Thursday, February 21, 2019

नामवरी जीवन और एकांत भरा अंतिम अरण्य – जीवेश प्रभाकर


हिंदी साहित्य की प्रगतिशील परम्परा का सबसे चमकदार सितारा अंततः अस्त हो  गयालगभग एक दशक पहले सुप्रसिद्ध साहित्यकार प्रियंवद को दिए एक साक्षात्कार में तब 80 पार के नामवर ने कहा था , मैं अपने पिता की तरह अकेला हो गया हूं । हालांकि वे तब  काफी सक्रिय थे और लगातार देश भर में व्याख्यान दे रहे थे । मगर भीतर ही भीतर वे तभी से अकेलापन महसूस करने लगे थे ।  जीवन के अंतिम अरण्य में एक लम्बे अरसे से अपनो से उपेक्षित व नीम एकांत में रहे आये हिन्दी साहित्य के पर्याय नामवर सिंह उड़ जाएगा हंस अकेला की तर्ज पर बिल्कुल अकेले से चले गए ।

वाचिक परंपरा के वाहक व हिन्दी साहित्य के स्टारडम को हासिल करने वाले नामवर सिंह अब खामोश हो गए हैं । समय समय पर हिन्दी जगत ने उनकी साहित्यिक सामाजिक यात्रा के कई पड़ाव देखे । एक समय कम्युनिस्ट पार्टी के महत्वपूर्ण कैडर रहे। पार्टी के लिए सक्रिय व समर्पित होकर दिन रात काम किया , यहां तक कि पार्टी के आदेश पर नौकरी छोड़कर चुनाव भी लड़ा ,हार गए और सक्रिय राजनीति से अलग हो गए। आपातकाल के दौरान पार्टी छोड़ दी ।
प्रगतिशील आंदोलन के झंडाबरदार बन साम्यवादी प्रगतिशील विचारधारा को मजबूत करने का बीड़ा उठाए देश भर में सभा गोष्ठियों में व्याख्यान देते रहे । दशकों प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष रहे । उनके नेतृत्व में प्रगतिशील आंदोलन ने नई ऊंचाइयों को छुआ । श्रद्धा मगर विकलांग होती है , जाने कितने मुरीद और श्रद्धानवत भक्तों की भीड़ से घिरे रहने वाले नामवर जी  आखिरी वर्षों में अपनों ही के द्वारा लगभग पूरी तरह उपेक्षित से जीते रहे । अपने इस खामोश एकांत के दौर में भी सिर्फ विवादों के चलते ही सही यदा कदा सुर्खियों में भी आते रहे   
 दूसरी परम्परा की खोज में उन्होंने वाद ,विवाद और संवाद का रास्ता चुना और संवाद की नई परम्परा शुरु की जिसे ताउम्र बुलन्द किया । इसी परंपरा के तहत लगभग 5 दशकों तक नामवरजी व्याख्यान के जरिए ही लोकशिक्षण का प्रमुख कार्य करते रहे । हिंदी साहित्य में  वाचिक व संवादी परम्परा के वे सम्भवतः एकमात्र और अंतिम पुरोधा रहे । साहित्यक विमर्श हो या  उनके समसामयिक विषयों पर दिए जाने वाले  व्याख्यान , उन्हें सुनना ही अपने आप में एक विलक्षण अनुभव होता था। सिर्फ बोलकर ही अपनी बात लोगों तक पहुंचा देने की क्षमता एक अपार मेधा के धनी में ही हो सकती है । लिखने को बोलने में साध लेना एक विलक्षण कला है, एक गहन साधना है । नामवरजी उसी वाचिक परंपरा के संभवतः अंतिम महामना कहे जा सकते हैं । सर्वदृष्टि संपन्न व व्यापक अध्ययनशील व्यक्ति ही भाषा की गरिमा को समझ सकता है ।  नामवर जी ने न सिर्फ हिन्दी भाषा को बल्कि हिन्दी की विशिष्टता और सांस्कृतिक चेतना को समझा और हिन्दी में संप्रेषणता को एक नया मुकाम दिया ।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी उनके गुरु थे जिनका वे बहुत आदर करते थे । नामवरजी ने प्रारंभ में कविताएं लिखीं मगर फिर आलोचना में आ गए । अपनी विशिष्ट शैली,वृहत अध्ययनविषय के समृद्ध ज्ञान के बल पर आलोचना में उनका स्थान सबसे ऊंचा हो गया। सारी हिन्दी बिरादरी उनके मुख से अपना ज़िक्र सुनने को बेताब रहा करती थी। जिसे छू दें वो पारस हो जाए। कई बार इन प्रयोजनो मे कुछ विवाद भी सामने आते रहे । इसके अतिरिक्त विभिन्न सामयिक मुद्दों पर अपनी साफगोई और वैचारिक प्रतिबद्धता के चलते भी वे ताउम्र विवादों से घिरे रहे । मगर उनकी दिव्य आभा और विराट व्यक्तित्व के सामने सारे विवाद धराशाही हो जाते रहे । उनके न होने से हिंदी आलोचना और प्रोग्रेसिव मूवमैंट में एक बहुत विशाल खाली स्थान पैदा हो गया है , जिसे आसानी से भरा नहीं जा सकेगा ।  
इंटरनेट और गूगल पर आश्रित होती जा रही  नौजवान पीढ़ी के लिए यह बात संभवतः अविश्वसनीय हो कि नामवर नाम का एक शख्स साहित्य के साथ साथ सामयिक विमर्श का चलता फिरता इनसायक्लोपीडिया था । प्रारंभ में कुछ विश्वविद्यालयों में अध्यापन किया फिर अन्ततः जेएनयू में लम्बे अरसे तक अध्यापन करते रहे और वहीं से सेवानिवृत्त हुए । विद्यार्थी उनसे पढ़ने को बेताब रहा करते थे । उनके छात्रों के लिए वे एक आदर्श शिक्षक के साथ ही लोकशिक्षण के प्रमुख स्त्रोत भी रहे । नामवर सिंह जी ने सबको प्रभावित किया । हमारा सौभाग्य है कि हमने उन्हे बोलते हुए सुना । उनकी सोच और समझ से जाने  कितने ही लोगों ने क्या-क्या सीखा क्या क्या पाया ।

उनकी एक कविता  है जो आज बहुत मौज़ू लगती है-

बुरा ज़माना बुरा ज़माना बुरा जमाना
लेकिन मुझे ज़माने से कुछ भी नही शिकवा
नही है दुख कि क्यों हुआ मेरा आना
ऐसे युग मे जिसमे बही ऐसी ही हवा 

           
जीवेश प्रभाकर
उप सम्पादक, अकार


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