Saturday, September 8, 2018

आज पढ़ते हैं -मुक्तिबोध का लेख-

डबरे पर सूरज का बिम्ब

(एक साहित्यिक की डायरी से) 

जब उससे मैं सड़क पर मिला, मुझे लगा कि वह ठीक बात करने के मूड में नहीं है। राह में मुझे देखकर वह खुश नहीं हुआ था। उसकी शर्ट की पीठ पसीने से तर-बतर थी, बाल अस्त-व्यस्त थे। और चेहरा ऐसा मलिन और क्लान्त था मानो सौ जूते खाकर सवारी आ रही हो। तत्काल निर्णय लिया कि वह सरकारी दफतर से लौट रहा है, कि वह पैदल आ रहा है,कि वह वहा अहलकार की किसी ऊंची या नीची साहित्यिक या राजनीतिक श्रेणी का ही एक हिस्सा है, वह मुझे फस्र्ट क्लास सूट-बूट में देख सिर्फ आगे बढ़ जाना चाहता है, क्योंकि वह बगल में खड़ा होकर, कॅण्ट्रास्ट खड़ा नहीं करना चाहता।

पुराने जमाने में भूखे व्यक्ति को अन्न देने से जितना पुण्य लगता था, आधुनिक काल मे शायद उससे भी अधिक पुण्य श्रम से मलिन और थके हुए व्यक्ति को एक कप गरम-गरम चाय प्रदान करते हुए दो मीठी बातें करने से लग जाना चाहिए। मेरे इस तर्क का आधार यहा है कि आज-कल सच्चा श्रम, जिससे चेहरा सूख जाता है, पसीना आता है, कपड़ों की इस्तिरी बिगड़ जाती हैं, ओछे हुए बाल असत-व्यस्त हो जाते हैं, उँगलियों को स्याही लग जाती है, आँखें कमजोर हो जाती हैं, अपने से बड़े पदाधिकारियों के मारे दिल धक-धक करता है। मतलब कह कि कम से कम मानवोचित सुविधाओं में अधिक से अधिक से श्रम की मनुष्यमूर्ति-दुनिया को तो छोड़ ही दीजिए - अपने भाइयों की, उनकी आँखों में भी हजार सहानुभूतियों के बावजूद, सूक्ष्म और स्थूल अनादार की पात्र है, असम्मान की पात्र है। टैªजडी तो यह है कि ऐसी मनुष्य-मूर्ति अपने स्वयं की आँखो में भी अनादर और सम्मान की ही पात्र होती है। इस विश्व-व्यापी और अन्तर्यामी अनादार और असम्मान की धूल धारण कर, हृदय में बासी कडु़आ जहर लिये हुए थके, क्लान्त और श्रमित व्यक्ति जब अपने दफ्तरों से बाहर दो मील दूर अपने घर की तरफ लुढ़कते-पुढ़कते निकलते हैं तो उनके मन में और हमारे मन में श्रम का कितना महान् आध्यात्मिक मूल्य अवतरित होता है, वह वर्णनातीत है !

इस तिराहे पर खड़े होकर, मुझे उस व्यक्ति की जरूरत महसूस हुई। वह मेरा परिचित था। आखिर, जब मैं इस कोने में अकेला खड़ा हू तो वह मुझसे बातचीत तो कर ही सकता था। मुझे लगता था कि जब तक मैं अपनी बकवास पूरी नहीं कर लूगा मुझे चैन न मिलेगी।

