Saturday, December 20, 2014

अकार -39 में पढ़ें...

नवजागरण के संभ्रात नायक : बदरुद्दीन तैयब- कर्मेन्दु शिशिर

….शैक्षणिक और सांस्कृतिक रूप से मुस्लिम समाज को समृध्द और परिष्कृत करने में उनका योगदान अप्रतिम है। ऐसे में उनकी ब्रिटिश हुकूमत की पक्षधरता भी कोई असंगत बात नहीं थी। लेकिन इस क्रम में उनका इतनी दूर तक चले जाना कि उन्होंने पूरी मुस्लिम कौम को ही कांग्रेस से दूर रहने की न सिर्फ हिदायतें दीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य के अनंतकाल तक बने रहने का विश्वास भी दिया, कारण चाहे जो रहे हों, यह बात उनके जैसे व्यक्तित्व के अनुरूप नहीं थी। वे जिस हैसियत के रहनुमा थे, उनकी अतीत में जैसी ऊँची सोच रही थी, उनका जैसा व्यवहार और जीवन रहा था- उसमें उनसे उम्मीद बहुत बड़ी थी। वे चाहते तो कोई ऐसी तवीज सोच सकते थे, जिससे मुस्लिम हितों की सुरक्षा के साथ देश की मुक्ति की दिशा भी सूझती। वे हिन्दू, मुस्लिम सहित तमाम कौमों के बीच सह-अस्तित्व की एक ऐसी वैचारिक नींव रोप सकते थे- जो उन्हें भारत का पितामह बना सकती थी। यह एक ऐसी चूक थी, जिससे उनसे प्रेरित और प्रभावित नवजागरण के अनेक मुस्लिम नायकों ने इत्तेफाक नहीं रखा। उनके प्रति पूरे आदर के बावजूद उनके इस निर्णय और सोच का विरोध किया। इनमें शिबली नोमानी, ज् ाफर अली खान से हसरत मोहानी जैसे नामचीन लोग थे। उनसे उम्र में कनिष्ठ लेकिन उनके समकालीनों में अत्यन्त प्रतिष्ठित रहे बदरुद्दीन तैयबजी तो उन लोगों में थे, जिन्होंने उनकी इस सोच से असहमति दर्ज की और उनकी इच्छा के विपरीत 1887 में आयोजित तीसरी कांग्रेस की अध्यक्षता भी की।…..
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Monday, December 15, 2014

रायपुर साहित्य महोत्सव पर------------निर्वाचित हत्यारों के साथ रायपुर मेँ ---विमल कुमार

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मैं रायपुर जाना चाहता हूँ
हत्यारों के सामने शीश नवाने के लिए
उन्हें बताने के लिए 
कि मुल्क में अब बहुत शांति है
दंगे फसाद अब नहीं होते
और कोई भूखा नहीं है अब
डिजिटल इंडिया में
मैं रायपुर जाकर यह भी बताना चाहता हूँ
कि तुम मुझे खरीद भी सकते हो
इस तरह सम्मानित करके
जब चाहो
तुम जहाँ भी करोगे आमंत्रित
वहां हम हाज़िर हो जायेंगे
बिलाशक
मैं अभी जा रहा हूँ
निकल गया हूँ घर से
क्योंकि वहां जाना बहुत जरूरी है
लोकतंत्र की रक्षा के लिए
अगर मैं नहीं गया वहां तो
तो तुम मुझे एक दिन
इतिहास से भी बाहर कर दोगे
जा रहा हूँ
कि उनके अल्बम में एक तस्वीर मेरी भी हो
कम से कम
निर्वाचित हत्यारों के साथ
जो तस्दीक करे
कि मैं कहाँ खड़ा था अपने समय में
-विमल कुमार
( ताकि सनद रहे और वक्त ज़रुरत काम आये )

