Thursday, May 9, 2019

प्रज्ञा के बहाने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश ---- जीवेश चौबे



अब प्रयोग का नहीं बल्कि पिछले 3 दशकों से जारी बहुसंख्यक ध्रुवीकरण को अमल में लाकर नतीजे हासिल करने का दौर है। भोपाल से प्रज्ञा ठाकुर उर्फ साध्वी प्रज्ञा इसी रणनीति के तहत सोच समझकर दिग्विजय सिंह के खिलाफ चुनाव में उतारी गई हैं। साध्वी प्रज्ञा की लोकसभा दावेदारी को अनायास कहना उचित नहीं होगा। साध्वी के बहाने भाजपा अपने वास्तविक एजेंडे के साथ खुलकर सीधे-सीधे आर-पार की लड़ाई के लिए शंखनाद कर रही है। अपने प्रारंभिक काल से ही संघ अखंड  हिन्दू भारत की स्थापना के लिए प्रतिबद्ध है। इसे साकार करने आ•ाादी के पश्चात जनसंघ और फिर भाजपा का गठन एक दूरगामी रणनीति के तहत ही किया गया। यह एक लंबी प्रक्रिया का हिस्सा है जिसमें विगत दो-तीन दशकों के दौरान सत्ता पक्ष के कद्दावर नेता भी प्रज्ञा, असीमानन्द कर्नल पुरोहित और बाबू बजरंगी जैसे लोगों के साथ खुलकर खड़े न•ार आते हैं। विशेष रूप से 2014 में पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने के बाद तो भाजपा ने सब कुछ खोलकर रख दिया है। अल्प संख्यक ही नहीं बल्कि सेक्युलर व तर्कशील समाज के खिलाफ भी अब सीधे-सीधे कत्लो गारद और खात्मे का खेल शुरु हो चुका है। कलबुर्गी, गौरी लंकेश इसी हमलावर व आक्रामक होते खेल का हिस्सा है।
        इसे समझने के लिए यह समझना होगा कि तीन चौथाई बहुमत आने के बाद भी उत्तर प्रदेश की बागडोर योगीआदित्यनाथ को सौंप दी जाती है और  पूरी उत्तर प्रदेश भाजपा में कोई हलचल नहीं होती। यह उसी एजेंडे के तहत किया जाता है। साध्वी प्रज्ञा की दावेदारी भी उसी का विस्तार है। प्रज्ञा ठाकुर और योगी आदित्यनाथ की राजनीतिक शैली और भाषा में बड़ा फर्क है। प्रज्ञा अभी उतनी परिपक्व व माहिर नहीं हुई हैं मगर उसके पीछे खड़ी ताकतें पूरी कमान अपने हाथों में रख बड़ी चतुराई से चाल चल रही हैं। दूसरी ओर योगी आदित्यनाथ एक सुलझे हुए और परिपक्व हिन्दू गौरव की तरह सबसे बड़े हिन्दी प्रदेश में आक्रामक शैली में काम कर रहे हैं। नरेन्द्र मोदी की बढ़ती उम्र और घटती लोकप्रियता के विकल्प के रूप में योगी को सुनियोजित रणनीति के तहत आगे लाया जा रहा है।
हिंदू या भगवा आतंकवाद की थ्योरी के जनक मुख्य रूप से दिग्विजय सिंह ही रहे हैं। दिग्विजय सिंह ने खूब नमक-मिर्च लगाकर हिंदू आतंकवाद के मुद्दे को देश की जनता के सामने रखा। उन्हीं ने हिन्दू या भगवा आतंक के आख्यान को देश में फैलाया। यह स्पष्ट है कि दिग्विजय सिंह और कांग्रेस ने इस मुद्दे को ब्रह्मास्त्र की तरह इस्तेमाल कर काफी सुर्खियां बटोरीं। दिग्विजय के इसी एजेण्डे के चलते भाजपा कई मौकों पर असहज होती रही और हमेशा परेशानी में पड़ती रही और कई मौकों पर पूर्व में भाजपा को लगातार सफाई देनी पड़ी। उल्लेखनीय बात यह है कि हिंदू आतंक को लेकर भाजपा को कटघरे में खड़ा करने वाले दिग्विजय सिंह आज भी अपनी कही बातों पर दृढ़ता के साथ जस का तस कायम हैं। भाजपा और संघ परिवार दिग्विजय सिंह के इन आरोपों को भूला नहीं है। इसी के चलते साध्वी प्रज्ञा को दिग्विजय सिंह के खिलाफ मैदान में उतार कर एक स्पष्ट बहुसंख्यक ध्रुवीकरण की योजना को अंजाम दिया जा रहा है। 
