दिनों का होता था यह टुर्नामेंट। हर साल अलग अलग जगह पर होता 1945 को रायपुर में हुआ था । मेरा हड्रेड यार्ड्स दौड़ में सिलेक्शन हुआ था और मेरे मित्र सुरेश (बाद में सुरेश देशलहरा छत्तीसगढ़ कॉलेज, रायपुर के प्राचार्य हुए) का सिलेक्शन 200 गज की दौड़ के लिये हुआ था सुरेश प्रथम आया मैं सफल नहीं हो सका था । हमारे स्कूल टीम चैम्पियन बनी इसमें एक छात्र बाबूराव अंतिम  दौड़ में एक्सपर्ट था - तेज दौड़ता । हमारे शिक्षक, श्री पाद्धे सर, स्कूल के प्लेयर छात्रों से रोज पूछते कि रेगुलर दौड़ रहे हो न ... । वे बड़ी रूचि लेते ।
रायपुर स्थित नार्मल स्कूल कबड्डबी और रस्सा खींच में हर साल चैम्पियन बनती । रायपुर तथा अन्य शहरों के लिए भी प्राथमिक विद्यालय स्तर के स्कूल टुर्नामेंट होते  - गुरुजी अपने बच्चों को तैयार कराते - अमीनपारा व बूढ़ापारा प्राथमिक स्कूल का उन दिनों स्कूली टुर्नामेंट में दबदबा था उन दोनों में से कोई एक चैम्पियन ट्राफी जीतती.... जो टीम चैम्पियन बनती  उसे यह प्रदान की जाती । बाद में चौबे कॉलोनी स्कूल लगातार इस पर कब्जा करती रही पता नहीं अब शील्ड कहां है, किस स्थिति में है। यह शील्ड खूब बड़ी थी । 
1946 में घरों में महंगाई की चर्चा होने लगी - अनाज महंगा हुआ था - पहले बीड़ी का कट्टा एक पैसा था वह दो पैसा हो गया - घोड़ा छाप माचिस की कीमत भी बढ़ी थी - दूध और घी भी महंगे हुए थे - परमसुख धोती की कीमत आठ आने बढ़ी थी - घरों में मंहगांई पर चर्चा होने लगी  थी । राशन का सामान समय पर मिलता नहीं था। लम्बी-लम्बी लाईन लगने लगी थी - स्कूल से आते ही बच्चों को राशन के लाईन में खड़ा होने भेजा जाने लगा था ।
उसी साल शहर में किसी कम्पनी ने मुफ्त में बनी चाय बांटने का काम शुरु किया - मोहल्ले के नुक्कड़ पर चाय का ठेला खड़ा होता । जितना चाय पीना हो वह बर्तन में डाल देता था । लगभग आठ नौ माह यह सिलसिला चला फिर बंद हो गया .. लोगों को चाय की लत हो गई - चाय का पेकेट खरीदकर घर में चाय बनाने लगे और इस तरह घर-घर चाय आई, लेकिन बच्चों को चाय नहीं दी जाती थी ... ।
एक रोचक बात यह कि स्कूलों में प्रतिवर्ष पुराने सामान जैसे फुटबाल, हॉकी स्टिक, रेकेट आदि की नीलामी की जाती ... जरा भी अच्छा हो तो बच्चे एकाध सामान खरीद लेते - जरा सुधराकर उससे खेलते ।

....जारी....

