Monday, June 20, 2016

इसी मुलुक की कथा सुनाता "अलग मुलुक का बाशिंदा " ः संदर्भ राजकमल नायक की नाट्य प्रस्तुति -जीवेश प्रभाकर

राजकमल नायक रंगकर्म के क्षेत्र में एक जाना पहचाना और सम्मानित नाम है । यदि वे कोई नई प्रस्तुति पेश करते हैं तो दर्शकों में उत्सुकता और अपेक्षा बनी रहती है । एक लम्बे अंतराल के पश्चात इस बार वे स्वलिखित ,निर्देशित व् संगीतबद्ध एक पात्रीय नाटक "अलग मुलुक का बाशिंदा " लेकर आये हैं ।
कथानक श्मशान में रहने वाले भैरव के माध्यम से गढ़े गए कथा कोलाज़ पर केन्द्रित है । भैरव सामान्य बैगाओं या श्मशान बाबाओं से अलग एक संवेदनशील पढ़ा लिखा युवा है जो अपने पिता की विरासत संभाल रहा है । वो चक्कर और भयंकर सरदर्द की बिमारी से ग्रसित है । ये उसकी संवेदनशीलता का परिचायक है जो समाज की इन विडंबनाओं के चलते अंत में उसकी मौत के रूप में सामने आता है । ये कथा कोलाज़ आज हमारे आज के मुलुक ,समाज,मानवीय मूल्यों , अंतर्संबंधों और जीवन का आइना है। कथानक में बड्डे,छुट्टन,मम्मा, अँगरेज़ पर्यावारंविद, बाबूजी,बाबूजी का मित्र ,शराबी,एक युवा लड़की, बुधा किसान जैसे अनेक चरित्र सामने आते हैं जिनके बहाने निर्देशक समाज की परतें उधेड़ता है ।कथानक में पेड़ों के काटने ,शराब और जलती चिता से उठते धुएं के बहाने जहां पर्यावरण पर चिंता जताते हैं वहीँ समाज की दकियानूसी सोच पर भी प्रश्न खडा करते हैं जो शवदाह हेतु विद्युत् शवदाह को नहीं अपना पा रहा है । नाटक में महिलाओं की आज़ादी और स्वतंत्र अस्तित्व की लड़ाई को बड़ी ही गंभीरता से उठाया है । युवा लड़की अपने पिता की चिता को मुखाग्नि देती है और पुरुषवादी समाज पर मंदिर श्मशान और अन्य स्थानों पर महिलाओं के प्रतिबन्ध पर प्रश्न खडा करती है । लड़की के कथानक् का प्रस्तुतीकरण कमाल का है जिसमे एक चुनरी के माध्यम से लड़की का और फिर उसी चुनरी द्वारा पिता को मुखाग्नि देने का दृश्य सचमुच उनकी निर्देशकीय क्षमता का ही कमाल है । नाटक का सबसे प्रभावी व् मार्मिक दृश्य है एक वृद्ध किसान का अपने युवा बेटे की लाश लेकर श्मसान आना । देश में किसानो की आत्महत्याओं को इस कथानक के जरिये निर्देशक ने बड़े ही मार्मिक व् प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया है । बूढा किसान देर रात साइकिल पर अपने बेटे की लाश लेकर श्मशान आता है और भैरव से उसके क्रियाकर्म की गुहार लगाते हुए अपना दर्द व्यक्त करता है । भैरव उसकी बात सुनता है और शवदाह करता है । इसके बाद भैरव तमाम विडंबनाओं के दर्द और कुछ न कर पाने की लाचारी की छटपटाहट में दम तोड़ देता है । पूरे नाटक के एक एक दृश्य और ब्लाक अपने आप में अनूठे हैं । मानो आप एक जादुई दुनिया से यथार्थ को देख रहे हों । सभी अलग अलग कथा प्रस्तुति के लिए अलग मेकअप और अलग परिवेश के लिए भी कहीं कोई पॉज नहीं लिया गया। मंच का पूरा उपयोग । यहाँ मंच सज्जा की तारीफ़ करना लाज़मी है । सधी हुई मंच सज्जा के लिए हेमंत वैष्णव और पुष्पेन्द्र का काम सराहनीय रहा । मंच सज्जा को संतुलित व् सधी हुई प्रकाश व्यवस्था ने और बेहतर रूप देने में अहम् भूमिका अदा की । 
