Tuesday, June 25, 2019

धर्म संसद की ओर अग्रसर होती लोकसभा ---- जीवेश चौबे



विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की 17 वीं लोकसभा में नए भारत के चुने हुए जनप्रतिनिधियों ने जमकर धार्मिक नारे लगाए । चुने हुए जनप्रतिनिधियों के ये नारे अपनी जीत के बहुसंख्यक उन्माद के उद्घघोष के साथ ही अल्पसंख्कों को तिरस्कृत करते से सुनाई दिए ।  विगत  70 साल में पहली बार देश की लोकसभा धर्म संसद की तरह व्यवहार करती नजर आई । देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद का निचला सदन, लोकसभा  सांसदों के शपथ ग्रहण के दौरान धर्म की पहचान बताने का अखाड़ा बन गया। ज्यादातर सांसदों ने शपथ लेने के बाद धार्मिक पहचान से जुड़े नारे लगाए। यह नियमों के विरुद्घ था या नहीं ये तो विशेषज्ञ ही मीमांसा कर बता पायेंगे सदन में  मगर किसी भी सांसद ने इसके खिलाफ कोई शिकायत नहीं की ।पूरे शपथ ग्रहण के दौरान जमकर धार्मिक पहचान से जुड़े नारों की मुठभेड़ हुई। जबर्दस्त टोकाटाकी-हंगामे के बीच जय श्री राम, बोले सो निहाल और अल्ला हू अकबर के नारे लगे। इस पूरे प्रकरण का सबसे दुखद और चिंताजनक पहलू रह रहा कि धार्मिक पहचान से जुड़े नारे विपरीत धर्म के सांसदों को चिढ़ाने के अंदाज में लगाते देखे गए। कई सांसदों ने शपथ के बाद अपनी वैचारिक पसंद बताने के लिए नारों का उपयोग किया। ज्यादातर सांसदों ने शपथ के बाद जयश्रीराम, जय मां काली, जय भीम, जय समाजवाद, राधे राधे, वाहे गुरू दी खालासा वाहे गुरू दी फतेह, अल्ला हू अकबर जैसे नारे लगाए।