Tuesday, February 6, 2018

रायपुर स्मृतियों के झरोखे से- 8- - प्रभाकर चौबे

        रायपुर शहर एक छोटे से कस्बे से धीरे धीरे आज छत्तीसगढ़ की राजधानी के रूप में लगातार विकसित हो रहा है । इत्तेफाक ये भी है कि इस वर्ष हम अपने नगर की पालिका का150 वॉ वर्ष भी मना रहे हैं ।
         हमारी पीढ़ी अपने शहर के पुराने दौर के बारे में लगभग अनभिज्ञ से हैं । वो दौर वो ज़माना जानने की उत्सुकता और या कहें नॉस्टेलजिया सा सभी को है । कुछ कुछ इधर उधर पढ़ने को मिल जाता है। सबसे दुखद यह है कि कुछ भी मुकम्मल तौर पर नहीं मिलता। 
        बड़े बुज़ुर्गों की यादों में एक अलग सा सुकूनभरा वो कस्बा ए रायपुर अभी भी जिंदा है । ज़रा सा छेड़ो तो यादों के झरोखे खुल जाते हैं और वे उन झरोखों से अपनी बीते हुए दिनों में घूमने निकल पड़ते हैं। इस यात्रा में हम आप भी उनके सहयात्री बनकर उस गुज़रे जमाने की सैर कर सकते हैं।
   इसी बात को ध्यान में रखकर हम अपने शहर रायपुर को अपने बुज़ुर्गों की यादों के झरोखे से जानने का प्रयास कर रहे हैं । इस महती काम के लिए छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रभाकर चौबे अपनी यादों को हमारे साथ साझा करने राजी हुए हैं । वे  रायपुर से जुड़ी अपनी स्मृतियों को साझा कर रहे हैं । एक बात स्पष्ट करना जरूरी है कि ये कोई रायपुर का अकादमिक इतिहास नहीं है ये स्मृतियां हैं । जैसा श्री प्रभाकर चौबे जी ने रायपुर को जिया । एक जिंदा शहर में गुज़रे वो दिन और उन दिनों से जुड़े कुछ लोगघटनाएंभूगोलसमाज व कुछ कुछ राजनीति की यादें ।  और इस तरह गुजश्ता ज़माने की यादगार तस्वीरें जो शायद हमें हमारे अतीत का अहसास कराए और वर्तमान को बेहतर बनाने में कुछ मदद कर सके।
        आपकी प्रतिक्रियाओं और सुझावों का भी स्वागत रहेगा।
जीवेश प्रभाकर

अपनी बात

        मन हुआ रायपुर पर लिखा जाए - बहुत पहले देशबन्धु का साप्ताहिक संस्करण भोपाल से प्रकाशित हो रहा था तब 12 कड़ियों में रायपुर पर लिखा थाखो गया । पुन: कोशिश कर रहा हूँ - इसमें कुछ छूट रहा हो तो पाठक जोड़ने का काम कर सकते हैं । रायपुर के बारे में  एक जगह जानकारी देने का मन है - अपना रायपुर पहले क्या कैसा रहा ...।   
-प्रभाकर चौबे

