Saturday, January 25, 2020

सवाल नागरिकता खोने का नहीं. नागरिक होने का है -- जीवेश चौबे

देश भर में लगातार नागरिकता को लेकर बहस और आंदोलन जारी है । नागरिकता कानून में संशोधन से आगे जनगणना रजिस्टर और नागरिकता रजिस्टर को लेकर उपजे भय और संशय के चलते देश के हर भाग में लगातार लोग सड़कों पर हैं और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी विपक्षियों पर जनता में भ्रम फैलाने का आरोप लगाकर दमन की नीति अपना रही है । भाजपा लगातार यह बात दुहरा रही है कि ये कानून नागरिकता देने का है छीनने का नहीं और इससे किसी की नागरिकता छीनने या खोने का कोई कोई सवाल नहीं उठता है । लेकिन सवाल नागरिकता खोने का नहीं बल्कि नागरिक होने का है । इस बात को समझना होगा कि हमारे देश के संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता एक महत्वपूर्ण पक्ष है जिसकी बुनियाद पर ही भारत की एकता और अखंडता तमाम उतार चढ़ाव के बावजूद अब तक कायम रह पाई है । इसे संरक्षित और सुरक्षित ऱखना हर नागरिक की जवाबदारी है ।जब जब सरकारें संविधान की मूल भावनाओं से खिलवाड करती हैं आम नागरिक सड़कों पर आकर देश और संविधान की रक्षा के लिए संघर्ष करता है ।
  यह बात भी समझनी होगी कि भाजपा ने इस कानून के बहाने हिन्दू राष्ट्र के अपने मूल एजेण्डे पर सीधी कार्यवाही शुरु कर दी है । भारत में आज तक नागरिकता   धर्म आधारित कभी नहीं रही मगर इस कानून संशोधन के बाद, भले ही शरणार्थियों के लिए हो, मगर नागरिकता की राह में धर्म का टोल स्थापित कर दिया गया है । कानून में किसी धर्म का उल्लेख भले न हो मगर जिस तरह पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के लिए ही यह कानून संशोधन किया गया उससे भाजपा की मंशा साफ तौर पर समझी जा सकती है । अन्यथा श्रीलंका, चीन, म्यानमार, आदि भी हमारे पड़ोसी देश हैं और वहां भी अल्पसंख्यक प्रताड़ित होते रहे हैं । विशेषकर श्रीलंका में तो तमिलों की हालत बहुत दयनीय है, यदि भाजपा हिन्दुओं की पैरोकार बनती है तो ये सवाल उठना वाजिब है कि क्या भाजपा तमिलों को हिन्दू नहीं मानती ? इन्हीं विरोधाभासों के चलते भाजपा की मंशा पर सवाल उठाए जा रहे हैं ।
सवाल तो ये भी उठता है कि जिन नागरिकों ने अपने मताधिकार से आपको दोबारा सत्ता में बिठाया आप उन्हे ही नागरिकता सिद्ध करने के लिए कहेंगे । नागरिकता के अब तक मान्य तमाम दस्तावेजों को खारिज कर एक नए प्रमाणपत्र के लिए पूरे देश को खंगालने के पीछे छुपी मंशा को राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के लिए तय किए गए मापदण्डों के लिए तैयार किए गए सवालों के खांचों से समझा जा सकता है । राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर पहले भी बनाया गया मगर नीयत का अंतर नागरिकों में ख़ौफ पैदा कर रहा है । इन सवालों के संविधान की मूल भावनाओं के खिलाफ पीछे छुपे भारतीय जनता पार्टी के एजेंडे को देश का शिक्षित व जागरूक वर्ग समझ रहा है और इसीलिए देश के तमाम शहरों में लोग सड़कों पर निकलकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं ।
दूसरी ओर नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन के जवाब में या कहें नागरिकता संसोधन व रजिस्टर कानून  की खिलाफत को व्यापक जनआंदोलन बनने से रोकने सरकार से इतर भारतीय जनता पार्टी का संगठन खुलकर सामने आ गया है । इस परिप्रेक्ष्य में यह बात भी स्वीकारनी ही होगी कि राम मंदिर का मसला खत्म हो जाने के बाद नागरिकता कानून और नागरिकता रजिस्टर को लेकर देश में एक बार फिर सांप्रदायिक ध्रवीकरण हो गया है । यह बात भी काबिले ग़ौर है कि  नागरिकता कानून के लिए समर्थन जुटाने के बहाने भाजपा के साथ साथ तमाम कट्टर हिन्दू संगठन पूरी ताकत से शहर दर शहर रैलियां और प्रदर्शन कर इस ध्रवीकरण को और मजबूत करने के प्रयास में पूरी शिद्दत से जुट गए हैं। इस संयुक्त व संगठित प्रयासों से भारतीय जनता पार्टी अपनी सुनियोजित रणनिति व व्यापक कैडर बल के चलते एक बड़े बहुसंख्यक समुदाय को अपनी बात मनवाने में यदि सफल नहीं भी रही हो तो भी कम से कम बहुसंख्यकों को अपने साथ दिखा पाने में सफल कही जा सकती है ।
