फिल्म आर्ट कल्चर
एंड थिएट्रिकल सोसायटी FACTS का
आयोजन
गुफ्तगू :ब यादगारे
कामरेड अकबर
उर्दू हिंदी की साझी
विरासत के अलम्बरदार -प्रेमचंद
कामरेड अकबर की याद में विगत 19 जनवरी
2019 को उर्दू हिंदी की साझी विरासत के आलमबरदार प्रेमचंद विषय पर एक गुफ्तगू का
आयोजन किया गया। आयोजन
में इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आशुतोष पार्थेश्वर
मुख्य वक्ता के रूप में उपस्थित थे । कार्यक्रम में
विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ सम्पादक श्री ललित
सुरजन तथा मुख्य अतिथि श्री महेंद्र मिश्र थे ।संचालन फैक्ट्स के संयोजक जीवेश चौबे ने किया ।
सबसे पहले
कामरेड अकबर परिवार की ओर से
रियाज़ अम्बर ने ब यादगारे कामरेड अकबर के अंतर्गत
किये जाने वाले आयोजनों पर जानकारी देते हुए बताया कि उर्दू ज़बान की तरक्की और अदब की बेहतरी के लिए कामरेड अकबर की याद
में विगत 4 वर्षों से लगातार
ऑल इंडिया व सूबे के मुशायरे,
तरबियत और कार्यशाला के साथ ही गुफ्तगू के आयोजन किये जा रहे हैं । इस दौरान आमंत्रित अतिथियों का स्वागत पुष्प गुच्छ से किया गया।
अपने मुख्य वक्तव्य में इलाहाबाद से पधारे प्रो आशुतोष
पारथेश्वर ने प्रेमचंद के
प्रारंभिक लेखन पर बात करते हुए
कहा कि प्रेमचंद हमेशा माध्यमिक स्तर तक उर्दू व
हिंदी दोनों भाषाओं को पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप से रखे जाने के पक्षधर थे । प्रेमचंद ने उर्दू में ही लिखना शुरू किया
और लंबे समय तक
उर्दू में ही लिखते रहे । श्री
आशुतोष ने इस बात को रेखांकित किया कि प्रेमचंद ने
उर्दू व हिंदी दोनों ही भाषाओं के लेखन को परम्परागत सोच व शैली से आज़ाद कर दोनों भाषाओं के साहित्य लेखन को नई
दिशा व नए आयाम दिए ।
उन्होंने कहा कि उर्दू व हिंदी
का मुख्य भेद लिपि की वजह से ही है । यदि दोनों को एक
ही लिपि में लिखा जाए तो दोनों ही भाषाओं को विकास, विस्तार
व स्वीकृति की राह आसान होगी । उन्होंने कहा कि
प्रेमचंद का लेखन प्रगतिशील मूल्यों को
दृढ़ता प्रदान करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है । आशुतोष जी ने नामवर सिंह का उल्लेख करते हुए कहा कि
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सिर्फ
प्रेमचंद ही थे जिन्होंने देश के आमजन की भावनाओं का सजीव चित्रण किया है । श्री आशुतोष ने उर्दू हिंदी के द्वंद्व को आज के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक समरसता के लिए उर्दू हिंदी की साझी विरासत
की ज़रूरत को मजबूत
करने की आवश्कयता को रेखांकित करते हुए कहा कि प्रेमचंद ने बहुत पहले ही कह दिया था कि साम्प्रदायिकता हमेशा संस्कृति का खोल
ओढ़कर आती है जो आज
स्पष्ट रूप से देखी व महसूस की
जाती है । उन्होंने प्रेमचंद के लेखन में सहज
राष्ट्रवाद की चर्चा करते हुए इसे आज के राष्ट्रवाद से पूरी तरह अलग बताया ।
वरिष्ठ सम्पादक श्री ललित
सुरजन ने इस
अवसर पर उर्दू हिंदी की साझी
बिरासत पर अपनी बात रखते हुए कहा कि लिपियों का भेद जानबूझकर किया गया है ।उन्होंने भाषा से धर्म
की पहचान स्थापित करने
को ग़लत बताते हुए कई उदाहरण दिए
जो अलग धर्म के होते हुए भी हिंदी या उर्दू
साहित्य में काफी प्रसिद्ध हिये । अंत मे आयोजन के मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार श्री महेंद्र मिश्र ने प्रेमचंद की
भाषा पर अपनी बात
करते हुए कि भाषा को राष्ट्र या
राष्ट्रवाद से जोड़ने से बिखराव या अलगाव की शुरुवात
होती है । उन्होंने कहा कि भाषा व्यक्ति के मूलभूत ज़रूरतों व सम्पर्कों के लिए उपयोग किया जाने वाला टूल मात्र है । उन्होंने अंतरराष्ट्रीय
व क्षेत्रीय भाषाओं के शब्द भंडार को हिंदी में शामिल कर इसे समृद्ध करने की बात कही । ये बात काबिले गौर है कि
उर्दू और हिंदी इस
मुल्क की साझी अदबी विरासत के दो
अहम किरदार हैं । प्रेमचंद इस अदबी विरासत के अलम्बरदार
कहे जा सकते हैं जिन्हें दोनों ही भाषाओं के अदब में अहम मुकाम हासिल है ।
कार्यक्रम का
संचालन जीवेश
चौबे ने किया । अंत मे उपस्थित
श्रोताओं की जिज्ञासा व प्रश्नोत्तर का स्तर हुआ । इसमे वक्ताओं ने सभी की जिज्ञासा शांत की व
प्रश्नों का निराकरण
किया । कार्यक्रम में नगर के
बुद्धिजीवी रंगकर्मी व बड़ी संख्या में सुधिजन उपस्थित थे ।
No comments:
Post a Comment