                                                                
रायपुर स्मृतियों के झरोखे से- 8

वार टाईम (युद्ध) था । हर चीज की किल्लत चल रही थी । मंहगाई भी बढ़ी थी। 1945 से पहले वेतन में महंगाई भत्ता नहीं होता था । उन दिनों घोड़ा छाप माचिस  चलती था । अच्छी क्वालिटी की माचिस थी । उसमें 60 काड़ी (स्टीक) होती थी । माचिस पर छपा रहता था 60 काड़ी । और साठ काड़ी ही होती - गिनने तो कोई एक कम निकले तो फुड ऑफिस में शिकायत कर सकता था ।  वार टाईम में घोड़ा छाप माचिस की किल्लत पैदा कर दी गई - घोड़ा छाप माचिस मिलना कठिन होने लगा था। ब्लेक में मिलने लगा । कुछ युवकों ने एक दुकान की पिकेंटिंग की थी । सबसे ज्यादा मिट्टी तेल के लिए मारामारी थी । स्टोव के लिये, लालटेन, गैसबत्ती चिमनी जलाने, मिट्टी तेल  चाहिए होता - उन दिनों बिजली कुछ ही घरों में थी । मिट्टी तेल की डटकर कालाबाजारी के लिये एक अभिनव तरीका अपनाया गया था - पीतल की बड़ी गुण्डियों में मिट्टी तेल भरकर बोझा उठाने वालियों को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाने कहा जाता जिस तरह गुंडी में पानी भरकर ले जाया जाता है - देखने वाले समझे, बाई पानी ले जा रही हैं । एक बार ताक कर पुलिस ने पकड़ा और पूरे शहर में हल्ला हो गया। लोग इस तरह के काम को देख अचम्भित हुए .. क्या जमाना आ गया है, ऐसा कहते रहे । कंट्रोल में एम्प्रेस मिल का लट्ठा मिलता था - अच्छा मजबूत । वैसे मिलावट आई नहीं थी - शुद्ध ही मिलता था सब ।
उन दिनों (काफी बाद तक यह चला) शानिवार या रविवार को मैटनी शो पिक्चर का रिवाज था । एक तो अंग्रेजी मारधाड़ वाली फिल्म आती थी - खूब भीड़ होती इनमें । टार्जन सीरियल की फिल्में भी लोकप्रिय  थीं - जॉन सेमुअल नामक युवा टार्जन के रूप में फेमस हो गया था । ट्वेन्टिएथ सेन्चुरी फॉक्स की स्टंट फिल्में बहुत लोकप्रिय थीं । पुरानी हिन्दी फिल्में भी मैटनी में दिखाई जाती थीं। फिल्म शुरु होने से पूर्व ओम जय जगदीश हरे ... रिकाडिंग बजता मतलब फिल्म शुरू होने वाली है । लोग दौड़ते थर्ड क्लास दो आना, सेकंड क्लास चार आना, फर्स्ट क्लास छ: आना, बल्कनी बारह आना ... महिलाओं के बैठने की अलग व्यवस्था थी ... इंटरवल में पर्दा खींच दिया जाता था । शारदा टाकीज में ऊपर बालकनी के दोनों छोर पर बाक्स थे - इसमें उच्च अधिकारी बड़े लोग, ही एलाऊ थे ।
बाबूलाल टाकीज में स्टंट फिल्में खूब लगती थीं - उन दिनों नाडिया जॉन कवास की जोड़ी प्रसिद्ध थी। इनकी हंटरवाली फिल्म कई हफ्ते चली थी। भगवान दास-जानकी दास की जोड़ी उभर रही थी । रामराज्य फेम कलाकार प्रेम सदीब ने एक सामाजिक फिल्म बनाई थी और उसके प्रीमियर पर बाबूलाल टॉकिज में उपस्थित हुए थे - गजब की भीड़ हो गई थी । खूब धक्का-मुक्की हुई थी । 
कोतवाली चौक पर पीपल झाड़ ( जो हाल ही में काट दिया गया है ) से सटकर पाटे पर मनिया पान दुकान प्रसिद्ध थीं एक जयराम पान दुकान (शारदा चौक) और मनिया पान दुकान । यहीं हिम्मत लाल मानिक चंद की कपड़े की दुकान  थी - यहाँ नामी मिलों के कपड़े बिकते थे - ऊनी कपड़े भी यहीं मिलते थे । इसी भवन के ऊपर बाम्बे भोजनालय था - जिसका रेट उन दिनों - फुलथाली आठ आना घी चपुड़ी रोटियां चाहिए तो दस आना ... वैसे गिरधर धर्मशाला और एडवर्ड रोड में भी भोजनालय थे .. बासा कहते थे । उन दिनों घरों में चूल्हे पर खाना बनता अत: प्राय: हर मोहल्ले में लकड़ी टाल  होते -- उन दिनों जलाऊँ लकड़ी, चिरवा आठ आने मन और गोलवा छ: आने मन बिकता इसे भी महंगा कहा जाता ।
श्री राम संगीत विद्यालय की स्थापना हो गई थी और विद्यालय चलने लगा था । श्री जोशी जी संगीतकार के रूप में प्रसिद्ध थे । तबला वादक के रूप में उस समय श्री रामानंद कनौजे जा का नाम ऊपर था वे राष्ट्रीय स्कूल के प्रधानपाठक भी थे।