संगीत राजकमल के नाटकों की प्रमुख पहचान मानी जाती है । इस नाटक में भी रंग संगीत बहुत दमदार और मधुर है । रंग संगीत उनका स्वयं का है जिसमे शुभ्मय मुखर्जी का सहयोग उल्लेख्नीय है । तमाम बदलते रंग दृश्यों में पार्श्व संगीत एक अलग धुन व राग के साथ विशेष प्रभाव स्थापित करते हैं । इसके साथ ही कबीर के पद व् नज़ीर अकबराबादी की नज़्म को भी अच्छी कर्णप्रिय धुनों में ढाला गया है ।
एक पात्रीय नाटक में दर्शकों को लम्बी अवधि तक बांधे रख पाने में बड़ी कठिनाई होती है । इसके लिए निर्देशक की दृष्टि,परिकल्पना और दृश्यबंधों का अनुकूलित संपादन बहुत जरूरी होता है और इसमें राजकमल पूरी तरह कामयाब रहे हैं । उन्होंने अपने निर्देशकीय कौशल और क्षमता का पूरा परिचय देते हुए लगभग डेढ़ घंटे तक दर्शकों को बांधे रखने में कामयाब रहे हैं । इसमें भैरव की भूमिका निभा रहे मुख्य पात्र नीरज गुप्ता का पूरा योगदान रहा । नीरज ने निर्देशक के विश्वास और अपेक्षाओं पर खरा उतारते हुए भैरव के साथ ही 12 चरित्रों को अकेले पूरी ईमानदारी और बेहतरीन अंदाज़ में निभाया है । नीरज ने सभी भूमिकाओं के साथ पूरा न्याय करते हुए अपनी क्षमता से आगे जाकर परफोर्म किया और दर्शकों की वाहवाही हासिल की जिन्हें हर भूमिका में दर्शकों ने सराहा । इन बहुचारित्रिय भूमिका व् एकपात्रीय मंचन के लिए बड़ी ऊर्जा और प्रतिभा की आवश्यकता होती है । नीरज निश्चित रूप से बधाई के पात्र हैं जो इस पैमाने पर खुद को साबित करने में कामयाब रहे । इस प्रस्तुतीकरण के साथ ही वे संभाव्नाओं के नए आयाम खोलते हैं ।
ये कहा जा सकता है कि वरिष्ठ निर्देशक राजकमल नायक दर्शकों की अपेक्षाओं पर पूरी तरह खरे उतरे और एक श्रेष्ठ प्रस्तुति अपने प्रशंसकों व् रंग प्रेमियों को दी है । यहाँ स्क्रिप्ट का ज़िक्र ज़रूरी जो जाता है । हिंदी रंग जगत में लम्बे अरसे से ओरिजिनल हिंदी स्क्रिप्ट के अभाव का रोना रोकर कई निर्देशक दशकों पुरानी स्क्रिप्ट का ही मंचन करते रहते हैं । राजकमल ने इस बहाने से निजात पाने खुद स्क्रिप्ट तैयार की जो दमदार और समसामयिक मुद्दों पर बिना लाउड हुए बहुत सीधे,सरल और संवेदनशील तरीके से दर्शकों से संवाद करती है उन्हें सोचने पर मजबूर करती है । यह स्क्रिप्ट अन्य निर्देशकों द्वारा बहुपात्रिय नाटक के तौर पर भी उठाई जा सकती है । 
अंत में ये कहना ज़रूरी हो जाता है कि राजकमल ने अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप नाट्य प्रेमियों को एक बेहतरीन प्रस्तुति का उपहार दिया है । आज के फास्ट फ़ूड फ़टाफ़ट नुमा दौर में जब लोग गंभीर प्रयासों से इतर सतही स्तर पर किये जा रहे काम का ढिंढोरा पीटते फिरते हैं राजकमल जैसे गंभीर व् निष्ठावान रंगकर्मी बड़ी शिद्दत व् खामोशी के साथ नाट्य जगत को समृद्ध करने में अपना बहुमूल्य योगदान दे रहे हैं । इस नाटक के पीछे उनकी 4-5 महीनो की मेहनत ,रंगकर्म के प्रति निष्ठा व् समर्पण के साथ साथ परफेक्शन का धैर्य और क्षमता है जो एक बेहतर प्रस्तुति के आवश्यक तत्व हैं। निश्चित रूप से राजकमल बधाई के पात्र हैं । ये अपेक्षा करते है कि इस नाटक के और भी प्रदर्शन होंगे ।
जीवेश प्रभाकर

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