Friday, August 9, 2019

कश्मीरियत न खो जाए कहीं इस जश्न में ---जीवेश चौबे-

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था , भारत की एकता भावनात्मक एकता में ही नीहित है। अब जबकि कश्मीर से 370 की दो उप धाराएं खत्म हो चुकी हैं और कश्मीर के सारे विशेषाधिकार खत्म हो चुके हैं इस बात पर ग़ौर करना जरूरी हो जाता है कि इसमें कश्मीरी अवाम का मन या सहमति कहां है । गौरतलब है कि मुख्य रूप से  370 को समाप्त करने के लिए संविधान सभा के माध्यम से कश्मीरी अवाम की भूमिका को महत्वपूर्ण बनाकर उनकी सहमति व जनमत की भूमिका सुनिश्चित की गई थी ।  एक ओर जहां कश्मीर के सभी शीर्ष नेता नज़रबंद हैं वहीं  पूरे प्रदेश में कर्फ्यू लगाकर अवाम की आवाज़ को भी संगीनों के साए में दबा कर रख दिया गया है । इसे  संवैधानिक प्रावधानो को बुरी तरह कुचलकर दस्तावेजी हेरफेर व धोखेबाजी कर कश्मीर को हड़प लिया गया कहना बेहतर होगा । कश्मीर में जो हुआ उसमें जन गायब है, जन मन ग़ैरहाज़िर है   जैसे किसी पंचायत में समर्थ और बाहुबली किसी असहाय का हुक्कापानी बंद कर उसकी कीमती जमीन हड़प लें उसी तरह देश की सबसे बड़ी पंचायत ने कश्मीर को हड़प लिया । आपने कश्मीर की ज़मीन पर तो कब्जा कर लिया मगर कश्मीरी अवाम का दिल जीतकर आपसी विश्वास का पुल बनाने की बजाय  नफरत की एक लम्बी खाई खोद दी जिसे पाट पाना बहुत मुश्किल होगा ।
जब अंग्रेज देश की तमाम रियासतों को आजाद कर गए थे और संविलन के लिए स्वतंत्र कर दिया था ।इतिहासकार रामचंद गुहा की किताब इंडिया आफ्टर गांधी में बताया गया है कि आज़ादी से दो हफ्ते पहले लॉर्ड माउंटबेटन ने राजाओं और नवाबों को  आधिकारिक संबोधन में इंडिया इंडिपेंडेंस एक्टके पारित होने की जानकारी देते हुए कहा कि अब उनकी ब्रिटेन की महारानी के प्रति वफ़ादारी ख़त्म होती है और अब वे अपने और अपनी रियाया के भविष्य के लिए ख़ुद ज़िम्मेदार रहेंगे । इसके साथ ही माउंटबेटेन ने एक प्रकार से उन्हें चेतावनी देते हुए कहा था कि  मगर आप आज़ाद रहने का खवाब न देखें, यदि आप हिंदुस्तान में विलय को स्वीकार करते हैं, तो मैं कांग्रेस की निर्वाचित सरकार से आपके लिए कुछ बेहतर शर्तों मनवाने की कोशिश करूंगा । इसका असर यह हुआ कि 15 अगस्त 1947 आते-आते अधिकांश राजाओं और नवाबों ने विलय की संधि पर दस्तख़त कर दिए , फिर भी कुछ बड़े राज्य जैसे कश्मीर, जूनागढ़, हैदराबाद  आज़ाद रहने का ख़्वाब पाल रहे थे । 
उन परिस्थितियों में सरदार पटेल और जवाहर लाल नेहरू ने और मिलकर ही संघीय भारत की परिकल्पना को अंजाम दिया था । ये नेहरू ही थे जिन्होंने दलगत भावना, राजनैतिक वैचारिक मतभेदों से ऊपर उठकर देश की  संविधान सभा में सभी को शामिल किया। जो नेहरू पटेल आंबेडकर के बीच संबंधों को जानबूझकर कटु सिद्ध कर जनता को गुमराह करने की कोशिश करते हैं वो अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए देश की जनता में भ्रम फैला रहे हैं। आज संसद हो या सड़क सब ओर नेहरू, पटेल, आंबेडकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी या उस दौर के नेताओं पर अपनी सुविधानुसार आरोप प्रत्यारोप कर ताजा हालात से आम जन को बेखबर रखने की कोशिश कर रहे हैं । आजादी के वक्त जिन रियासतों ने भारत में विलय से बचना चहा उन्हें शामिल करने रणनीति व दबाव का भी सहारा लिया गया । यह मगर वहां की जनता की मंशा और सहयोग के चलते ही संभव हो पाया । गौ़रतलब है कि जूनागढ़  में तो जनमत भी कराया गया । जूनागढ़ का नवाब  पाकिस्तान में शामिल होना चाहता था मगर अवाम भारत के पक्ष में थी । अततः  जनमत का सहारा लिया गया और जनता ने प्रचंड बहुमत से  भारत के साथ विलय के पक्ष में मत किया ।