जब भी कोई सदस्य शपथ लेने आता भाजपा के सदस्य जयश्री राम का नारा लगाने लगते। हद तो तब हो गई जब धर्म विशेष को निशाना बनाकर नारेबाजी की गई । विशेष रूप से जब असादुद्दीन ओवैसी शपथ लेने उठे  तो जयश्री राम-वंदे मातरम का नारा तेज हो गया। ओवैसी भी पीछे नहीं रहे और शपथ लेने के बाद जय भीम अल्ला हू अकबर का नारा लगाया। उनकी भाजपा सदस्यों से नोंकझोंक शुरू हो गई और जयश्री राम का नारा और तेज हो गया। औवैसी ने जब अपनी शपथ पूरी कर ली तो उन्होंने शपथ ग्रहण के पश्चात जय श्रीरीम के जवाब में जय भीम और अल्लाह-हू-अकबर का नारा लगाते हुए अपनी शपथ को खत्म किया। संभल के शफीकुर्रहमान बर्क की बारी आई तो फिर से जयश्री राम का नारा तेज हो गया। इस पर शपथ लेने के बाद बर्क की भाजपा सदस्यों से कहासुनी  हो गई। बर्क ने कहा कि देश का संविधान जिंदाबाद कह सकते हैं मगर वंदेमातरम के खिलाफ है। इस पर सदन में शर्म शर्म के नारे लगे। हेमामालिनी ने शपथ लेने के बाद राधे राधे और कृष्णम वंदे जगत गुरू का नारा लगाया। बसपा सदस्यों ने जयभीम तो सपा के सदस्यों ने जय समाजवाद के नारे लगाए। ओवैसी या  शफीकुर्रहमान बर्क को इस तरह निशाना बनाया जाना किसी सभ्य समाज की संसद में गवारा नहीं किया जा सकता ।
प्रश्न ये उठता है कि एक धर्मनिरपेक्ष देश में आखिर क्योंकर सांसद को धार्मिक आधार पर शपथ दिलाई जाती है । क्या अपने आराध्य की शपथ लेने मात्र से संविधान  पालन की गारंटी मानी जा सकती है ?  देखा जाए तो इतिहास इस तरह की शपथ को झूठा साबित करता है । पिछले कई दशकों से ईश्वर के नाम पर शपथ लेने वाले अधिकांश जनप्रतिनिधियों के चरित्र व क्रियाकलाप संदेहास्पद विवादास्पद और कई मर्तबा तो संविधान विरोधी भी रहे हैं । हाल के वर्षों में जब एक तिहाई से ज्यादा जनप्रतिनिधियों पर आपराधिक धाराएं लगी हुई होती हैं इस तरह ईश्वर के नाम की शपथ लेना ढकोसले के सिवा कुछ नहीं है । यह बात गौरतलब है कि  जिस संसद में आप प्रतिनिधि के तौर पर चुने गए हैं वो कोई धर्म संसद नहीं बल्कि देश की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा है जो किसी भी धर्म के या संप्रदाय के नियमों या कानून से नहीं बल्कि संविधान के अनुसार संचालित होती है । संसद के नियम संविधान में दर्ज हैं जिसमें आप किसी भी मान्यता प्राप्त भाषा व व्यक्तिगत धार्मिक आस्था के अंतर्गत शपथ ले सकते हैं मगर सदन में किसी तरह के धार्मिक या कहें सांप्रदायिक उन्मादी यहां तक कि राजनैतिक  नारे नहीं लगा सकते । नए लोकसभा अध्यक्ष एक बार कहते हैं सदन में नारेबाजी की मनाही है और जब सत्तापक्ष का नाम आता है तो अपने कथन से  मुकर जाते हैं ।
लोकतंत्र सिर्फ नियम कायदों की बिला पर नहीं चला करते बल्कि लोकतंत्र की परिपक्वता चुने
हुए या शीर्ष जनप्रतिनिधियों के नैतिक आचरण व मर्यादा पर ज्यादा निर्भर करती है । नैतिकता की नींव उत्तरदायित्व और जवाबदेही की धारणा के साथ रखी जाती है। लोकतंत्र में सार्वजनिक पद पर आसीन व्यक्ति की  जवाबदेही अंततोगत्वा जनता के प्रति ही होती है ।  हालांकि इसे कानून और नियमों की व्यवस्था से संचालित किया जाता है मगर नैतिकता का स्थान हमेशा नियमों कायदों से ऊपर ही होता है । नैतिकता कानून और नियमों के  निर्धारण को एक आधार प्रदान करती है। यह सार्वजनिक जीवन में शीर्ष स्थान प्राप्त लोगों के आदर्श विचार ही होते हैं जो कानून और नियम का पालन करने के साथ उच्च नैतिक मुल्यों के आधार पर उनका चरित्र निर्माण करते हैं।  लोकतंत्र का मूलभूत सिद्धांत यह है कि सदन की सदस्यता धारण करने वाले या कहें सभी सार्वजनिक पदों पर आसीन व्यक्ति जनता की धरोहर हैं।  सार्वजनिक पद पर आसीन होने वाले सभी लोग जन-जीवन पर पर्याप्त प्रभाव डालते हैं। जनता का बहुत बड़ा वर्ग यह अपेक्षा करता है कि  जनप्रतिनिधि द्वारा अपने दायित्वों व नैतिक मूल्यों का जिम्मेदारी से पालन किया जाना चाहिये। आम जीवन में नैतिकता की भूमिका के अनेक पक्ष हैं मगर सार्वजनिक जीवन में रहने वाले व्यक्तियों के लिए एक  उच्च आचार संहिता के मूल्यों की अपेक्षा की जाती है ।  सार्वजनिक पद पर आसीन लोगों के लिये नैतिक मानदंड क्या होने चाहिये यह कोई लिखित कायदे में होना जरूरी नहीं है बल्कि यह आपके आचार व्यवहार से एक आदर्श के रूप में परिलक्षित होना चाहिए ।
लोकसभा में बहुसंख्यक वर्चस्व का यह भोंडा प्रदर्शन पूरे अल्पसंख्यक समुदाय में भय और अविश्वास का माहौल पैदा कर गया है । देश की सड़कों पर विगत कुछ दशकों के दौरान सभी धार्मिक समुदाय द्वारा विभिन्न जयंतियों और धार्मिक अवसरों पर उन्मादी शक्ति प्रदर्शन का सिलसिला अपने पूरे उन्वान पर पहुंच चुका है । क्या अब देश की संसद इस सड़क छाप शक्ति प्रदर्शन की राह पकड लेगी ?  यह बात समझनी जरूरी है   कि बहुत ही निम्नस्तर के इस सांप्रदायिक व बहुसंख्यक उन्मादी हुंकार के परिणाम दूरगामी होंगे । राजनीति में नैतिकता की दृष्टि से एक दोषयुक्त व सर्वथा पूर्णता की आशा करना अवास्तविक और अव्यवहारिक होगा, मगर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान में राजनीति में जो मानदंड स्थापित किये जा रहे हैं वे तंत्र व समाज के विभिन्न पहलुओं पर निश्चित रूप से महत्त्वपूर्ण असर डालेंगे ।
jeeveshprabhakar@gmail.com
(देशबंधु 26 जून 2019 को प्रकाशित)
जीवेश चौबे

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