Thursday, August 24, 2017

अकार-47 में : गेर्निका होता समय- अशोक भौमिक

जब प्रेम, शांति और सहिष्णुता के संभव होने पर विश्वास टूटने लगे, जब घृणा, क्रूरता, असत्य और रक्त का उन्मादस्वीकृति पाकर विजयी या निर्णायक होने लगे, तब रचनाकार के अंदर की रचनात्मकता टूटना शुरु होती है । एक रचनाकार के लिये ये संकट और संघर्ष के क्षण होते हैं । चारों ओर हिंसक फुसफुसाहटों से भरे वातावरण में वह अपने रचनाकार की अप्रत्यक्ष हत्या किए जाने को महसूस करता है । नतीजे में सबसे पहले तो वह इसको चुप और हैरतज़दा होकर अविश्वास से देखता है, फिर इसके विरुद्ध चीखता है। यह चीख अक्सर दोधारी होती है। अगर रचना के रुप में सार्र्थकता के साथ बाहर नहीं निकली, तो अंदर ही अंदर रचनाकार को छीलती रहती है । पर अगर पूरी शक्ति से बाहर निकल सकी, तो इन विनाशक व अमानवीय शक्तियों के विरुद्ध सबसे बड़ा वक्तव्य बन जाती है । पिकासो का कालजयी चित्र 'गेर्निका', युद्ध और हिंसा के क्रूर उन्माद के विरुद्ध ऐसी ही एक चीख है ।


       जुलाई 1937 में यह चित्र पहली बार पेरिस की अंतराष्ट्रीय प्रदर्शनी में प्रदर्शित हुआ था । संयोग है कि यह वर्ष 'गेर्निका' का 80वां जयन्ती वर्ष है और समय भी फिर उतना ही क्रूर और आशंकित करने वाला हो चला है। 'गेर्निका' अनायास ही हमारे लिये एक बार फिर प्रासंगिक हो रहा है। हम अशोक भौमिक के आभारी हैं कि उन्होंने हमारे अनुरोध पर इस चित्र को केन्द्र में रखकर उन्मादी और निरंकुश सत्ताओं के विरूद्ध चित्रों में दर्ज़ चीखों को इस लेख में शब्दों की शक्ल में उतारा है । बहुत श्रम से उन्होंने अनेक चित्रों को संयोजित व व्याख्यायित कर हमारे पाठकों के लिये उन्हें उपलब्ध कराया है । इस अंक के मुख पृष्ठ तथा अंदर के दोनों रंगीन चित्र भी अशोक जी द्वारा उपलब्ध कराए गए हैं । अशोक जी के प्रति पुन: आभार प्रकट करते हुए, 'गेर्निका' के अस्सीवें जन्म वर्ष पर उसकी वर्तमान प्रासंगिकता को रेखांकित करने वाली इस व्याख्या को हम पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर रहे हैं । (प्रियंवद.)
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