Thursday, December 11, 2014

छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के 11 वर्ष : -जीवेश चौबे

छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के 11 वर्ष : -जीवेश चौबे 
इस दिसम्बर छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के 11 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं । लगातार तीसरी बार जीतने का शानदार रिकार्ड बनाकर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने देश में अपना नाम व मान बढ़ाया है । प्रदेश गठन के पश्चात हुए पहले स्वतंत्र चुनाव में डॉ. रमन सिंह ने पहली बार 2003 में बहुमत प्राप्त किया था । तब लगभग अजेय समझे जाने वाले कांग्रेस के अजीत जोगी को मात देकर डॉ. रमन सिंह ने पहली बार छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री का पद संभाला ,तब से लगातार उन्होंने अपनी सौम्य व संयत छवि से प्रदेश के मतदाताओं को अपने मोह से बांधे रखा है। 2008 एवं पिछले वर्ष 2013 दोनों ही चुनावों में तमाम अटकलों को विराम देते हुए उन्हों जीत का परचम लहराया । इस वर्ष उनकी हैट्रिक को 1 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं । इस पर सुहागा ये कि केन्द में भी भाजपा की सरकार पूर्ण बहुमत से सत्ता में आ गई है, तो अब जीत की हैट्रिक का जश्न तो बनता है । इसी खुशी को सार्वजनिक रूप से मनाने के बहाने आने वाले निकाय चुनावों में पकड़ बनाने के उद्देश्य से भाजपा के प्रदेश नेतृत्व ने जश्न को वृहत्तर स्तर पर आयोजित किया है । इस कड़ी में दो महत्वपूर्ण आयोजन किए जा रहे हैं । एक राजनैतिक व सांगठिक स्तर पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की रैली एवं दूसरा बौद्धिक वर्ग को संतुष्ठ करने राष्ट्रीय स्तर का साहित्यिक आयोजन, रायपुर साहित्य महोत्सव, इसी कड़ी में पहली बार आयोजित किया जा रहा है । 12 दिसम्बर को अमित शाह की रैली एवं साहित्यिक महोत्सव का आयोजन इसी मायने में महत्वपूर्ण है कि प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार लगातार तीसरी बार सत्ता में आई है एवं तीसरी बार सत्ता में आने एक वर्ष भी पूर्ण हो रहे हैं । भाजपा की यह उपलब्धि कम नहीं है । ऐसा नहीं है कि भाजपा को यह उपलब्धि कोई थाली में परोसकर मिली हो । इन 11 वर्षों में ऐसी कई घटनाएं हुई जिससे लगा कि अब भाजपा के दिन लद गए मगर पार्टी जीतने में कामयाब रही । पिछले कार्यकाल में गर्भाशय कांड से लेकर झीरम घाटी तक की वारदातों ने भाजपा की नींद उड़ा दी थी । मगर कांग्रेस अपेक्षित लाभ उठाने में नाकाम रही । इधर तीसरी बार सत्ता में आई भाजपा के लिये यह एक वर्ष भी काफी दुखदायी रहा है । हाल ही में नसबंदी कांड , फिर नक्सल हमले में जवानों की मौत और फिर नवजात शिशुओं की लगातार मौतों ने सरकार को परेशानियों के साथ साथ सवालों के कटघरे में भी खड़ा कर दिया है । विपक्षी दल कांग्रेस लगातार इन मुद्दों पर सरकार को घेर रहा है मगर आम जनता में किसी तरह न तो कोई जन आंदोलन खड़ा हुआ न ही सामाजिक स्तर पर कोई ठोस विरोध के साथ सामने आया । कुल मिलाकर राजनैतिक विरोध की आड़ में संवेदनशील मद्दे दब कर रह गए। काँग्रेस ने तमाम तरीके अपनाए यहां तक कि देश की राजधानी दिल्ली में भी राय सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किए , मगर आब तक तो कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया । विपक्षी दल कांग्रेस ने इन हादसों को लेकर साहित्य महोत्सव का भी विरोध किया । साहित्यकारों से महोत्सव में शामिल न होने की अपील की इसका आगे क्या असर होगा यह तो समय बताएगा मगर अब तक तो किसी साहित्यकार ने काँग्रेस की अपील को गंभीरता से लिया हो ऐसा लगता नहीं है । विपक्षी दल के नाते कांग्रेस का विरोध भी अपनी जगह ठीक है । यदि भाजपा विपक्ष में होती तो वह भी यही करती । बात साहित्यकारों की करें तो यह बात काफी दुखद भी है कि पूर्व में भी किसी घटना पर कभी भी साहित्यकारों की कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती रही । विशेष रूप से छत्तीसगढ में गर्भाशय कांड, झीरम घाटी ,नसबंदी कांड , नवजात शिशुओं की मौत से लेकरअभी या पूर्व में भी नक्सली हमलों में मारे गए जवानों का मामला हो, इन किसी भी हादसों में अंचल के साहित्यिक बौद्धिक हलकों में कोई प्रतिक्रिया दिखलाई नहीं दी । इससे इन आत्मकेन्द्रितों की संवेदनशीलता का अंदाजा लगाया जा सकता है । ऐसे लोगों से अपील करने का क्या तुक? और इसका नतीजा भी कुछ कुछ देखने मिला जब अखबारों में कुछ साहित्यकारों के साक्षात्कारों में उन्होंने खुलकर कांग्रेस की अपील को खारिज कर दिया। वैसे यह ठीक भी है कि कांग्रेस के कहने से कोई क्यों चले ? लोग कहने लगे कि अशोक बाजपेयी ने तो दशकों पूर्व कांग्रेस के शासनकाल में भोपाल गैस त्रासदी के ठीक बाद हुए साहित्यिक महोत्सव में कहा था कि मुर्दो के साथ मर नहीं जाते । कल भी साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि महोत्सव है कोई मनोरंजन नहीं जिसका विरोध किया जाय , इतने वरिष्ठ और विद्वान साहित्यकार ने प्रतिक्रिया में कहा तो ठीक ही होगा । विभिन्न मसलों पर अक्सर बौद्धिक साहित्यिक वर्ग सर्द खामोशी ओढ़े रहता है । इक्का दुक्का साहित्यकारों को छोड़ सराकरी प्राश्रय प्राप्त साहित्यकार अक्सर चुप रहकर अपनी रोटियाँ सेकते रहते हैं । एक सतही और चलताऊ सा तर्क दे देते हैं कि हर घटना पर कोई झण्डा उठा लेना, धरना देना या सड़क पर आना तो जरूरी नहीं है ... मुद्दों से कन्नी काट जाने का यह अच्छा बहाना होता है । इस बीच नक्सलियों के हमले में एक बार फिर जवानों की मौत हुई । नक्सल मोर्चे पर सरकार लगातार नाकाम हो रही है । अब तो केन्द्र में भी भाजपा की सरकार है तो ठीकरा केन्द्र पर मढ़ना भी संभव नहीं हो पा रहा है । केन्द्रिय गृहमंत्री आए और राजधानी से ही लौट गए । बस्तर मुख्यालय जगदलपुर तक जाने की ज़ेहनत नहीं उठाई । छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से ही केन्द्र की उपेक्षा का शिकार रहा है चाहे केन्द्र में कांग्रेस की सरकार रही हो या भाजपा की । इन सब मुद्दों पर हर तरह के विरोध विपक्षी दल करते रहे हैं । यह विपक्ष का कर्म भी है और धर्म भी। मगर हकीकत ये है कि भाजपा विगत 11 वर्षों से लगातार सत्ता में काबिज है और मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को फिलहाल किसी भी तरह की कोई गंभीर चुनौती मिलती दिख नहीं रही है । तो सफलता का जश्न भी लाजमी है जो अमित शाह की रैली और रायपुर साहित्य महोत्सव के रूप में मनाया जा रहा है । ®®®