श्याम टाकीज बनने से पूर्व वहाँ से बूढ़ेश्वर मंदिर तक सीताफल के झाड़ थे - आज जहाँ स्टेडियम है वहाँ दलदल था - एक डबरी भी थी और एक बावड़ी भी थी । सदर की होली उन दिनों भी प्रसिद्ध थी । यहाँ राजस्थान से नौटंकी पार्टी व पुतली नाच दिखाने वाले आया करते थे । सदर में रहने वाले भीखमचंद बैद हिन्द स्पोर्टिंग फुटबाल टीम में राईट फुल बैक में खेलत थे और फेमस थे । बाद में उनके भाई अमरचंद बैद हिन्द स्पोर्टिंग फुटबाल टीम के गोलकीपर के रूप में खेले ।
अमर चंद बैद अच्छे स्टेज एक्टर-डायरेक्टर  रहे। काली बाड़ी दुर्गोत्सव में एक दिन हिन्दी नाटक प्रस्तुत किया करते थे । सप्रे स्कूल (लारी स्कूल) के पी.के.सेन शिक्षक अच्छे नाटक डायरेक्टर के रूप में प्रख्यात थे । मुन्नालाल पापा लाल की किराना तेल-घी-आता था । गोल बोजार के अंदर एक लाईन से अनाज की दुकाने थीं - उसी से लगकर सब्जी मार्केट था । गोलबाजार के मूल भवन के अंदर महिलाओं के उपयोग की वस्तुएं बिकती थीं - दोपहर यहाँ भीड़ होती। पुरुष प्राय: यहाँ नहीं जाते थे । भवन से निकलते ही राष्ट्रीय  बुक डिपो से लगकर जो खाली जगह थी वहाँ रोज ही शाम को बाजीगर अपना खेल दिखाता - बंदर नचाता, भालू नचाता ....
गोल बाजार में किताबों के तीन दुकान थीं - राष्ट्रीय विद्यालय बुक डिपो, गालाल चुनकाई लाल और कसिमुद्दीन के किताब की दुकान । सदर बाजार में दो चरित्र बड़े प्रसिद्ध थे एक हाफिज भाई, हाफिज भाई कहते कि वे नरगिस (फिल्म अभिनेत्री) से मोहब्बत करते हैं - दीवानों सा व्यवहार करते । सदर में युवा उन्हें घेरकर नरगिस के किस्से सुनते । एक थे अरमान भाई - अरमान भाई किसी भी दुकान  के सामने खड़े होकर गालियाँ देने लगते - दुकानदार उन्हें चार-छ: आने देकर मुक्त होता ...। उनकी गालियों का कभी किसी ने बुरा नहीं माना ।
क्या जमाना था - हम बच्चे थे, लेकिन उत्सुकतावश पता चला ही जाता था कि क्या हो रहा है। ।बालसमाज गणेशोत्सव समिति शायद रायपुर की सबसे पुरानी समिति है - शायद पहली समिति ।  उन दिनों गणेशोत्सव पर प्राय: हर गणेश पंडाल में कुछ न कुछ कार्यक्रम होते बच्चों के लिए कहानी कथन, कवितापठन, वाद-विवाद प्रतियोगिता, गान प्रतियोगिता आदि । मुझे याद है सन् 1946 में आनन्द समाज गणेशोत्सव में कहानी कथन पर प्रथम पुरस्कार मिला - पुस्तक दी गई महाभारत मीमांसा - आज भी  मेरे किताबों की रैक में है
उन दिनों सब्जी - फल के ठेले घूमते नहीं थे - लेना हो तो बाजार जाना पड़ता था - हाँ मुर्रा-लाई, करी लड्डू -  मुर्रा लाड़ू बेचने वाली जरुर निकलती थीं । आईस्क्रीम नहीं आई थी, लेकिन कुल्फी (बास की काड़ी में) बच्चों को आकर्षित करने हाजिर थी और बर्फ का गोला भी मिलता था । बाम्बे-हावड़ा मेल शाम पाँच बजे रायपुर पहुँचती थी - 2 अप कहलाती थी - उसमें रसोईयान था और ब्रेड मतलब डबलरोटी बिकती थी शहर के वे जो उच्छा ब्रेड चाहते, इस ट्रेन में लेने जाते । मेल में डाक का डिब्बा भी होता था -इनमें अपने पत्र डाल सकते थे - उन दिनों डिब्बे में पत्र डालना हो तो एक पैसा की टिकिट अतिरिक्त चिपकानी पड़ती थी ।
उन दिनों स्कूल से छुट्टी के बाद या तो फुटबाल खेलते, पुक (रबर की छोटी गेंद) या सड़क पर ही चकरबिल्ला खेलते या लोहे के बिल्लास भर लम्बे टुकड़े को नाली किनारे की गीली जगह में पटक कर गाड़ने का खेल खेलते-लोहे का वह टुकड़ा गीली मिट्टी में गड़ा नहीं तो एक पैर पर दौड़ने का दाम देना पड़ता था - लगड़ी दौड़ रहे और पीछे दिगर बच्चे चिल्लारहे - लगंड़ी घोड़ी टांग तोड़ी । दाम न देकर भागने बाले को चिढ़ाते - दाम-दाम बच्चा मगर का बच्चा ... । रविवार को एक खेल खेला जाता छिपा-छुपाऊल......