मैं पान चबा रहा था। सुर्खरू था। ऐसे मौके पर मनुष्य स्वभावतः बुद्धिमान हो जाता है। उसमें आत्म-विश्वास की तेजस्विता रहती है- वह क्षण-स्थायी ही क्यों न हो । वह आशावादी होता है। ह नसीहत दे सकता है। वह दूर-दृष्टा होता है, चाहे तो पैगम्बर हो सकता है, चाहे तो वह रोमैण्टिक प्रेमी बन सकता है। वाह-वाह ! सुर्खरूपन, तेरा क्या कहना ! बिना श्रम के जो प्राप्ति होती है, उपलब्धि होती है, वही तू है ! पल-भर मैं संकोच की गटर-गंगा में डूब गया। मैं रीअली (सचमुच) फस्र्ट क्लास कपड़े पहने था। बेहतरीन सूट। मैं गया था शहर के ऊँचे दरजे के कुछ लोगों से मिलने। वहाँ या तो महँगी किस्म के खदी के कपड़े चलते थे या ये कपड़े। आजकल मै। आधा बेकार हूँ। अपने ही घर में शरणार्थी हूँ। लिहाजा, कुछ बड़े आदमियों के यहाँ जाकर, एक असिस्टेण्ट डायरेक्टर के पद ( वह जगह अभी खाली नहीं हुई थी, लेकिन सुना था कि होनवाली थी) के लिए कोशिश कर रहा था।और ज्यों ही आप ऐसे कपड़े पहन लेते हैं, अपने धुले-पुँछेपन को स्वास्थ्य की संवेदना मानते हुए( थोड़ी देर के लिए ही क्यों न सही) अपने को 'बाश्शा' अनुभव करते हैं ! गौरव और गरिमा की यह संवेदना !! तेरा नाम सत्य है, तेरा नाम शिव है, तेरा नाम है सौनदर्य ! लेकिन शहर के उस फैशनेबल मुहल्ले के अपने आत्मीयों से लौटकर मुझे आकसिमक यह भावना हुई कि मैं अकेला हूँ, कि अपनी असली श्रेणी के साथी के साथ बैठकर ही मैं अपने आनन्द का वितरण और उपभोग कर सकूँगा। और इसी अन्तःप्रवृत्ति के अन्दरूनी धक्के के फलस्वरूप मैं आॅफिस से लौटते हुए उस व्यक्ति को आमन्त्रण दे बैठा।

लेकिन ज्यों ही मैं उसके साथ चाय पीने लगा, हम दोनों के बीच एक जहरीली चुप्पी की रेख दूरी का माप-छण्ड बनने की कोशिश करने लगी। मैंने उदारता की पराकाष्ठा करते हुए एसके लिए एक कप चाय और मँगवा दी !

मैं अपने शरीर पर पड़े हुए कपड़ों से लगातार सचेत था। ये वस्त्र ही हैं कि मुझे उससे दूर ठेले जा रहे थे ! इस संकोच को दूर हटाने के लिए मैंने कोट उतारकर रख दिया ! गरमी के बहाने शर्ट के बटन इस प्रकार खोल दिये कि अन्दर उलटी पहनी हुई जीर्ण-शीर्ण फटी बनियान लोगों की दिखाई दे सके !
मैं चाहता था कि वह मेरे अन्दरूनी नक्शे को देखे। लेकिन शायद वह अपनी धुन के धुँधलके में उड़ते हुए थके-हारे पंछी की भाँति नीड़ में समाना चाहता था। घर लौटना चाहता था।

मैं अपने को उससे एक गज ऊँचा अनुभव न करूँ और सच्ची मेहनत का शाप न झेल सकने के कारण उससे एक गज नीचा भी न अनुभव करूँ, इसलिए उसका जी खुश करके उसके साथ हँस बोल लेने के लिए मैंने उससे पूछा, “कल आल इण्डिया रेडियो से मैंने आपकी कहानी सुनी। बहुत अच्छी थी ! पढ़ी भी अच्छी गयी !“उसने मेरी तरफ ध्यान से देखा-यह जानने के लिए कि मेरा इरादा क्या हो सकता है। उसने प्रभुतावश कहा, अजी, आप तो बस आप तो आलोचक हैं,नुक्स बताइए! मैंने विश्वास दिलाया कि उसकी कहानी बहुत अच्छी थी, क्योंकि वह सचमुच बहुत अच्छी थी। लेकिन उसका जी नहीं भरा।उसने मेरी तरफ गौर से देखा। वह एक पतला-लम्बा चेहरा था। जरूरत से ज्यादा उंचा माथा-शयद आगे के बाल कम होने के कारण। मुझे ऐसे चेहरे पसन्द हैं। ऐसे लोगों में आप डूब सकते हैं और आपकी डुबकी को वे एन्जॅाय करने मजा लेने की ताकत रखते हैं । कम से कम मेरा खयाल है। मेरे द्वारा की गयी प्रशंसा के प्रति उसकी सन्देह की द्ष्टि मुझे बहुत-बहुत भायी। एक सच्चा लेखक जानता है कि वह कहां कमजोर है कि उसने कहां सच्चाई से जी चुराया है, कि उसने कहां लीपा-पोती कर डाली है, कि उसने कहां उलझा-चढ़ा दिया है, कि उसे वस्तुतः कहना क्या था और कह क्या गया है,कि उसकी अभिव्यक्ति कहां ठीक नहीं है।वह इसे बखूबी जानता है। क्योंकि वह लेखक सचेत है। सच्चा लेख्क अपनेखुद का दुश्मन होता है। वह अपनी आत्म-शान्ति को भंग करके ही लेखक बना रह सकता है। इसीलिए लेखक अपनी कसौटी पर दूसरों की प्रशंसा को भी कसता है और आलोचना को भी। वह अपने खुद का सबसे बड़ा आलोचक होता है।

