Wednesday, June 1, 2016

शैक्षणिक योग्यता नहीं नैतिक ईमानदारी जरूरी है---- जीवेश प्रभाकर


कई दिनो से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की डिग्री को लेकर पूरे देश में बवाल मचा हुआ है । यह निहायत ही शर्म की बात है कि देश के प्रधानमंत्री जैसे गरिमामयी पद पर आसीन व्यक्ति की डिग्री को लेकर देशभर में हल्ला मचा हुआ है और खुद प्रधानमंत्री मौन हैं ।
        वाचाल माने जाने वाले नरेन्द्र मोदी की इस मसले पर नीम खामोशी सचमुच आश्चर्यजनक है । इस तरह संदेहों के साथ साथ  अफवाहों को जन्म देती है । पूरे विश्व में संभवतः यह अपने तरह का पहला मामला है जबकि एक देश के प्रधानमंत्री पर इस तरह दोषारोपण हो रहा हो ।
      ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री या किसी भी नेता को डिग्रीधारी ही होना चाहिए । और न ही देश की जनता प्रधानमंत्री क्या किसी भी नेता को डिग्री के आधार पर चुनती है ।  शिक्षित होने के लिए और जनप्रतिनिधि होने के लिए  किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं होती  मगर बात ईमानदारी व सच्चाई की है ।  सार्वजनिक जीवन में नैतिक रूप से सच्चाई व ईमानदारी बहुत आवश्यक है ।  पहले भी कई राजनेता बहुत बड़ी डिग्रीधारी नहीं हुए मगर उनमें नैतिक ईमानदारी थी । पूरे देश में कोई प्रधानमंत्री से डिग्री नहीं मागता मगर आप लगातार झूठ व फरेब का सहारा लेकर तथ्यों को गलत पेश करेंगे तो लोगों में गलत संदेश जाता है साथ साथ विश्वासनीयता में भी कमी आती है ।
      हमेशा आक्रामक रहने की कोशिश करने वाली भाजपा पूरी तरह बचाव की मुद्रा में है । यह संदेहों को और पुख्ता करता है । यह अजीब बात है कि प्रधानमंत्री, जो पहले 10 वर्ष से भी ज्यादा समय तक गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके हैं , अब तक अपनी शैक्षणिक योग्यता का ठोस , विशवसनीय व प्रमाणित घोषणा नहीं कर सके हैं ।
 सबसे ज्यादा जिम्मेदारी चुनाव आयोग की बनती है जो अब तक खामोश रहकर तमाशा देख रहा है । जरा जरा सी बात पर नियम कायदे की धौंस दिखाने वाला चुनाव आयोग आखिर स्वयं आगे आकर तत्यों को साफ क्यों नहीं कर रहा है ? यदि झूठे तत्य हैं तो नियमानुसार कार्यवाही क्यों नहीं कर रहा है ?
      एक साधारण सी नौकरी के लिए भी आवेदन पत्र के साथ ही तमाम योग्यताओं के प्रमाण पत्रों की छाया प्रति लगानी अमिवार्य होता है मगर यह अजब बात है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे बड़े चुनाव में प्रतिभागी उम्मीदवार को नामांकन के समय शैक्षणिक योग्ता के कुछ भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं करना पड़ता । ये हमारे चुनाव की सबसे बड़ी कमजोरी है । इसी के चलते सिर्फ प्रधानमंत्री ही नहीं उनकी कैबीनेट मंत्री स्मृति इरानी एवं देश की कई पार्टियों के अनेक उम्मीदवारों के प्रमाण पतत्रों पर फर्जी होने के आरोप लगते रहते हैं । और सबसे बड़ा आश्यर्य इस बात का भी है कि विगत 15 वर्षों से राज्. व अब देश के शीर्ष पद पर आसीन व्यक्ति द्वारा लगातार संदेहास्पद जानकारी दिए जाने के बावजूद चुनाव आयोग कोई भी कार्यवाही नहीं कर सका है ।
       होना तो ये चाहिए कि स्वयं प्रधानमंत्री को आगे आकर सभी  आरोपों का जवाब देकर तमाम संदेहों को दूर कर देना चाहिए । रेडियो पर मन की बात कहने की चाह है तो जनता के मन की शंका इसी कार्.क्रम में दूर कर देना चाहिए । मगर  आज किसी  भी नैतिकता की उम्मीद बेमानी हो चली है अतः जरूरत इस बात की हो गई है कि चुनाव आयोग नामांकन के समय ही प्रत्येक उम्मीदवार को स्वघोषित शैक्षणिक योग्यता सहित तमाम प्रमाण पत्रों को सत्यापित कर प्रस्तुत करने का सख्त नियम बनाए । 

       

Friday, April 15, 2016

ये वो मंज़िल तो नहीं........--क्या धर्मपरिवर्तन से रोहित के सपने पूरे हो जायेंगे ?--

