Tuesday, February 6, 2018

रायपुर स्मृतियों के झरोखे से- 8- - प्रभाकर चौबे

        रायपुर शहर एक छोटे से कस्बे से धीरे धीरे आज छत्तीसगढ़ की राजधानी के रूप में लगातार विकसित हो रहा है । इत्तेफाक ये भी है कि इस वर्ष हम अपने नगर की पालिका का150 वॉ वर्ष भी मना रहे हैं ।
         हमारी पीढ़ी अपने शहर के पुराने दौर के बारे में लगभग अनभिज्ञ से हैं । वो दौर वो ज़माना जानने की उत्सुकता और या कहें नॉस्टेलजिया सा सभी को है । कुछ कुछ इधर उधर पढ़ने को मिल जाता है। सबसे दुखद यह है कि कुछ भी मुकम्मल तौर पर नहीं मिलता। 
        बड़े बुज़ुर्गों की यादों में एक अलग सा सुकूनभरा वो कस्बा ए रायपुर अभी भी जिंदा है । ज़रा सा छेड़ो तो यादों के झरोखे खुल जाते हैं और वे उन झरोखों से अपनी बीते हुए दिनों में घूमने निकल पड़ते हैं। इस यात्रा में हम आप भी उनके सहयात्री बनकर उस गुज़रे जमाने की सैर कर सकते हैं।
   इसी बात को ध्यान में रखकर हम अपने शहर रायपुर को अपने बुज़ुर्गों की यादों के झरोखे से जानने का प्रयास कर रहे हैं । इस महती काम के लिए छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रभाकर चौबे अपनी यादों को हमारे साथ साझा करने राजी हुए हैं । वे  रायपुर से जुड़ी अपनी स्मृतियों को साझा कर रहे हैं । एक बात स्पष्ट करना जरूरी है कि ये कोई रायपुर का अकादमिक इतिहास नहीं है ये स्मृतियां हैं । जैसा श्री प्रभाकर चौबे जी ने रायपुर को जिया । एक जिंदा शहर में गुज़रे वो दिन और उन दिनों से जुड़े कुछ लोगघटनाएंभूगोलसमाज व कुछ कुछ राजनीति की यादें ।  और इस तरह गुजश्ता ज़माने की यादगार तस्वीरें जो शायद हमें हमारे अतीत का अहसास कराए और वर्तमान को बेहतर बनाने में कुछ मदद कर सके।
        आपकी प्रतिक्रियाओं और सुझावों का भी स्वागत रहेगा।
जीवेश प्रभाकर

अपनी बात

        मन हुआ रायपुर पर लिखा जाए - बहुत पहले देशबन्धु का साप्ताहिक संस्करण भोपाल से प्रकाशित हो रहा था तब 12 कड़ियों में रायपुर पर लिखा थाखो गया । पुन: कोशिश कर रहा हूँ - इसमें कुछ छूट रहा हो तो पाठक जोड़ने का काम कर सकते हैं । रायपुर के बारे में  एक जगह जानकारी देने का मन है - अपना रायपुर पहले क्या कैसा रहा ...।   
-प्रभाकर चौबे