भले यह भ्रम हो मगर भाजपा की इस रणनीति के चलते ताजा हालात में कोई दल बहुसंख्यक वोट बैंक के खिलाफ जाने का साहस नहीं कर पा रहा है । बुहसंख्यक वोट बैंक का खौ़फ लगभग सभी विपक्षी दलों पर बुरी कदर हावी हो गया है । न सिर्फ कॉंग्रेस बल्कि विभिन्न ताकतवर क्षेत्रीय दल भी असमंजस की स्थिति से उबर नहीं पा रहे हैं । हालांकि सभी दल के शीर्ष नेता मीडिया,सोशल मीडिया या विभिन्न मंचों पर आंदोलनकारियों के साथ होने की घोषणा जरूर कर रहे हैं मगर औपचारिक रूप से दलीय स्तर पर सीधे सीधे आंदोलनकारियों के साथ खड़े नहीं दिख रहे हैं । बंगाल में तृणमूल पार्टी  , बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और वाम दलों को छोड़कर कोई भी विपक्षी दल खुलकर इन आंदोलनों में दलीय भागीदारी दिखाने से किनारा करता नज़र आ रहा है । बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी व कुछ अन्य दलों की निष्क्रियता या सधी बधी प्रतिक्रिया संशय के दायरे में है, हालांकि इन दलों से आम जनता को भरपूर समर्थन की उम्मीदें थी । 
 इसी खौ़फ का परिणाम है कि आंदोलनों के लिए विख्यात बल्कि आंदोलनों से ही उबरे और सत्ता हासिल किए आम आदमी पार्टी और उनके नेता अरविंद केजरीवाल भी दिल्ली चुनाव के चलते दिल्ली में जारी शाहीन बाग के आंदोलन में खुलकर व साफ तौर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने से कतरा गए हैं । 
अब सवाल उठता है कि देशभर में हो रहे इस विरोध में सड़कों पर उतरे नागरिकों के साथ कौन है । निश्चित रूप से देशभर के प्रबुद्धजन और सिविल सोसायटी से जुड़े लोग आत्म संज्ञान से इस संभावित कतरे के खिलाफ आंदोलनरत हैं । देश का हर वो जागरूक और नागरिकबोध और संविधान के लिए समर्पित हर संवेदनशील नागरिक स्वस्फूर्त इस आंदोलन में शामिल है । सरकार और विशेषरूप से भाजपा के लिए यही तकलीफदेह है कि विपक्षी दलों की बजाय आम नागरिक विरोध में सड़कों पर उतर आया है । इसमें भी महिलाओं की भागीदारी से भाजपा और ज्यादा परेशान है । वो हर तरह से यहां तक कि अपने गुर्गों के जरिए महिलाओं को अपमानित करने ओछी टिप्पणियों से भी गुरेज नहीं कर रही है । दमन के तमाम हथकण्डे अपना रही है । अब तो महिलाओं और बच्चों का लिहाज तक ताक पर रख दिया है ।
दरअसल हिन्दू राष्ट्र के स्वप्न को पूरा करने की राह में एनपीआर और एनआरसी सबसे अहम पड़ाव है जिसे भाजपा हर हालत में लागू करना चाहेगी । अपनी मंशा को पूरा करने भाजपा ने सरकार की शक्तियों के साथ अपना पूरा संगठन झोंक दिया है । इस ताकत का सामना करने नागरिक या सिविल सोसायटी के प्रतिरोध के साथ एक संगठित शक्ति का होना निहायत जरूरी है । इसके लिए लोकतंत्र के पैरोकार तमाम राजनैतिक दलों को सतही राजनैतिक आकांक्षाओं महत्वाकांक्षाओं को ताक में रख संगठनात्मक रूप से पूरी ताकत बटोरकर इस नागरिक संघर्ष में आम जन के साथ शामिल होना पड़ेगा तभी कुछ सकारात्मक परिणाम की उम्मीद की जा सकती है ।

जीवेश चौबे
jeeveshprabhakar@gmail.com


(जीवेश चौबे कानपुर से प्रकाशित वैचारिक पत्रिका अकार में उप संपादक हैं। कवि, कथाकार एवं समसामयिक मुद्दों पर लगातार लिखते रहते हैं।

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