तो रोहित की मां ओर भाई ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया । सामाजिक न्याय और समानता के संघर्ष का आदर्श माने जाने वाले बाबा साहेब आंबेडकर की 125 वीं जयंती पर दोनो ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया ।  बहुत से लोग खुश हैं। ठीक है। यह उनका निजि फैसला है तब तक इस पर पर कुछ कहा नहीं जा सकता और न उन्हें रोका जा सकता है । व्यक्तिगत रूप से आप इससे संतुष्ट भी हो सकते हैं क्योंकि मेरी नज़र में धर्म निहायत ही निजि किस्म का मसला है । बात यदि निजि मसले की होती तो कोई हर्ज नहीं था मगर जब आप इसे सार्वजनिक रूप से उस आईकॉन, रोहित, के नाम का सहारा लेकर प्रचारित प्रसारित करते हैं जो सामाजिक न्याय व समानता की जंग का पर्याय बन चुका है, तो इसके परिणाम सार्वजनिक स्तर पर ही आंके जायेंगे। हो सकता है मंशागत इससे हिन्दू धर्म के ठेकेदारों और हिन्दुत्ववादियों को नीचा दिखाया जा सके या कट्टरपंथियों को तिरस्कृत किया जा सके, दूसरी ओर बौद्ध धर्म के लोग इसे अपनी जीत के तौर पर पेश करें और गौरवान्वित भी हों। मगर सामाजिक समानता और समरसता की लड़ाई लड़ रहे पहले रोहित और अब उनके साथियों जैसे बहुसंख्यक युवा जुझारुओं के साथ साथ उन युवाओं को परोक्ष रूप से नैतिक व बौद्धिक समर्थन दे रहे व संघर्षरत मुझ जैसे असंख्य लोगों  लिए यह अत्यंत दुखदायी और स्तब्ध कर देने वाला निर्णय है ।चूंकि मै दृढ़तापूर्वक इस बात को मानता हूं कि धर्म परिवर्तन एक कुँए से निकलकर दूसरे अन्धे कुँए में कूद जाने से ज्यादा कुछ नहीं है।
निश्चित रूप से हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था में दलितों एवं पिछड़ों के प्रति घोर घृणा और तिरस्कार का भाव मिलता है । अत्याचार,प्रताड़ना और अपमान की एक शर्मनाक दीर्घकालिक परम्परा रही है । ये सदियों से होता आया है और बहुत बड़े पैमाने पर आज भी बदस्तूर जारी है । कमोबेश हर धर्म में इस तरह के भेदभाव होते आए हैं और आज भी हो रहे हैं । सभी धर्मं में अलग अलग आधार पर देखे जा सकते हैं । रंग , नस्ल, वर्ण या वर्ग के आधार पर इस तरह के भेदभाव और भेदभाव के चलते अत्याचार और अपमान भी होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं ।
       सवाल ये उठता है कि क्या धर्म परिवर्तन से रोहित की आकांक्षाओं या सपनों को पाया जा सकता है ? रोहित की मां व भाई के धर्म परिवर्तन को कूटनीतिक रूप से तो हिन्दू धर्म के विरुद्ध  भुनाया जा सकता है मगर व्यापक परिप्रेक्ष्य में इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता । धर्म चाहे कोई भी हो रोहित के प्रश्नों का जवाब या हल वहां नहीं हो सकता। रोहित के सवाल इतने आसान नहीं कि किसी धर्म में उसका हल मिल सके । रोहित की समस्या सामाजिक है ।रोहित की लड़ाई सामाजिक न्याय की है जिसे कोई धर्म हल नहीं कर सकता । हमें यह समझना ही होगा । हमें यह बहुत अच्छी तरह समझना होगा कि रोहित धर्म से कहीं ज्यादा सामाजिक प्रताड़ना से जूझ रहा था । सामाजिक भेदभाव की चौड़ी होती दीवार से टकरा रहा रहा था । वो दीवार जिसे बाबा साहेब आम्बेडकर ने आजादी के बाद गिराना चाहा था । अपने पूरे प्रयासों से बाबा साहेब ने वो संविधान तैयार किया, और उस वक्त अपने समकालीन प्रगतिशील सोच के सहयोगियों की मदद से लागू भी करवाया, जिसे यदि ईमानदारी से लागू किया जाता तो आज रोहित जैसे अनेक नौजवानों को मानसिक संत्रास की पराकाष्ठा पर पहुंचकर आत्महत्या न करनी पड़ती ।
       धर्मपरिवर्तन की राह तो रोहित भी अपना सकता था । मगर उसने ऐसा किया नहीं । वो लगातार परिस्थितियों से जूझता रहा , सामाजिक न्याय और समानता के उद्देश्य को लेकर वह जूझ रहा था, लगातार लड़ता रहा अपने चंद साथियों के साथ ।  ठीक है कि वह परिस्थितियों से थक गया मगर इसे उसकी हार नहीं मानना चाहिए । हारा तो वह आज जब उसकी मां और भाई को धर्मपरिवर्तन की राह पर धकेल दिया गया । ये रोहित के आदर्शों और उसकी लड़ाई को एक बड़ा झटका है । गहरा आघात है उस लड़ाई को जिसे उसके बाद कन्हैया और उसके साथियों सहितअसंख्य युवा अपने कंधों पर उठाकर आगे ले जा रहे हैं । एक अरसे के बाद सामाजिक न्याय और समानता की लड़ाई मुख्य धारा में आई है जिसमें युवा वर्ग सक्रिय रूप से शामिल हुआ है और जिसे राष्ट्रीय स्तर पर संज्ञान में लिया गया है । आज रोहित, कन्हैया और अन्य शोषित पीड़ित समाज देश की मुख्य बहस में आया है । रोहित की लड़ाई महज धर्म परिवर्तन तक सीमित करके नहीं देखी जानी चाहिए । यह उन तमाम धार्मिक शक्तियों का मिला जुला खतरनाक षड़यंत्र है जो रोहित के सपनों व सामाजिक न्याय व समानता की लड़ाई की धार को धार्मिक रंग देकर भोथरा कर देना चाहते हैं ।
       सावधान.....सावधान