Thursday, March 15, 2018

नाशिक किसान आंदोलन की अंतर्ध्वनियांः गांधी मार्ग से मंजिल तलाशते मार्क्सवादी - जीवेश प्रभाकर

            हाल ही में संपन्न नाशिक किसान आंदोलन की अनुशासन व प्रतिबद्धता को लेकर पूरे देश में काफी चर्चा हुई । एक सप्ताह का यह मार्च व मोर्चा एक नया इतिहास रच गया जिसके भीतर से उठती ध्वनियों में एक नई स्वरलहरी की अनुगूंज है जिसे समझना ज़रूरी है । एक तो आमजन में भीतर ही भीतर सुलगती बेहतर विकल्प की छटपटाहट, दूसरे 25-30 वर्षों में पली बढ़ी नौजवान पीढ़ी के वैश्विक नवउदारवाद व मुक्त बाज़ार से स्वप्नभंग और तीसरे हाशिए पर जाती मार्क्सवादी पार्टी को गांधी मार्ग के जरिए संभवतः मिलती संजीवनी के वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित की जा सकती है ।

     
     जब मुख्यधारा का मीडिया त्रिपुरा में मार्क्सवाद के दफ्न हो जाने की भविष्यवाणी का राग अलापता येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल करने वालों के गुणगान में 24 घंटे लगा था उस दौरान मार्क्सवादी पार्टी के नेतृत्व में निकले किसान मार्च व मोर्चा ने किसान आंदोलन का नया अध्याय लिख देश के किसानों को एक नई दिशा व एक नई ऊर्जा प्रदान कर दिया ।
      एक कारवां चलता है 30-35 हज़ार किसानों का ..., मार्क्सवादी पार्टी के नेतृत्व में और गांधीवादी आदर्शों या पूरा गांधीवाद न भी हो तो  कह लें गांधी मार्ग के अनुरूप पूर्ण अहिंसक व अनुशासित.... किसान आदिवासी नाशिक से लगभग 200 किलोमीटर की यात्रा कर देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई के व्यस्ततम इलाके में जाकर बैठ जाते हैं। कोई शोर नही कहीं कोई हुड़दंग नही । न रास्ते मे कहीं हो हल्ला न यातायात में व्यवधान । इतना अनुशासित व सामाजिक सरोकोरों से प्रतिबद्ध कि दिन में छात्रों की बोर्ड परीक्षा होने की वजह से अपनी लम्बी दूरी की थकान के बावजूद बिना विश्राम रात में सफर तयकर अपनी मंजिल पर पहुंच जाते हैं । इस तरह अनुशासित व प्रतिबद्ध मोर्चा.... वो भी हिंसा और आतंक के लिए दुष्प्रचारित मार्क्सवादी पार्टी के बैनर तले.... ये बात कुछ लोगों को हजम नहीं हुई । मगर मार्क्सवादी पार्टी ने  गांधी मार्ग के सिद्धांतों को आत्मसात कर  जो अभिनव प्रयोग किया वो  अपने आप में अनूठी मिसाल बन गया। पूरे देश में सराहना हो रही है, हालांकि कुछ बुर्जुवाई घृणा के तीर भी इस दौरान चले मगर इसके बावजूद भाजपा के मुख्यमंत्री को भी इस अनुशासित मोर्चे की तारीफ भरी विधान सभा में करनी पड़ी ।अतः यह भी कहा जा सकता है कि इस आंदोलन ने संक्रमण काल से गुज़र रही मार्क्सवादी पार्टी को भी संजीवनी प्रदान की है ।

