
शहीदे आजम भगत सिंह ने ‘विद्यार्थी और राजनीति’ शीर्षक से आजादी के पूर्व एक महत्वपूर्ण लेख लिखा था, जो जुलाई,
1928 में ‘किरती’ में प्रकाशित हुआ था । उन्होने उस दौर में लिखा
था - जिन नौजवानों को कल देश की
बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज अक़्ल के अंधे बनाने की कोशिश की जा रही है. इससे जो परिणाम निकलेगा
वह हमें ख़ुद ही समझ लेना चाहिए. हम यह मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम
पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों
का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को
भी निकम्मी समझते हैं जो सिर्फ़ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाए. ऐसी शिक्षा
की ज़रूरत ही क्या है? .’
हमारे देश में
छात्र आंदोलनों का एक गौरवमयी इतिहास है। गौरतलब है कि
स्वतंत्रता आन्दोलन में छात्रों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया।1920 में महात्मा गांधी के आह्वान
पर छात्रों ने अपने कैरियर को दांव पर लगाते हुए स्कूल और कॉलेजों का बहिष्कार
किया। । लाखों छात्रों ने सरकारी स्कूल छोड़ा । 1942 के भारत छोड़ो
आंदोलन में छात्रों –
युवकों ने जो भूमिका निभाई वह यादगार है। छात्रों ने हमेशा राजनैतिक
और समाज-परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आजादी के बाद से ही मगर सत्तारूढ़ दलों को छात्र
संघटन खटकने लगे थे और ऐसा कहा जाने लगा कि छात्र केवल पढ़ाई पर
ध्यान दें, राजनीति न करें बंदिशों की तमाम कोशिशों के बावजूद भी समय समय पर छात्रों ने न सिर्फ कैम्पस बल्कि देश की
विभिन्न ज्वलंत समस्याओं को लेकर लगातार आंदोलन किए । छात्र आंदोलन
की सबसे उल्लेखनीय भूमिका आपातकाल के खिलाफ सामने आई जिसने
आपात काल की चुनौती का मजबूती से सामना करते हुए देश में पुनः लोकतंत्र बहाल किया। इस आंदोलन से उबरे और छात्र राजनीति
से परिपक्व हुए कई नेता आज मुख्यमंत्री सहित कई महत्वपूर्ण पदों
पर आसीन हैं । विडंबना ये है कि आज इनमें से ही कई नेता छात्र
राजनीति से बचते हैं और छात्रों को राजनीति से दूर रहने का उपदेश देते हैं ।अक्सर
जो दल विपक्ष में होते हैं वे अपनी राजनीति के लिए छात्रों का, अवसर के अनुसार भरपूर उपयोग
करते हैं ।
छात्र संघ चुनाव के विरोध में सरकार
और विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से यह दलील दी जाती
है कि इसमें धनबल और बाहुबल का बोलबाला हो गया है तथा इससे पढ़ाई का
माहौल दूषित होता है। यहां प्रश्न उठता है कि कई राज्यों में दशकों से छात्र संघ चुनाव नहीं हुए तो क्या यहां के परिसर हिंसामुक्त हो गए और
दिल्ली विश्वविद्यालय तथा आज की सुर्खियों में रहा आया जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
यानि जे एनयू जहां
प्रतिवर्ष छात्र संघ चुनाव होते हैं, वहां की शिक्षा व्यवस्था क्या ध्वस्त
हो गई? कॉलेजों और यूनिवर्सिटी में छात्र संघ चुनाव
को लेकर 2006 में पूर्व मुख्य चुनाव लिंग्दोह ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय को जो
रिपोर्ट दी थी उसमें उम्मीदवारों की आयु, उनके शैक्षणिक रिकॉर्ड, क्लास में उपस्थिति के प्रतिशत और इनमें काफी सिफारिशें हैं मगर ये व्यवहारिक धरातल पर खरा नहीं उतरती । सुप्रीम कोर्ट ने
छात्र संघ चुनावों के लिए निर्णय देते हुए कहा कि छात्र संघ चुनाव
लिंग्दोह समति के सुझावों के आधार पर ही कराए जाएं अन्यथा उन पर रोक लगा दी जाए । इसका देश भर में विरोध भी हुआ ।
इस वजह से तमाम राज्यों में छात्र संघ चुनाव कई साल तक बाधित
रहे ।

कालेज एवं यूनिवर्सिटी ही वो
पहली पायदान होती है जहां छात्रों के भटके
विचार एक नया रूप
ग्रहण करते हैं और परिपक्व भी होते हैं। राजनीति की राह का पहला कदम कॉलेज में
ही पड़ता है । लोकतांत्रिक प्रक्रिया और मूल्यों
की प्राथमिक समझ कॉलेज से ही विकसित होती है । इस उम्र में उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक
विचार करने, सोचने से बाधित करना, उनकी सोच और सकारात्मक ऊर्जा पर पानी डालना है। विचारहीन युवा विमर्शहीन समाज अराजकता की ओर
अग्रसर होता है जो देश व समाज में अव्यवस्था ही लाती है । छात्र संघ और छात्र राजनीति लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत
करने में सहायक होता है क्योंकि इससे छात्रों का राजनीतिक प्रशिक्षण सुनिश्चित
होता है और नेतृत्व क्षमता विकसित होती है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज देश के
करीब 80 फीसदी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में छात्र संघ नहीं है।
अनेक राज्यों ने छात्रसंघों के चुनाव पर प्रतिबंध लगा दिए है। यह छात्रों के
लोकतांत्रिक अधिकार पर हमला है। आज जब देश
में लोकतंत्र के बुनियादी मूल्य, लोकतांत्रिक संस्थाएं और सामाजिक ताना बाना गंभीर
संकट के दौर से गुजर रहा है युवाओं खासकर छात्रों को राजनीति से दूर रखने की
कोशिशों के दूरगामी दुष्परिणाम होगें ।
jeeveshprabhakar@gmail.com
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