Tuesday, July 26, 2016

यूँ ही कोई बदज़ुबां नहीं होता- -जीवेश प्रभाकर

एक प्रसिद्ध शेर है _
कुछ तो मजबूरियां रही होगी ;
यूँ ही कोई बेवफा नही होता ,,,,
इसी तर्ज़ पर कहा जा सकता है कि......कुछ तो वजह रही होगी यूँ ही कोई बदज़ुबां नही होता ...
गुजरात मे गो रक्षक गो हत्या के कथित आरोप लगाते हुए दलित युवकों को सरेआम रास्तों पर पीटते हुए थाने तक ले जाते हैं और कोई कार्यवाही नही होती ।सुरक्षा और संरक्षण का एक अतिआत्मविश्वास उन्हें ऐसा करते हुए किसी भी प्रकार कानून और सामाजिक भय सेमुक्त रखता है । बल्कि यदि ये कहा जाये की वे इसे शौर्य समझते हैं तो अतिशयोक्ति न्होंगी ।
अचानक मानो एक विस्फोट सा अप्रत्याशित सा घटित होता है । इसके जवाब मे पहली बार कोई वर्ग गोवंश समर्थकों या कह लें सवर्णों के खिलाफ उठ खड़ा होता है और वो भी हिंदुओं मे से ही । दलित वर्ग एकजुट होकर जिला कार्यालय के सामने गायों को गोमाता कहने वाले सवर्णों द्वारा ही अंतिम संस्कार के लिए आव्हान करते छोड़ जाता है । इसके साथ साथ पूरे गुजरात के दलित सड़क पर सवर्णों के खिलाफ उतर आते हैं । हिन्दू सवर्णों या अगड़ों के लिए यह सर्वथा अकलपनिय और अविश्वसनीय प्रतिक्रिया ही है कि दलित उनके खिलाफ यूँ खड़े हो जाएं ,वो भी गाय को लेकर।
हिंदूवादी दक्षिणपंथी पार्टी के होश उड़ जाते हैं । जो गोवंश की हत्या के नाम पर धर्म आधारित राजनीति कर रहे थे उन्हें गोवंश के खिलाफ हिन्दू धर्म से ही चुनोती मिल जाने से सारी रणनीति दरकने लगती है। धार्मिक आधार पर देशभक्ति और गोहत्या को जोड़ने से स्वतः उमड़ने वाली जनसहानुभुति व समर्थन के सारे उपक्रम ध्वस्त होते प्रतीत होने लगते हैं ।
विगत कुछ अरसे से गोहत्या और गोवंश संरक्षण के नाम पर लगातार दबंगई और अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं । मुसलमानो के खिलाफ ये एक सुविधाजनक सर्वमान्य और अचूक हथियार बनता जा रहा है । जब इस दबंगई और अचूक ब्रह्माश्त्र को अचानक हिन्दू धर्म के ही दबे कुचले दलित वर्ग से चुनोती मिली तोअभिजात्य उच्च वर्ण को नीचे से जमीन खिसकती नज़र आने लगी । मुसलमानो के विरुद्ध उपयोगी व कारगर ब्रह्मास्त्र फुस्सी लगने लगा । इसकी काट ज़रूरी थी ।
जब दलित उत्पीड़न व अत्याचार की बहस ज़रा सी जगह व सहानुभूति हासिल करती नज़र आई कि अचानक मायावती को निशाने पे लेकर एक अभद्र व अमर्यादित टिप्पणी यु पी के भाजपा उपाध्यक्ष ने कर दी । उन्हें गाली सी देते हुए उनकी तुलना वेश्या से कर दी (हालांकि मेरी नज़र मे वेश्या कोई गाली नही है बल्कि समाज का ही एक अंग है ) । हंगामा खड़ा हो जाता है .....प्रदर्शन हुल्लड़ और नारेबाजी और नारेबाजी मे दयाशंकर की पत्नी और बेटी को घसीट लिया जाता है । कोई यूँ ही किसी के लिए भी कैसे अभद्र भाषा का इस्तेमाल कर सकता है । भाषा का मनोविज्ञान से गहरा नाता है । वही अमर्यादित और अभद्र भाषा का खेल मायावती के समर्थक भी सारे राह खेलते हैं ।