      यह एक सप्ताह का मार्च व मोर्चा एक नया इतिहास रच गया जिसके भीतर से उठती ध्वनियों में एक नई स्वरलहरी की अनुगूंज है जिसे सुन व महसूस कर संक्रमण काल से गुज़र रही भारत की मार्क्सवादी पार्टी को नवजीवन मिल सकता है । पहली बात जो गौरतलब है कि मार्क्सवादी पार्टी के नेतृत्व ही यह मोर्चा निकाला गया मगर इसका प्रारूप व प्रयोग पूरी तरह गांधीवादी रहा । तो क्या मार्क्सवाद के साथ गांधीवाद या गांधी मार्ग  का संतुलित समन्वय एक बेहतर प्रयोग साबित हो सकता है? दो विरोधाभासी विचारधाराओं में संभवतः कुछ एक बिंदुओं पर एका तो देखी जा सकती है।  इन बिंदुओं में सत्य, ईमानदारी तथा शोषित पीड़ित की बेहतरी के लिए  जनआंदोलन के जरिए  संघर्ष महत्वपूर्ण हैं । सबसे बड़ी  दुविधा हिंसा व अहिंसा को लेकर है । जहां एक ओर मार्क्स वर्ग संघर्ष की बात करते हैं वहीं गांधीजी वर्ग संघर्ष को बढ़ाने की अपेक्षा घटाने के पक्षधर हैं । मार्क्स के अनुसार सामंतवाद की राख से जन्मा आधुनिक बुर्जुआ समाज वर्ग संघर्ष की अनिवार्यता से बच नहीं सकता। उस समय तक उसके बीच से शोषण की नई स्थितियां, नए वर्ग और नए नए संघर्ष जन्मते ही रहते हैं,हमारा युग, जो असल में बुर्जुआ समाज का युग है, इसका प्रमुख गुण वर्ग प्रतिद्विंद्वता है। वर्गीय प्रतिद्विंद्वता के निरंतर बढ़ते क्रम में संपूर्ण समाज दो परस्पर विरोधी दुश्मनों की भांति एक दूसरे के आमने सामने डटे हुए वर्गों में बंटता ही जाता है, उन वर्गों का नाम है बुर्जुआ और सर्वहारा ।  जबकि गांधी का मानना है -वर्ग-संघर्ष का विचार मुझे अच्छा नहीं लगता। यदि हम अहिंसा का अर्थ समझते हैं तो वर्ग-संघर्ष की जगह वर्ग-सहयोग की बात करें।  यदि श्रम एवं पूंजी के साथ प्रतिभा का मेल हो ,अपनी क्षमता में विश्वास हो, और वे एक-दूसरे का सम्मान करते हुए एक-दूसरे से सहयोग करें तो उन्हें अवश्य ही  इज्जत व सफलता मिलेगी ।               
      एक बात और जो निकलकर सामने आई व सबको अचंभित कर गई वो ये कि ज्यों ही ये मोर्चा मुम्बई की सरहद में प्रवेश करता है लोग स्वस्फूर्त उनकी मदद को अपने घरों से निकल आते हैं । न कोई एनजीओ न कोई संगठित दल । ऐसे समर्थन व सहयोग की कल्पना तो संभवतः मोर्चा के आयोजकों को भी न रही होगी । यह बात भी गौरतलब है कि आखिर क्यों मुम्बई जैसे व्यस्त व व्यावसायिक महानगर में जब मुख्यधारा के मीडिया में इस मोर्चे को नज़रअंदाज़ कर ग्लैमरस समाचारों को तवज्जो दी जा रही थी तो लोग कैसे इतनी अंतरंगता से किसानो आदिवासियों से जुड़े और इसकी गर्मी का एहसास अपने भीतर महसूस कर पाए साथ ही यह भी समझना होगा कि कैसे और क्यों लोग तथाकथित हिंसक माने जाने वाले व कुछ लोगों द्वारा गढ़ी जा रही विद्रूप छवि वाले मार्क्सवादियों के इस मोर्चे की मदद को आगे आए ।
