लोकसभा चुनाव 2019 में पिछले कई महीनों से यह अटकलें लगाई जा रही थीं कि
युवाओं के बीच अपनी
पहचान बनाने वाले जेएनयू के छात्र नेता रह चुके
कन्हैया कुमार बिहार में महागठबंधन के उम्मीदवार होंगे। भाकपा के भी
केंद्रीय नेताओं से लेकर राज्य नेतृत्व तक यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि राजद
कन्हैया कुमार को महागठबंधन का उम्मीदवार बनाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राजद
के नए नेतृत्व तेजस्वी यादव ने महागठबंधन से कन्हैया को अपना उम्मीदवार
नहीं स्वीकारा। बिहार में राजग व महागठबंधन के इस स्टैंड के बाद भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी ने फैसला किया कि महागठबंधन के समर्थन न मिलने के बावजूद
पार्टी इस सीट पर चुनाव लड़ेगी और कन्हैया कुमार बेगूसराय सीट से ही अब
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) की टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी ने तय किया है कि पार्टी अपने कैडर व जन संगठनों की
ताकत के बल पर चुनाव में उतरेगी। एक अच्छी व सकारात्मक बात ये हुई कि
कन्हैया की उम्मीदवारी को अन्य वामपंथी दल भी अपना समर्थन दे रहे हैं और वह
संयुक्त वाम दलों के उम्मीदवार होंगे।
बहरहाल कन्हैया कुमार की दावेदारी के बाद अब बेगूसराय लोकसभा सीट का
मुकाबला काफी दिलचस्प हो गया है, क्योंकि यहां अब त्रिकोणीय वैचारिक संघर्ष
देखने को मिलेगा। लम्बे अरसे के पश्चात एक बार फिर देश में तीन प्रमुख
विचारधाराओं के बीच सीधे संघर्ष की स्थिति बनी है। बेगूसराय में वामपंथ के
युवा उभरते कन्हैया कुमार के मुकाबले बीजेपी के कट्टर व घोर दक्षिणपंथी
नेता गिरिराज सिंह होंगे वहीं समाजवादी व लोहियावादी विचारधारा को मानने
वाली लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल से तनवीर हसन हैं। निश्चित
रूप से बेगूसराय में विचारधाराओं का ये संघर्ष अनूठा व निर्णायक सिद्ध होगा
जो देश की राजनीति को एक नई दिशा देगा।
बिहार के बेगूसराय को एक जमाने में वाम पार्टियों विशेष रूप से सीपीआई
का गढ़ माना जाता था। यहां तक कि इसे भारत का लेनिनग्राड कहा जाता था। इस
संसदीय सीट पर कई बार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवारों ने जीत का
परचम भी लहराया है। 1990 के बाद धीरे-धीरे सीपीआई बिहार में कमजोर होने लगी
थी और वाम दलों की जीत लालू यादव की पार्टी राजद के समर्थन पर निर्भर होते
चली गई। धीरे-धीरे वाम दल न सिर्फ बिहार बल्कि पूरे देश में सहयोगियों के
समर्थन पर आश्रित होते चले गए।
पहले लालू यादव ने काफी लम्बे समय तक वाम पार्टियों का साथ दिया। अब
राजद का नेतृत्व लालू यादव के युवा पुत्र तेजस्वी के हाथों में है तो
पार्टी के रुख व रणनीति में बदलाव स्पष्ट रूप से दिखने लगा है। यह भी संभव
है कि बूढ़े होते लालू यादव को शायद पुत्र मोह में तेजस्वी के मुकाबले
कन्हैया कुमार या किसी अन्य युवा की लोकप्रियता व सफलता खटक रही हो। यह भी
हो सकता है कि अब सारे निर्णय तेजस्वी ले रहे हैं तो वे नए दौर की नई
रणनीति पर काम कर रहे हों जहां उनकी प्राथमिकताएं अलग होना स्वाभाविक है।
हाल के महागठबंधन में सीटों के बंटवारे से यह तो स्पष्ट है कि चुनाव में
जीत ही तेजस्वी की पहली प्राथमिकता है। इसी के चलते तेजस्वी ने जातिगत
