Wednesday, September 4, 2019

निजीकरण के दौर में शिक्षक दिवस ----- प्रभाकर चौबे-

5 सितंबर को प्रतिवर्ष शिक्षक दिवस मनाया जाता है। अब शिक्षक दिवस ने राष्ट्रीय त्योहार का रूप ले लिया है। इसे एक तरह से राष्ट्रीय त्योहार का दर्जा मिल गया है। शिक्षक दिवस अब विद्यालयों तक ही सीमित नहीं है। पहले केवल स्कूलों में ही शिक्षक दिवस मनाया जाता था। पहले प्राथमिक तता हाई स्कूल के शिक्षकों के लिए ही ''शिक्षक दिवस'' था, लेकिन बाद में महाविद्यालय के शिक्षकों को भी इस शिक्षक दिवस में समाहित किया गाय और सही किया गया। क्योंकि महाविद्यालय के शिक्षक भी शिक्षा देने का कर्म करते हैं।
      शिक्षक दिवस पर राष्ट्रीय, राय स्तरीय आयोजनों से लेकर जिला व ब्लाक स्तरी आयोजन होने लगे हैं। कुछ समाजसेवी संस्थाएं भी शिक्षक दिवस का आयोजन करती हैं। यू तो समाज में बारहों मास शिक्षक की उपस्थिति रहती है और छात्रों के लिए शिक्षक अपने पालकों से ऊंचा दर्जा रखते हैं। ''सर ने कहा है'' - मतलब ब्रह्म वाक्य है और उसे हर हाल में पूरा करना है। एक दिन शिक्षक दिवस मनाना गलत नहीं है। शिक्षकों के अवदान को यूं तो जीवन भर याद किया जाता है। लेकिन किसी एक दिन उसे स्मरण कर उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर एक सांस्कृतिक परम्परा के तहत ही किया जाना माना जाना चाहिए। एक दिन शिक्षक दिवस मना लेने से क्या होता है, ऐसे नकारत्क प्रश्न हमारी सांस्कृतिक धारा की नासमझी के कारण उत्पन्न होते हैं। शिक्षक दिवस कोई औपचारिक ''स्मरण त्योहार'' नहीं है और न ही यह ''थैक्स गिविंग'' कार्यक्रम है। शिक्षक दिवस मनाना हमारे आंतरिक इच्छओं को सकारात्मक अभिव्यक्ति है। हम शिक्षक को याद करते हैं, केवल याद ही नहीं करते वरन् हम शिक्षक की महत्ता को स्वीकारते हैं और उसकी निरंतरता की कामना करते हुए ही धारणा को पुष्ट करने का प्रयोजन भी करते हैं। नई पीढ़ी को बताते हैं कि पुरानी पीढ़ी ने शिक्षक से जो पाया वह कितना अमूल्य है, इसलिए हमारा उस ''अमूल्य '' को प्रदान करने वाले शिक्षक  के प्रति हमेशा आदर भाव रखा जाए और शिक्षक की गरिमा को अक्षुण्ण रखा जाए। ऐसा कहना कोई अध्यात्मिक प्रवचन नहीं है।
      शिक्षक का या कहें गुरु का अवदान सर्वविदित है, फिर शिक्षक दिवस  मनाने की क्या जरूरत है। यह सवाल ठीक भी है। लेकिन इस सवाल का जवाब सामाजिक व्यवस्था के स्वरूप को परखने पर मिल जाता है। दरअसल सामंती और पूंजीवादी व्यवस्था अपने दायित्वों के निर्वहन में असफलताओं को ढांकने और समाज का ध्यान बंटाने तथा उन व्यस्थाओं के प्रति आस्थावान बनाए रखने के लिए ऐसे कुछ आयोजन करती रहती है। इस रूप में एक दिन का ''शिक्षक दिवस'' मना लेना बुर्जुआ व्यवस्था का चोचला भी है और इसीलिए आज शिक्षक दिवस एक आयोजन बनकर  रह गया है। क्योंकि देश में राय में शिक्षा की जो दुर्गति की जा रही है उससे आमजन कितना दुखी है, यह सर्ववदित है। इसलिए समाज भी अब शिक्षक दिवस को ढकोसला समझने लगा है और इस आयोजन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए ही कुछ सामाजिक संस्थाएं शिक्षक दिवस का आयोजन कर लेती हैं। उन्हें लगता है कि इस आयोजन से वे अनुपस्थित न रह जाएं। अब तो कुछ राजनीतिक दल भी शिक्षक दिवस जोर-शोर से मनाने लगे हैं और चुनाव वर्ष हो जाने की अवस्था में हर आयोजन की व्यापक रूप से मनाने के लिए उनके बीच होड़ सी लग जाती है। कोई दल किसी दूसरे दल से पीछे नहीं रहना चाहता और हर दल ''शिक्षक हितकारी'' की भूमिका में हाजिर होता है। यह विडम्बना है लेकिन जिस आर्थिक सामाजिक व्यवस्था में समाज रह रहा है उस व्यवस्था में ऐसी विडम्बना अनिवार्य है। इस व्यवस्था में शिक्षक दिवस मनाने बच्चों को शासकीय कार्यालयों से जो निर्देश प्रसारित किए जाते है, वे बड़े हास्यापद होते हैं। इसमें कुछ ऐसा ध्वनित होता है कि शिक्षक दिवस मतलब गुरु वंदना और गुरु को नमन करना बस। दरअसल यह व्यवस्था पूरे तंत्र की सोच को भी रूढ़ कर देती है और उस रूढ़िबध्दता को काटकर बाहर आने का अवसर नहीं देती। इसलिए शिक्षक दिवस केवल गुरु वंदना कार्यक्रम बनकर रह गया है जबकि इस दिन शिक्षक और शिक्षा को समग्रता से समझना चाहिए।