बेचारा सर्वज्ञ शब्द-तत्पर आलोचक यह सब क्या जाने ! वह केवल वाह्य प्रभाव की दृष्टि से देखता है। आलोचक साहित्य का दारोगा है। माना कि दारोगापन बहुत बड़ा कर्तव्य है - साहित्य,संस्कृति,समाज ,विश्व तथाब्रह्माण्ड के प्रति। लेकिन मुश्किल यह है कि वह जितना उंचा उत्तरदायित्व सिर पर ले लेता है, अपने को उतना ही महान अनुभव करता है। और सच्चा लेखक जितनी बड़ी जिम्मेदारी अपने सिर पर ले लेता है, स्वयं को उतना अधिक तुच्छ अनुभव करता है। उसे अपनी अक्षमता और आत्मसीमा का साक्षत् बोध होता रहता है। ऐसा क्यों? इसलिए कि अभिव्यक्ति की तुलना जी में धड़कनेवाले केवल वस्तु सत्य से ही नहीं करता, वरन् अपने स्वयें के साक्षात्कार सामर्थ्य की तुलना उस वस्तु-सत्य की विशालता से भी करता है। आत्म-सत्य भी कह सकते हैं उसे, जिसकी धारणा के लिए उसे लगता है कि जितनी आवश्यक मनःशक्ति उसमें चाहिए उतनी नहीं है। कभी-कभी तो उसे केतल आभास-संवेदन से ही काम चला लेना पड़ता है। तब अपनी विषय-वस्तु की विशालता और गहराई की तुलना में लेखक अपने को हीन क्यों न अनुभव करे ,जब कि वह खूब जानता है कि उसने जो कुछ वस्तुतः सम्पन्न किया है उससे भी अच्छा किया जा सकता था। विषय-वस्तु के प्रति लेखक का यह संवेदनात्मक उत्तरदायित्व,उसकी मनःशक्ति को किस तरह भंग किये रखता है,यह किसी सच्चे लेखक से ही जाना जा सकता है।

मैंने उस दुबले-पतले चेहरे के सन्देह-भाव को देखा और बात पलटने की दृष्टि से कहा, “यह जरूर है कि आपकी कहानी बहुत ज्यादा मनोवैज्ञानिक थी।"

उसने मुसकराकर जवाब दिया, "मनौवैज्ञानिक न होती तो क्या होती ! मन में ही घुलते और घुटते रहले के सिवा और क्या है जिन्दगी में ?"

मैंने उससे असहमति प्रकट करनी चाही। मैंने पूछा, तो क्या आप कुण्ठा को मनोवैज्ञानिकता की जननी मानते हैं।

"ककुण्ठा-वुण्ठा , मैं नहीं समझता, “उसने जवाब दिया, “हर जमाने में गरीबों की मुश्किल रही है हर जमाने में एक श्रेणी का दिल नहीं खुला है- बहुत विशाल श्रेणी का ,भारतीय जनता का ,मेहनतकश का।“ वह आगे कहता गया, “पिछला कौन-सा ऐसा युग था जिसमें कुण्ठा न हरी हो ?... और फिर...और फिर...कुण्ठा का मतलब क्या है ? उसने समझाते हुए कहा, कुण्ठा का आधिपत्य तो तब समझना चाहिए जब कुण्ठा के बुनियादी कारणों को दूर करने की बेसब्री और विक्षोभ न हो। हाँ, कुण्ठा का अगर फ्रॅायडवाद और मार्क्सवाद की संकर सन्तान है।