जारी.....

Monday, February 5, 2018

खतरे में हैं दोनों...बाज़ार के दरख्त, सवाल के दरख्त------ जीवेश प्रभाकर

पौधों को पानी नहीं , आग को हवा देने लगे हैं.....

जिब्बू पैमाने तरक्की के कितने सख्त हो गए
कि जिसकी राह में  फ़ना  कई  दरख्त़  हो गए

निपट नीले आकाश की सुंदरता के साथ तीखी आग सी धूप का गर्म अहसास भी होता है जो अक्सर घर से निकलते ही परेशान करता है । ये गर्म अहसास किसी छांव की पनाह मांगता है । शहरों में ये पनाह अक्सर किसी बहुमंजिली इमारत की फैलती परछाइयों में होती है मगर इन परछाइयों में पैर पसारे बाज़ार आपको कहीं खड़े नहीं होने देते । इन परछाइयों के रखवाले सिर्फ बाज़ार के ग्राहकों पे ही मेहरबान हुआ करते हैं , राह चलते किसी राहगीर को इन परछाइयों में कोई राहत नहीं मिल सकती ।
किसी विशाल दरख्त की ठंडी घनी छांव हमेशा सुकून ही देती है । अपने छुटपने में कभी अपने पिता की सायकल पर या मां के साथ पैदल बाजार आते थककर कभी ऐसे दरख्तों के नीचे कुछ पल खड़े हो चुके होते हैं सभी ।
कुछ ऐसे भी दरख्त होते हैं जिसके बारे में पिता बताए होते हैं कि उनके पिता को भी नहीं मालूम था ये किसने लगाए, कब लगाए। यूं पीढियों से अपने जन्म को लेकर प्रश्नचिन्ह में घिरे दरख्त को एक दिन यकायक कोई गिराकर हमेशा के लिए उसे प्रश्नपत्र से बाहर कर देता है। फिर क्यों गिराया भी एक अनुत्तरित प्रश्न बना रह जाता है । हतप्रभ से लोग बस देखते रह जाते हैं, फिर होश में आने पर कुछ हलचल होती है और लोग फिर सवाल करते हैं कि क्यों गिराया ....। बाज़ार फिर बड़ी हिमाकत से ऐसे सवाल पूछने वालों को धमकाता है कि गिराना था गिरा दिया, तुमने कैसे पूछा,  क्यों गिराया ....
कुछ संजीदा लोगों के दिलो दिमाग पे मगर सवाल दर सवाल लगातार एक घन की मानिंद चोट पर चोट कर रहे हैं । एक ऐसा तबका है जो भीतर ही भीतर समाज को छीजता, टूटता देख रहा है और टूटकर बिखर जाने की हद तक की आशंकाओं से घबरा रहा है और घबरा के सवाल भी करता है । ये सवाल, ये चिंता ...ये भी दरख्त ही हैं जहां अफवाहों की गर्मी से समाज को सुकून भरी पनाह मिलती है । लोग ऐसे दरख्तों को भी उखाड़ फेंकना चाहते हैं । कई मर्तबा बाजार इसे उनके सुविधाजनक या सधे बधे, गुने चुने विरोध का जामा पहनाकर उनकी चिंताओं को सतही बताकर उपेक्षा या मजाक का विषय बना देते हैं ।  
बाज़ार ने इधर चिंताओं के भी पैमाने बना दिए हैं, नए नैरेटिव नए आख्यान बना दिए गए हैं । मेरी चिंता तेरी चिंता से बड़ी या राष्ट्रहितकारी , तेरी चिंता से झांकता देशद्रोह, विघटनकारी...। बाज़ार चिंता को भी एक साझा संगठित चिंता नहीं होने दे रहा।
सभी घर से निकलते हैं लौटकर आने के लिए ही । घर से निकलो तो राह के दरख्त छांव देते हैं पनाह देते हैं । पौधों को पानी दो तो वे फलदायी नहीं तो सुकून देने वाले विशाल दरख्त में तो तब्दील हो ही जाते हैं । छांव जलते हुए को ठंडक देती है। सवालों चिंताओं के दरख्त भी पनाह देते हैं जबकि अफवाह आग होती है और आग को हवा दो तो वो तेजी से फैलती है । सवालों व चिंताओं के दरख्तों की पनाह के अभाव में अफवाहों को हवा मिलती है और ये तेजी से पैर पसार लेती है । अफवाहों की इस लपट में बाज दफा घर से निकले कुछ लोग लौटकर नहीं आ पाते । जो लौटकर नहीं आ पाते उनके घर पे राह तकती निगाहें एक अरसे तक जाने वाले का पीछा करती कहीं शून्य में खोकर रह जाती हैं।
 इधर आजकल पौधों को पानी देने की बजाय आग को हवा देने का चलन बढ़ गया है । …..
जीवेश प्रभाकर
जारी......