नागरिक अधिकार व अभिव्यक्ति की आज़ादी ही
एक सभ्य व परिपक्व लोकतंत्र की पहचान होती है । सहमति का विवेक और असहमति का
अधिकार ही लोकतंत्र की असली ताकत है । आज कॉंग्रेस अपने घोषणा पत्र में यदि धारा
124 ए को समाप्त करने व सशस्त्र
बल विशेषाधिकार अधिनियम (आफस्पा) पर पुनर्विचार की बात
कर रही है तो इसे अच्छा संकेत कहा जा सकता
है । राहुल गांधी की यह पहल 100 साल पहले अंग्रेजों द्वारा रॉलेट एक्ट के जरिए
नागरिक अधिकारों पर पाबंदी लगाने की मंशा के खिलाफ कॉंग्रेस के पुरजोर विरोध की
याद दिलाता है जिसके चलते जालियांवाला बाग नरसंहार हुआ था । 100 बरस हो गए जालियांवाला
बाग निर्मम हत्याकांड को। जालियांवाला बाग हमारे स्वतंज्ञता संग्राम की सबसे दर्दनाक
घटना है और अंग्रेजों की क्रूरता और जुल्म के सबसे शर्मनाक एपीसोड में एक है।
जालियांवाला बाग की 100वीं बरसी को याद करते हैं तो इसके मूल में नागरिक अधिकार
एवं अभिव्यक्ति की आजादी व असहमति का हक ही मुख्य मुद्दा कहा जा सकता है जिसकी
रक्षा के लिए लोगों ने कुर्बानियां दीं ।
100
साल पहले 1919 में इस रॉलेट एक्ट के तहत
अंग्रेजी हुकूमत को यह अधिकार प्राप्त हो जाता कि वह किसी भी भारतीय पर अदालत में
बिना मुकदमा चलाए और बिना सुनवाई उसे जेल में बंद कर सकती थी। इस क़ानून के तहत
अपराधी को उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज करने वाले का नाम जानने का अधिकार भी समाप्त कर
दिया गया था । आज से
100 साल पहले महात्मा गांधी के नेतृत्व में रॉलेट एक्ट का कॉंग्रेस ने देशव्यापी
विरोध किया था । रॉलेट एक्ट के खिलाफ पंजाब में जबरदस्त विरोध हुआ और जालियांवाला
बाग के पहले कुछेक स्थानो पर अंग्रेजों ने आंदोलनकारियों पर गोलियां भी चलाईं थीं
। इसी का जायजा लेने जब महात्मा गांधी पंजाब जा रहे थे तो उन्हें रोककर गिरफ्तार
कर लिया गया। यहां यह जानना भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि भारत की आज़ादी के आंदोलन
में गांधीजी की यह पहली गिरफ्तारी थी । रॉलेट एक्ट के देशव्यापी विरोध की कड़ी में
पंजाब में कॉंग्रेस के अग्रणी नेता सैफुद्दीन किचलू और डॉ सत्यपाल को भी गिरफ्तार
कर लिया गया था । नेताओं की गिरफ्तारी और रॉलेट एक्ट के खिलाफ अमृतसर के
जालियांवाला बाग में 13 अप्रैल बैसाखी के दिन विरोध प्रगट करने आहूत आम सभा के लिए
बड़ी संख्या में लोग जमा हुए थे । यह आदोलन पूरी तरह अहिंसक था मगर जनरल डायर ने
चारों ओर से घेरकर चेतावनी दिए बिना निहत्थी व अहिंसक भीड़ पर अंधाधुंध गोलियां
चलवाई जिसमें लगभग हज़ार से ज्यादा लोग शहीद हो गए थे और हजारों घायल हुए थे।
उल्लेखनीय है कि जालियांवाला बाग
नरसंहार के विरोध में
ही गुरुवर रवीन्द्रनाथ
टैगोर ने अंग्रजों द्वारा प्रदत्त ‘सर’ की उपाधि वापस की थी। आज भी अंग्रेज इस घटना
के लिए नैतिक रूप से माफी मांगने तैयार नहीं हैं। घचना के 60 साल बाद महारानी
एलिजाबेथ ने और कुछ साल पहले ही प्रधानमंत्री कैमरून ने शहीदों को श्रद्धांजली देकर
औपचारिकता निभाई।