                                                                
रायपुर स्मृतियों के झरोखे से- 8

वार टाईम (युद्ध) था । हर चीज की किल्लत चल रही थी । मंहगाई भी बढ़ी थी। 1945 से पहले वेतन में महंगाई भत्ता नहीं होता था । उन दिनों घोड़ा छाप माचिस  चलती था । अच्छी क्वालिटी की माचिस थी । उसमें 60 काड़ी (स्टीक) होती थी । माचिस पर छपा रहता था 60 काड़ी । और साठ काड़ी ही होती - गिनने तो कोई एक कम निकले तो फुड ऑफिस में शिकायत कर सकता था ।  वार टाईम में घोड़ा छाप माचिस की किल्लत पैदा कर दी गई - घोड़ा छाप माचिस मिलना कठिन होने लगा था। ब्लेक में मिलने लगा । कुछ युवकों ने एक दुकान की पिकेंटिंग की थी । सबसे ज्यादा मिट्टी तेल के लिए मारामारी थी । स्टोव के लिये, लालटेन, गैसबत्ती चिमनी जलाने, मिट्टी तेल  चाहिए होता - उन दिनों बिजली कुछ ही घरों में थी । मिट्टी तेल की डटकर कालाबाजारी के लिये एक अभिनव तरीका अपनाया गया था - पीतल की बड़ी गुण्डियों में मिट्टी तेल भरकर बोझा उठाने वालियों को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाने कहा जाता जिस तरह गुंडी में पानी भरकर ले जाया जाता है - देखने वाले समझे, बाई पानी ले जा रही हैं । एक बार ताक कर पुलिस ने पकड़ा और पूरे शहर में हल्ला हो गया। लोग इस तरह के काम को देख अचम्भित हुए .. क्या जमाना आ गया है, ऐसा कहते रहे । कंट्रोल में एम्प्रेस मिल का लट्ठा मिलता था - अच्छा मजबूत । वैसे मिलावट आई नहीं थी - शुद्ध ही मिलता था सब ।
उन दिनों (काफी बाद तक यह चला) शानिवार या रविवार को मैटनी शो पिक्चर का रिवाज था । एक तो अंग्रेजी मारधाड़ वाली फिल्म आती थी - खूब भीड़ होती इनमें । टार्जन सीरियल की फिल्में भी लोकप्रिय  थीं - जॉन सेमुअल नामक युवा टार्जन के रूप में फेमस हो गया था । ट्वेन्टिएथ सेन्चुरी फॉक्स की स्टंट फिल्में बहुत लोकप्रिय थीं । पुरानी हिन्दी फिल्में भी मैटनी में दिखाई जाती थीं। फिल्म शुरु होने से पूर्व ओम जय जगदीश हरे ... रिकाडिंग बजता मतलब फिल्म शुरू होने वाली है । लोग दौड़ते थर्ड क्लास दो आना, सेकंड क्लास चार आना, फर्स्ट क्लास छ: आना, बल्कनी बारह आना ... महिलाओं के बैठने की अलग व्यवस्था थी ... इंटरवल में पर्दा खींच दिया जाता था । शारदा टाकीज में ऊपर बालकनी के दोनों छोर पर बाक्स थे - इसमें उच्च अधिकारी बड़े लोग, ही एलाऊ थे ।
बाबूलाल टाकीज में स्टंट फिल्में खूब लगती थीं - उन दिनों नाडिया जॉन कवास की जोड़ी प्रसिद्ध थी। इनकी हंटरवाली फिल्म कई हफ्ते चली थी। भगवान दास-जानकी दास की जोड़ी उभर रही थी । रामराज्य फेम कलाकार प्रेम सदीब ने एक सामाजिक फिल्म बनाई थी और उसके प्रीमियर पर बाबूलाल टॉकिज में उपस्थित हुए थे - गजब की भीड़ हो गई थी । खूब धक्का-मुक्की हुई थी । 
कोतवाली चौक पर पीपल झाड़ ( जो हाल ही में काट दिया गया है ) से सटकर पाटे पर मनिया पान दुकान प्रसिद्ध थीं एक जयराम पान दुकान (शारदा चौक) और मनिया पान दुकान । यहीं हिम्मत लाल मानिक चंद की कपड़े की दुकान  थी - यहाँ नामी मिलों के कपड़े बिकते थे - ऊनी कपड़े भी यहीं मिलते थे । इसी भवन के ऊपर बाम्बे भोजनालय था - जिसका रेट उन दिनों - फुलथाली आठ आना घी चपुड़ी रोटियां चाहिए तो दस आना ... वैसे गिरधर धर्मशाला और एडवर्ड रोड में भी भोजनालय थे .. बासा कहते थे । उन दिनों घरों में चूल्हे पर खाना बनता अत: प्राय: हर मोहल्ले में लकड़ी टाल  होते -- उन दिनों जलाऊँ लकड़ी, चिरवा आठ आने मन और गोलवा छ: आने मन बिकता इसे भी महंगा कहा जाता ।
श्री राम संगीत विद्यालय की स्थापना हो गई थी और विद्यालय चलने लगा था । श्री जोशी जी संगीतकार के रूप में प्रसिद्ध थे । तबला वादक के रूप में उस समय श्री रामानंद कनौजे जा का नाम ऊपर था वे राष्ट्रीय स्कूल के प्रधानपाठक भी थे।