समीकरण को तवज्जो देते हुए वाम दलों की बजाय हम व वीआईपी जैसी नई पार्टियों
को तहरीज दी। संभव है कि राजद के वर्तमान कर्ता-धर्ता तेजस्वी यादव को यह
लग रहा हो कि बेगूसराय में उनके उम्मीदवार तनवीर हसन जो पिछले चुनाव में
मोदी लहर के बावजूद करीब 60 हजार वोटों के करीबी अंतर से हार गए थे इस बार
शायद जीत सकते हैं।
कन्हैया कुमार को गठबंधन का समर्थन न दिए जाने से न सिर्फ वामदल, बल्कि
देश का बहुत बड़ा बौद्धिक वर्ग भी हैरान है। पूरा बौद्धिक समाज इस बात को
बड़ी शिद्दत से सोचने पर मजबूर हुआ है कि जब कांग्रेस, राजद व अन्य
भाजपा-विरोधी गठबंधन के तमाम सहयोगी दल साम्प्रदायिक व फासीवादी ताकतों के
खिलाफ राजनैतिक संघर्ष में जहां वामपंथी पार्टियों का समर्थन चाहते हैं,
एकजुटता का राग अलापते हैं साथ ही देश के फासीवाद व सांप्रदायिक ताकतों से
खतरा बता कर प्रगतिशील व जनवादी साहित्यिक व संस्कृतिकर्मियों का भी समर्थन
हर बार लेते रहते हैं तो सांप्रदायिक व फासीवादी ताकतों से लगातार चुनौती
देने वाले व संघर्ष करने वाले कन्हैया कुमार जैसे युवा नेता जब चुनाव में
खड़े होते हैं तो ये दल उन्हें समर्थन देने की बजाय अपने दलगत स्वार्थों के
चलते ऐसे जुझारू नेताओं से क्यों किनारा कर लेते हैं।
गैरराजनैतिक रूप से देश का बुद्धिजीवी वर्ग हमेशा से सांप्रदायिक व
फासीवादी ताकतों के खिलाफ रहा आया है। जब भी देश पर ऐसे संकट आए हैं
बौद्धिक वर्ग ने इन ताकतों के खिलाफ खुलकर उन दलों और व्यक्तियों को समर्थन
दिया है जो फासीवादी सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ संघर्ष करते महसूस किए
गए। देश में इस पैमाने पर लालू यादव अब तक निर्विवाद रूप से बुद्धिजीवियों
सहित सभी की नजर में सबसे अहम भूमिका में खरे उतरते रहे। मगर इस बार लालू
यादव के बेटे व राजद के युवा नेतृत्व तेजस्वी यादव ने प्राथमिकताएं बदलते
हुए जीत के लिए जातिगत समीकरण को प्राथमिकता दी और गठबंधन में उन्हें ही
शामिल किया व समर्थन दिया। सांप्रदायिकता के पैमाने पर जातिवादी राजनीति को
अपनाने का उनका जीत का फार्मूले से क्या नफा या नुकसान होता है ये तो आने
वाला वक्त ही बताएगा मगर अब समाजवादियों की नई पीढ़ी के इस नए फैसले व रुख
पर वाम दलों के साथ-साथ प्रगतिशील जनवादी बौद्धिक मानस को भी गंभीरता से
विचार करना होगा।
हमेशा हिमालयी भूलें करने वाले वाम दलों ने दूसरों पर आश्रित होते चले
जाने की अपनी सबसे बड़ी भूल पर कभी विचार ही नहीं किया। वाम दलों को अपनी
ताकत बढ़ाने की बजाय पराश्रित होते जाने का खामियाजा आज भुगतना पड़ रहा है।
इस पर भरोसे की आदत ने पूरे वाम आंदोलन को संगठनात्मक स्तर पर कैडर व जमीनी
स्तर पर जनता से दूर सा कर दिया है। जनता से दूर होते जाने से वाम दलों की
ताकत लगातार कमजोर होती गई जिसके चलते सिर्फ बिहार ही नहीं, पूरे देश में
कांग्रेस सहित दूसरी पार्टियां भी वाम दलों से दूरी बनाती जा रही हैं। आज
वाम दलों के पास जनता से बढ़ती अपनी इस दूरी को पाटना चुनाव जीतने से कहीं
ज्यादा बड़ी चुनौती है। इस चुनाव में उभरते युवा वाम आईकॉन कन्हैया कुमार से
वाम आंदोलन क्या एक नए जोश के साथ फिर उभर सकेगा? सभी इसका इंतजार
उत्सुकता से कर रहे हैं।
jeeveshprabhakar@gmail.com
(देशबन्धु 26 मार्च 2019)
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