ऐसा नहीं है कि इसके पहले अभिव्यक्ति की
आजादी व नागरिक अधिकारों को कुचलने के लिए कोई कानून नहीं था । धारा 124ए तब भी थी
,वही धारा 124ए जिसे आज कॉंग्रेस अपने घोषणा पत्र में प्रमुखता से समाप्त करने का
वादा कर रही है। धारा 124 ए दंड संहिता में 1870 में शामिल की गई । धारा 124ए के
बारीक पहलुओं व महीन व्याख्याओं पर तो कानूनविद व विद्वान ही अपनी राय दे सकेंगे
मगर मोटे तौर पर एक आमजन के लिए यह समझना काफी है कि यह धारा कहती है कि अगर कोई भी व्यक्ति भारत की सरकार
के विरोध में सार्वजनिक रूप से ऐसी किसी गतिविधि को
अंजाम देता है जिससे देश के सामने सुरक्षा का संकट पैदा हो
सकता है तो उसे उम्र कैद तक की सजा दी जा
सकती है साथ ही इन
गतिविधियों का समर्थन करने ,प्रचार-प्रसार करने पर भी किसी को
देशद्रोह का आरोपी माना जा सकता है। इन गतिविधियों में लेख लिखना, पोस्टर बनाना और कार्टून बनाना जैसे वे
रचनात्मक काम शामिल हैं जो अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता के
बुनियादी आधार हैं । यह सबसे पहले जन
चर्चा में तब आई जब 1908 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने अपने
समाचार पत्र केसरी में एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था- “देश
का दुर्भाग्य,” जिस पर इस धारा के तहत उन्हें छह साल की
सजा सुनाई गई । आज़ादी के आंदोलन के दौरान
इस धारा का इस्तेमाल महात्मा
गांधी, भगत सिंह जैसे कई सेनानियों पर किया जाता रहा । आश्यर्य की बात है कि इस
धारा से लगातार जूझने के बावजूद आजा़दी के पश्चात भी इसे समाप्त नहीं किया गया ।
शासित से शासकों में तब्दील होते ही आजाद भारत में भी सभी सत्तासीन ताकतों ने अपनी
सत्ता को बचाए रखने के लिए इस धारा का बहुत बेदर्दी से इस्तेमाल किया है ।
कुछ समय पहले
छात्र नेता कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के बाद इस धारा को लेकर एक
बार फिर देश भर में बहस उठी । दरअसल धारा124 ए में प्रावधान इतने अस्पष्ट हैं कि इनकी आड़ लेकर लोगों को आसानी से देशद्रोह का आरोपी बनाया जा सकता है । आजादी के बाद भी इस धारा के तहत बहुत से लोगों को इन्हीं अस्पष्ट प्रावधानों की आड़ में गिरफ्तार किया जा चुका है। इनमें सामाजिक कार्यकर्ता, नेता, आंदोलनकारी, पत्रकार, अध्यापक, छात्र छत्तीसगढ़ में तो सबसे ज्यादा प्रभावित आदिवासी क्षेत्रों के निरीह व निर्दोष आदिवासी शामिल हैं। ये लोग बरसों जेल में सड़ते रहते हैं और गरीब आदिवासियों की तो कोई सुनवाई भी नहीं होती । सवाल ये है कि इन गतिविधियों से पैदा होने वाले खतरे का आंकलन कैसे किया जाय। हालांकि 1962 में सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला धारा 124 ए के दायरे को लेकर कई बातें साफ कर चुका है, लेकिन आज भी इस धारा को लेकर अंग्रजों की राह का ही अनुसरण किया जा रहा है । इससे यह स्पष्ट होता है कि इस धारा को जारी रखने का उद्देश्य सरकार के खिलाफ बोलने वालों को सबक सिखाना ही है जो अंग्रेजों से लेकर आज तक बदस्तूर जारी है ।