श्याम टाकीज बनने से पूर्व वहाँ से बूढ़ेश्वर मंदिर तक सीताफल के झाड़ थे - आज जहाँ स्टेडियम है वहाँ दलदल था - एक डबरी भी थी और एक बावड़ी भी थी । सदर की होली उन दिनों भी प्रसिद्ध थी । यहाँ राजस्थान से नौटंकी पार्टी व पुतली नाच दिखाने वाले आया करते थे । सदर में रहने वाले भीखमचंद बैद हिन्द स्पोर्टिंग फुटबाल टीम में राईट फुल बैक में खेलत थे और फेमस थे । बाद में उनके भाई अमरचंद बैद हिन्द स्पोर्टिंग फुटबाल टीम के गोलकीपर के रूप में खेले ।
अमर चंद बैद अच्छे स्टेज एक्टर-डायरेक्टर  रहे। काली बाड़ी दुर्गोत्सव में एक दिन हिन्दी नाटक प्रस्तुत किया करते थे । सप्रे स्कूल (लारी स्कूल) के पी.के.सेन शिक्षक अच्छे नाटक डायरेक्टर के रूप में प्रख्यात थे । मुन्नालाल पापा लाल की किराना तेल-घी-आता था । गोल बोजार के अंदर एक लाईन से अनाज की दुकाने थीं - उसी से लगकर सब्जी मार्केट था । गोलबाजार के मूल भवन के अंदर महिलाओं के उपयोग की वस्तुएं बिकती थीं - दोपहर यहाँ भीड़ होती। पुरुष प्राय: यहाँ नहीं जाते थे । भवन से निकलते ही राष्ट्रीय  बुक डिपो से लगकर जो खाली जगह थी वहाँ रोज ही शाम को बाजीगर अपना खेल दिखाता - बंदर नचाता, भालू नचाता ....
गोल बाजार में किताबों के तीन दुकान थीं - राष्ट्रीय विद्यालय बुक डिपो, गालाल चुनकाई लाल और कसिमुद्दीन के किताब की दुकान । सदर बाजार में दो चरित्र बड़े प्रसिद्ध थे एक हाफिज भाई, हाफिज भाई कहते कि वे नरगिस (फिल्म अभिनेत्री) से मोहब्बत करते हैं - दीवानों सा व्यवहार करते । सदर में युवा उन्हें घेरकर नरगिस के किस्से सुनते । एक थे अरमान भाई - अरमान भाई किसी भी दुकान  के सामने खड़े होकर गालियाँ देने लगते - दुकानदार उन्हें चार-छ: आने देकर मुक्त होता ...। उनकी गालियों का कभी किसी ने बुरा नहीं माना ।
क्या जमाना था - हम बच्चे थे, लेकिन उत्सुकतावश पता चला ही जाता था कि क्या हो रहा है। ।बालसमाज गणेशोत्सव समिति शायद रायपुर की सबसे पुरानी समिति है - शायद पहली समिति ।  उन दिनों गणेशोत्सव पर प्राय: हर गणेश पंडाल में कुछ न कुछ कार्यक्रम होते बच्चों के लिए कहानी कथन, कवितापठन, वाद-विवाद प्रतियोगिता, गान प्रतियोगिता आदि । मुझे याद है सन् 1946 में आनन्द समाज गणेशोत्सव में कहानी कथन पर प्रथम पुरस्कार मिला - पुस्तक दी गई महाभारत मीमांसा - आज भी  मेरे किताबों की रैक में है
उन दिनों सब्जी - फल के ठेले घूमते नहीं थे - लेना हो तो बाजार जाना पड़ता था - हाँ मुर्रा-लाई, करी लड्डू -  मुर्रा लाड़ू बेचने वाली जरुर निकलती थीं । आईस्क्रीम नहीं आई थी, लेकिन कुल्फी (बास की काड़ी में) बच्चों को आकर्षित करने हाजिर थी और बर्फ का गोला भी मिलता था । बाम्बे-हावड़ा मेल शाम पाँच बजे रायपुर पहुँचती थी - 2 अप कहलाती थी - उसमें रसोईयान था और ब्रेड मतलब डबलरोटी बिकती थी शहर के वे जो उच्छा ब्रेड चाहते, इस ट्रेन में लेने जाते । मेल में डाक का डिब्बा भी होता था -इनमें अपने पत्र डाल सकते थे - उन दिनों डिब्बे में पत्र डालना हो तो एक पैसा की टिकिट अतिरिक्त चिपकानी पड़ती थी ।
उन दिनों स्कूल से छुट्टी के बाद या तो फुटबाल खेलते, पुक (रबर की छोटी गेंद) या सड़क पर ही चकरबिल्ला खेलते या लोहे के बिल्लास भर लम्बे टुकड़े को नाली किनारे की गीली जगह में पटक कर गाड़ने का खेल खेलते-लोहे का वह टुकड़ा गीली मिट्टी में गड़ा नहीं तो एक पैर पर दौड़ने का दाम देना पड़ता था - लगड़ी दौड़ रहे और पीछे दिगर बच्चे चिल्लारहे - लगंड़ी घोड़ी टांग तोड़ी । दाम न देकर भागने बाले को चिढ़ाते - दाम-दाम बच्चा मगर का बच्चा ... । रविवार को एक खेल खेला जाता छिपा-छुपाऊल......

जारी.....

3 comments:

  1. मलाई बरफ वाली कुल्फी भी पलाश के पत्ते पर मिलती होगी!कलकत्ता से फिरपो बेकरी की ब्रैड मेल से आती थी। आज भी कोलकाता में उसका नाम है।

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  2. प्रेम अदीब। गज्जूलाल चुनकाईलाल। ये नाम सुधार लें।

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