          यह साफ है कि भोपाल में साध्वी प्रज्ञा को लाकर भाजपा ने ध्रुवीकरण का माहौल तैयार किया है जिसकाउद्देश्य बहुसंख्यक हिंदू वोटों को एक करने के बहाने साध्वी को धर्म और दिग्विजय सिंह को अधर्म का साथ देने वाला बताना है। यह कोई संयोग नहीं है कि खुद प्रधानमंत्री प्रज्ञा की उम्मीदवारी को सही व न्यायोचित ठहराने में सबसे आगे रहते हैं बल्कि वे इस बहाने इस एजेंडे के विस्तार में सबसे आगे दिखाई देते हैं।  उन्होंने अपनी एक  रैली में यह घोषणा की थी कि हिन्दू कभी आतंकवादी नहीं हो सकता है जो साध्वी प्रज्ञा की दावेदारी को न्यायोचित ठहराने की पुष्टि करने के लिए दिया गया बयान ही है। नरेन्द्र मोदी और भाजपा के विकास का चोला उतर चुका है। भाजपा के संकल्प पत्र में विकास पर हावी हो चुके हिंदुत्व के इस खतरनाक बहुसंख्यक ध्रुवीकरण के एजेंडे को समझना होगा। 
               साध्वी प्रज्ञा की उम्मीदवारी ने हालांकि इस बहस को नए आयाम भी दे दिए हैं। भारत में पिछले पांच साल में हुई लिंचिंग की घटनाओं में सिर्फ अल्पसंख्यक वर्ग को ही निशाना बनाया गया है। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री ने भूले से भी क्या कभी इन घटनाओं में मारे गए किसी भी व्यक्ति के लिए कोई सहानुभूति प्रकट की या संवेदना के दो शब्द कहे? एक ओर मुस्लिम-विरोधी हिंसा के ज्यादातर अभियुक्त अब बाहर हैं साथ ही ऐसे बाकी हमलों के दोषी भी धीरे-धीरे छूट रहे हैं। दूसरी ओर आतंकवादी घटनाओं में कई ऐसे मुस्लिम युवा भी रहे हैं जो अपनी जिंदगी के दस-बीस साल जेल में काट कर निर्दोष साबित हुए हैं , यदि कोई विपक्षी दल इनमें से किसी को अपना उम्मीदवार बना ले तो क्या भाजपा उतनी ही सहजता से उसे स्वीकार कर पाएगी जैसे प्रज्ञा ठाकुर को कर रही है जो अब भी अभियुक्त हैं? इसी मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए पीडीपी की अध्यक्ष और जम्मू-कश्मीर में भाजपा के साथ गठबंधन सरकार की  पूर्व मुख्यमंत्री  महबूबा मुफ्ती ने भाजपा पर तीखा हमला बोलते हुए लिखा कि, 'मैं एक आतंक के आरोपी को मैदान में उतारती हूं तो आप उस क्रोध की कल्पना करिए। चैनल अब तक कइयों बहस करवा चुके होते। इन लोगों के अनुसार जब बात भगवा आतंकवाद की आती है तो आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता लेकिन मुसलमान आतंकी होते हैं, और ये तब तक दोषी रहते हैं जब तक निर्दोष नहीं साबित हो जाते।'
              प्रज्ञा की उम्मीदवारी फिलहाल भारतीय मुख्यधारा में तेजी से पांव पसारती सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति का ही हिस्सा कहा जा सकता है। गौरतलब है कि समाज का बहुत बड़ा हिस्सा इससे असहज महसूस नहीं करता है इसके उलट समाज के बड़े तबके द्वारा अब धीरे-धीरे इस एजेंडे को स्वीकार भी किया जाने लगा है।  इसी अवधारणा को पुख्ता करने और सांप्रदायिक विभाजन की लकीर को साफ तौर पर सामने लाने के लिए ही प्रज्ञा को उतारा गया है। 
प्रज्ञा की दावेदारी साफ तौर पर भाजपा की भविष्य के राजनैतिक एजेंडे को उजागर करती है। इसके साथ ही भाजपा का संकल्प पत्र और भाजपा के कई हालिया बयान इस बात की ओर स्पष्ट इशारा करते हैं कि अगर इन्हें दोबारा सत्ता मिली तो देश में पहले से ज्यादा कट्टरपंथी राजनीति देखने को मिलेगी।  ये दौर बेशर्म और घोर सांप्रदायिक राजनीति का दौर है और यह चुनाव इसका निर्णय करेगा कि देश का बहुसंख्यक मतदाता किस ओर खड़ा है। 2019 के चुनावी नतीजे इस बात का फैसला भी करेंगे कि समाज की बहुलतावादी संरचना में दरार कितनी चौड़ी और गहरी हो चुकी है। ये इस बात को भी तय करेंगे कि संघ व भाजपा के अखंड हिन्दू भारत की राह कितनी आसान या कठिन हुई है। यह चुनाव भारत के अल्पसंख्यकों के सबसे बड़े तबके मुसलमानों के लिए ही नहीं, बल्कि देश की बहुलतावादी संस्कृति के लिए भी अब इंसान और अस्तित्व के संकट की सबसे बड़ी चुनौती के रूप में तब्दील हो गया है। अब लड़ाई सरकार बनाने की नहीं, देश में लोकतंत्र और बहुलतावादी संस्कृति के अस्तित्व को बचाने की है। 
(देशबन्धु में 10 मई 2019 को प्रकाशित)

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