Wednesday, February 21, 2018

रायपुर स्मृतियों के झरोखे से- 10- - प्रभाकर चौबे

        रायपुर शहर एक छोटे से कस्बे से धीरे धीरे आज छत्तीसगढ़ की राजधानी के रूप में लगातार विकसित हो रहा है । इत्तेफाक ये भी है कि इस वर्ष हम अपने नगर की पालिका का150 वॉ वर्ष भी मना रहे हैं ।
         हमारी पीढ़ी अपने शहर के पुराने दौर के बारे में लगभग अनभिज्ञ से हैं । वो दौर वो ज़माना जानने की उत्सुकता और या कहें नॉस्टेलजिया सा सभी को है । कुछ कुछ इधर उधर पढ़ने को मिल जाता है। सबसे दुखद यह है कि कुछ भी मुकम्मल तौर पर नहीं मिलता। 
        बड़े बुज़ुर्गों की यादों में एक अलग सा सुकूनभरा वो कस्बा ए रायपुर अभी भी जिंदा है । ज़रा सा छेड़ो तो यादों के झरोखे खुल जाते हैं और वे उन झरोखों से अपनी बीते हुए दिनों में घूमने निकल पड़ते हैं। इस यात्रा में हम आप भी उनके सहयात्री बनकर उस गुज़रे जमाने की सैर कर सकते हैं।
   इसी बात को ध्यान में रखकर हम अपने शहर रायपुर को अपने बुज़ुर्गों की यादों के झरोखे से जानने का प्रयास कर रहे हैं । इस महती काम के लिए छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रभाकर चौबे अपनी यादों को हमारे साथ साझा करने राजी हुए हैं । वे  रायपुर से जुड़ी अपनी स्मृतियों को साझा कर रहे हैं । एक बात स्पष्ट करना जरूरी है कि ये कोई रायपुर का अकादमिक इतिहास नहीं है ये स्मृतियां हैं । जैसा श्री प्रभाकर चौबे जी ने रायपुर को जिया । एक जिंदा शहर में गुज़रे वो दिन और उन दिनों से जुड़े कुछ लोगघटनाएंभूगोलसमाज व कुछ कुछ राजनीति की यादें ।  और इस तरह गुजश्ता ज़माने की यादगार तस्वीरें जो शायद हमें हमारे अतीत का अहसास कराए और वर्तमान को बेहतर बनाने में कुछ मदद कर सके।
        आपकी प्रतिक्रियाओं और सुझावों का भी स्वागत रहेगा।
जीवेश प्रभाकर
अपनी बात
        मन हुआ रायपुर पर लिखा जाए - बहुत पहले देशबन्धु का साप्ताहिक संस्करण भोपाल से प्रकाशित हो रहा था तब 12 कड़ियों में रायपुर पर लिखा थाखो गया । पुन: कोशिश कर रहा हूँ - इसमें कुछ छूट रहा हो तो पाठक जोड़ने का काम कर सकते हैं । रायपुर के बारे में  एक जगह जानकारी देने का मन है - अपना रायपुर पहले क्या कैसा रहा ...।   
-प्रभाकर चौबे
                                                                