वह दुबला-पतला चेहरा मेरे सामने उठावदार और उभारदार हो गया, उसमें भव्य गरिमा प्रतिबिम्बित हो उठी। मुझे लगा-उसका दिमाग खुद-ब-खुद सोचता है। उस वयक्ति में मेरी दिलचस्प ज्यादा बढ़ गयी। मैं उसके विचारों को आदरपूर्वक सुनने लगा।उसने मुझे बोलने का अवसर न देते हुए कहा, “मैं तो सिर्फ मेहनत पर, अकारथ मेहनत पर, उस मेहनत पर जो अपना पेट भी नहीं भर सकती, उस मेहनत पर जो बहुत सज्जन है, उस सीन-शीनल श्रम पर लिखनेवाला हूँ, उस श्रम का चित्रण करना चाहता हूँ, जिसका बदला कभी नहीं मिलता और जिसे आये-दिन आत्मबलिदान और त्याग की नसीहत दी जाती है ! मैं उस भयानक मशीन का चित्रण करने वाली कहानी नहीं, बल्कि उपन्यास लिखने वाला हूँ, जिसमें हर आदमी वह नहीं है जो वह वस्तुतः है या होना चाहेगा। उसमें मशीन का दोष नहीं। मशीन चलानेवालों का गुरुतर अपराध है ! इस मशीन की लौह-नलियों में पडत्रे हुए मानती श्रम का मैं चित्रण करना चाहता हूँ ! कहिए, आपका क्या खयाल है ?

“मैंने ढाई मिनिट तक जैसे साँस ही नहीं ली। उसके भाव-विचार ने न केतल मुझे प्रभावित किया था, वरन् दिमाग पर दबाव डाल दिया था। मेरे सिर पर वजन हो गया था।

मैंने धीरे-धीरे कहा, “जरूर चित्रण कीजिए, जरूर लिखिए !

“क्यों, लेकिन आप चुप हो गये ! "

मैंने कहा, “चुप नहीं, मैं सोच रहा थ कि सिर्फ बहुत बड़ी थीम (विषय) उठा लेने से काम नहीं चलता। यह जरूरी है कि सिर्फ उतना ही अंश उठाया जाये जिसका मन पर अत्यधिक आघात हुआ हो। बड़ी भारी बिल्डिंग खड़ी करने को बजाय छोटी-सी कुटिया खड़ी की जाये तो अधिक अच्छा होगा।"

उसने कहा, “सही है। आसमान का चित्रण सधे न सधे, सामने के मैले डबरे में डबरे में सूरज के बिम्ब का चित्रण मुझसे सध भी जायेगा।“ उस व्यक्ति के इस वचन में आत्म-दया की हलकी-सी गूँज मुझे सुनाई दी।
मैंने बेरूखी से कहा, “इस आत्म-दया की जरूरत नहीं। एक सच्चे आर्टिस्ट का संघर्ष बहुत घुमावदार होता है ! हाँ, लेकिन भीतर सूरज का प्रतिबिम्ब धारण किये हैं। पूरा वस्तु-सत्य इस इमेज में आ गया है। इसीलिए पत्रवह महत्वपूर्ण है। हमारा परिश्रम भी तो थोड़ा नहीं है। हमारी साँस भी तो उखड़ी-उखड़ी है। डबरे हुए तो क्य हुआ, हैं तो प्रकृति-जन्य !"

एकाएक जैसे मैंने उसकी कमजोर रग पकड़ ली। उसमें आत्मविश्वास की कमी थी। जब सिर्फ सीना तानकर लोग खोटा माल खपा देते हैं और प्रभववादी होने के बहाने हर मामूली को गैर-मामूली बनाकर दुनिया के सामने उसे पेश करते हैं तो जो चीज सही और सच्ची है वह क्यों न ऐंठे ?

मैंने उससे कहा, “आजकल सच्चाई का सबसे बड़ा दुश्मन असत्य नहीं स्वयं सच्चाई ही है, क्योंकि वह ऐंठती नहीं, सज्जनता  को साथ लेकर चलती है। आजकल के जमाने में वह है आउट आफ डेट। जी ! उसलिए सत्य जरा युयुत्सु बने, वीर बने तभी वह धक सकता है, चल सकता है, बिक सकता है।"

वह और भी अप्रतिभ हो गया। किन्तु उसके चेहरे पर भीतर की खुशी का ज्यादा उजाला लाने के लिए मैंने उसे कहा, “बोल्डनेस हैज जीनियस ( औद्धत्य की अपनी प्रतीभा है)। गेटे का वाक्य है। मैं इसे उल्टा करके पढ़ता हूँ।“ मेरे कीमती कपड़ों के ठाठ ने मुझे कुछ उत्साहित तो कर ही दिया था (लेकिन क्या मैं सच कह रहा हूँ ?) जो हो ,हम दोनों जब बिदा हुए, बहुत दोस्त बनकर बिदा हुए।

Monday, September 3, 2018

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जीवेश प्रभाकर
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