      ऊपरी तौर पर यह बात कही जा सकती है कि मुम्बई में लोग मार्क्सवादी पार्टी  से प्रभावित होकर नही बल्कि किसानों की पीडा व तकलीफ से उपजी सहानुभूति के चलते ही उनकी मदद को आगे आये । मगर गहराई से बूझने पर यह महसूस किया जा सकता है कि इसके पीछे सिर्फ सहनुभूति नहीं बल्कि पिछले 25-30 वर्षों के दौरान वैश्विक पूंजी, नवउदारवाद और मुक्त बाजारवाद के  दौर में जवान हुई पीढ़ी मगर उन नौजवानो के सामने ही धराशाही होते उनके स्वप्नभंग का वर्तमान दौर भी है । वह पीढ़ी जो अपनी जड़ों से कटकर पूंजीवाद के मायाजाल में उलझ महानगरों की बुर्जुवाई चकाचौंध की अंधाधुंध भीड़ में अपनी जगह तलाश रही थी ,यकायक हतप्रभ अवाक सी खाली मुट्ठियां लिए बेरोजगारी के बीहड़ में भटक रही है । नवउदारवादी नीतियों के दमन व शोषण से जूझते इस वर्ग को एक वर्गीय चेतना का अन्डरकरैंट अपने पीड़ित सहोदरों की ओर आकर्षित करता है । स्पष्ट है कि किसानो, आदिवासियों के इस सैलाब को मदद करने यही उच्च- मध्य एवं मध्यवर्ग ही आगे आता है । आज का उच्च-मध्य व मध्य वर्ग बहुतायत में इसी शोषित पीड़ित जनसमुदाय का ही वंशज है, जो मुक्ति के लिए गांधी के मार्ग को तो स्वीकार करता है  मगर ये परंपरागत मार्क्सवाद से स्वयं को कटा कटा महसूस करता है। भारतीय मानस में गांधीवाद भले पूर्ण स्वीकार्य न हों मगर अवाम के अवचेतन में गांधी मार्ग की पैठ काफी गहरी है।  
      इस आंदोलन को आमजनों के मिले अभूतपूर्व समर्थन से कुछ बातें निकलकर आई हैं । इस मोर्चे से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि जनता में अब भी संवेदनाएं जिंदा हैं और वे एक अच्छे उद्देश्य के लिए स्वस्फूर्त निकलकर आती है और आज भी वह संघर्षशील लोगों के साथ खड़ी होने का जज्बा रखती है । युवा पीढ़ी, किसान आदिवासी , शोषित पीड़ित आमजनो में एक बेहतर विकल्प की छटपटाहट है । इसी के चलते मुंबई में वे स्वस्फूर्त आगे आए । कयास लगा सकते हैं कि ये सहयोग व समर्थंन मार्क्सवाद के साथ गांधी मार्ग  के जन आंदोलनो तरीकों के अभिनव प्रयोग के कारण ही संभव हो सका हो।  यह मार्क्सवादियों के लिए एक नई  दिशा व रणनीति की ओर इशारे कर रहा है  जिसे मार्क्सवादी समझ सकें और उस पर  विचार कर सकें तो बिखराव की इस घड़ी में उन्हें संजीवनी मिल सकती है और उनके लिए अच्छे अवसर बन सकते हैं। । मगर इसके लिए उन्हें अपनी रूढ़ीवादी सोच और परंपरागत तरीकों में आमूलचूल बदलाव लाना होगा । देश काल और परिस्थितियों के अनुसार मार्क्सवाद के साथ गांधीवाद का समन्वय समय की मांग है जिस पर मार्क्सवादियों को गंभीरता से विचार करना चाहिए । सैद्धांतिक रूप से गांधीवाद के साथ समन्वय निश्चित रूप से काफी कठिन है मगर यदि इससे आपके आंदोलन को स्वीकृति व समर्थन हासिल होती हो तो  जमीनी लड़ाई के लिए गांधी मार्ग को अपनाने में कोई दुविधा भी नहीं होनी चाहिए ।
जीवेश प्रभाकर


No comments:

Post a Comment