रायपुर स्मृतियों के झरोखे से- 10
उन दिनों भर्रु से लिखने के दिन तो चले गए थे लेकिन फाऊंटेन पेन से लिखने का रिवाज़
आया नहीं था । होल्डर में निब लगाकर लिखा जाता था । एच.बी. निब सबसे अच्छी निब मानी जाती थी । 1946 में एक पैसे में दो एच.बी. निब, मिलती थी। पीतल की व एक अन्य मैटल की लम्बी निब भी मिलती थी। एक पैसे में स्याही की दो टिकिया मिलती थी जिसे दवात में घोलकर रखा जाता था और निब डुबोकर लिखा जाता था । स्याही सोख रखना जरुरी सा था । स्कूलों के डेस्क में मैटल के बने तीन दवात ठोक दिये जाते थे - स्कूल लगने से पूर्व स्कूल का चपरासी उनमें स्याही भरता था । स्याही सूख गई या खत्म हो गई तो चपरासी को कहने पर वह पुन: भर देता था । उन दिनों किसी भी स्कूली छात्र के पास फाउंटेन पेन नहीं होता - अफिसों में भी होल्डर से ही लिखा जाता ।
1945-47 में कागज को खोंसने के लिये लोहे के तार के पिन की कमी हुई (हो सकता है उन दिनों आज़ादी के आधाधापी के कारण पिन का बनाना बंद हो या और कोई कारण) लेकिन दफ्तरों में स्टील के पिन की सप्लाई बंद थी तो उसका विकल्प यह बतलाया गया कि कागजों को बबूल के कांटे से खोंचा जाए और दफ्तरों में बबूल के कांटों की खरीदी शुरु हुई । हर दफ्तर में बबूल के कांटे में कागज खांचे जाने लगे ।
उन दिनों स्कूलों में प्रतिवर्ष दिसम्बर माह की किसी तारीख को शिक्षा अधिकारियों का इंक्सपेक्शन अनिवार्य रूप से होता । इंक्पेक्शन के पहले दिन कक्षा को अच्छा सजाया जाता । कभी-कभी क्लास रुम में प्रवेश की शिक्षा अधिकारी किसी छात्र से कोई प्रश्न पूछ लेता । तीन दिन चलता इंक्सपेक्शन । मिडिल स्कूल का इंक्सपेक्शन जिला शिक्षा अधिकारी करते और हाई स्कूल का डी.एस.ई. (डिवीजन सुप्रिटेंडेंट ऑफ एजुकेशन ) उस समय छत्तीसगढ़ डिवीजन के डी.एस.ई. लाला दीनानाथ जी थे खूब गोरे, ऊँचे पूरे दबंग। वे टुर्नामेंट के लिए मैदान में घुसकर लाईन डालने में  मदद भी करते - ऐसा कहा जाता कि अपने समय के बढ़िया हाकी खिलाड़ी थे । कुछ सालों के लिये किसी स्कूल को सुव्यवस्थित करने वहाँ हेडमास्टर होकर चले गए - फिर रायपुर आए । जिला शिक्षा अधिकारी श्री गोरे थे - वे भी खूब गोरे थे और कड़क थे । एक श्री पुरोहित थे - ए.डी.आई.एस.। हमारे हेडमास्टर शर्मा सर बीच-बीच में स्कूल का राऊँड लगाते, कोई छात्र पढ़ाई के समय बाहर दिखता तो टोकते - कहाँ गए थे...सर पेशाब करने ......क्यों ? पानी पेशाब की छुट्टी मिलती है, काहे के लिये मिलती है । कल से तुम पानी-पेशाब की छुट्टी में क्लास में रहोगे .... । इतने कड़क.... इसलिए छात्र क्लास के समय बाहर निकलने से डरते थे ।
उन दिनों भी छात्र आपस में एक-दूसरे से अजीब-से सवाल पूछकर परीक्षा -सा लेते जैसे- इफ यदि इज है, बट परन्तु वाट क्या ? सामने वाला चकरा जाए । औरंगजेब का अंग्रेजी में अनुवाद करो....नहीं कर सकते तो सुनो - औरंगजेब - एंड कलर पॉकेट । सनलाईट सोप का हिन्दी करो ...सूर्य प्रकाश साबुन । अंग्रेजी पढ़ाने वाले एक शिक्षक थे मिस्टर गाडलिब । वे अंग्रेजी पिरियेड में अंग्रेजी बोलने कहा करते ।
एक मजाक चला था यह कि एक दिन बरसात में एक बालक स्कूल नहीं आया । सर ने दूसरे दिन क्लास में उसे देखकर पूछा व्हाय डिड यू नाट कम यस्टर डे ...  छात्र ने उत्तर दिया इट वाज रेनिंग झम-झमा-झम बगल में बस्ता लिए दो-दो हम । लेग फिसल गया गिर गए हम सो माई डियर सर आई कुड नाट कम ....
ग्रामर पर बहुत ध्यान दिया जाता।अंग्रेजी के तीन पेपर होते -पहला टेक्स बुक सम्बन्धी ( प्रोज-पोयट्री) दूसरा अनसीन पेजेस व व्याकरण का तथा तीसरा 25 नम्बर का पेपर निबंध का ... हमारे एक शिक्षक थे श्री आर.आर दुबे, वे ग्रामर पर जोर देते उन्हें ग्रामर का कीड़ा कहा जाता ।
उन दिनों एक कक्षा में पैतीस छात्र रखने का नियम था और इसका कड़ाई से पालन किया जाता था - स्कूल में खेल का मैदान होना जरुरी था और कमरों के लम्बाई चौड़ाई के नियम थे - खिड़कियाँ कितनी और किस साइज की होगी यहभी तय था - पुराने स्कूल इसी मापदंड के मिलेंगे। भेड़ बकरी की तरह क्लास में ठूसने का काम बाद में होता गया ... ।

जारी.....

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