Wednesday, December 3, 2014

खेल कभी खत्म नहीं होता......... '63 नाबाद- हमेशा'- फ़िल ह्यूज़ को याद करते हुए....


शेफ़ील्ड शील्ड के एक मैच के दौरान दक्षिण ऑस्ट्रेलिया के लिए खेल रहे ह्यूज़ के हेलमेट पर न्यू साउथ वेल्स के गेंदबाज शॉन एबॉट की गेंद ज़ोर से जा लगी. ह्यूज़ ने साल 2009 से 2013 के बीच 26 टेस्ट मैच खेले थे. ह्यूज़ ने साथी खिलाड़ी एस्टन एगर के साथ मिलकर 2013 में इंग्लैंड के ख़िलाफ़ दसवें विकेट के लिए रिकॉर्ड 163 रनों की साझेदारी की थी.
     क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया ने एक अपडेट जारी करके फिलिप ह्यूज़ के अंतिम स्कोर को 63 नाबाद से '63 नाबाद- हमेशा' कर दिया है.क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया के प्रमुख जेम्स सुदरलैंड ने कहा, "यह मामूली बात लग सकती है, लेकिन यह महत्वपूर्ण सम्मान है. फ़िलिप सदा के लिए 63 पर नाबाद रहेंगे."
          यह काफी दुखद घटना थी जिसमें एक खिलाड़ी को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। मगर हाल में चल रही इन चर्चाओं का कोई अर्थ नहीं कि क्रिकेट में बाउंसर पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए । निश्चित रूप यह एक दर्दनाक हादसा था मगर ऐसे हादसों से खेल रुका नहीं करते । बहुत पहले , लगभग 50 वर्ष पहले, हमारे देश के मशहूर खिलाड़ी नारी कॉन्ट्रेक्टर का को भी इसी तरह बाउंसर से चोट लगी थी हालांकि वे बच गए थे मगर उसके बाद उनका क्रिकेट जीवन समाप्त हो गया था ।लेकिन उन्होंने भी कभी बाउंसर प्रतिबंधित करने की बात नहीं की ।
  हादसे जीवन मे होते रहते हैं । कुछ हादसों में जीवन दांव पर होता है कुछ में व्यक्ति की जान चली जाती है मगर दुनिया चलती रहती है । मेरा ख्याल है कि यदि ह्यूज़ बच जाते और खेलने लायक नहीं रहते तो वे खुद भी कभी बाउंसर प्रतिबंधित करने का पक्ष नहीं लेते । उनके माता पिता तक गेंदबाज शॉन एबॉट को किसी तरह दोषी नहीं मानते । उनके जस्बे और दिलेरी की तारीफ करनी होगी । पूरा खेल जगत स्तब्ध है और एक खामोशी सी छाई है मगर खेल जारी रहता आया है । हम सब ह्यूज़ को कङी भूल नहीं पायेंगे । हमारी श्रद्धांजली ........