ऐसा भी नहीं है कि 1947 के बाद  भारत में किसी राज्यों का विलय नहीं किया गया हो मगर उनमें हमेशा वहां की जनता की सहमति व इच्छा को प्राथमिकता दी गई । इसमें गोवा का भारत में विलय एक नजीर की तरह देखा जा सकता है ।  गोवा को भारत में शामिल करने के लिए के लिए तो बाकायदा एक लम्बा जनसंघर्ष चला और लोगों ने कुर्बानियां भी दीं तब जाकर आज़ादी के लगभग दो दशक बाद जनमत को अपने पक्ष में करके ही गोवा को भारत का अभिन्न अंग बनाया गया । यह भी समझना होगा कि आजादी के 28 बरस बाद 1975 में सिक्किम के  सामरिक महत्व को देखते हुए पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रणनीति के तहत आजाद सिक्किम को भारत के साथ विलय किया । । इसमें भी सिक्किम के जनमत की  भूमिका ही अहम रही । हालांकि सिक्किम के भारत के साथ विलय में राजनयिकों के साथ साथ भारत की ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ ने भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई मगर अपनी बेहतरीन कूटनीति के बल पर इंदिरा गांधी ने सिक्किम की जनता को राजा के खिलाफ कर  अपने पक्ष में किया । जिससे जनमत संग्रह में सिक्किम की लगभग 98 प्रतिशत जनता ने भारत के साथ विलय को पसंद किया और सिक्किम को  भारत का अंग बना लिया गया
          एनडीए सरकार के मंत्री कह रहे हैं कि उन्होने नेहरू की 370 को लेकर घिसते घिसते घिस जाने वाली  मंशा को ही मूर्तरूप दिया है , मगर क्या नेहरू अपनी मंशा को इस तरह पूरी होते देखना चाहते थे ?  निश्चित रूप से नहीं । नेहरू का आशय कश्मीर और भारत के अवाम की आपस में भवनात्मक एकता से था जिसे गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ने पूरे भारत के परिप्रक्ष्य में कहा था । यदि इन वर्षों में ऐसा हो पाता तो धारा 370 खत्म करने में कश्मीर की जनता सबसे आगे होती और पूरे देश के साथ जश्न मनाती । आज कश्मीरी अवाम जिसका  370 से सबसे गहरा ताल्लुक है इस ऐतिहासिक फैसले से अवाक है ।
अहम सवाल ये है कि 370 हटा देने के पश्चात क्या कश्मीरी अवाम की मूलभूत समस्याएं दूर हो जायेंगी ? क्या वहां का आम आदमी घाटी में बरसों से चली आ रही हिंसा और आतंक से निजात पा सकेगा ।  सरकार  इस मसले पर कश्मीरी अवाम को केन्द्र सरकार पर भरोसा करने की बात कर रही है जो ऐसे हालात में काफी मुश्किल लगता है । जब आप इतने बड़े और अहम फैसले के वक्त कश्मीरी अवाम को ही भरोसे में नहीं ले पा रहे हैं तो कश्मीर का अवाम आप पर कैसे भरोसा कर सकता है । अवाम का भरोसा हासिल किया जाता है न कि मांगा जाता है । यानि आपकी नीति व नीयत में फर्क हो तो अवाम आप पर भरोसा नहीं कर सकता । क्यों आज सरकार कश्मीरी अवाम को साथ ले पाने में कामयाब नहीं हो पाई । यह एक गंभीर प्रश्न है । पिछले तीन दशकों में कश्मीरी अवाम में हिन्दस्तान के प्रति लगातार गुस्सा व अविश्वास बढ़ता गया है और किसी भी सरकार ने इस पर सहानुभूति या गंभीरता से कोई नीति नहीं बनाई । इसके उलट हर सरकार ने कश्मीरी अवाम को सिर्फ सेना के बल पर काबू में करने का प्रयास किया है। यह बात भी समझनी होगी कि जितना सेना का दखल बढ़ा उतना ही अवाम का आक्रोश भी बढ़ता गया ।
  विगत वर्षों पर ग़ौर किया जाए तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि 370 काफी हद तक कमजोर हो चुकी थी मगर सबको जो परेशानी थी वो 35अ से थी, विशेष रूप से उन भूमाफियाओं को और कॉर्पोरेट को जो जन्नत को जहन्नुम बनाने के लिए बेताब हुए जा रहे हैं । आज संगीनो के साए में कश्मीरी अवाम कैद है मगर इसे बहुत दिन दबाया नहीं जा सकता है । दूसरी ओर अलगाववादी ताकतें इस फैसले को लेकर अपने मंसूबों को पूरा करने कश्मीरी अवाम को भड़काने की पूरी कोशिश करेंगे । भविष्य में इन फिरकापरस्त और आतंकी संगठनों से निपटने के लिए देशभर से ज्यादा कश्मीरी जनमानस को अपने भरोसे में लेना होगा जो  सरकार के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है । इस चुनौती पर तभी खरा उतर पायेंगे जब  हम कश्मीरी अवाम को भावनात्मक रूप से पूरे देश के साथ जोड़  सकेंगे ।

(देशबंधु में 9 अगस्त 2019 को प्रकाशित)

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