बार फिर देश भर में बहस उठी । दरअसल धारा124 ए में प्रावधान इतने अस्पष्ट हैं कि इनकी आड़ लेकर लोगों को आसानी से देशद्रोह का आरोपी बनाया जा सकता है । आजादी के बाद भी इस धारा के तहत बहुत से लोगों को इन्हीं अस्पष्ट प्रावधानों की आड़ में गिरफ्तार किया जा चुका है। इनमें सामाजिक कार्यकर्ता, नेता, आंदोलनकारी, पत्रकार, अध्यापक, छात्र छत्तीसगढ़ में तो सबसे ज्यादा प्रभावित आदिवासी क्षेत्रों के निरीह व निर्दोष आदिवासी शामिल हैं। ये लोग बरसों जेल में सड़ते रहते हैं और गरीब आदिवासियों की तो कोई सुनवाई भी नहीं होती । सवाल ये है कि इन गतिविधियों से पैदा होने वाले खतरे का आंकलन कैसे किया जाय। हालांकि 1962 में सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला धारा 124 ए के दायरे को लेकर कई बातें साफ कर चुका है, लेकिन आज भी इस धारा को लेकर अंग्रजों की राह का ही अनुसरण किया जा रहा है । इससे यह स्पष्ट होता है कि इस धारा को जारी रखने का उद्देश्य सरकार के खिलाफ बोलने वालों को सबक सिखाना ही है जो अंग्रेजों से लेकर आज तक बदस्तूर जारी है ।
ऐसा भी नहीं है कि देशद्रोह या आतंकवाद के
खिलाफ इसके अलावा कोई और धारा भी नहीं है । रासुका, पोटा के अलावा सीमावर्ती प्रांतों में तो
सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम
(आफस्पा) जैसी प्रभावशाली धाराएं लगातार जारी हैं ,जिसे
लेकर शर्मिला इरोम लगातार 16 वर्षों तक अनशन करती रहीं मगर किसी भी सरकार के कानों
पर जूं तक नहीं रेंगीं । अतः भाजपा की इस
दलील में कोई दम नहीं कि 124 ए खत्म कर देने या सशस्त्र बल विशेषाधिकार
अधिनियम (आफस्पा) पर पुनर्विचार से आतंकवाद व
देशद्रोहियों को मदद मिलेगी । अपने जन्म
से ही धारा 124ए शासकों के लिए मुफीद
,सुविधाजनक व आसान हथियार की तरह रही है जिस पर शासक वर्ग को कोई ज्यादा विरोध का सामना नहीं करना पड़ता।
इसके बावजूद यदि राहुल गांधी नए परिदृश्य व परिस्थितियों में एक नई सोच के साथ धारा 124ए को समाप्त करने व सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (आफस्पा) पर
पुनर्विचार की बात कर रहे हैं तो हर समझदार व संवेदनशील
व्यक्ति को इसका स्वागत तो करना ही चाहिए साथ साथ इसे समाप्त करने के लिए दबाव भी
बनाना चाहिए क्योंकि ये धाराएं संविधान की उस भावना के खिलाफ भी है,
जिसके तहत लोकतंत्र में किसी भी व्यक्ति को अपनी
असहमति जताने का हक हासिल है। महज बाजारीकरण के ही सारे रास्ते खोल देने से ही
नहीं बल्कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों, असहमति का हक व अभिव्यक्ति की आजादी के
संरक्षण से ही नए भारत में स्वस्थ लोकतंत्र की राह मजबूत हो सकेगी।
(देशबन्धु- 12 अप्रैल 2019)
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति 102वां जन्म दिवस : वीनू मांकड़ और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteजी जरूर । आपका शुक्रिया
Deleteसुन्दर जानकारी पूर्ण लेख।
ReplyDeleteजी शुक्रिया आपका
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