Monday, February 5, 2018

खतरे में हैं दोनों...बाज़ार के दरख्त, सवाल के दरख्त------ जीवेश प्रभाकर

पौधों को पानी नहीं , आग को हवा देने लगे हैं.....

जिब्बू पैमाने तरक्की के कितने सख्त हो गए
कि जिसकी राह में  फ़ना  कई  दरख्त़  हो गए

निपट नीले आकाश की सुंदरता के साथ तीखी आग सी धूप का गर्म अहसास भी होता है जो अक्सर घर से निकलते ही परेशान करता है । ये गर्म अहसास किसी छांव की पनाह मांगता है । शहरों में ये पनाह अक्सर किसी बहुमंजिली इमारत की फैलती परछाइयों में होती है मगर इन परछाइयों में पैर पसारे बाज़ार आपको कहीं खड़े नहीं होने देते । इन परछाइयों के रखवाले सिर्फ बाज़ार के ग्राहकों पे ही मेहरबान हुआ करते हैं , राह चलते किसी राहगीर को इन परछाइयों में कोई राहत नहीं मिल सकती ।
किसी विशाल दरख्त की ठंडी घनी छांव हमेशा सुकून ही देती है । अपने छुटपने में कभी अपने पिता की सायकल पर या मां के साथ पैदल बाजार आते थककर कभी ऐसे दरख्तों के नीचे कुछ पल खड़े हो चुके होते हैं सभी ।
कुछ ऐसे भी दरख्त होते हैं जिसके बारे में पिता बताए होते हैं कि उनके पिता को भी नहीं मालूम था ये किसने लगाए, कब लगाए। यूं पीढियों से अपने जन्म को लेकर प्रश्नचिन्ह में घिरे दरख्त को एक दिन यकायक कोई गिराकर हमेशा के लिए उसे प्रश्नपत्र से बाहर कर देता है। फिर क्यों गिराया भी एक अनुत्तरित प्रश्न बना रह जाता है । हतप्रभ से लोग बस देखते रह जाते हैं, फिर होश में आने पर कुछ हलचल होती है और लोग फिर सवाल करते हैं कि क्यों गिराया ....। बाज़ार फिर बड़ी हिमाकत से ऐसे सवाल पूछने वालों को धमकाता है कि गिराना था गिरा दिया, तुमने कैसे पूछा,  क्यों गिराया ....
कुछ संजीदा लोगों के दिलो दिमाग पे मगर सवाल दर सवाल लगातार एक घन की मानिंद चोट पर चोट कर रहे हैं । एक ऐसा तबका है जो भीतर ही भीतर समाज को छीजता, टूटता देख रहा है और टूटकर बिखर जाने की हद तक की आशंकाओं से घबरा रहा है और घबरा के सवाल भी करता है । ये सवाल, ये चिंता ...ये भी दरख्त ही हैं जहां अफवाहों की गर्मी से समाज को सुकून भरी पनाह मिलती है । लोग ऐसे दरख्तों को भी उखाड़ फेंकना चाहते हैं । कई मर्तबा बाजार इसे उनके सुविधाजनक या सधे बधे, गुने चुने विरोध का जामा पहनाकर उनकी चिंताओं को सतही बताकर उपेक्षा या मजाक का विषय बना देते हैं ।  
बाज़ार ने इधर चिंताओं के भी पैमाने बना दिए हैं, नए नैरेटिव नए आख्यान बना दिए गए हैं । मेरी चिंता तेरी चिंता से बड़ी या राष्ट्रहितकारी , तेरी चिंता से झांकता देशद्रोह, विघटनकारी...। बाज़ार चिंता को भी एक साझा संगठित चिंता नहीं होने दे रहा।
सभी घर से निकलते हैं लौटकर आने के लिए ही । घर से निकलो तो राह के दरख्त छांव देते हैं पनाह देते हैं । पौधों को पानी दो तो वे फलदायी नहीं तो सुकून देने वाले विशाल दरख्त में तो तब्दील हो ही जाते हैं । छांव जलते हुए को ठंडक देती है। सवालों चिंताओं के दरख्त भी पनाह देते हैं जबकि अफवाह आग होती है और आग को हवा दो तो वो तेजी से फैलती है । सवालों व चिंताओं के दरख्तों की पनाह के अभाव में अफवाहों को हवा मिलती है और ये तेजी से पैर पसार लेती है । अफवाहों की इस लपट में बाज दफा घर से निकले कुछ लोग लौटकर नहीं आ पाते । जो लौटकर नहीं आ पाते उनके घर पे राह तकती निगाहें एक अरसे तक जाने वाले का पीछा करती कहीं शून्य में खोकर रह जाती हैं।
 इधर आजकल पौधों को पानी देने की बजाय आग को हवा देने का चलन बढ़ गया है । …..
जीवेश प्रभाकर
जारी......



      

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