      अब तो शिक्षा पर सोचना अध्यात्मिक  चिंतन की तरह लगता है। लगता है हम शिक्षा पर सोच रहे हैं अथवा किसी काम की ''उलटबांसी का अर्च खोजने मगजपच्ची कर रहे हैं अथवा किसी कवि के कूट पद का अर्थ तलाश रहे हैं। शिक्षा का मामला बहुत ही उलझा हुआ हो गया है। एक तरफ सरकार है, सरकारी दावा है और हर साल शिक्षा सरकारी आंकड़े हैं तो दूसरी तरफ शिक्षा की जमीनी हकीकत खड़ी है। सरकार इस जमीनी हकीकत को जानती है लेकिन वह इसे स्वीकार नहीं करती उल्टे अपनी उपलब्धियों का बखान करने लगती है जबकि उसकी वह उपलब्धि है ही नहीं अपनी उपलब्धि के नाम पर सरकार कितने स्कूल खोले, कितने प्राथमिक स्कूल को मिडिल स्कूल बनाया गया और मिडिल स्कूल को हायर  सेकेण्डरी स्कूल बनाया गया। कितने कॉलेज खोले और कितने विश्वविद्यालय दर असल यह तो कोई कह ही नहीं रहा कि सरकार ने स्कूल - कॉलेज नहीं खोले और आज् ााद हो जाने के बाद भी जनता को शिक्षा से वंचित रखा जा नहीं सकता । अत: स्कूल कॉलेज खोलकर सरकार ने कोई एहसान तो किया नहीं है। इनसे ज्यादा स्कूल खूलने थे।             बहरहाल इन आंकड़ों पर प्रश्न नहीं उठता। प्रश्न ''शिक्षा'' पर उठता है। शिक्षा को लेकर उठता है। प्रश्न यह है कि लोकतांत्रिक देश में प्रारंभ से ही शिक्षा में वर्गभेद क्यों पैदा किया गया और इससे भी बढ़कर दु:ख की बात है कि वर्गभेद बढ़ा ही है। वैश्विक आर्थिक उदारीकरण की नीति का सबसे अधिक नुकसान शिक्षा को लेकर जनता को उठाना पड़ रहा है। एक तरफ निजी शिक्षण संस्थाएं हैं। उनकी फीस है और उनके अपने नियम कायदे हैं। दूसरी तरफ सरकारी स्कूल हैं। क्या शिक्षा को बाजार के हवाले कर सरकार ने समाज क कितना बड़ा नुकसान किया है। सरकार  ने शिक्षा को बाजार के हवाले कर आमजन में ''पूंजीवाद'' के प्रति समर्पण के भाव पैदा किए हैं और गैरबराबरी दूर करने के वायदवनों को कहीं अथाह गहराइयों में डाल दिया है। लोगों में यह समझ पैदा कर दी है कि यही उनकी नियति जैसा कि सामंतीकाल में वंचितों के मन में यह बिठा दिया गया था कि वंचित रहना ही उनके भाग्य में लिखा है। इस सर व्यवस्था को अपनाकर सरकार ने आमजन में यह धारणा पैदा कर दिया है कि उन्हें इसी शिक्षा व्यवस्था में अपना जीवन गढ़ना है। सरकारी स्कूल गरीबों के लिए उन्हें मुफ्त यूनिफार्म देकर , मिड डे मिल देकर मुफ्त पुस्तकें देकर भरमाएं रखों कि सरकार उनकी शिक्षा क ख्याल रखे हैं। ''शिक्षा का अधिकार'' नाम कर एक झुनझुना दिखाकर आमजन को भरमाओं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम केवल कागज् ाों में रह हाय है या एकाध परसेंट बाहर आ पाया हो। लेकिन  सरकार को अपनी पीठ थपथपाने के लिए एक अच्चा साधन मिल गया है। इन विसंगतियों के बीच भी देश भर में शिक्षक दिवस मनाया जाता है। वैसे इन विसंगतियों के लिए शिक्षक क्यों जवाबदार माने जाएं । शिक्षक दिवस पर शिक्षकों के अवदान पर चर्चा होनी चाहिए, जरूरी है। विसंगतियों के बीच भी वे अपना दायित्व व पूरा करते हैं। लेकिन सरकार को गलत  नीतियों के प्रति जागरूकता पैदा करना भी होना चाहिए। अगर सरकार की ऐसी ही नीति रही तो शिक्षा पर आगे और भी संकट आने वाला है। बड़ा कठिन समय आने वाला है। ऐसी खबरें छन-छनकर आ रही हैं कि सरकार कुछ सरकारी स्कूलों की देखरेख का जिम्मा एन.जी.ओ. को देने पर विचार कर रही है। वैसे कहीं-कहीं सरकारी एन.जी.ओ की निगरानी में दिए गए हैं। अब शिक्षा पर सरकार की नजर है। ऐसी स्थिति बड़ी भयावह होगी और ''शिक्षक दिवस'' अपना पूरा अर्थ खो देगा।
(शिक्षक दिवस के अवसर पर पूर्व में प्रकाशित सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार प्रभाकर चौबे का आलेख)

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