बस सारी बहस दलित अत्याचार और उत्पीड़न से हटाकर इसी मुद्दे पर केंद्रित कर दी जाती है । गुजरात पूरे परिदृश्य से गायब हो जाता है और यु पी मुख्य केंद्र मे ला दिया जाता है । दलित वर्ग भी अपने उन साथियों उत्पीड़न व अत्याचार से ज्यादा मायावती के अपमान को प्राथमिकता देते हैं । मीडिया मे जो बहस गुजरात मे दलित उत्पीड़न व अत्याचार पर केंद्रित होनी चाहिए थी वह यू पी पर केंद्रित कर दी जाती है । दयाशंकर की पत्नी भी मैदान मे आ जाती है और जो बीजेपी बैकफुट पर होती है अचानक फ्रंटफुट पर ला दी जाती है । आज कहाँ है गुजरात और गुजरात के दलित और उनका उत्पीड़न आज चर्चा का केंद्र यु पी है; दयाशंकर की पत्नी है ; न कि गुजरात और वहां के पीड़ित दलित ।
ये अद् भुत राजनैतिक और मीडिया मैनेजमेंट है कि जो बात गुजरात से शुरू हुई वो यू पी पर केंद्रित कर दी गई और मुख्य बहस दलित विमर्श को हाशिये पर धकेलकर महिला विमर्श पर केंद्रित कर दी जाती है ।
गुजरात की प्रतिक्रिया ऐतिहासिक व क्रांतिकारी है । निश्चित रूप से इसका विस्तार पूरे समाज को ;आज न सही मगर देर सबेर; निर्णायक विभाजन की ओर ले जायेगा । इससे सबसे बड़ा नुकसान धर्म आधारित राजनीति करने वालों को होगा जो राष्ट्रवाद और गोमाता के नाम पर मुसलमानो को कटघरे मे खड़ा करते आये हैं । गाय के मसले पर दलित व मुसलमान एकजुट नज़र आ रहे हैं और दलितों का एक बड़ा तबका खुद को हिन्दू मानने से भी इनकार करता सामने उभरकर आ रहा है । यह हिंदूवादी ताकतों और पार्टियों के लिए खतरनाक है तथा दक्षिणपंथी हिंदूवादी संघटनो और पार्टियों के लिए यह खतरे की घंटी की तरह है । इसी के मद्दे नज़र पूरी बहस को गोवंश रक्षकों द्वारा दलितों पर किये गए अत्याचार से हटाकर मायावती के अपमान और स्वाति सिंह पर केंद्रित कर दिया जा रहा है ।
यह एक सोची समझी साजिश के तहत राजनीति की हारती बाज़ी और जातिगत सामाजिक जनाधार के बिखरने से बचाने के लिए किया जा रहा है जिसमे राजनैतिक दलों के साथ ही मीडिया का भी एक बड़ा वर्ग सहभागी है । हमे इसे समझना होगा और बहश् को दलितों पर हो रहे अत्याचार से भटकने नही देना होगा । यह समझना होगा कि दलित भी अब जागरूक हो है हैं और सत्ता के साथ साथ समाज मे भी अपनी संक्रिय व समान भागेदारी व पहचान चाह रहे हैं । इसमे उनके सबसे बड़े व माकूल सहयोगी मुसलमान ही हैं जो उन्ही कठिनाइयों से अपनी प्रतिष्ठा व पहचान के संकट से गुजर रहे हैं । सवर्ण या कहें अगडे हिंदुओं के सामने सबसे बड़ा संकट दलितों के विद्रोह से निपटाना है । मुसलमानो के खिलाफ ज़हर व अविश्वास फैलाना इनके लिए ज्यादा आसान व मनमाफिक है बनिस्बत दलितों के । दलित के खिलाफ जाना हिंदुत्ववादी ताकतों को भारी ही पड़ेगा । विडम्बना ये है कि हिंदुत्ववादी नीतिगत रूप से न तो दलितों को साथ ले सकते हैं न राजनैतिक रूप से उनके खिलाफ ही जा सकते हैं । इसका यही परिणाम होता है कि किसी तरह आक्रोश को मुद्दे से भटका कर अलना उल्लू सीधा किया जाये ।
आज जो बहस दलितों पर अत्याचार से शुरु हुई थी वह दयाशंकर की पत्नी स्वाति सिंह के इर्द गिर्द केंद्रित कर उन्हें सहानुभूति की लहर पर चुनाव मे खड़े करवाने तक पहुंचा दी गई है । 21 वीं सदी मे भी हम कुछ लोगों द्वारा हांके जा रहे हैं इससे बडे वैचारिक पतन है और मानसिक गुलामी की पराकाष्ठा क्या हो सकती है?

2 comments:

  1. जीवेश जी : आपकी कुछ बातों से सहमत हूँ जैसे दलितों को लेकर उठी आवाज़ को राजनीतिक रूप से नहीं भुनाया जाना चाहिए। अच्छे लेख की बधाई।

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